सिंघाड़े का वानस्पतिक नाम ट्रापा बिस्पीनोसा है तथा इसे पानीफल या वाटर चेस्टनट के नाम से जाना जाता हैं। यह एक जलीय पौधा है जिसकी जड़ें पानी के अन्दर मिट्टी में धंसी रहती हैं एवं पत्तियों का गुच्छा पानी के ऊपर तैरता रहता है। इसकी पत्तियों के डंठल में स्पंजनुमा उत्तक होते है जिसमें हवा भरी रहती है। यही वजह है कि पत्तियाँ सतह पर तैरती रहती हैं। सिंघाड़े का प्रयोग सब्जी, फल एवं सूप के रूप में किया जाता है। सूखे हुए फलों का आटा ब्रत में हलवा बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है।
एक आंकड़े के अनुसार 100 ग्राम कच्चे फलों में 70 प्रतिशत पानी, 23प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 4.70 प्रतिशत प्रोटीन, 0.30 प्रतिशत वसा, 0.60 प्रतिशत रेशा एवं 1.4 प्रतिशत खनिज तत्व पाये जाते है। फलों में पोषक तत्वों के अतिरिक्त औषधीय गुण भी विद्यमान है। सिंघाड़े में आयोडिन एवं मैग्नीज उपस्थित होने के कारण यह घेंघा रोग से बचाता है। सिंघाड़े का प्रयोग विभिन्न जीवाणु एवं विषाणु संबधित रोग, कैंसर, मूत्र संबधी रोग, कुष्ठ रोग एवं खून संबधित बीमारियों से बचाता है। चेचक की बीमारी में इसके बीज के पाउडर का प्रयोग राहत देता है।
जलवायु एवं भूमि का चयन
इसकी खेती उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा एवम मध्य प्रदेश में उन जगहों पर की जाती है जहाँ 60-120 सेमी तक पानी का जमाव जून से जनवरी तक रहता है। सामान्यतः इसकी खेती तालाब, पोखरों, छोटे-छोटे गड्ढों में की जाती है।
सिंघाड़े की प्रजातियाँ
सिंघाड़े की दो प्रकार की किस्में प्रचलित हैं- हरे छिल्के वाली तथा लाल छिल्के वाली। व्यावसायिक खेती के लिए हरे छिल्के वाली किस्म अच्छी मानी जाती है क्योंकि लाल किस्म तुड़ाई के एक दिन बाद काली पड़ने लगती है जिससे उसका बाजार मूल्य घट जाता है। भा.कृ.अनु.प.-भारतीय सब्जी अनुसन्धान संस्थान में सिंघाड़े पर भी शोध कार्य प्रारम्भ किया गया है। यहाँ लाल (वी.आर.डब्लू.सी.-1 और 2) तथा हरे (वी.आर.डब्लू.सी.-3) दोनों प्रकार के संग्रहण हैं।
प्रसारण एवं रोपाई
सिंघाड़े की खेती के लिए सर्वप्रथम जनवरी-फरवरी में बीज द्वारा पौधे तैयार करते है तथा उनमें से एक-एक शाखायें लेकर उनका प्रसारण करते हैं। सिंघाड़े की रोपड़ रोपड़ के पर्वू प्रतिहेक्टेयर 8-10 टन गोबर की खाद जल जमाव क्षेत्र में छिटकना चाहिए तथा नत्रजन, फाॅस्फोरस एवं पोटाश की मात्रा 40:60:40 किग्रा/हेक्टेयर की दर से दी जाती है। एक तिहाई नत्रजन तथा पूरे फाॅस्फोरस एवं पोटाश की मात्रा रोपड़ से पहले दी जाती है। शेष नत्रजन की मात्रा को दो भागों में बांटकर एक माह के अन्तराल पर देना चाहिए। जून-जुलाई माह में जब तालाबों में पानी इकट्ठा हो जाये तो लट्टे के सहायता से मिट्टी में छोटे-छोटे गड्ढे बनाकर पौध की रोपाई करते है। रोपड़ के लिए 0.75-1.00 मीटर लम्बे पौधों का चयन करना चाहिए। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में रोपड़ के लिए 600-700 पौधों की आवश्यकता होती है।
तुड़ाई एवं उपज
सिंघाड़े के पौधों पर सितम्बर माह में फूल आने लगते है एवं अक्टूबर के पहले सप्ताह से सब्जी योग्य फल तुड़ाई
के लिए तैयार हो जाते हैं। दस से पंद्रह दिनों के अन्तराल पर लगभग 10 तुड़ाई की जाती है जिससे एक हेक्टेयर से लगभग 20-30 टन फल प्राप्त किया जा सकता है।
Source-
- भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान