देश में क्षेत्रफल तथा उत्पादन दोनों की दृष्टि से सरसों का तिलहनी फसलों में प्रमुख स्थान है । सरसों रबी की एक प्रमुख तिलहनी फसल है जिसका भारतीय अर्थव्यवस्था में एक विशेष स्थान है । इसकी खेती मुख्य रूप से राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा एवं मध्य प्रदेश में की जाती है । सरसों कृषकों के बीच बहुत अधिक लोकप्रिय है क्योंकि इससे कम सिंचाई व लागत में दूसरी फसलों की अपेक्षा अधिक लाभ प्राप्त हो रहा है । इसकी खेती मिश्रित रूप से एवं दो फसलीय चक्र में आसानी से की जा सकती है ।
सरसों की उत्पादकता 900-950 कि.ग्रा./हैक्टेयर है । देश भर में विभिन्न राज्यों में सरसों फसल के कम उत्पादन के प्रमुख कारण निम्न प्रकार हैं:- उपयुक्त किस्मों का चयन नहीं करना, असंतुलित उर्वरक प्रयोग एवं कीटों व बीमारियों की अपर्याप्त रोकथाम । इनमें से किसी एक की कमी से फसल की पैदावार में काफी नुकसान हो जाता है । इसके अलावा कुछ राज्यों में नमीं की सीमित मात्रा एवं खरपतवारों का अधिक प्रकोप भी उपज पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं ।
भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान भोपाल में पिछले कुछ वर्षों से सरसों की जैविक खेती पर शोध कार्य प्रारंभ किया गया । इस शोध कार्य में पोषण प्रबंधन, उन्नत सस्य तकनीक तथा कीट एवं बीमारियों की रोकथाम का विशेष ध्यान रखा गया । इस शोध से यह स्पष्ट हो गया है कि जैविक पद्धति द्वारा सरसों की भरपूर उपज प्राप्त की जा सकती है ।
जैविक सरसों उत्पादन से लाभ
- मृदा में जैविक कार्बन एवं उर्वरता में सुधार होता है ।
- मृदा में होने वाली जैविक क्रियाओं में सुधार होता है ।
- जैविक खादों तथा कीटों व बीमारियों की रोकथाम में काम आने वाले पदार्थों का उत्पादन किसान अपने खेत पर ही कर सकते है, जिससे उत्पादन लागत में कमी हो जाती है ।
- जैविक कृषि में कचरे के उचित प्रबंधन द्वारा प्राकृतिक संतुलन बना रहता है तथा साथ ही पर्यावरण प्रदूषण में भी कमी आती है ।
- मृदा के भौतिक, रासायनिक, जैविक गुणों में सुधार होता है ।
- सरसों की पत्तियां सूखकर झड़कर खेत की मिट्टी में मिल जाती हैं और मिट्टी की उर्वरता को बढ़ा देती हैं ।
- मृदा में उपस्थित विभिन्न लाभदायक जीवों की क्रियाशीलता बढ़ जाती है ।
- मृदा की जलधारण क्षमता बढ़ जाती है ।
सरसों की जैविक खेती के लिए महत्वपूर्ण बिन्दु
जलवायु
सरसों आर्द्र एवं शुष्क दोनों ही प्रकार के गर्म इलाकों में भली प्रकार उगाई जा सकती है । वातावरण का प्रभाव सरसों के पौधे के लिए अन्य फसलों की अपेक्षा अधिक महत्व रखता है । अधिक तेल उत्पादन के लिए सरसों को ठंडा तापमान, साफ और खुला आसमान और पर्याप्त मृदा आद्रता की आवश्यकता पड़ती है । पौधों में फूल आने और बीज बनने के समय बादल और कोहरे से भरे मौसम का हानिकारक प्रभाव पड़ता है । मधुमक्खियों के न आने से निषेचन न होने से भी उपज में भारी कमी आ जाती है । अधिक पैदावार के लिए सामान्यतः कम तापमान आवश्यक है । पाले से उपज को अधिक हानि पहुचती है । व्यवहारिक रूप से बिना वर्षा वाले क्षेत्रों में सिंचाई के साधन जुटाकर सरसों की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है ।
भूमि का चयन
