लीची ( Litchi ) पौधशाला प्रबंधन

परिचय ( Indroduction )

लीची बिहार राज्य की अग्रणी एवं विशेषता वाली फल फसल है जहाँ पर देश के कुल उत्पादन का लगभग 55 प्रतिशत पैदावार तथा कुल क्षेत्र का लगभग 42 प्रतिशत क्षेत्रफल लीची के अन्तर्गत है। फलों की रानी कही जाने वाली लीची के आकर्षक गुलाबी लाल रंग के फल मई-जून माह में पककर तैयार होते हैं। लीची के पौधे सदाबहार प्रकृति के होतेे है जो सम-शीतोष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों तथा बलुई दोमटयुक्त कैलेकेरियस मिट्टी में उगाये जाते है।

लीची के फल अपने भीनी महक वाले रसदार तथा मिठास युक्त गूदे के लिये जाने जाते हैं। विश्व स्तर पर लीची के क्षेत्रफल एवं उत्पादन के आधार पर भारत का दूसरा स्थान होने के बावजूद भी इस फल के पूर्ण उत्पादन क्षमता का दोहन नहीं हो पाया है। उत्पादन एवं उत्पादकता को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों में चयनित किस्मों के गुणवत्तायुक्त पौध सामग्री का समुचित तथा पर्याप्त संख्या में उपलब्धता नहीं हो पाना प्रमुख है जो लीची के क्षेत्रफल विस्तार एवं गुणवत्तापूर्ण उत्पादन में बड़ी बाधा के रूप में सामने आ रही है।

चयनित किस्मों के गुणवत्तायुक्त पौध सामग्री को तैयार करना कला एवं विज्ञान का समुचित मिश्रण है जिसके लिए उन्नत तकनीक के साथ साथ तकनीकी कौशल, ज्ञान एवं पूँजी की आवश्यकता होती है। एक सफल पौध प्रवर्धक की यह चाहत होती है कि वह अच्छे गुणवत्तायुक्त पौधों का प्रवर्धन करे जो आर्थिक दृष्टिकोण से सस्ता हो। पौधशाला में पौधों को कम समय के लिए रखा जाता है फिर भी वर्ष भर की जाने वाली समसामयिक सस्य क्रियाओं का अनुपालन करना आवश्यक होता है ताकि प्रवर्धित पौध बिल्कुल स्वस्थ एवं रोगमुक्त हो क्योंकि सफल बागवानी के लिए उच्च गुणवत्ता वाले पौध सामग्री का होना आवश्यक एवं महत्वपूर्ण हैं।

लीची कीे सफल बागवानी इस बात पर भी निर्भर करती है कि किस तरह के पौधों को रोपित किया गया है एवं जिस मातृ वृक्ष से पौध प्रवर्धन किया गया है उसकी उत्पादन क्षमता, फलन की प्रकृति और फलों की गुणवत्ता कैसी है। अगर मातृ वृक्ष में उच्च उत्पादन क्षमता का अभाव हो तो बाग स्थापना के मेहनत पर पानी फिर जाता है।

लीची का व्यवसायिक पौध प्रवर्धन कायिक विधि (गूटी) के द्वारा किया जाता है। गूटी द्वारा पौधों को तैयार करने में सांकुर शाख काट कर जड़ युक्त गूटी के साथ निकाल लिया जाता है जिससे पौधे का विकास होता है। गूटी की जड़ों में मुख्य रूप से प्राथमिक (मोटी एवं खोखली), द्वितीयक एवं तृतीयक (पतली एवं जालेदार) जड़ें होती हैं जो पौधशाला तथा खेत की मृदा के ऊपरी सतह में फैलकर कर जल्लेदार जड़ों का निर्माण करती हैं। समस्याग्रस्त क्षेत्रों में गूटी द्वारा विकसित पौधों द्वारा बाग स्थापना करने पर पौधों की मृत्यु दर अधिक होती है एवं विकास भी धीमी गति से होता है क्योंकि गूटी द्वारा तैयार पौधों में मूसला जड़ों का विकास न होने के कारण पौध स्थापना एवं विकास प्रभावित होता है।

