मसूर फसल के रोग, कीट एवं उनका नियंत्रण ( Lentil diseases , pests and their control )

मसूर मध्यप्रदेश की एक महत्वपूर्ण फसल है, जहाँ यह करीब 438 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में उगायी जाती है। देष के कुल क्षेत्रफल का करीब 25 प्रतिशत क्षेत्र मध्यप्रदेश में हैं किन्तु यहाँ कर औसत उपज केवल 480 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है जो देष की औसत उपज से बहुत कम है। इसके प्रमुख रूप से तीन कारण है।

  1. अधिक पैदावार देने वाली रोग निरोधक जातियाँ एवं उनके बीज की कमी
  2. किसानों द्वारा फसल उत्पादन की उन्नत तकनीक अपनाने में कम रूचि एवं
  3. रोगों व कीटों द्वारा फसल को होने वाली हानि। मसूर में लगने वाले रोगों व उनके नियंत्रण की इस प्रकार है।

(अ) मसूर के रोग( Lentil diseases)

मसूर फसल पर वैसे तो कई रोग लगते हैं परंतु निम्नलिखित रोगों से अधिक हानि होती है।

1.उकठा या बिल्ट

यह रोग फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम जाति लेटिस नामक फफँद से होता है जो मिट्टी में रहती है और पौधे पर आक्रमण करके रोग पैदा करती है रोग के लक्षण पौधे की अवस्था के अनुसार अलग अलग होते हैं। उगते हुए बीज व पौधे भूमि से निकलने के पूर्व ही या उसके तुरंत बाद मर जाते हैं। उगने के कुछ दिन बाद फफूँद का आक्रमण होने पर उनकी जड़े भूरी हो जाती हैं तथा पौधा लटककर मर जाता हैं। बड़े पौधे पर इस रोग का आक्रमण होने पर वास्तविक लक्षण दिखाई देते है।

रोगी पौधो की वृद्धि रूक जाती है, पत्तियाँ पीली पड़ने लगती है और पौधे का ऊपरी भाग लटक जाता हैं रोगी पौधे की जड़े आंषिक रूप से या पूर्णतया हल्के भूरे या गहरे भूरे रंग की हो जाती है एवं अविकसित होती है उनमें जड़ ग्रन्थियाँ भी कम बनती है और पौधा अंततः सूख कर मर जाता है। किसी किसी पौधे की जड़, षिरा सड़ने से छोटी रह जाती है।

2. पद गलन या कालर राट

यह रोग भी भूमि में पाई जाने वाली फफूँद के कारण होता है जिसे स्कलेरोशियम राल्फसी कहते हैं। यह रोग पौधे पर प्रारंभिक अवस्था (बोनी के 10-15 दिन की अवधि में) अधिक आता है। विशेष रूप से अगर ऐसी अवस्था के समय तापमान 30 डिग्री सेल्सियस हो । भूमि में बिना सड़ी खाद या पौधो के अवशेष भी रोग के बढ़ाने में सहयोग करते हैं।

छोटी अवस्था में रोग ग्रस्त पौधे पीले होकर भूमि पर गिरकर नष्ट हो जाते हैं पौधे का तना भूमि की सतह के पास सड़ जाता है जिससे पौधा खीचने पर बड़ी आसानी से टूट कर निकल आता हैं। सड़े हुए भाग पर सफेद फफूँद उग आती हैं। जिसके साथ कभी कभी राई के समान भूरे दाने वाले फफूँद के स्क्लेरोशिया मिलते हैं। तापमान कम होने पर रोग कम हो जाता हैं।

3. जड़ सड़न

यह रोग भूमि में पाये जाने वाले विभिन्न प्रकार के फफूँदो जैसे राइजोक्टोनिया बटाटिकोला, फ्यूजेरियम सोलेनाई आदि फफूँदों से होता है। यह रोग मसूर के पौधों पर देरी से प्रकट होता है। वर्षा आधारित फसल पर इसका प्रकोप अधिक होता है पानी की कमी के कारण यह रोग तेजी से फैलता है। रोग ग्रसित पौधे खेत में जगह जगह टुकड़ो में दिखाई पड़ते हैं पत्ते पीले पड़ जाते हैं तथा पौधे सूख जाते हैं। जड़े काली पड़कर सड़ जाती है तथा उखाड़ने पर अधिकतर पौधे टूट जाते हैं व जड़े भूमि में ही रह जाती हैं।

नियंत्रण

जड़ व तने पर आने वाले इन रोगों को रोकने के लिये निम्नलिखित उपाय अपनायें।

  1. फसल कटने के बाद गर्मियों में गहरी जुताई करें।
  2. खेत में बिना सड़ी, गोबर की खाद एवं पूर्व फसल के अवशेष न रहने दें।
  3. थाइरम व कार्बेन्डाजिम (2:9) 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज दर से बीजोपचार करके ही बोनी करें।
  4. उकठा निरोधक एवं सहनशील जातियाँ जैसे जे.एल.1, जे.एल.एस.2, जे.एल.3, लेन्स 4076 (सभी बड़े दाने वाली) एवं पन्त एल 406 (छोटे दाने वाली) लगायें।

(ख) पत्तियों, शाखाओं आदि के रोग

1. गेरूआ या रस्ट

यह रोग यूरोमायसिस फेबी नामक फफूँद से होता है। प्रदेष के नर्मदा घाटी क्षेत्र में रोग का प्रकोप अधिक देखा गया है। जनवरी – फरवरी मे वर्षा एवं वातावरण में अधिक नमी होने पर रोग के बढ़ने की संभावना बढ़ जाती है।

रोग के लक्षण पर्णवृंत तथा पत्तियों की उपरी व निचली सतहों पर हल्के पीले रंग के उठे हुए चूर्ण युक्त धब्बो (स्पोट) के रूप में प्रकट होते हैं जो बाद में क्रीम या भूरे रंग के हो जाते हैं। फसल के पकने पर पत्तियों व तने पर भूरे काले रंग के चूर्ण युक्त ध्ब्बे दिखलाई जड़ते है। रोग का आक्रमण प्रायः खेत के निचले क्षेत्र से प्रारंभ होकर उपर की तरफ फैलता है।

नियंत्रण
  1. रोगी फसल के अवशेष जलाकर नष्ट कर दें और उससे प्राप्त बीज को बोने के काम में न लें।
  2. मसूर की गेरूआ निरोधक जातियाँ जैसे पन्त, एल406, जन्त एल639 (छोटे दाने वाली) उगायें।
  3. जिस क्षेत्र में गेरूआ आता हो वहाँ बोनी जल्दी करें।
  4. बीज को बोनी के पूर्व अच्छी प्रकार से साफ करें एवं बीजोपचार करके ही बोनी करें ।
  5. पौधो की निचली पत्तियों पर रोग के लक्षण दिखते ही फसल पर मेनकोजेब 2.5 ग्राम/लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें जिसे आवश्यकतानुसार 15 दिन बाद दोहरायें।

2. मृदुरोमिल आसिता रोग या डाउनी मिल्डयू

यह रोग पैरानोस्पोरा नामक फफूँद द्वारा होता है जो पूर्व में बोई फसल या खरपतवार में अवशेषों पर उस्पोर के रूप में रहती हैं।

रोग के प्रकोप में सर्व प्रथम हल्के से पीले रंग के धब्बे पत्ती की उपरी सतह पर दिखाई देते हैं निचली सतह पर इन धब्बो के नीचे बारीक हल्के भूरे रंग की फफूँद की वृद्धि दिखाई देती है जो बाद में पूरी पत्ती को ढ़क लेती है। प्रभावित पौधे छोटे रह जाते हैं तथा पत्तियाँ झुलस सी जाती है।

नियंत्रण
  1. फसल की बोनी शीघ्र करें तथा पौधे अधिक घने न हों।
  2. मैनकोजेब 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।

3.भभूतिया रोग या पाउडरी मिल्डयू

यह रोग एरीसाइफी पालीगोनाई नामक फफूँद से होता है। मध्यप्रदेश में यह रोग जनवरी तथा फरवरी के महीने में प्रतिवर्ष आता है। खुले मौसम में जब वायुमंडलीय तापक्रम 30 डिग्री सेल्सियस एवं नमी अधिक हो तो रोग का प्रकोप बढ़ जाता है।