स्रसों समतल और अच्छे जल निकासी वाली बलुई और दोमट मिट्टी में अच्छी उपज देती है । इसके लिए जमीन गहरी और इसमें जल धारण करने की अच्छी क्षमता होनी चाहिए । अच्छी पैदावार के लिए मिट्टी का पी.एच. मान उदासीन होना चाहिए । अत्यधिक अम्लीय एवं क्षारीय मृदा इसकी खेती हेतु उपयुक्त नहीं हैं । यद्यपि क्षारीय भूमि में उपयुक्त किस्म लेकर इसकी खेती की जा सकती है । भूमि क्षारीय हो वहां हर तीसरे वर्ष जिप्सम 5 टन/हैक्टेयर प्रयोग करना चाहिए । जिप्सम की आवश्यकता मृदा पी.एच. मान के अनुसार भिन्न हो सकती है ।
जिप्सम को मई-जून में मिट्टी में मिला देना चाहिए और खेत की मेढ़ों को ऊंचा करना चाहिए, जिससे बरसात का पानी खेत में रुके । जिप्सम खेत में मौजूद सोडियम से क्रिया करके सोडियम सल्फेट बनाता है । खेत में पानी रोके रखने से सोडियम सल्फेट भूमि के निचले संस्तरों में चला जाता है ।
खेत की तैयारी
थ्संचित क्षेत्रों में खरीफ फसल की कटाई के बाद पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और उसके बाद 1-2 जुताई देशी हल/कल्टीवेटर से करनी चाहिए । इसके पश्चात् पाटा लगाकर ढेलों को तोड़कर मिट्टी को भुरभुरा करना चाहिए । गर्मी में गहरी जुताई करने से कीड़े-मकोड़े नष्ट हो जाते हैं । अगर बुआई से पूर्व खेत में नमी की कमी है तो खेत में पलेवा करना चाहिए ।
असिंचित क्षेत्रों में जहां सरसों की खेती खरीफ के खाली खेतो में की जाती है वहां प्रत्येक अच्छी वर्षा के बाद डिस्क/तवा हैरो चलाया जाता है ताकि नमीं को संरक्षित किया जा सके । जब वर्षा ऋतु समाप्ति की ओर हो तो प्रत्येक जुताई के बाद पाटा लगाया जाना चाहिए जिससे खेत अच्छी तरह से तैयार हो जाए ।
किस्मों का चयन
प्रमुख रूप से सरसों की निम्न किस्मों को अगेती सामान्य समय एवं देर से बुआई वाले सिंचित बारानी तथा लवणीय व क्षारीय क्षेत्रों में उपयुक्त पाया गया है ।
समय पर बुआई-बरानी क्षेत्र के लिए-अरावली, आर.एच.819, गीता, आर.बी.50 समय पर बुआई-सिंचित क्षेत्र के लिए-पूसा-जय किसान, रोहिणी, आर.एच.30, बसंती, पूसा बोल्ड अगेती बुआई वाली-पूसा अग्रणी, क्रान्ति, पूसा महक, नरेन्द्र अगेती राई-4 देर से बुआई वाली-नव गोल्ड, शताब्दी, स्वर्ण जयंती लवणीय मृदा की किस्में-सी.एस.54, सी.एस.52, नरेन्द्र राई-1|
बुआई का समय
किसी भी फसल के लिए बुआई का समय बहुत महत्व रखता है । अगर समय पर बुआई कर दी जाती है तो फसल उत्पादन में 50 प्रतिशत सफलता मिल जाती है । सरसों को बोने के लिए अनुकूल समय सितम्बर के अंतिम सप्ताह से अक्टूबर के अंतिम सप्ताह तक है । देरी से बुआई करने पर कीड़े के प्रकोप के साथ-साथ पाले व ठंड से नुकसान होने की संभावना बढ़ जाती है । लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि बुआई के समय तापमान 26-30 डिग्री सेल्सियस हो । यदि तापमान अधिक हो तो बुआई देर से करना चाहिए ।
बीज की मात्रा एवं बीजोपचार
बीज की मात्रा 4-5 कि.ग्रा./हैक्टेयर पर्याप्त होती है । वातावरण व नत्रजन के प्रभावशाली स्थिरीकरण के लिए सरसों के बीजों को एजोस्पाइस्लि कल्चर से तथा फास्फोरस विलयकारी जीवाणु कल्चर से बीज को 5-5 ग्राम/कि.ग्रा.बीज उपचारित करना चाहिए । बीजों को बुआई से पहले गुड़ के घोल स ेनम करके जीवाणु कल्चरों के साथ अच्छी तरह मिलाकर छाया में सुखाना चाहिए । फसलों को स्कलेरोशिया गलन रोग के प्रकोप से बचाने के लिए लहसुन का 2 प्रतिशत सत बीजोपचार के लिए उपयुक्त पाया गया है ।
