गेहूं उत्पादन तकनीक(Wheat cultivation technology)-MP

परिचय(Introduction for Wheat cultivation)

भारत वर्ष में 1965 के बाद गेहूं/Wheat के उत्पादन में कई गुना वृद्धि होने से देश आयात से निर्यात की स्थिति में आ गया हैं। इस उत्पादन वृद्धि को हरित क्रान्ति की संज्ञा दी गई हैं। आज भारत 93.9 मिलियन टन गेहूं पैदा कर संसार में दूसरे स्थान पर पहुँच गया हैं। लेकिन बढती हुई आबादी को ध्यान में रखते हुए हमें गेहूं की पैदावार लगातार बढानी होगी। यदि हम 180 ग्राम गेहूं प्रति व्यक्ति प्रतिदिन दे तो हमें वर्ष 2020 तक लगभग 140 करोड़ पहुंची जनसंख्या को 109 मिलियन टन गेहूं की आवश्यकता पड़ेगी।

फसल उत्पादन में सफलता मुख्य तौर पर गुणवत्ता युक्त बीजों के प्रयोग पर निर्भर करती है। गुणवत्ता युक्त बीजों की उपलब्धता जरूरत के लिहाज से बहुत कम हैं भारतवर्ष 92 प्रतिशत कृषि भूमि पर गेहूं की बुआई किसान द्वारा स्वतः द्वारा किये गये अनाज से की जाती है जबकि 8 प्रतिशत भूमि में ही गुणवत्ता युक्त बीजों का प्रयोग किया जाता हैं। पंजाब, हरियाणा व उत्तर प्रदेश जैसे जो गेहूं उत्पादन में अग्रणी हैं, वहां भी बीज प्रतिस्थापन की दर 30 प्रतिशत से अधिक नही हैं। इस प्रकार इतने विशाल कृषि क्षेत्र में शुद्ध बीजों की अनुपलब्धा औसत राष्ट्रीय उत्पादन एवं उत्पादकता बढ़ाने में बहुत बड़ी बाधा हैं। अतः बीज उत्पादन प्रौद्योगिकी पैकेज के माध्यम से किसान द्वारा तैयार बीजों की गुणवत्ता में सुधार लाना बहुत महत्वपूर्ण हैं।

भारत वर्ष में गेहूं की तीन प्रजातियाँ बोयी जाती हैं, जिनमें मुख्य रूप से पिस्सी गेहूं का अपना विशेष स्थान हैं। इसके बाद कठिया गेहूं तथा तीसरी किस्म डाईकाकम गेहूं की हैं। जैसा कि विदित हैं कि गेहूं मुख्यतः चपाती बनाने के लिये ही बोया जाता हैं। इसी कारण पिस्सी का रकबा अधिक हैं। लगभग दो मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में कठिया गेहूं का उत्पादन किया जा रहा है जो मुख्यतः मध्यप्रदेश, रातस्थान, गुजरात एवं कर्नाटक के कुछ भाग में ही सीमित हैं। हालाकि पंजाब में भी कुछ इलाकों में कठिया गेहूं बोया जाने लगा हैं।

कठिया गेहूं के उत्पादन में अन्य राज्यों की तुलना में मध्यप्रदेश का एक विशेष स्थान हैं जो कि इसकी गुणवत्ता से संबंधित हैं। यही कारण है कि प्रदेश के कठिया गेहूं की मांग विदेशो में बढ़ती जा रही है यह गेहूं मैकरोनी, बेकरी उत्पादों के साथ-साथ स्फैगेटी, नूडल्स, सेमैया, उत्तपम, सूजी, बाटी, दलिया आदि बनाने के लिये उपयुक्त हैं।

वर्ष 1999-2000 के गेहूं का रकबा भारतवर्ष में 27.5 मिलियन हेक्टेयर से घट कर 2001-2002 में 25.5 मिलियन हेक्टेयर पर आ गया हैं। इसका कारण मौसम में बदलाव तथा अनियमितता हैं। गेहूं की अच्छी पैदावार देने वाले तीनों राज्यों उत्तरप्रदेश, पंजाब व हरियाणा के रकबे सूखे की वजह से कम हुये हैं।

पिछले वर्ष 2010-2011 (86.8 mt.) की तुलना में इस वर्ष 2011-2012 भारतवर्ष में गेहूं का उत्पादन आशा से अधिक रहा जो कि 93.96 (mt) 29.3 (mha.) रकबे से प्राप्त हुआ। इसी प्रकार मध्यप्रदेश का औसत उत्पादन भी बढा जो कि 27 क्विंटल/हेक्टेयर वर्ष 2011-2012 में प्राप्त हुआ। उत्पादन में बढोतरी बीज 31 प्रतिशत दर बदलाव एवं मौसम अनुकूल रहने से प्राप्त हुआ।

मध्यप्रदेश गेहूं के क्षेत्रफल की दृष्टि से अभी भी दूसरे स्थान पर है, परन्तु उत्पादन में अभी भी हम अन्य राज्यों से काफी पीछे हैं। इसका मुख्य कारण सिंचित भूमि की कमी हैं। प्रदेश में कुल सिंचित रकबा 5.2 लाख हेक्टेयर का है उसमें से 1 लाख हेक्टेयर रकबा पूर्ण सिंचाई के अन्तर्गत आता है शेष 4.2 लाख हेक्टेयर में 1 या 2 पानी देने की सुविधा मौजूद हैं।

अतः इतने बड़े भू-भाग के लिये उनके अनुरूप वातावरण हेतु गेहूं की नई जातियों का विकास एवं उसके सही उपयोग की महती आवश्यकता हैं। जो कम पानी तथा अधिक ताप को सहने की क्षमता रखती हो (असिंचित एवं अर्धसिंचित अवस्था के लिये) जहां पूर्ण पानी की सुविधा हैं वहां अधिक से अधिक पैदावार देने वाली जातियां जो रोगो के प्रति सहनशील हो तथा गुणवत्ता की दृष्टि से उत्तम हो। प्रदेश में मुख्यतः तीन दशाओं में गेहूं की खेती की जाती हैं (असिंचित एवं अर्धसिंचित, सिंचित एवं समय से बुआई एवं सिंचित एवं देर से बुआई) एवं तीनों परिस्थितियां वहां के वातावरण एवं स्थानीय स्त्रोतों पर निर्भर करती हैं। इस प्रकार गुणवत्ता युक्त गेहूं की खेती से अधिकाधिक लाभ लेने के लिये उसकी उन्नत किस्मों एवं उत्पादन तकनीक की जानकारी की महती आवश्यकता हैं।

 

गेहूं की अधिक पैदावार प्राप्त करने के मुख्य गुण

  1. क्षेत्र विशेष के लिये अनुशंसित की गई नवीनतम प्रजाति का चुनाव करें।
  2. प्रमाणित बीज की बोनीं करें।
  3. बीज को संस्तुत कवकनाशी द्वारा शोधित करने के उपरांत बोनी करें।
  4. खेत की तैयारी उपयुक्त ढंग से करें।
  5. समय से बुआई करें।
  6. मिट्टी की जांच के आधार पर उर्वरकों की मात्रा का निर्धारण करें।
  7. सूक्ष्म तत्वों की जांच के पश्चात् आवश्यकतानुसार उनका भी उपयोग अवश्य करें।
  8. खरपतवारों का उचित समय पर नियंत्रण उपयुक्त खरपवारनाशी रसायनों द्वारा करें।
  9. उचित समय पर और सही तरीके से सिंचाई करें।
  10. रोग एवं कीट नियंत्रण समय से करें।
  11. कटाई, गहाई में सावधानी बरतें।

 

गेहूं की बुआई का समय, तरीका एवं बीज की मात्रा (Sowing time,method and seed quantity of Wheat)

असिंचित(Unirrigated)

असिंचित गेहूं ही बुआई का समय 15 अक्टूबर से 31 अक्टूबर है इस अवधि में बुआई तभी संभव है जब सितम्बर माह में पर्याप्त वर्षा हो जाती हैं। इससे भूमि में आवश्यक नमी बनी रहती हैं। तथा तापमान भी अंकुरण के लिये अनुकूल हो जाता हैं। यदि वर्षा शीघ्र समाप्त हो जाती हैं। तथा सितम्बर माह खाली जाता हैं, तो ऐसी दशा में बोनी अक्टूबर माह के आरंभ में करना उचित होगा, परन्तु इस समय तापमान अधिक रहता हैं। इसलिये ऐसे समय में बोनी के लिये उपयुक्त जाति का चुनाव ज्यादा आवश्यक हो जाता है जिसका कि अंकुरण अधिक तापमान में भी अच्छा हो सकें। जबलपुर संभाग के बड़े भू-भाग में हवेली पद्धति प्रचलित हैं। जहां वर्षा ऋतु में एकत्रित जल को अक्टबर के मध्य में निकालना शुरू कर देते हैं। बतर आने पर भूमि में गेहूं की बोनी करने हैं।

असिंचित क्षेत्रो में कुछ ऐसे भी क्षेत्र है जहां एक या दो सिंचाई के साधन उपलब्ध हैं। ऐसी दशा में गेहूं की बोनी इन असिंचित क्षेत्रो में देर से भी की जा सकती है (10 नवम्बर तक)। उपरोक्त समस्याओ को ध्यान में रखते हुए गेहूं के लिये असिंचित दशा में खेती के लिये निम्नलिखित बातो की महती आवश्यकता है, जो कि बारानी क्षेत्रो में गेहूं की पैदावार बढ़ा सकती हैं।

नमी संरक्षण के लिये यह आवश्यक है कि समाप्ति के बाद जैसे ही खेत बतर में आवे उसकी सम पर जुताई करते रहें जिससे आवश्यक नींदा न हो सके एवं अधिक से अधिक मात्रा में वर्षा जल का संरक्षण हो सके। अच्छी पौध संख्या प्रति हेक्टेयर के लिये यह आवश्यक है कि किसान भाई वनज के हिसाब से बीज की मात्रा में निर्धारण करें एवं ध्यान रखें कि अन्डरसाइज के दाने, कटे-कटे दाने तथा रोग ग्रसित दानों को अलग कर लें । यदि बोये जाने वाले बीज के हजार दानों (1000 दानों) का वजन 38 ग्राम है तो 100 किलो प्रति हेक्टेयर बीज प्रयोग करें। हजार दानों का वनज 38 ग्राम से अधिक होने पर प्रति ग्राम 2 किलो प्रति हेक्टेयर बीज की मात्रा बढ़ा दें।

बोने के लिये बीज की मात्रा बीज के आकार के अनुसार 100 कि.ग्रा./हे. व कतारों के बीच दूरी 20 से.मी. रख सकते हैं। बुआई करते समय यह आवश्यक है कि बीज नमी युक्त क्षेत्र की गहराई में गिरे तथा गहराई 5-6 से. मी. से अधिक न हो।

 

सिंचित एवं समय से बोनी हेतु

सामयिक बोनी जिसमें नवम्बर का प्रथम पखवाड़ा उत्तम होता है, 15-25 नवम्बर तक सिंचित एवं समय वाली जातियों की बोनी आवश्यक कर लेना चाहिये। बीज को बोते समय 2-3 से.मी. की गहराई में बोना चाहिये जिससे अंकुरण के लिये पर्याप्त नमी मिलती रहे। कतारों से कतारें की दूरी 20 से.मी. रखना चाहिये । इस हेतु बीज की मात्रा औसतन 100 कि.ग्राम/हे. रखना चाहिये या बीज के आकार के हिसाब से उसकी मात्रा का निर्धारण करें तथा कतार से कतार की दूरी 18 से.मी. रखें।

 

सिंचित एवं देर से बोनी हेतु

पिछैती बोनी जिसमें दिसम्बर का पखवाड़ा उत्तम हैं। 15 से 20 दिसम्बर तक पिछैती बोनी अवश्य पूरी कर लेना चाहिये । आजकल खेत समय पर न खाली हो सकने की दशा में किसान भाई दिसम्बर के अंतिम पखवाड़े तक इसकी बोनी करते हैं तथा यह क्रम जनवरी तक चलता रहता है। पिछैती बुवाई में औसतन 125 किलो बीज प्रति हे. के हिसाब से बोना उपयुक्त रहेगा (देर से बोनी के लिये हर किस्म के बीज की मात्रा 25 प्रतिशत बढ़ा दें) तथा कतार की दूरी 18 से.मी. रखें।

 

गेहूं की उन्नत किस्में (Varieties of Wheat)

गेहूं का विपुल उत्पादन लेने के लिये सबसे महत्वपूर्ण चीज है उचित किस्मों का चुनाव। अपने प्रदेश के विभिन्नताओं एवं जलवायु के हिसाब से किसान भाईयों को उचित एवं उन्नत गेहूं की जातियों का चुनाव करना चाहिये जिससे कि वह उस जलवायु क्षेत्र में सही उत्पादन दे सकें । गेहूं की तीनों परिस्थितियों में खेती के हिसाब से उनकी किस्में भी भिन्न-भिन्न हैं जो कि उस परिस्थिति विशेष को सहते हुए अच्छा उत्पादन देने की क्षमता रखती है जिसकी जानकारी इस प्रकार हैं।

 

असिंचित एवं अर्द्धसिंचित क्षेत्रों के लिए

असिंचित क्षेत्रों के लिए अच्छी जातियों का विकास हुआ है जो कि बिमारियों एवं गुणवत्ता में इनसे उत्तम है तथा साथ ही इस किस्मों में अधिक ताप एवं कम नमी को सहने की क्षमता रहती है (प्रारम्भिक अवस्था में जिससे अधिक पौध संख्या बनी रहती है) जिनकी विस्तृत जानकारी निम्न है:-

क्रं. किस्म अवधि दिनों में औसत उत्पादन (क्विं. प्रति हे.) मुख्य गुण विशेषताएं

 

