सेवण घास उत्पादन एवं प्रबंधन

परिचय

भारतीय उष्ण शुष्क क्षेत्र लगभग 3.2 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है, जहाँ वार्षिक वर्षा 100-500 मिली होती है । इस क्षेत्र का लगभग 62 प्रतिशत भाग पश्चिमी राजस्थान में स्थित है । यहाँ की रेतीली भूमि में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बहुत कम ( 0.05 से 0.17) है । वर्षा की कमी व वनस्पति की विरलता इसके मुख्य कारण हैं । भूमि की जल धारण क्षमता कम ( 4 से 15: भार/आयतन ) है और सतह से पानी छनकर जल्दी जमीन में चला जाता है ।

रेतीली भूमि में आॅक्सीजन भी ज्यादा होता है । इसके फलस्वरूप भूमि की उत्पादकता कम है । इस क्षेत्र में अकाल एक साधारण घटना है जिसकी आवृत्ति 2.5 वर्ष में एक बार है । बार-बार पड़ने वाले अकाल के कारण फसलों की खेती करना मुश्किल व अनिश्चित होता है । अतः पशुपालन यहाँ के लोगों का मुख्य व्यवसाय रहा है, जबकि पशुओं की संख्या जमीन की वहन क्षमता से कहीं ज्यादा है । विश्व के सभी मरुस्थलों में थार मरुस्थल सबसे अधिक पशु व मानव घनत्व वाला क्षेत्र है । पशुओं की अधिकता के कारण चारे की माँग, उत्पादन की तुलना में अधिक रहती है ।

इन क्षेत्रों की प्राकृतिक चराई भूमि की उत्पादकता अत्यधिक चराई के कारण बहुत कम हो गई है । एक अनुमान के अनुसार पश्चिमी राजस्थान की 80 प्रतिशत चराई वाली भूमि की उत्पादकता 300 किलोग्राम शुष्क पदार्थ प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष है । राजस्थान में हरे व सूखे चारे की अनुमानित माँग, क्रमशः 549 व 539 लाख टन है जबकि उपलब्धता केवल 350 व 264 लाख टन ही है ।

शुष्क क्षेत्र में अकाल के समय चारे की माँग और आपूर्ति में अन्तर बढ़ जाता है । इस क्षेत्र में सामान्य वर्षा की स्थिति में चारे के विभिन्न स्रोतों जैसे खेती, खेती के अवशिष्ट, परती व चरागाहों से पशुओं के चारे की दो तिहाई माँग की ही पूर्ति हो पाती है । पड़ोसी राज्यों से चारा मंगवाना यहाँ के लिए एक सामान्य प्रक्रिया है । अतः शुष्क क्षेत्र की कम उपजाऊ व बंजर भूमि का चराई हेतु विकास/पुनर्जीवन पशुओं के लिए आपूर्ति में सहायक होगा।

 

सेवाण घास

सेवण घास प्राय हल्की, चूनायुक्त, रेतीली भूमि व रेतीले टिब्बों के लिए उपयुक्त है । दोमट बलुई भूमि में यह घास आसानी से उगती है । यह घास मिश्र, सोमालिया, अरब, एबिसिनिया, पाकिस्तान(सिंध) व भारत में पायी जाती है । भारत में मुख्यतया पश्चिमी राजस्थान ( जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर, जोधपुर, चुरू जिले) में यह अन्य घासों के साथ उगती पाई जाती है । पिछले दशक तक जैसलमेर जिले का 80 प्रतिशत भू-भाग जिसमें नाचना, पश्चिमी पूगल, मोहनबढ़, सुल्ताना और बिंजेवाला जहाँ वार्षिक वर्षा 100-150 मिमी होती है, में सेवण घास उगती थी ।

सारणी 1. पश्चिमी राजस्थान में सेवण के सहयोगी घासों के समुदाय ।

घास समुदाय

स्थान

लेज्युरस सिंडीकस (सेवण)-इल्युसिन कम्प्रेसा (टांटिया) चान्दन (जैसलमेर)
लेज्युरस सिंडीकस-सिम्बोपोगोन ज्वारानकुसा (बूरडा)-इल्युसिन कम्प्रेसा बीछवाल (बीकानेर)
लेज्युरस सिंडीकस – डेक्टीलोक्टेनियम सिंडीकम (गंठिया)-एरिस्टडा एडसेनसिओनिस सोभाला (बाड़मेर)
लेज्युरस सिंडीकस – सिम्बोपोगोन शोएनंथस बींजासर (बाड़मेर)
लेज्युरस सिंडीकस – पेनिकम टरजिडम (मुरठ) उडसीर (बाड़मेर)
लेज्युरस सिंडीकस – सेंक्रस बाइफ्लोरस (भंरूट) हिंगोला (जोधपुर)

 

सेवण में तने जमीन से निकलते हैं  तथा पौधे की आकृति लगभग झाड़ीनुमा बनती है व पौधा 100-125 सेमी तक ऊँचा बढ़ता है । प्ररोहों की संख्या बहुत ज्यादा होती है । यह जानवरों के लिए पाचक व पोषक घास है । बढ़वार की प्रारम्भिक अवस्था में भेड़ बकरियाँ इसको बड़े चाव से खाती हैं। गायों के लिए भी यह एक उत्तम घास है । ताजा पत्तियों में अपरिष्कृत प्रोटीन की मात्रा 7 से 14 प्रतिशत तक होती है । पकने के समय भी अपरिष्कृत प्रोटीन की मात्रा 4-6 प्रतिशत तक पाई जाती है । पोषण में बाधक तत्व नहीं के बराबर होते हैं, जिससे इस घास को बढ़वार की प्रारम्भिक अवस्था में पशुओं को बेझिझक खिलाया जा सकता है ।

अच्छी तरह से विकसित जड़ तंत्र के कारण यह घास दशकों तक जीवित रहती है । सेवण की 65 प्रतिशत जड़ें 1.5 मीटर से गहरी जाती हैं, जो भूमि की निचली सतहों से नमी सोखने की क्षमता रखती हैं, इसलिए यह एक सूखा सहन करने वाली घास है । सेवण घास की उत्पादन तकनीकें जो मुख्यतया केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान, जोधपुर द्वारा विकसित की गई है, को अपना कर शुष्क क्षेत्र में चारे की कमी को कम किया जा सकता है ।

 

सेवण चारागाह विकास में आने वाली मुख्य बाधाएं

सेवण घास स्थापना से संबंधित बाधाएं क्षेत्र में पशुपालन विकास से जुड़ी हुई हैं, जो पादप-पशु संबंध के ज्ञान पर प्रत्यक्ष प्रभाव रखती हैं । सेवण चारागाह विकास में आने वाली मुख्य बाधाएं निम्न प्रकार हैं –

1. अत्यधिक चराई से चारा उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव

चारागाह का क्षेत्र वर्तमान पशुधन संख्या की कुल चारा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं है । पशु घनत्व अधिक होने के कारण रेगिस्तानी क्षेत्र में चारागाह की वहन क्षमता से अधिक व अवैज्ञानिक तरीके से चराई की जाती है । फलस्वरूप चारागाह की उत्पादकता में तेजी से गिरावट आती है । कम व असमान वर्षा इस समस्या को ओर बढ़ा देती है ।

2.उन्नत किस्मों का अभाव

सेवण घास में विकसित उन्नत किस्में न होने के कारण उपलब्ध प्रकार से ही सेवण चारागाह लगाया जाता है । इस तरह स्थापित चारागाह की उत्पादन क्षमता कम होती है ।

3. गुणवत्तायुक्त बीज का अभाव

सेवण स्थापना हेतु उच्च गुणवत्ता के बीज की आवश्यकता बहुत अधिक है । जबकि उपलब्धता बहुत ही कम है । जो भी बीज उपलब्ध होता है, उसकी गुणवत्ता अच्छी नहीं होती । प्रायः बीज जमीन से इकट्ठा किया जाता है, जिसकी भौतिक शुद्धता काफी कम होती है । ज्यादातर इन बीजों को ही चारागाह स्थापना के लिए प्रयोग में लिया जाता है, जिससे बांछित सफलता नहीं मिलती ।

4.  चारागाह स्थापना से संबंधित उन्नत तकनीकों के प्रचार-प्रसार का अभाव:

चारागाह से संबंधित उन्नत तकनीकें, जैसे बुआई की विधि, निराई-गुड़ाई, चारागाह उपयोग, रखरखाव, चारा संरक्षण, बीज उत्पादन आदि सेवण उत्पादन से जुड़े लोगों तक नहीं पहुंच पाई है । जिसके अभाव में सेवण चारागाह का विकास व विस्तार आशातीत नहीं हुआ है ।

 

२.चारागाह स्थापना, विकास व प्रबंधन

चारागाह  की स्थापना व विकास के लिए न केवल वैज्ञानिक पहलू आवश्यक है अपितु इसके लिए शैक्षिक, सामाजिक एवं राजनैतिक पक्ष को भी ध्यान में रखना जरूरी है । चारागाह के लाभों से ग्रामीणों का अवगत होना आवश्यक है । पंचायतों व अन्य स्थानीय संस्थाओं की भी महत्वपूर्ण भागीदारी की आवश्यकता है । इस कार्य से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े सभी लोगों को यह जानना जरूरी है कि विकसित चराई भूमि का संबंध प्रदेश की आर्थिक प्रगति से है…..आगे पढ़े

 

३.अन्तराशस्य व वनचारागाह पद्धति

राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों में किसान सेवण के साथ अन्य फसलें भी उगाते हैं व जुताई के समय सेवण के बूजों को खेतों में बचाकर रखते हैं । इन बूजों के बीच फसलों की खेती करते हैं । इससे किसानों को पशुओं हेतु वर्षा के बाद जल्दी ही चारा मिलने लगता है । सेवण घास की पट्टियों की चैड़ाई 3, 6 और 9 मीटर रखनी चाहिए । इन पट्टियों के बीच आवश्यकतानुसार जगह छोड़ी जाती है, जिसमें ग्वार, मोठ, बाजरा, आदि फसलों की खेती की जाती है…..आगे पढ़े

 

४.चारागाह उपयोग

जनवरों को यदि हरा चारा काटकर खिलाना है तो गुणवत्ता युक्त चारे के लिए पुष्पन की अवस्था उत्तम है । यदि भूमि में नमी बाधक नहीं हो तो सेवण में लगातार कल्ले निकलते रहते हैं । लगभग 50 प्रतिशत कल्लों में पुष्पन होने पर कटाई करें, यद्यपि पुष्पन भी भूमि में नमी, वर्षा की मात्रा, पौधों की उम्र, अंतराशस्य क्रियाएँ, आदि पर निर्भर करता है । पहले के वर्षों में स्थापित पौधों में यह स्थिति कम वर्षा होने पर 20 दिन में तथा सामान्य वर्षा होने पर यह स्थिति 30-35 दिन में आती है….आगे पढ़े

 

स्रोत-

  • केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान जोधपुर – 342 003 राजस्थान

 

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