लहसुन का 2 प्रतिशत सत तैयार करने के लिए 20 ग्राम लहसुन को बारीक पीसकर कपड़े से छानें और एक लीटर पानी में मिलाकर घोल तैयार करें । एक लीटर लहसुन का 2 प्रतिशत सत 5-7 कि.ग्रा. बीजों के लिए पर्याप्त है । इसके लिए बीज को सत में 10-15 मिनट तक भिगोया जाता है इसके उपरान्त उपचारित बीज को छायादार जगह पर सुखाया जाता है । इसके उपरान्त उपचारित बीज को छायादार जगह पर सुखाया जाता है । इसके उपरान्त बुआई की जाती है । साथ ही 50 दिन पर जब 35-40 प्रतिशत फूल आ जाएं, उस समय एक छिड़काव इसी मात्रा से कर दें एक लीटर लहसुन का 2 प्रतिशत सत प्रति हेक्टेयर करें । आवश्यकतानुसार दूसरा छिड़काव 70 दिन की फसल पर करें । ध्यान रखें कि छिड़ाकव रोग पनपने से पहले ही किया जाए व पौधों के सभी भागों पर हो जाए ।
बुआई की विधि
सरसों की बुआई कतारों में 30-35 सें.मी. के अंतर से करनी चाहिए । पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखी जानी चाहिए । बीज कितना गहरा बोया जाए यह खेत की नमी पर निर्भर करता है । फिर भी साधारणतः बीज को 2-2.5 सें.मी. से अधिक गहरा नहीं बोना चाहिए ।
पोषण प्रबंधन
तिलहनी फसलों की जड़ें मूसला प्रकृति की होती हैं । जो कि काफी गहराई तक जाती हैं । जड़ों की समुचित वृद्धि के लिए आवश्यक है कि खेत की मिट्टी पोली एवं हवादार रहे जिससे जड़ों की एवं मृदा में विद्यमान लाभकारी जीवाणुओं की सक्रियता बढ़ जाए । जैविक खाद को भूमि में मिलाने से भूमि की जलधारण क्षमता बढ़ जाती है और भौतिक दशा अनुकूल बनी रहती है । इसके साथ ही इन खदों के द्वारा सभी प्रकार के पोषक तत्व पौधों को पर्याप्त अवस्था में मिल जाते हैं । कभी भी कच्ची खाद का उपयोग न करें इससे खेत में दीमक लगने की आशंका के साथ ही खेत में खरपतवार भी अधिक उगते हैं ।
जैविक खादों की बुआई से 10-15 दिन पूर्व ही खेत में बिखेरकर समान रूप से ऊपरी 15 सें.मी. गहराई तक अच्छी तरह से मिला देना चाहिए । स्थानीय उपलब्धता के आधार पर उपरोक्त खादों में से कोई एक अथवा दो या तीन खादों को सम्म्लिित रूप से उपयोग कर सकते हैं । सरसों में गोबर की खाद एवं कुक्कुट खाद को सम्मिलित रूप से उपयोग करने पर अन्य मिश्रणों की तुलना में अधिक उपज प्राप्त होती है । जब जैविक खादों का सम्मिलित उपयोग हो रहा हो तो इस बात का प्रमुख रूप से ध्यान रखना चाहिए कि फसलों को कुल मिलाकर 60 कि.ग्रा. नत्रजन प्रति हैक्टेयर मिले ।
विरलीकरण
खेतों में पौधों की संख्या और समान पौध बढ़वार के लिए बुआई के 15-20 दिन बाद पौधों का विरलीकरण (थिनिंग) आवश्यक रूप से करना चाहिए । कतार में बुआई करने से अच्छी उपज प्राप्त होती है । सिंचित खेती में कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. और पौधे से पौधे की दूरी 10-15 से.मी. होनी चाहिए । असिंचित खेती में कतार से कतार एवं पौधे से पौधे की दूरी क्रमशः 15 एवं 45 से.मी. रखनी चाहिए|
खरपतवार नियंत्रण
खरपतवार नियंत्रण और नमी संरक्षण के लिए पहली सिंचाई से पूर्व ही निराई-गुड़ाई करनी चाहिए क्योंकि खरपतवार होने से सरसों की उपज 40-50 प्रतिशत घट जाती है । खरपतवार नियंत्रण खुरपी से या दो पहिए वाली हस्तचालित हो के द्वारा कर सकते हैं । गर्मी में गहरी जुताई के द्वारा भी खरपतवारों का प्रभावी नियंत्रण किया जा सकता है ।
सिंचाई
यह फसल सूखे के प्रति सहिष्णु होती है । पहली सिंचाई खेत की नमी, फसल की किस्म और मृदा प्रकार को ध्यान में रखते हुए 30-40 दिन के बीच फूल बनने के समय एवं दूसरी सिंचाई 60-70 दिन के बीच फली बनने पर करनी चाहिए । जहां पानी की कमी हो या खारा पानी हो वहां सिर्फ एक सिंचाई करना ही अच्छा रहता है ।