सी. 306 135-140 14-16 यह पिसी गेहूं की उत्तम प्रजाति है, चपाती के लिये उपयुक्त। दाना शरबती, बड़ा चमकदार एवं आकर्षक होता हैं। रतुआ एवं गेरूआ रोग के प्रति सहनशील नही हैं। चपाती के लिये सबसे उपयुक्त, एक एवं दो पानी देकर उत्पादन दो से ढाई गुना ज्यादा ले सकते हैं।
सुजाता 135-140 14-16 दाना शरबती, बड़ा एवं चपाती के लिये उत्तम, चमकदार, पिसी प्रजाति रतुआ एवं गेरूआ के लिये सहनशील नही हैं। अर्धसिंचित अवस्था में इसका उत्पादन दो से ढाई गुना ज्यादा ले सकते हैं।
जे. डब्ल्यू 17 130-135 16-18 दोनों का रंग शरबती बड़ा, आकर्षक एवं चमकदार होता हैं। यह पिसी गेहूं की बोनी प्रजाति हैं। यह रतुआ एवं गेरूआ के प्रति सहनशील हैं। चपाती के लिये उपयुक्त

तथा अर्धसिंचित अपस्था में उपज 30-32 क्विं./हे. प्राप्त होती हैं।

एच. डब्ल्यू 2004 (अमर) 135-140 16-18 यह जाति सी -306 के सुधार द्वारा विकसित की गई हैं। उंची प्रजाति है, दाना चमकदार बड़ा एवं आकर्षक होता हैं। बीमारियों के प्रति सहनशील। चपाती के लिये उपयुक्त, अर्धसिंचित अवस्था में उत्पादन 30-32 क्विं/हे. प्राप्त किया जा सकता हैं।
एच. आई 1500 (अमृता) 130-135 16-18 एच.डब्ल्यू 2004 एवं सुजाता के समान है दाना बड़ा, शरबती, चमकदार, रोगों के प्रति सहनशील तथा मध्यम ऊँचाई की प्रजाति| असिंचित अवस्था एवं चपाती के लिये उपयुक्त|
जे.डब्ल्यू 3020 120-125 18-20 नई प्रजाति, मध्यम ऊँचाई, लंबी बालिया, दाना लंबा चमकदार, आकर्षक, शरबती न गिरने वाली, रोगों के प्रति सहनशील चपाती एवं गुणवत्ता में उपयुक्त असिंचित एवं अर्धसिंचित के लिये उपयुक्त, एक पानी में 25 से 30 एवं दो पानी में 30 से 35 क्विं/हे. उपज
जे डब्ल्यू 3173 125-130 20-22 नई प्रजाति, मध्यम ऊँचाई, लंबी बालिया, दाना लंबा चमकदार, आकर्षक, शरबती न गिरने वाली, रोगों के प्रति सहनशील चपाती एवं गुणवत्ता में उपयुक्त| असिंचित एवं अर्धसिंचित के लिये उपयुक्त, एक पानी में 25 से 30 एवं दो पानी में 30 से 35 क्विं/हे. उपज|
जे.डब्ल्यू 3211 115-120 40-45 नई प्रजाति, मध्यम ऊँचाई, लंबी बालिया, दाना लंबा चमकदार, आकर्षक, शरबती, प्रति बाली दानों की संख्या अधिक रोगों के प्रति सहनशील चपाती एवं गुणवत्ता में सुजाता के समान अर्धसिंचित के लिये उपयुक्त, एक पानी में 24 से 30 एवं दो पानी में 35 से 40 क्वि./हे. उपज ।
जे.डब्ल्यू 3269 115-120  

40-45

नई प्रजाति, मध्यम ऊँचाई, लंबी बालिया, दाना लंबा चमकदार, आकर्षक, शरबती न गिरने वाली, रोगों के प्रति सहनशील चपाती एवं गुणवत्ता में उपयुक्त| अर्धसिंचित के लिये उपयुक्त, एक पानी में 25 से 30 एवं दो पानी में 40 से 45 क्वि./हे. उपज|
१० जे.डब्ल्यू 3288

 

120-122

 

20-22

 

नई प्रजाति, मध्यम ऊँचाई, लंबी बालिया, दाना लंबा चमकदार, आकर्षक, शरबती न गिरने वाली, रोगों के प्रति सहनशील चपाती एवं गुणवत्ता में उपयुक्त अर्धसिंचित के लिये उपयुक्त, एक पानी में 25 से 30 एवं दो पानी में 35 से 40 क्वि./हे. उपज
११ एच.आई. 8627 (मालवकीर्ति) 130-135 16-18 कठिया गेहूं की नई प्रजाति, दलिया, सूजी, मैदा के लिये उपयुक्त, दाना लंबा एवं चमकदार, रोगों के प्रति सहनशील अर्धसिंचित एवं असिंचित क्षेत्रों के लिये उपयुक्त
१२ एच. आई

1531 (हर्षिता)

130-135 18-20 मध्यम ऊँचाई, दाना शरबती, मध्यम आकार का, रोगों के प्रति सहनशील असिंचित एवं अर्धसिंचित के लिये
१३ एच. डी. 4672 (मालवनत्न) 130-135 18-20  

कठिया गेहूं की नई प्रजाति, दाना लंबा, आकर्षक एवं चमकदार गेरूआ एवं अन्य बीमारियों के प्रति सहनशील को बढ़ा सकते हैं।

 

मैदा, सुजी, दलिया तथा सेवईयां, नूडल्स के लिये उपयुक्त 1 या 2 पानी देकर उपज 35-40 क्विं/हे. हो सकते हैं।

 

सिंचित एवं समय से बोनी हेतु

बोनी एवं अधिक उत्पादन देने वाली प्रजातियों में ज्यादातर मैक्सिकन गेहूं की जातियां हैं जो सिंचित अवस्था के लिये समय से एवं देर से बोने के लिये उत्तम है इन किस्मों की विस्तृत जानकारी इस प्रकार हैं:-

क्रं. किस्म अवधि दिनों में औसत उत्पादन (क्विं प्रति हे.) मुख्य गुण विशेषताएं

 

1 डब्ल्यू एच. 147 115-120 45-50

 

बौनी प्रजाति, चपाती के लिये उपयुक्त दाना अंबर, मध्यम आकार का कठोर होता हैं। यह पुरानी प्रजाति है और इसमें सभी प्रकार की बीमारियां आती हैं गेरूआ के प्रति सहनशील नहीं हैं।
2 जी. डब्ल्यू 273 115-120 55-60

 

पिसी गेहूं की नई प्रजाति चपाती के लिये उपयुक्त, दाना मध्यम आकार का चमकदार एवं आकर्षक अच्छे रख-रखाव में अधिक उपज देती है, सभी रोगो के लिये सहनशील
3 जी.डब्ल्यू 322 115-120 60-62

 

सिंचित अवस्था की बिलकुल नई प्रजाति, दाना शरबती, बड़ा चमकदार एवं चपाती के लिये उपयुक्त, सभी रोगो के प्रति सहनशील पिसी गेहूं की नयी प्रजाति जो अच्छे रख रखाव में सबसे अधिक उत्पादन देती है
4 जे. डब्ल्यू 1142 110-115