पौधशाला या नर्सरी में भी गूटी द्वारा प्रवर्धित पौधों का उचित देखभाल करने की आवश्यकता होती है जिससे अधिक से अधिक गूटी स्थापित हो कर पौधों के रूप में विकसित हो सके। गूटी द्वारा प्रवर्धित पौधों की उच्च स्थापना दर प्राप्त करने के लिए गूटी को एक उचित पात्र (कन्टेनर) में लगायें जिसमें उचित मिश्रण, कार्बनिक पदार्थां की अधिकता एवं अधिक जल धारण क्षमता हो तथा उचित पानी निकास की व्यवस्था हो। पौधों को व्यवस्थित संरचना/ढाँचा वाले पालीहाउस/नेट हाउस में रखा जाता है, इससे स्वस्थ पौधे शीघ्र विकसित होते हैं। हाल के वर्षों में नवीनतम तकनीक विकसित हुई है जिनमें पौध प्रवर्धन तकनीक में सुधार एवं पौध विकास हेतु उचित मिश्रण और ढाँचे के अन्दर के वातावरण का मानकीकरण किया गया हैं जिससे उचित गुणवत्तापूर्ण, स्वस्थ एवं रोगमुक्त पौधों का विकास संभव हो पाया है|

 

गुणवत्तायुक्त पौधों का उत्पादन (Production of Quality Litchi  Plants)-

लीची के पौधों का प्रवर्धन बीज, शाखा कलम, गूटी, ग्राफ्टिंग एवं कलिकायन के द्वारा किया जा सकता है। चीन, जो लीची का उद्गम स्थल है वहाँ पर वर्षों से लीची को गूटी विधि के द्वारा ही तैयार किया जाता है जो कि आज भी सबसे अधिक प्रचलित एवं व्यवसायिक पौध प्रवर्धन का तरीका है। परन्तु लीची के कुछ ऐसे पुराने बाग आज भी वहाँ पर मौजूद हैं जिनकी स्थापना बीजू पौधों द्वारा हुआ है।

वर्तमान में भी उच्च गुणवत्ता वाली किस्मों/प्रभेदों के विकसित करने हेतु बीज द्वारा तैयार पौधे ही सबसे उपयुक्त पाये गये हैं परन्तु मातृ पौधों के गुण जैसा एक समान फलों के उत्पादन हेतु पौधों का प्रवर्धन गूटी अथवा अन्य वानस्पतिक विधि के द्वारा हीे किया जाता है। गूटी के अलावा लीची के वानस्पतिक प्रसारण की एक तकनीक ग्राफ्ंिटग है जो अब चीन, वियनताम और दूसरे देशों में व्यवसायिक तौर पर अपनायी जा रही हंै परन्तु इसकी सफलता की दर अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग है। आज भी गूटी द्वारा पौध प्रवर्धन में स्थापना दर 60-65 प्रतिशत है जबकि ग्राफ्टिंग विधि में यह दर बहुत कम है। इस दिशा में अनुसंधान कार्य चल रहे हैं जिसका सार्थक परिणाम कुछ वर्षों में सामने आयगें।

लीची पौधों का प्रवर्धन प्रक्षेत्र, बागीचे, बाहर खुले स्थान तथा आधुनिक तकनीक द्वारा तैयार सुरक्षा गृह जैसे ग्रीन हाउस, पाॅली हाउस, एग्रोशेडनेट तथा मिस्ट गृह आदि स्थानों पर किया जा रहा है। इन परिस्थितियों में गूटी के द्वारा प्रवर्धित पौधे 8-10 माह एवं ग्राफ्टिंग द्वारा 1-2 वर्ष (बीज बोने से ग्राफ्टिंग करने तक)  में तैयार होते हैं।