इस रोग का प्रकोप वैसे तो पौधे की किसी भी अवस्था पर हो सकता हैं परन्तु फूल अवस्था में रोग उग्ररूप में आता है। पत्तियों की निचली सतह पर चूर्णीकवक के सफेद धब्बे बन जाते हैं जो बाद में बड़े आकार के होकर पूरी पत्तियों पर फैल जाते हैं। संक्रमित पत्तियाँ पीली पड़कर मुड़ जाती है और अंत में गिर जाती है। रोग का अत्याधिक प्रकोप होने पर पौधा मर जाता है। हवा के द्वारा इस बीमारी का प्रसार एक पौधे से अन्य पौधो पर होता है।

नियंत्रण
  1. रोग निरोधक किस्म पन्त एल639 कर बोनी करें।
  2. रोग के आरंभ होते ही घुलनशील गंधक 0.3 प्रतिशत का छिड़काव करें। रोग की तीव्रता बढ़ने पर 15 दिन बाद पुनः छिड़काव करें।

(ब) मसूर के प्रमुख कीट(Major Pests of Lentil)

मसूर की फसल में प्रमुख रूप से रस चूसक कीटों (माहो एवं तेला) तथा फली छेदक इल्ली का आक्रमण होता है एवं कटाई के बाद भंडारित मसूर के दानों को ढोरा (चिरैया) भी काफी क्षति पहुँचाती है। इन कीटों का विस्तृत विवरण व नियंत्रण विधियाँ यहाँ पर प्रस्तुत की जा रही हैं।

(अ) रस चूसक कीट

1. माहो – (एफिस क्रेक्सीवोरा काच)

माहो को चपा या मोला के नाम से भी जाना जाता है। ये मसूर के तिरिक्त चना, मूँगफली, मटर, मूँग, उड़द, राइसबीन, करडी व कुछ खरपतवारों को क्षति पहुँचाती है। इस कीट के वयस्क व शिशु दोनों ही पौधे के कोमल भाग से रस चूसते हैं। वयस्क 1-2 मि.मी. लंबे गहरे कत्थई या काले से रंग के छोटे छोटे समूह में रहने वाले कीट होते हैं। शिशु वयस्कों से कुछ हल्के रंग के होते है। ये भी वृद्धि कर रहे भागो, फूल व फलियों से रस चूसते हैं। बादलयुक्त मौसम में उनकी जनसंख्या वृद्धि हेतु अनुकूल मौसम है।

एक जीवन चक्र 15-20 दिन में पूरा होकर वर्ष भर में कई पीढ़ियाँ हो सकती हैं। प्रकोप की स्थिति में फसल सूख जाती है। इनके द्वारा विसर्जित मल मधू के रूप् में निचली पत्तियों पर टपकता है जिस पर अनुकूल परिस्थियों में काली फफूँद जमा हो जाती है फलतः पौधो में संष्लेषण की दर कम होने से भोजन बनाने की क्रिया प्रभावित होती है और पौधो की वृद्धि रूक जाती है। माहो एक स्टंट वायरस नामक बीमारी का भी वाहक माना जाता है जिसके कारण पौधे छोटे रह जाते है तथा फूल-फली नही बनती।

2. तेल या थ्रिप्स (केलियोथ्रिप्स इन्डीकस बगनाल)

इस कीट के वयस्क व शिशु पौधे के कोमल भागों को खुरचते हैं एवं खुरचे हुए स्थान से निकले रस को चूसते हैं। ये कीट भी गहरे काले रंग के या कत्थई रंग के अत्यंत सूक्ष्म कीट हैं। वयस्क कीट एक मिली मीटर लंबे होते है व पंख झालरदार होते हैं किन्तु ये सूक्ष्मदर्शी यंत्र से ही देखे जा सकते हैं। प्रकोपित पौधों की पत्तियों पर प्रारंभिक अवस्था में हल्के पीले व बाद में असंख्य सूक्ष्म सफेद धब्बे दिखाई देते हैं। शुष्क मौसम में अप्रत्याशित वृद्धि होकर ये पौधो को काफी क्षति पहुँचाते है। प्रकोपित पौधे सूख भी जाते हैं। अतः समय पर इनका नियंत्रण होना चाहिए।