 

55-60

 

सिंचित अवस्था के लिये शीघ्र पकने वाली बालियां गसी हुई दाना अंबर, चमकदार, सभी बिमारियों के लिये सहनशील सिंचित एवं समय से एवं देर से दोनों अवस्थाओं के लिये उपयुक्त
5 एच.आई. 1479 (स्वर्णा) 115-120

 

55-60 दाना शरबती, चमकदार, मध्यम आकार का रोगों के प्रति सहनशील चपाती के लिये उपयुक्त
6 एच.आई. 8498 (मालशक्ति) 115-120

 

55-60 दाना, बड़ा, लम्बा, अंबर एवं आकर्षक रोगो के प्रति सहनशील कठिया गेहूं की अधिक उत्पादन देने वाली जाति जिसमे कठिया के सभी गुण मौजूद है
7 एम.पी.ओ. 1106 (सुधा) 115-120

 

55-60 मध्यम उंचाई की दाना आकर्षक व अंबर तथा रोगो के प्रति सहनशील कठियां गेहूं की उन्नत किस्म

 

8 जे.डब्ल्यू 1201 115-120

 

55-60 सिंचित अवस्था के लिये वि.वि. द्वारा विकसित नई किस्म, शीघ्र पकने वाली, बालियां गसी हुई, दाना अंबर, चमकदार, सभी बिमारियों के लिये सहनशील सिंचित समय से बोनी के लिये उपयुक्त

 

9 जी. डब्ल्यू 366 115-120

 

55-60 सिंचित अवस्था के लिये शीघ्र पकने वाली, बालियां गसी हुई, दाना अंबर, चमकदार, सभी बिमारियों के लिये सहनशील सिंचित समय से बोनी के लिये उपयुक्त
10 जे.डब्ल्यू 1215 115-120

 

55-60 सिंचित अवस्था के लिये वि.वि. द्वारा विकसित कठिया गेहूं की नई किस्म, दाना अंबर, चमकदार, सभी बिमारियों की लिये सहनशील सिंचित समय से बोनी के लिये उपयुक्त
11 एच. आई. 1544 115-120

 

55-60 नई प्रजाति, दाना चमकदार और रोगों के प्रति सहनशीलता सिंचित समय से बोने के लिये उत्तम

 

 

सिंचित एवं पिछैती बोनी के लिये

पिछैती बोनी का तात्पर्य सिंचित गेहूं की उस अवस्था से है जहां समय पर अर्थात् नवम्बर माह में गेहूं की बोनी न कर पाने पर हम उचित जातियों का चुनाव कर दिसम्बर माह में बोनी करते हैं। जबलपुर संभाग में तथा आसपास धान, सोयाबीन एवं अक्रेल मटर की खेती किसान करता है एवं इसके बाद उसे दिसम्बर में गेहूं की खेती के लिये शीघ्र पकने वाली एवं अच्छा उत्पादन देने वाली गेहूं की किस्मों की आवश्यकता होती है जिसकी जानकारी एवं विशेषता इस प्रकार हैं।

क्र. किस्म अवधि दिनों में औसत उत्पादन (क्विं प्रति हे.) मुख्य गुण विशेषताएं
1 लोक 1 105-110 42-45 यह प्रजाति किसानों में अधिक लोकप्रिय, दाना बड़ा, अंबर तथा पौधा मध्य उंचाई का, चपाती के लिये उपयुक्त, सभी रोगों से प्रभावित यह पुरानी प्रजाति हैं। बालियों से दाने झड़ते नही हैं। अर्ध सिंचित अवस्था में भी फसल लेने लायक एवं अधिक ताप सहने योग्य।
2 जी डब्ल्यू 173 100-105 40-42 दाना चमकदार, मध्यम कठोर अंबर रंग का सभी रोगों के प्रति सहनशील शीघ्र पकने वाली, दिसम्बर एवं जनवरी माह के लिये उत्तम।
3 डी.एल. 788-2 (विदिशा) 105-110 43-45 यह पिसी गेहूं की नई प्रजाति है बालियां कसी दाना बड़ा एवं चमक लिये हुए, रोगो के प्रति सहनशील। लोक-1 की जगह बोने हेतु नई प्रजाति जिसकी अनुशंसा भारतीय स्तर पर की गई हैं।
4 एच.आई.1454 (आभा) 105-110 45-50 दाना मध्यम, चमकदार, शरबती रोगो के प्रति सहनशील पकने पर लाल भूरे रंग की दिखाई देती है।
5 एच.आई. 1418 (नवीन चन्दौसी) 105-110 45-50 मध्य ऊंचाई की, शीघ्र पकने वाली, दाना शरबती रोगों के प्रति सहनशील चपाती के लिये उत्तम
6 जे.डब्ल्यू 4010 105-110 45-50 दाना आकर्षक, बड़े आकार का, चपाती के लिये उपयुक्त यह सभी रोगों के प्रति सहनशील हैं। पिछैती बोनी के लिये उपयुक्त।
7 एच.डी. 2864 105-110 47-50 नई प्रजाति, दाना, मध्यम, चमकदार, रोगों के प्रति सहनशील पिछैती बोनी के लिये उपयुक्त, पकने के बाद भूरे रंग की दिखाई देती हैं।
8 जे.डब्ल्यू 1202 105-110 45-50 यह पिसी गेहूं की नई प्रजाति है दाना आकर्षक, बड़े आकार का, चपाती के लिये उपयुक्त यह सभी रोगों के प्रति सहनषील हैं। नई प्रजाति पिछैती बोनी के लिये उपयुक्त
9 जे.डब्ल्यू 1203 105-110 45-50 यह पिंसी गेहूं की नई प्रजाति है दाना आकर्षक, बड़े आकार का, चपाती के लिये उपयुक्त साथ ही साथ प्रोटीन की प्रचूरमात्रा, सभी रोगों के प्रति सहनशील हैं। नई प्रजाति पिछैती बोनी के लिये उपयुक्त
10 एच.डी. 2932 105-110 45-50 दाना, मध्यम, चमकदार, रोगों के प्रति सहनशील तथा उत्पादन में एच.डी. 2864 से अच्छी पिछैती बोनी के लिये उपयुक्त
11 जे.डब्ल्यू 3336 100-115 47-50 नई प्रजाति, इसी वर्ष 2013 में अनुशंसित हुई पिसी गेहूं की नई प्रजाति है दाना आकर्षक, बडे़ आकार का, चपाती के लिये उपयुक्त यह सभी रोगों के प्रति सहनशील हैं। नई प्रजाति पिछौती बोेनी के साथ साथ जनवरी माह में बोने के लिये उपयुक्त।

 

गेहूं उत्पादन हेतु संतुलित खाद एवं उर्वरक का प्रयोग( Fertilizers used in Wheat)