लीची की वैसे उन्नत क्लोन अथवा किस्म जिसमें विशिष्ट गुण व मानक पाये जाते है  और किसी खास क्षेत्र के लिए उपयुक्त पाये जाने पर उन किस्मों/प्रभेदों के पौधों को शीघ्रता से अधिक संख्या में प्रवर्धन करने की आवश्यकता पड़ती है। इस उद्देश्य के प्राप्ति हेतु मातृ प्रखण्ड स्थापित करने की जरूरत होती है ताकि अधिक संख्या में सांकुर शाख एवं गूटी बनाने हेतु टहनी की प्राप्ति हो सके। ठीक उसी प्रकार से उच्च मानक वाले पौध प्राप्त करने के लिए दूसरे सम्बन्धित कारकों जैसे पौध सुरक्षा, पोषक पदार्थ की उपलब्धता/पर्णीय छिड़काव, पौध स्वास्थ आदि पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है ताकि उच्च मानक वाले पौधे तैयार किये जा सकें। लीची के स्वस्थ एवं रोगमुक्त पौधों के प्रवर्धन के लिए वातावरण और उससे संबंधित अन्य अवयवों को संशोधित करने की आवश्यकता होती है जिनका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है।

अ)  सूक्ष्मजलवायु पस्थितियाँ (प्रकाश, सापेक्षिक आर्द्रता, तापमान व गैसें)|
ब)  भौतिक कारक (प्रवर्धन विधि, मृदा मिश्रण, पोषक/खनिज एवं जल की गुणवत्ता)|
स) जैविक कारक (प्रवर्धित होने वाले पौध से दूसरे जीवों का सम्बन्ध जैसे लाभदायक जीवाणु, माइकोराइजा, फफूँद, कीट एवं व्याधि आदि)।

पौध प्रवर्धन के सम्पूर्ण काल में एक आर्दश पारिस्थितिकी एवं विशेष दशा की आवश्यकता होती है लेकिन व्यवसायिक स्तर पर पौध प्रवर्धन हेतु औसत वातावरण की दशा के साथ सामन्जस्य स्थापित करके ही पौध प्रवर्धन होता है जिससे प्रवर्धित पौधों की स्थापना दर अधिक होती है एवं विकास भी अच्छा होता है।

 

मातृ प्रखण्ड क्षेत्र एवं उसके मानक-

१.मातृ प्रखण्ड का स्थान एवं आकार

पौधशाला में मातृ प्रखण्ड का क्षेत्र एवं उसका स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू होता है और इसका चयन बहुत ही सावधानी पूर्वक करना पड़ता है। प्रत्येक पौधशाला के लिए अपना मातृ प्रखण्ड होना अनिवार्य है जिसमें चयनित उन्नत किस्म/प्रभेद के पौधों को रोपित किया जाता है। मातृ प्रखण्ड पौधाशाला के समीप हो ताकि पौध प्रवर्धन कार्य

शीघ्रता एवं आसानी से किया जा सके। इसका आकार एवं मातृ पौधों की संख्या इतनी होनी चाहिए ताकि इस व्यवसाय को सुचारू रूप से चलाया जा सके ।

२.मातृ वृक्ष हेतु पौधों का चयन एवं रोपण

पौधशाला स्थापित करने में मातृ पौधों का चयन एवं रोपण एक मुख्य कार्य है इसके लिए आवश्यक है कि उस प्रभेद का सबसे अच्छा क्लोन जिसमें किस्म मानक के अनुसार सारे गुण मौजूद हों, का चयन करंे एवं उन पौधों को पौध प्रवर्धन हेतु चिन्हित कर दें ताकि भविष्य में प्रसारण किया जा सके। मातृ पौधों का विशिष्ट गुण ही किसी पौधशाला के भविष्य का निर्धारण करता है और आने वाले वर्षों में उत्पादन को इंगित करता है।

