परिचय
सफेद मूसली लिलिएसी कुल का महतवपूर्ण औषधीय पौधा है जिसकी जड़ें आयुर्वेदिक दवाओं में बहुतायत से प्रयोग में लाई जाती है । इसकी वार्षिक उपलब्धता लगभग 5000 टन है जबकि इसकी मांग 35000 टन प्रति वर्ष आंकी गई है । यह पौधा संपूर्ण म.प्र. में साल एवं मिश्रित वनों में तथा बघेलखंड व नर्मदा सोन घाटी आदि मुख्य क्षेत्रों में पाया जाता है । अत्यधिक अपरिपक्व दोहन के कारण यह पौधा वनों से लुप्त होने की कगार पर है । वर्तमान में सफेद मूसली की मांग की पूर्ति 40 प्रतिशत वनों से एवं 20 प्रतिशत अन्य स्थानों से आयात कर पूरी की जा रही है । आजकल इसकी खेती म.प्र. में की जाने लगी है ।
आकारिकी
सफेद मूसली प्रकंदात्मक शाकीय तना रहित पौधा है जिसकी अधिकतम ऊँचाई 1 – 1.5 फुट होती है ताकि इसकी कंदिल जड़ें जिन्हें कंद या फिंगर कहते हैं जमीन में अधिकतम 10 इंच तक नीचे जाती है जिसमें 10 – 15 फिंगर्स जड़ें या मूसली लगी होती हैं । इसकी पत्तियां मूलीय, रेखीय, चपटी व नुकीली शीर्ष वाली होती है । पुष्पक्रम रेसीम है जिसमें सफेद फूल गुच्छे में लगे होते हैं । इसका फल केप्सूल एवं बीज चपटे गोल काले रंग के होते हैं । इसका प्रवर्धन बीज से भी होती है जिसकी अंकुरण क्षमता 30 – 40 प्रतिशत होती है ।
मध्य प्रदेश के जंगलों में वर्षा ऋतु प्रारंभ होते ही इसकी वृद्धि होने लगती है एवं अगस्त में पुष्पन हो जाता है । अक्टूबर/नवम्बर माह में इसकी पत्तियाँ एवं ऊपरी हिस्सा सूख जाता है तथा शीत एवं ग्रीष्म ऋतु में भूमिगत रहकर इसकी आधार की कलियाँ प्रसुप्त रहती हैं ।
प्रजातियाँ/किस्में
सफेद मूसली की 175 प्रकार की प्रजातियाँ होती है । जिनमें चार प्रकार की प्रजातियाँ प्रमुख हैं:
1. क्लोरोफाइटम बोरीबिलियानम
2. क्लोरोफाइटम लेक्सम
3. क्लोरोफाइटम अरून्डीनेसियम
4. क्लोरोफाइटम टयूबरोसम
मध्यप्रदेश के जंगलों में क्लोरोफाइटम बोरीबिलियानम एवं क्लोरोफाइटम टयूबरोस बहुतायत से पाई जाती हैं । इन दोनों में प्रमुख अंतर यह है कि टयूबरोसम में क्राउन के साथ एक धागा जैसा लगा होता है तथा धागों के उपरांत उसकी मोटाई बढ़ती जाती है जबकि बोरीबिलियानम में कंद के फिंगर की मोटाई ऊपर ज्यादा होती है या एक जैसी होती है एवं धागा जैसी रचना अनुपस्थित रहती है। टयूबरोसम की कीमत बाजार में बोरीबिलियानम से काफी कम प्राप्त होती है एवं टयूबरोसम का छिलका उतारना काफी कठिन होता है
उपयोगी भाग एवं औषधीय गुण
सफेद मूसली के जड़ एक आयुर्वेदिक टानिक है और इसे जिन्सेंग जैसा बलवर्धक माना गया है । भाव प्रकाश में भी इसके गुणों का उल्लेख मिलता है । मूसली प्रसवोपरांत माताओं का दूध बढ़ाने एवं अन्य बीमारियों के साथ – साथ मधुमेह, गठिया बात बीमारियों के निवारण एवं शुक्र बल्य रसायन के रूप में इसका उपयोग किया जाता है । इसे उच्च मूल्य जड़ी-बूटी के रूप में माना जाता है जिसकी मांग भारत के साथ-साथ विदेशों में भी तेजी से बढ़ रही है ।
रासायनिक संगठन
सूखी जड़ों में पानी की मात्रा 5 प्रतिशत से कम होती है । इसमें कार्बोहाइड्रेट 42 प्रतिशत, प्रोटीन 8-9 प्रतिशत, रूट फाइवर 3 प्रतिशत, ग्लोकोसाइडल सपोनिन्स 2-17 प्रतिशत के साथ-साथ सोडियम, कैल्शियम, मैंग्नीशियम, फास्फोरस, जिंक एवं काॅपर जैसे खनिज लवण भी पाए जाते हैं ।
जलवायु