संतुलित खाद का अर्थ है कि किसी स्थान विषेश की मिट्टी फसल और वातावरण के आधार पर उपयुक्त उर्वरकों (नत्रजन, स्फुर व पोटाश) का प्रयोग। उर्वरक का प्रयोग यदि किसान भाई अपनी खेत की मिट्टी परीक्षण के बाद करें तो ज्यादा लाभदायी रहेगा। ज्यादातर सूक्ष्म तत्वों का निर्धारण खेत की मिट्टी परीक्षण के बाद ही किया जाता हैं। हमारे विश्वविद्यालय के मुद्रा विभाग द्वारा किये गये सर्वेक्षण से प्रदेश के 27 जिलों में जिंक की कमी पायी गई एवं शेष बचे जिलो में यह कार्य प्रगति पर हैं। फसलों में रासायनिक खाद को हमेशा बीज के नीचे जड़ों के आसपास देना उपयोगी होता हैं। खाद को कभी भी बिखेर कर नही देना चाहिये।

 

गेहूं की फसल में खाद देने के समय एवं विधि

उर्वरक बीज बोने से पहले सीड ड्रिल द्वारा जमीन में 10 से.मी. की गहराई पर डालना चाहिये या बोनी के समय डबल पोर फड़क द्वारा बीज से 5 से.मी. नीचे डालना चाहिए। गेहूं की फसल में स्फूट व पोटाश की पूरी मात्रा बोनी के समय देनी चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा बोनी के समय एवं बची हुई आधी मात्रा को दो हिस्सों में बांटकर पहली और दूसरी सिंचाई के साथ युरिया का भुरकाव करके देनी चाहिए। अगर सिंचाई की व्यवस्था कम हो तो नत्रजन की शेष आधी मात्रा पहली सिंचाई के साथ देना चाहिए। असिंचित खेती में उर्वरकों की संपूर्ण मात्रा बुआई के समय ही देना उचित होगा।

यदि खेत में जस्ते की कमी हो तो इसके लिये जिंक सल्फेट की 25 किलो मात्रा प्रति हे. के हिसाब से 2-3 साल के अन्तर से प्रयोग में लावें।

 

परिस्थितियों के अनुसार उर्वरकों का प्रयोग

चूँकि गेहूं की खेती 3 विभिन्न दशाओं में की जाती है तथा दशाओं के अनुसार उसकी किस्में, सिंचाई एवं खाद की मात्रा अलग-अलग है दशाओं के हिसाब से नत्रजन, स्फुर एवं पोटाश का कितना उपयोग लाभकारी होगा इसकी विस्तृत जानकारी तालिका क्रमांक-१ में दी गई हैं।

 

गेहूं में तत्वों की कमी के लक्षण

  1. नाइट्रोजन की कमी के कारण पत्तियों के किनारे पीले पड़ जाते है और फसल पीली दिखने लगती है जिसके कारण दाने बहुत ही छोटे बनते हैं।
  2. फास्फोरस (स्फुर) की कमी के कारण पत्तियों के किनारे बेगनी भूरे रंग के होने लगते हैं।
  3. जस्ता की कमी के कारण तीसरी चैथी पत्तियां सफेदी लिये होती हैं जिसके कारण पौधों की बढ़मार कम हो जाती हैं।
  4. पोटाश की कमी से इंडिया कमजोर और कोमल हो जाती है तथा दानों की चमक कम हो जाती हैं।
तालिका क्रमांक –1

सूक्ष्म तत्वों का महत्व, सीमा एवं स्त्रोत

सूक्ष्म तत्वों के उपयोग के लिये भूमि में उसकी पहचान, सीमा, स्त्रोत तथा पूर्ति की मात्रा की जानकारी बहुत ही आवश्यक है जो इन तत्वों के सही उपयोग का रास्ता बनाती हैं।

सूक्ष्म तत्व पहचान सीमा मि.ग्रा/कि.ग्रा. स्त्रोत सुपर फास्फेट सिफारिस कि.ग्रा./हे.
गंधक नवीन पत्तियों की किनारे पीली हो जाती है और ज्यादा कमी होने पर क्रमशः बढ़ती जाती हैं। 8.0 जिप्सम 20-30
जस्ता पत्तियों पर पीले चिटटे पड़ जाते हैं 0.8-1.0 जिंक सल्फेट जिंक ई.डी.टी.ए. 25-20 जि.स. 0.5 जि.स. + 0.5 चूना
आयरन पत्तियों का मध्यभाग लाल रंग का दिखाई देता हैं। 0.7-1.12 आयरन सल्फेट व आयरन ई. डी.टी.ए. 10-20
तांबा, बोरान मेग्नीशियम पौधों में उपयोग न के बराबर होता हैं।

 

प्रयोग कब और कैसे करें

खड़ी फसल में छिड़काव के द्वारा तथा बुआई पूर्व मृदा की जांच उपरांत खेत की तैयारी के समय अंतिम बखरनी के पहले मिला दें।

 

संतुलित खाद के लिये

  1. फसल की बाढ़ संतुलित होती है जिससे अनायास पौधा गिरता नही हैं।
  2. डपज में बढ़ोतरी होती हैं।
  3. मृदा का स्वास्थ ठीक एवं उर्वरा शक्ति स्थिर बनी रहती हैं।
  4. उत्पादित फसल की गुणवत्ता ठीक रहती है जिससे बाजार भाव सही प्राप्त होता हैं।
  5. तीनों मुख्य तत्वों में से एक की कमी होने पर दूसरे तत्वों की उपलब्धता को प्रभावित करती हैं।
  6. खाद की मात्रा एवं लेने जाने वाली फसल में तालमेल आवश्यक हैं।

 

भूमि की उर्वरा शक्ति बनाये रखने के लिये कुछ उपयोगी सुझाव

  1. हर दो या तीन वर्ष में एक बार अपने खेतों में सड़ी हुई गोबर की खाद (200-250 क्विं प्रति हे.) या कम्पोस्ट या वर्मीकम्पोस्ट आदि का उपयोग ठीक होगा।
  2. मुर्गी की खाद 2.5 टन/हे. एवं हरी खाद जिसमें ढेंचा या सनई हो 30-35 दिन की फसल को जुताई कर खेत में मिला दें।
  3. खेतों की मिट्टी की जांच करवाने से रासायनिक उर्वरक की मात्रा की जानकारी प्राप्त हो जाती हैं।
  4. खरपतवार से मुक्त खेत में यूरिया का छिड़काव करने से गेहूं की फसल को अत्याधिक लाभ प्राप्त होता हैं।
  5. उर्वरकों के उपयोग के दौरान खेत में पर्याप्त नमी होना चाहिए।

 

गेहूं  की सिंचाई एवं जल प्रबंधन (Irrigation of Wheat)

पौधो की वृद्धि एवं विकास के लिये आवश्यक जल की आपूर्ति जब भूमिजल द्वारा नही हो पाती है तो पौधों की जलपूर्ति कृत्रिम रूप से करना पड़ती है, जिसे सिंचाई कहा जाता हैं।