मातृ पौधे अपनी किस्म के मानक के अनुसार होने चाहिए एवं मातृ प्रखण्ड में अलग-अलग एवं चिन्हित करके लगा होना चाहिए ताकि किसी भी प्रकार से मिश्रण न हो। मातृ प्रखण्ड में नये-नये किस्मों/एवं अन्य उन्नत प्रभेद के लिए कुछ स्थान रिक्त होना चाहिए ताकि आवश्यकता होने पर पौध रोपण किया जा सके। मातृ पौधों का हमेशा समुचित प्रबंध करना चाहिए जिससे पौधों की वृद्धि अच्छी हो और पर्याप्त मात्रा में वनस्पतिक टहनी/डाली पौध प्रवर्धन के लिए उपलब्ध हो सके।

३.मातृ पौधों का गुण विशेषताएँ

1. मातृ पौध उन्नत प्रभेद/किस्म का होना चाहिए एवं फलों की गुणवत्ता प्रभेद के अनुरूप होनी चाहिए।

2. उन पौधों की उत्पादन क्षमता ज्ञात हो तथा कई वर्षों तक परीक्षण किया जा चुका हो।

3. उन प्रभेदों की व्यवसायिक माँग हो।

4. पौधे रोग एवं कीट मुक्त होने चाहिए।

 

 पौधशाला का मूलभूत ढाँचा/संरचना एवं उनका प्रबन्धन-

मानक के अनुरूप व्यवसायिक स्तर पर पौधशाला में पौध प्रवर्धन के लिए विभिन्न प्रकार के ढाँचा/संरचना बनाने की आवश्यकता होती है जहाँ पर उचित मानक एवं गुणवत्ता वाले पौधे तैयार किये जा सकंे। इस कार्य को प्रारम्भ करने हेतु निम्नलिखित ढाँचा का निर्माण करना आवश्यक हो जाता है:

अ)  कार्य हेतु स्थान/कार्यस्थल:

20 ग 12 वर्गमीटर का एक कार्य स्थल का निर्माण हो जिसका फर्श पक्का, तथा छत एस्वेस्टस का हो, जिससे वर्षा का पानी नहीं टपकता हो। लागत को कम करने हेतु छत को स्थानीय उपलब्ध सामग्री (जैसे बांस, फूस, गन्ने का डंढल एवं पत्ती आदि) से भी बनाया जा सकता है लेकिन इसे प्रत्येक वर्ष मरम्मत करने की आवश्यकता पड़ती है।

ब)  एग्रो शेड नेट/मिस्ट गृह:

इस गृह का आकार 12 ग 8 वर्ग मीटर या इससे बड़ा आकार का होना चाहिए जिसके केन्द्रीय भाग की ऊँचाई 3.8 मी. तथा दोनों तरफ बगल की ऊँचाई 2.2 मीटर हो और संरचना के बीच में जाने का रास्ता तथा क्यारियाँ बनी होनी चाहिए। शेड नेट के चारों तरफ से 90 सेन्टीमीटर ऊँचाई तक ईट की दिवार हो जिसे अन्दर एवं बाहर से प्लासटर किया गया हो। पूरा ढांचा लोहे के पाइप के सहारे जमीन पर खड़ा हो। गड्डे को सीमेन्ट, बालू, पत्थर के मिश्रण से भर कर बनाया जाता है ऐसे बनाये गृह का लागत लगभग 2.5 लाख के आस पास होते है। बड़े आकार या क्षेत्रफल वाले संरचना का लागत मूल्य अधिक होती है।

स)  भंडार सह कार्यालय:

पौधशाला में इस तरह की एक स्थाई संरचना की आवश्यकता होती है जहाँ से नर्सरी को सुचारू एवं सुव्यवस्थित ढंग से नियंत्रित किया जा सके एवं जरूरी अभिलेखों को रखा जा सके।