नियंत्रण

माहो व तेला दोनों ही प्रकार के रसचूसक कीटों के नियंत्रण हेतु

  1. छिड़काव – फास्फेमिडान 40 एस. एल. 600-700 मिलीलीटर 25 ई.सी. की 750 मिली लीटर मात्रा को, 500 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर के मान से छिड़काव यंत्र द्वारा फसल पर समान रूप से छिड़काव करें।
  2. भुरकाव – यदि छिड़काव संभव न हो तो मिथाइल पेराथियान 2 प्रतिशत या क्विनालफास 1.5 प्रतिशत चूर्ण का 20 से 25 किलो प्रति हेक्टेयर के मान से भुरकाव यंत्र की सहायता से भुरकाव करें।

आवश्यक होने पर छिड़काव या भुरकाव 15 से 20 दिन बाद पुनः करना चाहिए। किन्तु इस बात का ध्यान रहे कि एक ही कीटनाशक का बार बार प्रयोग न करे । बदल बदल कर कीटनाशक फसलों पर डालना चाहिए। ताकि एक ही कीटनाशक के प्रति प्रतिरोधक्षमता कीटों में विकसित न हो सकें।

(ब) फली छेदक कीट

1. फलीछेदक इल्ली (इटिएला जिंकेनेला ट्रीट)

यह कीट मध्यप्रदेश में विशेष तौर पर मटर, मसूर व तेवड़ा (खेसारी) की फसल को नुकसान पहुँचाता है। मसूर को 4 से 15 प्रतिशत तक क्षति इस कीट से होती है। कीट की इल्ली ही हानिकारक अवस्था है जो कलियों, फूलों एवं विकसित हो रही फलियों तथा अंदर के दानो को खाकर क्षति पहुँचाती है। छोटी इल्ली द्वारा हरी फलियों तथा अंदर के दानों को खाकर क्षति पहुँचाती है। छोटी इल्ली द्वारा प्रवेष के बाद वह छेद अपने आप भर जाता है। अतः ऐसी अवस्था की कलियों में क्षति के लक्षण आसानी से दिखाई नही देते है। यह भूरापन प्रारंभिक अवस्था में एक धब्बे के रूप में दिखाई देता हैं। पूर्ण विकसित इल्ली ऊपर से गुलाबी एवं पाष्र्व व निचला हिस्सा हल्का हरापन या पीलापन लिये हुए रहता हैं।

कभी कभी इल्ली 2 से 4 फलियों को लार द्वारा आपस में गूँथ भी देती है और ऐसी गुंथी हुई फलियों व जाले के भीतर रहकर फलियों को खाती है। ऐसे स्थान पर गहरा भूरा या काला विष्ठायुक्त जाला दिखता है। करीब एक माह तक क्षति करने के बाद इल्लियाँ जमीन में षंखी अवस्था में परिवर्तित हो जाती है। षंखी गहरे भूरे रंग की होती है। इसके वयस्क गहरे भूरे रंग के मध्यम आकार के उड़ने वाले शलभ होते है। इनके अग्र पंखो पर सामनें के किनारों पर स्पष्ट हल्की सफेद पट्टिका दिखाई देती है एवं पश्च पंख अर्ध पारदर्शक व बाहरी किनारे एक गहरी रेखा युक्त होते हैं।

नियंत्रण
  1. छिड़काव – कीटनाशक प्रोफेनोफास 50 ई. सी. या इंडोसल्फन 35 ई. सी. या क्विनालफास 25 ई. सी. की 1.0 लीटर मात्रा, 500 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर के मान से छिड़काव करें।
  2. भुरकाव – माहो के लिए बताये गए मिथाइल पेराथियान 2 प्रतिशत या क्विनालफास 1.5 प्रतिशत के अतिरिक्त क्लोरपायरीफास 1.5 प्रतिशत चूर्ण का 20 से 25 किलो प्रति हेक्टेयर में भुरकाव करें।

(स) भंडारण कीट

1.दाल का ढारा या चिरैया (कैलोसोब्रुकस चाइनेनासिस व कैलोयोब्रुकस मेकुलेटस)