महत्वपूर्ण तथ्य
  1. भूमि में नमी होने से पौधे भोज्य पदार्थो को घोल के रूप में आसानी से ले सकें।
  2. बीजों के अंकुरण और पौधों की वृद्धि के लिये आवश्यक परिस्थिति बनाने के लिए ।
  3. नमी युक्त भूमि से पौधों की वृद्धि हेतु अनुकूल वातावरण मिलता हैं।
  4. जड़ो की वृद्धि व विकास के लिए आवश्यक परिस्थिति तैयार करने के लिए।
  5. भूमि की कठोर परतों को ढीला करने के लिए ।
  6. चयनित किस्मों में उनकी क्रांतिक अवस्थाओं पर सिंचाई करने के लिए।

 

सिंचाई कब करें ( Time of Irrigation )

जब मिट्टी में समाहित जल की कमी हो जासे जिससे पौधे की वृद्धि एवं विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना हो तो सिंचाई करना आवश्यक हो जाता हैं। निम्न विधियों द्वारा पानी की आवश्यकता के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

1 पौधे के बाह्य गुणों को देख कर –  जल की कमी होने पर पौधों में निम्न परिवर्तन हो सकते हैं।

  1. पत्तियाँ मुरझाने व ऐठने लगती हैं।
  2. तना झुकने लगते है।

2 भूमि की दशा और गुण देखकर – पौधों की जड़ो के पास की मिट्टी लेकर मुट्ठी में दबाने व फेकने पर बिखनती नही है जिससे जल की आवश्यकता की जानकारी ज्ञात होती है।

3 क्रांतिक अवस्थाओं को जानकर – सीमित जल को उसकी क्रांतिक अवस्थाओ पर सिंचाई करके वांछित उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं। जल की उपलब्धता के अनुसार उनका उपयोग किन-किन क्रांतिक अवस्थाओं में करना चाहिए उसकी जानकारी तालिका क्र. 2 दी गई हैं।

 

सिंचाई कैसे करें(Method of  Wheat irrigation)

सिंचाई का मुख्य उद्देश्य कम पानी से कम समय में अधिकाधिक जल का उपयोग करना हैं। सामान्यतः गेहूं की फसल को एक सिंचाई में 7-8 से.मी. पानी की आवश्यकता होती हैं। सिंचाई मुख्यतः बार्डर पद्धति व फुहार पद्धति द्वारा की जाती हैं।

1 क्यारी पद्धति –

इस पद्धति में नाली द्वारा दूर दूर तक पानी ले जाया जाता है, जिससे अधिकांश जल नालियों द्वारा रिसकर व्यर्थ जाता हैं। जहां ट्यबवेल द्वारा पानी दिया जाता हैं। वहाँ के अधिकांस किसान क्यारी बनाकर सिंचाई करते हैं जिससे पानी लगाने की क्षमता मात्र 40-50 प्रतिशत तक ही रहती हैं। इसमें नालियों व मेड़ों में 10-15 प्रतिशत भूमि व्यर्थ में जाती हैं।

2 फुहार (स्प्रिंकलर) पद्धति –

इस विधि से जल की उचित मात्रा का उपयोग होता है व अधिक क्षेत्रफल में कम समय में सिंचाई की जा सकती है समतल जमीन के साथ-साथ ऊँची-नीची जमीनों के लिए यह विधि उत्तम पायी गयी हैं।

3 बार्डर पद्धति –

इस पद्धति द्वारा पानी लगाने के लिए खेत को लंबी-लंबी पट्टियों में बांट दिया जाता हैं इन पट्टियों की चैड़ाई 3-4 मीटर रखते हैं दो बार्डरों के बीच 30 से.मी. चैड़ी व 20-25 से.मी. ऊँची मेढ़ बनाई जाती हैं। दोनों मेढ़ो के बीच में पानी फैलकर आसानी से फसल को मिल जाता हैं। इस विधि से 60-70 प्रतिशत सिंचाई क्षमता मिल जाती है और क्यारी पद्धति के तुलना में 20-30 प्रतिशत पानी की बचत भी की जा सकती हैं।

 

तलिका क्र. 2 – जल की उपलब्ध्ता एवं विभिन्न क्रांतिक अवस्थाओं पर उनका प्रयोगं

गेहूं की विभिन्न किस्मे जल की उपलब्धता (सिंचाई के लिये) क्रांतिक अवस्था बोने के कितने दिन बाद
1 देशी किस्में एक सिंचाई की सुविधा होने पर

दो सिंचाई की सुविधा होने पर

1 शीर्ष जड़ प्रारंभ होना

 

1 शीर्ष जड़ प्रारंभ होना

2 गबोट के समय

25-30

 

25-30

70-75

2 बोनी किस्में एक सिंचाई 1 किरीट जड़ प्रारंभ होना 20-25
दो सिंचाई उपलब्धता में 1 किरीट जड़

2 पुष्पन अवस्था

20-25

80-85

तीन सिंचाई उपलब्धता में 1 किरीट जल अवस्था

2 गांठे बनने की अवस्था

3 दूधिया अवस्था

20-25

60-65

100-105

चार सिंचाई उपलब्धता में 1 किरीट जल अवस्था में

2 कल्ले फूटने पर

3 फूल अवस्था में

4 दूधिया अवस्था में

 

20-25

40-45

70-75

100-105

पांच सिंचाई उपलब्धता में 1 किरीट जड़ अवस्था में

2 कल्ले फूटने पर

3 फूल अवस्था में

4 दूधिया अवस्था में

5 दाना पड़ने पर

20-25

40-45

80-85

100-105

108-110

छः सिंचाई उपलब्धता में 1 किरीट जड़ अवस्था में

2 कल्ले फूटने पर

3 गांठे बनने पर

4 फूल बनने पर

5 दूधिया अवस्था पर

6 दूधिया सूखने पर

20-25

40-45

60-65

80-85

100-105

112-117

 

खरपतवार प्रबंधन ( Weed Management )

गेहूं की फसल में भरपूर उपज प्राप्त करने के लिए जहां समय पर बंआई करना, उन्नत जातियों का चयन, संतुलित खाद की मात्रा, उचित सिंचाई व्यवस्था करना व अन्य कृषि कार्य करना आवश्यक होते हैं, वही समय पर नींदा नियंत्रण के समुचित उपाय करना भी एक महती आवश्यकता होती हैं। नीदा नियंत्रण के अभाव में उन्नत कृषि तकनीक उपयोगी सिद्ध नही होती हैं। खरपतवार प्रकाश, नमी, पोषक तत्वों व स्थान के लिये फसल के पौधों से प्रतिस्पर्धा कर फसलों के उत्पादन में गंभीर गिरावट लाते हैं। गेहूं की फसल में नींदा नियंत्रण के अभाव में 16-30 प्रतिशत उपज में कमी हो सकती है, जो नींदाओं की किस्म उनकी सघनता, अनियंत्रत रखे जाने की अवधि तथा नींदा नियंत्रण के स्तर पर निर्भर करती हैं।

 

नींदा नियंत्रण की पद्धतियां

1 हाथ से नींदा नियंत्रण – यह एक प्रभावशाली नियंत्रण पद्धति है जिसमें खुरपी द्वारा नींदा नियंत्रण किया जा सकता हैं।