कीट एवं बीमारियों का प्रबंधन
कीटों एवं बीमारियों के सफलतापूर्वक प्रबंधन के लिए प्रतिरोधक या सहनशील किस्मों को उगाना चाहिए । किसी भी फसल की समय पर बुआई करने पर पर कीटों एवं बीमारियों के प्रकोप से काफी हद तक बचा जा सकता है । सरसों की फसल में लगने वाले प्रमुख कीट आरा मक्खी, चितकबरा कीट, चेंपा, लीफ माइनर एवं बिहार हेयरी केटरपिलर है । इनसे बचाव के लिए सर्वप्रथम जिन पत्तियों पर यह प्रारम्भिक अवस्था में झुंड में दिखे उन पत्तियों को तोड़कर जला देना चाहिए ।
कीटों के प्राकृतिक शत्रु जैसे लेडी वर्ड बीटल (काक्सीनेला स्पीसीज), सिरफिड (सिरफिड स्पीसीज) परजीव्याम माहूं आदि यदि खेत पर पर्याप्त मात्रा में हो तो परजीवी स्वतः ही कार्ड इन्सेक्ट कार्ड 3-4 कार्ड/एकड़ के हिसाब से रख कर कीटों का नियंत्रण किया जा सकता है । इसके साथ ही नीम का तेल एजाडिरेक्टीन 0.03 प्रतिशत का 45 एवं 60 दिन पर छिड़काव करने पर इन कीटों का प्रकोप नहीं होता है ।
सरसों की प्रमुख बीमारियों में पर्ण चिन्ती, सफेद रतुआ, आसिता तथा तना गलना है । समय पर बुआई, स्वच्छ, स्वथ्य व रोग रहित बीजों का उपयोग करने पर काफी हद तक बीमारियों की रोकथाम हो जाती है । रोग ग्रसित फसल अवशेषों को जलाकर या जमीन में दबा कर नष्ट कर देना चाहिए । गर्मी में गहरी जुताई करनी चाहिए । फसल की बुआई के समय 5 कि.ग्रा./हैक्टयेर की दर से ट्राइकोडरमा विरिडी को जैविक खाद के साथ उपयोग करने पर गलन आदि रोग नहीं आते है । इसके साथ ही लहसुन का 2 प्रतिशत सत बीजोपचार के समय उपयोग तथा साथ ही बुआई के 50 दिन एवं 70 दिन बाद भी एक लीटर/हैक्टेयर की दर से लहसुन के 2 प्रतिशत सत का छिड़काव करना चाहिए । रोकथाम सबसे अच्छा तरीका समय पर बुआई (15-25 अक्टूबर के बीच) तथा स्वस्थ्य, स्वच्छ एवं प्रमाणित बीजों का उपयोग करना है ।
कटाई एवं गहाई
सरसों की भरपूर पैदावार के लिए जब 75 प्रतिशत फलियां पीली हो जाएं तब ही फसल की कटाई कर लें क्योंकि इसके पश्चात् तेल अंश एवं बीजों के भार में कमी होना शुरू हो जाता है । सरसों की कटाई सुबह के समय करना चाहिए ताकि बीज का बिखराव कम से कम हो । जब बीजों में नमीं लगभग 12-15 प्रतिशत हो जाए तब फसल की मड़ाई करनी चाहिए । फसल की मड़ाई थ्रैसर से ही करनी चाहिए क्योंकि इससे बीज एवं भूसा अलग-अलग निकल जाता है । बीज को निकालने के बाद साफ करके सुखाने के बाद भण्डारण करना चाहिए ।
उपज
जैविक पद्धति से सरसों की खेती करने पर प्रथम एवं द्वितीय वर्ष में रासायनिक खेती की तुलना में सरसों की उपज में 5-10 प्रतिशत की कमी हो सकती है, लेकिन उसके पश्चात् जैविक खेती में उपज समन्वित एवं रासायनिक पद्धति के बराबर या उससे अधिक उपज प्राप्त होती है । सरसों की किस्मों के अनुसार दाने की उपज 10-25 क्विंटल/हैक्टेयर तक प्राप्त हो सकती है ।
विभिन्न पोषण प्रबंधन विधियों का सरसों की उपज एवं गुणवत्ता पर प्रभाव
विधियाँ | सिलिक्वा/पौधा | बीज/ सिलिक्वा | परीक्षण भार (ग्राम) | उपज/है. (कि.ग्रा.) | प्रोटीन (%) |
जैविक | 193.4 | 13.1 | 4.50 | 1142 | 38.45 |
रासायनिक | 185.0 | 12.1 | 3.93 | 934 | 37.77 |
सम्बन्धित | 206.5 | 17.8 | 4.15 | 1270 | 38.29 |
स्रोत-
- निदेशक भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान (आई.सी.ए.आर.) नबीबाग, बैरसिया रोड, भोपाल – 462 038 (म.प्र.)