इस कीट का आक्रमण कभी कभी खेत में पकने वाली फलियों से ही प्रारंभ हो जाता है और भंडारगृह तक यह कीट आसानी से पहुँचकर जनसंख्या वृद्धि करता है। ऊपर वर्णित दोनों जातियाँ एक ही प्रकार के ढोरा की है। आकार प्रकार में सूक्ष्म अंतर होता है। मोटे तौर पर इनके वयस्क हल्के कत्थई रंग के या गहरे भरे रंग के होते हैं। ये आकार में गोल से 3-4 मि.मी. लम्बे होते हैं। इनकी श्रंगिका आरी जैसी होती है। वयस्क उड़ने में कमजोर होते हैं। इनके मुखांग काटने वाले परंतु कमजोर होते हैं। हानिकारक अवस्था इल्ली होती है।

वयस्क मादा भंडारित मसूर के दानों पर चमकदार, सफेद चपटे अंडे चिपकाती है। अंडो से सफेद सी इल्ली निकलकर बीज कवच (छिलके) में छेद करके अंदर जाकर प्रोटीन वाले हिस्से को खाती हैं एवं दोनों को खोखला कर देती है। इल्ली अवस्था पूर्ण होने में 10 से 38 दिन लगते हैं। इस कीट की वर्ष भर में 7 से 8 पीढ़ियाँ होती है। अप्रैल से सितम्बर तक इनकी सक्रियता अधिक रहती है तथा अक्टूबर व नवम्बर में कम सक्रियता होती हैं। ध्यान न देने पर कभी कभी 80 से 90 प्रतिशत दाने घुन जाते हैं।

नियंत्रण
  1. भंडारण के पहले बीजों को अच्छी तरह धूप में सुखाना चाहिए। सूखे हुए बीज दांत से दबाने पर कट की आवाज़ करते हैं।
  2. भंडारण पात्र, बारदाना, भंडारण गृह वाहनों को अच्छी तरह साफ करें।
  3. भंडार गृह की दीवारों को फर्ष से ढाई फुट ऊपर तक कोलतार से पोतकर नमी अवरोधी बनायें।
  4. भंडारण गृह को चूने से पुताई करें। संभव हो तो 100 लाटर चूने के घोल में डेढ़ किलो फिटकरी घोल कर दिवारों की पुताई करवाना चाहिए। इससे कीट व बीमारियों के पनपने की संभावना कम हो जाती है।
  5. भंडारण करने के लिये खाद्य तेल 5 मि.ली. प्रति किलो बीज में अच्छी तरह मिलाकर रखना चाहिए।
  6. मिट्टी की कोठियों (कुठला) पर कोलतार एवं घासलेट (4:5) के मिश्रण की पुताई करके नमी अवरोधी बनायें।
  7. हो सके तो धातु (जी.आई.शीट.) की कोठियों का प्रयोग करें।
  8. भंडारित पात्र में ई.बी.डी. नामक धूमक कीटनाशी की शीशी (एम्प्यूल) का उपयोग करना चाहिए। तीन मि.ली. की एक शीशी प्रति क्विंटल मसूर के हिसाब से सावधानी पूर्वक तोड़कर रखना चाहिए। शीशी रखने के बाद पात्र का ढक्कन अच्छी तरह से बंद कर देना चाहिए । अधिक मात्रा में उपयोग हेतु बड़ी शीशी (3 के गुणांक वाली) का उपयोग करें।
  9. यदि भंडारण बोरो में भरकर किया हो तो बोरो के बीच बीच में ई.डी.बी. शीशियों को तोड़कर मोटी पालिथिन चादर से अच्छी तरह से ढंक देना चाहिए। पालिथिन के बाहरी किनारों को गीली मिट्टी से या ईंट या पत्थर रखकर बंद कर देना चाहिए जिससे गैस बाहर न निकल पाए।
  10. भंडारित की गई बोरियों पर 6 मि. ली. मेलाथियान एक लीटर पानी के हिसाब से वांछित घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। एक माह के अंतराल पर दुबारा छिड़काव करना चाहिए।

 

Source-

  • Jawaharlal Nehru Krishi VishwaVidyalaya,Jabalpur(M.P.)
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