2 कृषि यंत्रों से नींदा नियंत्रण – इस पद्धति द्वारा नींदा नियंत्रण कतार पद्धति में बाये गये खेतों में ही कर सकते हैं। इसके लिये तादुत्तीह गुरमा या हेंड वीडर गेहूं में पहली सिंचाई के पहले या बाद में मनुष्यों द्वारा आसानी से चलाकर नींदा को नियंत्रित किया जा सकता हैं।

 

यांत्रिक विधि

यह पद्धति सबसे प्रभावी पद्धति हैं। नींदा में बुआई के तुरंत बाद या बुआई के 30-35 दिनों के अंदर नींदा नाशी सकरी पत्ती वाले खरपतवारों के लिए दवाई के प्रयोग से नियंत्रित किया जा सकता हैं।

  1. गुल्ली डंडा (फेलेरिस माइनर) हेतु आइसोप्रोट्यूरान का प्रयोग 0.75 किलोग्राम सक्रिय तत्व/हे. की दर से बोनी के 30-35 दिन के भीतर करें।
  2. मैटाक्जूरान का प्रयोग 1.5 कि. ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हे. की दर से बोआई के 30-35 दिन के भीतर करें।
  3. पैंडीमैथीलीन (स्टाम्प) का प्रयोग 1 किलोग्राम सक्रिय तत्व /हे. की दर से बोआई के 24 घंटे के भीतर करें (प्रीइमरजेन्स)

चैड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के लिए – 2,4 डी इस्टर का प्रयोग 0.4 किलोग्राम सक्रिय तत्व की दर से बोनी के 30-35 दिन के अंदर करें। ये दवायें चैड़ी पत्ती वाले नींदा जैसे-बथुआ, सेंजी, अकरी, जंगली मटर आदि के नियंत्रण मे कारगर हैं। आइसोप्रोट्यूरान के घोल में यदि थोड़ा सा यूरिया मिला दिया जाये तो इस दवा का असर बढ़ जाता हैं। यह रसायन सकरी पत्ती वाले नींदाओं के अतिरिक्त कुछ चैड़ी पत्ती वाले नींदाओं को भी नष्ट करता हैं।

अगर खेत में चैड़ी एवं सकरी पत्ती वाले खरपतवार दोनों हो तो आइसोप्रोट्यूरान तथा 2,4 डी नामक दवाओं अथवा आइसोगार्ड-प्लस की संस्तुत की गई मात्राओं को उपयोग में लाया जा सकता हैं।

 

महत्वपूर्ण सुझाव (Important Suggestions)

  1. खरपतवार नाशियों का छिड़काव पहली सिंचाई के एक सप्ताह बाद ही करें ताकि उपयुक्त नमी उपलब्ध हो व खरपतवार अंकुरित हो जायें।
  2. खरपतवारनाशी तथा पानी के उचित मिश्रण का उपयोग करें।
  3. दवाई का छिड़काव धूप में ही करें।
  4. छिड़काव उपरांत भूमि को न छेड़े
  5. ड्यूरम या कठि या गेहूं में आइसोप्रोटयूरान की मात्रा घटाकर 0.5 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व/हे. कर दें तथा 3-4 दिन बाद स्प्रे करें।
  6. रेतीली जमीन में खरपतवारनाशियों का प्रयोग न करें।
  7. दवा का छिड़काव स्प्रेयर में फ्लेट फेन नोजल से करना चाहिए।
  8. छिड़काव एक समान मात्रा में करना चाहिए। इसके लिये कम से कम 600-800 ली./हे. पानी का उपयोग अवश्य करें।
  9. दानेदार नींदानाशक दवाओं के प्रयोग के लिए खेत की मिट्टी ढेले रहित होना चाहिए एवं दानो का विवरण एक समान होना चाहिए।
  10. नींदानाशक दवा का छिड़काव करते समय हाथ में रबर के दास्ताने व आंखों पर चश्मा का उपयोग करना चाहिए।
  11. नींदानाशक का छिड़काव 30-35 दिनों के भीतर करना उपयोग सिद्ध होगा अन्यथा इसका उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता हैं।
  12. दवा का छिड़काव हवा चलने की दिशा में करें जिससे दवा छिड़काव करने वाले के ऊपर न पड़े।

 

गेंहूँ के रोग एवं  नियंत्रण  (Wheat diseases and their control)

कैमोर के पठार एवं सतपुड़ा पहाड़ी क्षेत्रों में बोई जाने वाली गेहूं की फसल में मुख्यतः गेरूआ (काला एवं भूरा) कंडुवा व स्तुआ का प्रकोप देखने को मिलता है इन रोगों का प्रकोप पूर्णतः मौसम के मिजाज पर निर्भर करता हैं।

1.गेरूआ

गेहूं में तीन प्रकार के गेरूओं का प्रकोप होता हैं – काला, भूरा एवं पीला गेरूआ जबकि मध्यप्रदेश में केवल काला एवं भूरा गेरूआ का प्रकोप ही देखने को मिलता हैं। इस रोग से फसल के बचाव के लिये यह आवश्यक है कि बीज का चुनाव करते समय गेहूं की नवीनतम संस्तुत की गई प्रजातियों को ही प्रयोग में लाये। नई विकसित प्रजातियां रोगों के प्रति अवरोधी एवं सहनशील होने पर ही संस्तुत की जाती हैं।

2.ध्वज कंडुवा

इस रोग की बीमारी से बालो में दाने न भरकर एक प्रकार का काला चूर्ण भर जाता हैं। यह रोग दाने के अन्दर रहने वाले कवक के द्वारा होता हैं। अतः यह आवश्यक है कि बीज को बोने के पहले उपचारित एवं शोभित कर लिया जाये। बीज को बीटावेक्स या बाविस्टीन नामक दवाई की 2.5 ग्राम मात्रा को एक कि. ग्राम बीज की दर से उपयोग में लाया जा सकता हैं। इसके अलावा बीज को सोलर ट्रीटमैंट भी देने से इस बीमारी से बचा जा सकता हैं। मई-जून के महीने के महीने में जब तेज धूप हो, बीज को सुबह 4 घंटे तक पानी में मिगोने के बाद धूप में अच्छी तरह सुखा लें। ऐसा करने से बीज के अंदर मौजूद कवक नष्ट हो जाता हैं।

3.आल्टरनेरिया झुलसा रोग

यह रोग पत्तियों पर फैलता है, जिससे सभी पत्तियां सूखी हुई दिखाई देती हैं। प्रायः यह रोग पुरानी पत्तियों से होकर नये पत्तियों की तरफ अग्रसर होता हैं। इसकी रोकथाम के लिये आवश्यक है कि नई अनुशंसित जातियों का ही चुनाव करें एवं रोग के रोकथाम के लिए मैकोजब या डायथेन एम-45 या इन्डोफिल एम-45 नामक दवा की 2 कि.ग्रा. मात्रा 800-1000 ली. पानी में अथवा प्रोपीकोनाजोल टिल्ट 0.25 प्रतिशत क्रियाशील तत्व की 500 मि.ली. मात्रा का 800-1000 लीटर पानी के साथ प्रति हे. छिड़काव करें।