द)  घेराबन्दी:

पौधाशाला क्षेत्र को सुरक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से घेराबन्दी बहुत ही आवश्यक होती हैं जो जानवरों एवं अन्य प्रकार की क्षति से सुरक्षा करती है।

ल)  जलश्रोत:

पौधाशाला का अपना जल श्रोत होना अनिवार्य होता है ताकि नर्सरी में रखे नवजात पौधों की सिंचाई की जा सके।

 

समुचित वातावरण परिस्थिति का प्रबंधन

सपेक्षिक आर्द्रता का नियंत्रण: पौधाशाला के अन्दर पौधों के स्वस्थ एवं अच्छी बढ़वार के लिए स्वच्छ पानी की व्यवस्था होना चाहिए तथा यह सावधानी बरतनी चाहिए कि नये रोपित पौधों पर अधिक सिंचाई या फुहारे न हों। क्योंकि जल की अधिकता पौधों के लिए उतना ही नुकसानदायक होती है जितना जल की कमी। नमी की अधिकता व जल जमाव होने पर फफॅूदजनित रोग (जड़ सड़न, डैमपिंग आॅफ आदि) तीव्रता से फैलते है। प्रवर्धन गृह में उचित आर्द्रता बनाये रखना आवश्यक होता है क्योंकि आर्द्रता में कमी होने पर नवजात पौधों के बढ़े हुए वाष्पोत्सर्जन दर का सही ठंग से सामंजस्य नहीं होने पर नये रोपित पौधों में जल का अभाव हो जाता है एवं स्थापना दर में कमी हो जाती है। उचित आर्द्रता की मात्रा रहने पर पौधों की वृद्धि प्रर्याप्त होती है परंतु आर्द्रता की अधिकता में फफूंद, काई एव अन्य रोग पनपते है।

संरचना के अन्दर उचित आर्द्रता को बनाये रखने के लिए फुहारे को प्रत्येक 2 घंटे पर 10 मिनट तक चलाना चाहिए या प्रथम सप्ताह में 4-5 बार प्रतिदिन, द्वितीय-तृतीय सप्ताह में 2-3 बार प्रतिदिन तथा चैथे सप्ताह से पौधों के बिक्री होने तक फुहारे को 2 बार चलाने की आवश्यकता होती है।

 

तापमान नियंत्रण (Temperature Control)

१.वायुमंडलीय तापमान (Atmospheric temperature)

संरचना/ढाँचा के अन्दर पौध प्रवर्धन के लिए वातावरण को व्यवस्थित रखने में तापमान की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका होती है। कोई भी वायुमंडलीय कारक तापमान के जितना प्रभावी नही होता है। अतः इच्छित परिणाम प्राप्त करने के लिए ढाँचे के अन्दर के तापमान को नियंत्रित करना बहुत ही आवश्यक हो जाता है। तापमान को नियंत्रण करने हेतु ठण्डे महीनों में गर्म हवा का बहाव, इन्फ्रारेड विकरण एवं गर्म जल नाली का प्रवाह करना पड़ता है। गर्मी के दिनों में तापमान को कम करने हेतु फुहारे को नियमित अंतराल पर चलाने की आवश्यकता होती है। ऐसा देखा गया है कि 30-350 सेल्सियस तापमान तथा 75-80 प्रतिशत आपेक्षिक आर्द्रता होने पर लीची पौधों की वृद्धि अच्छी होती है।

ग्रीष्मकाल में दोपहर (10 बजे 3 बजे तक) प्रत्येक 40-45 मिनट के अंतराल पर 8-10 मिनट तक फुहारे को चलाने से पर्याप्त नमी एवं उचित तापमान मिल जाता है जिससे लीची के पौधों का विकास अच्छा होता है।