4.भ्रूर्ण पर काली चित्ती (ब्लैक प्वाइंट)

इसकी पहचान यह है कि यदि गेहूं के दानों के भ्रूण तल में भूरे या काले चित्ते दिखाई दें, तो यह फफूंद द्वारा फैलता है जो बीज की अंकुरण क्षमता को घटाता हैं जिससे खेत में उचित पौध संख्या की कमी हो जाती है तथा उपज कम प्राप्त होती हैं। इसकी रोकथाम हेतु बोनी के पूर्व बीजोपचार आवश्यक हैं।

 

गेहूं में कीट प्रबंधन(Pests management in Wheat)

  1. खेत की अच्छी तरह जुताई करना चाहिए।
  2. कच्ची या अधपकी गोबर की खाद का प्रयोग नही करना चाहिए, क्योंकि इसके प्रयोग से दीनक के प्रकोप की संभावना अधिक होती हैं।
  3. खेत के आसपास मेढ़ो में यदि दीमक का बमीठा (घर) हो तो उसे गहरा खोदकर नष्ट कर देना चाहिए।
  4. गेहूं की बोनी समय पर करें तथा बीजोपचार करना न भूलें। जिन क्षेत्रों में दीमक, जड़माहो, वायरवर्म, कटुआ इल्ली, झींगुर एवं सफेद ग्रव का प्रकोप प्रतिवर्ष होता हो तो बीज को क्लोरपायरीफास 20 ई.सी. 0.5 ग्राम या एन्डोसल्फान 35 ई.सी. 2.5 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित कर बुवाई करें या लिन्डेन 1.3 प्रतिशत पाउडर 20-25 किलो ग्राम प्रति हे. के हिसाब से बोनी के समय भुरकाव करें। देरी से की गई बुआई की फसल में (दिसम्बर-जनवरी) जड़माहो का प्रकोप अधिक होता हैं।

 

भण्डारण के कीटों की रोकथाम( Prevention of storage pests)

अनाज भण्डारण के कीटों को नियंत्रण करने की अपेक्षा अनाज को इससे सुरक्षित रखना अधिक उपयोगी एवं लाभकारी अतः निम्नलिखित उपायों का उपयोग करें –

  1. भण्डारण के पहले गेहूं को अच्छी तरह सुखा लें।
  2. भण्डारण गृहों की दरारों एवं छिद्रों को सीमेन्ट से बन्द कर दें।
  3. कोठियों एवं बारदानों पर मेलाथियान (1ः100) के घोल का छिड़काव करें।
  4. बोरियों में अनाज भंडारण के लिए फर्श पर 4 से 6 भूसे के बोरे या बाॅस की चटाईयां लकड़ी के पटो पर बोरियों की दीवार से एक मीटर छोड़कर लगावें।
  5. गोदामों को क्लोरियायरीकास या लिन्डेन चूर्ण से उपचारित करें।
  6. भंडारण करते समय धूम्रयुक्त दवाओं को रखना चाहिए जैसे-
  7. ई.डी.बी. 3 मि.ली./क्विंटल की दर से इसे उपयोग में लायें।
  8. खेतों मे तोते/चिड़ियों को सुबह-शाम आवाज देकर तथा लोकल गुफनों में पत्थर फंसाकर फेंकते रहें जिससे पक्षी भागते रहते हैं।
  9. खेत या फार्म के आसपास चिड़ियों के बैठने के स्थानों को हटा दें तथा यदि कोई वृक्ष आसपास हो तो उनकी शाखाओं की छटाई कर दें।
  10. एसिटिलीन गन एक्सप्लाईडर द्वारा धमाका करें।
  11. धातु वाले रंगीन चमकदार फीती को खेत में बांधकर चिड़ियों को भगायें।
  12. बिजुका लगायें।

 

गेहूं की कटाई(Harvesting of Wheat)

बीज उत्पादन में फसल कटाई का महत्व सर्वोपरि हैं, इसमें असावधानी बरतने पर उपज एवं गुणवत्ता में कमीं आती हैं। अतः फसल पकने की स्थिति में तकनीकी बिन्दुओं का निरीक्षण एवं प्रमाणीकरण कराकर ही फसल को काटना चाहिए। फसल कटाई का अनुकूल समय वही होता है जब बीज पूरी तरह से परिपक्व हो। कटाई करते समय इस बात को ध्यान रखना चाहिए कि बीजों को यांत्रिक क्षति न हो, बीजों में यांत्रिक संदूशण न हो तथा बीज ढेद की पहचान बनाये रखी जाये। बीज फसल की कटाई के समय बीज में नमी की मात्रा 15 प्रतिशत से अधिक नही होना चाहिए।

 

गेहूं की गहाई ( Threshing of Wheat)

बीज फसल की विभिन्न किस्मों की गहाई अलग खलियान में करनी चाहिए, जिससे अपमिश्रण न होने पाये। गहाई बीज में नमी की मात्रा 15 प्रतिषत से कम होने पर करनी चाहिए। गहाई से पूर्व गहाई यंत्र को अच्छी तरह साफकर लेना चाहिए, जिससे उसमें पहले गहाई की गई किस्मों के दाने न रह गये हो।

 

बीजो को सुखाना

गेहूं के बीजों में कटाई उपरांत आर्द्रता मानक स्तर से अधिक होती हैं। अतः 12 प्रतिशत तक आर्द्रता प्रतिशत लाने के लिये बीजों को सुखाना अति आवश्यक होता हैं। बीजो को फार्म में बने पक्के फर्श या टारपालिन बिछाकर उस पर बीज फैलाकर सुखाया जाता हैं। सुखाते समय प्रत्येक किस्म के लाटो का टैग/लेबल द्वारा चिन्हित कर देना चाहिए।

 

भण्डारण(Storage of Wheat)

गेहूं के सूखे हुए बीज को जूट वाली बोरियों में भुडारण करना सर्वथा उचित होगा एवं इन बोरों को आर्द्रता रहित, साफ-सुथरे गोदामों में भंडारित करना चाहिए। गोदामों में कीड़ो, चूहों का प्रकोप न हो इसके लिए कीटनाशक, फ्यूमीगेशन व चूहों के माने हेतु जिंक फास्फाइड का उपयोग करना चाहिए भंडारित बीजों को अलग-अलग किस्म के आधार पर टैग/लेबर लगाकर रखना चाहिए। जिससे किसी प्रकार का सम्मिश्रण न हो। भंडार गृह में एक्जास्ट पंखा लगाने से अंदर के गर्म-नम हवा को समय पर निकाला जा सकता हैं।

 

भंडारण संबंधी महत्वपूर्ण बिन्दु

  1. नई फसल के भंडारण के पूर्व गोदाम को अच्छे से साफ करना चाहिए।
  2. चूहे के बिलों को स्थाई रूप से बन्द करें।
  3. दरारों में हुए कीडों को पायरथ्रम या डी.डी.व्ही.पी. का स्प्रे करें।

 

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