२.प्रकाश नियंत्रण

प्रकाश पौधों की वानस्पतिक वृद्धि (जड़ एवं शाखा) में महत्वपूर्ण योगदान, पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया के रूप में होता है। प्रकाश के गुण को ढाँचे के अन्दर नियंत्रित किया जा सकता है तथा इसके लिए विशेष स्पेक्ट्रल फिल्टर, हरित गृह के आच्छादन एवं प्रकाश श्रोत में परिवर्तन कर किया जाता है। प्रकाश के अवधि का प्रबंधन कर पौधों में क्राबोहाइइªेट की मात्रा को संरक्षित रखा जा सकता है और ठण्डे मौसम में पौधों की मृत्यु दर में कमी होने के साथ-साथ पौधों का समुचित विकास होता है। प्रकाश अवधि को बढ़ाने हेतु सोडियम वेपर का प्रयोग किया जाता है जिसकी रोशनी सूर्य प्रकाश के समान होती है। ये प्रकाश श्रोत रोशनी के साथ-साथ उष्मा प्रदान कर ढाँचे के अन्दर के तापमान को भी बढ़ाता है।

 मिश्रण के अवयव

अ) गूटी के लिए उपयुक्त मिश्रण:

परम्परागत तरीके में लीची के पौधों से तैयार गूटी को काट कर पहले से तैयार किये गये क्यारियों में सीधे रोपित कर दिया जाता है परन्तु अब इस परम्परा में बदलाव आने लगा है और गूटी को क्यारियों के अपेक्षा गमले/पालीथीन की थैली में मृदा-मिश्रण के साथ में भराई कर रोपित किया जाता है। इस प्रकार मृदा-मिश्रण महत्वपूर्ण होता जा रहा है और एक विकल्प के रूप में सामने आ रहा है। बाजार से तैयार मिश्रण को खरीदना महँगा पड़ता है अतः पौधशाला में माली को स्थानीय उपलब्ध सामग्री में कुछ जरूरी पदार्थो को मिलाकर एक उचित मिश्रण को बना कर उपयोग किया जा सकता है।

एक सफल माली/पौध उत्पादक पौध प्रवर्धन के लिए सदैव अपने द्वारा बनाये मिश्रण का उपयोग करता है तथा मिश्रण को विभिन्न अनुपात में मूलभूत सामग्री के साथ मृदा, बालू, गोबर की खाद एवं उचित पोषक पदार्थो को मिलाकर मिश्रण तैयार करता है। पोषक तत्वों से परिपूर्ण मिश्रण बनाने हेतु कुछ सामग्री को बाजार से खरीदा जा सकता है। सभी उपलब्ध सामग्री को अच्छी तरह मिलाकर बनाये गये मिश्रण को पौधशाला में भंडारित कर उपयोग में लाया जा सकता है।

ब) आदर्श पौध माध्यम के गुण व विशेषताएँ:

अनेक प्रकार के पदार्थ एवं भिन्न भिन्न खनिज मिश्रण का उपयोग पौध प्रवर्धन में किया जाता है। मिश्रण/माध्यम के अच्छे परिणाम प्राप्त होने के लिए मिश्रण में निम्नलिखित गुण व विशेषताएँ होनी चाहिए

– उत्तम पौध प्रवर्धन माध्यम वही होता है जो सही प्रकार से नये पौधों को दृढ़ता एवं स्थायित्व प्रदान करता हो एवं गूटी को पात्र में मजबूती दे सके। सूखे अथवा पर्याप्त नमी की अवस्था में आयतन में कम से कम में परिवर्तन हो। मिश्रण माध्यम में सूखने की प्रवृति नहीं होना चाहिए क्योंकि अवस्था में परिवर्तन के साथ-साथ आयतन में अधिक बदलाव से नये पौधों की जड़ों का अग्र शिरा क्षतिग्रस्त हो जाता है एवं पौधांे के विकास पर कुप्रभाव होता है।

Source

  • National Research Centre on Litchi, Muzaffarpur Bihar
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