यह वर्षा ऋतु की फसल है । यह समशीतोष्ण जलवायु वाले वनों में प्राकृतिक रूप से पाई जाती है । इसे 800-1500 मि.मी. वर्षा वाले क्षेत्रों में मुख्य फसल के रूप में लगाया जा सकता है ।
भूमि
उपयुक्त जल निकास वाली हल्की रेतीली दोमट, लाल भूमि इसकी खेती के लिए उपयुक्त है । अधिक उपजाऊ भूमि इसकी खेती के लिए उपयुक्त है एवं इसमें इसकी उपज अच्छी होती है । यह जल लग्नता सहन नहीं कर सकती है एवं पथरीली भूमि में जड़ों की वृद्धि कम होती है । सफेद मूसली की खेती पहाड़ के ढलानों तथा अन्य ढाल भूमि में भी की जा सकती है ।
उन्नत किस्में
क्लोरोफाइटम वोरीबिलयानम की उन्नत किस्में एम.सी.बी. 405, एम.सी.बी. 412 एवं टयूबरोसम की एम.सी.टी. 405 है जो ज.ने.कृ.वि.वि. के मंदसौर उद्यानिकी महाविद्यालय द्वारा विकसित की गई है ।
खाद एवं उर्वरक
रबी की फसल कटने के उपरांत ग्रीष्म ऋतु में गोबर की खाद डालकर एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से खेत की जुताई करें । इसके उपरांत डिस्क हैरो या कल्टीवेटर चलायें एवं पाटा चलाकर खेत को समतल करें । इसके उपरांत 2 मीटर चैड़ी, 10 मीटर लंबी एवं 20 से.मी. ऊँची क्यारियाँ बनायें । क्यारियों के बीच 30-40 से.मी. का अंतर रखें । ये नालियाँ वर्षा ऋतु में जल निकासी का कार्य करेंगी एवं वर्षा उपरांत ये नालियाँ सिंचाई के कार्य में आयेगी ।
प्रर्वधन विधि /रोपाई
सफेद मूसली की डिस्क या अक्ष में जो कलियां होती हैं उन्हें बीज के रूप में उपयोग करते हैं । इसकी जड़ें गुच्छे में पाई जाती हैं । अतः इन जड़ों को इस प्रकार पृथक करना चाहिए कि प्रत्येक जड़ के साथ अक्ष का हिस्सा अवश्यक लगा रहे । जिससे कम से कम एक कलिका हो । एक हेक्टेयर हेतु 2 लाख डिस्क या 6 – 8 क्विंटल डिस्क की आवश्यकता होती है इन डिस्कों की रोपाई में कतार से कतार की दूरी 30 सें.मी. एवं डिस्क की दूरी 20 सें.मी. रखते हैं । रोपाई करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि रोपण की गहराई उतनी हो जितनी जड़ों की लंबाई हो ताकि, जड़ों के ऊपर के अक्ष में लगी कलिका ऊपरी सतह के बराबर हो, इसे मृदा से नहीं ढंकना चाहिए । केवल जड़ों को ही भूमि में अंदर होना चाहिए ।
सिंचाई, निंदाई एवं अंतरवर्ती फसलें
रोपण उपरांत यदि वर्षा नहीं होती तब सिंचाई की आवश्यकता होती है । वर्षा ऋतु में यदि वर्षा ठीक से नही हो रही हो तो, अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में एक सिंचाई अवश्य करना चाहिए । इसकी निंदाई रोपण के 25-30 दिन उपरांत अवश्य करें एवं आवश्यकतानुसार दो तीन निंदाई करें |सफेद मूसली को पापुलर, पपीता, अरंडी या अरहर की फसलों के बीच अंतरवर्ती फसलों के रूप में लगाकर अतिरिक्त लाभ प्राप्त किया जा सकता है । आंवला, आम, नींबू आदि के फल वृक्षों की कतार के बीच में भी इसकी खेती की जा सकती है
सफेद मूसली की खुदाई एवं बीज एकत्रीकरण
सफेद मूसली की रोपाई के तीस – चालीस दिन उपरांत पुष्पदंड निकलना प्रारंभ हो जाते हैं जिसमें फल एवं बीज बनने लगते हैं । फलों को पकने पर तोड़ लेना चाहिए । यह क्रम 50-60 दिन चलता रहता है । फलों से बीज निकालकर उन्हें सुखाकर भंडारित करना चाहिए ।
इसकी खुदाई दिसम्बर-जनवरी माह में की जाती है । खुदाई के दो दिन पूर्व स्प्रिंकलर से हल्की सिंचाई कर खुदाई करना चाहिए इस समय मूल में लगी कलिका प्रसुप्तावस्था में आ जाती है । सफेद मूसली के पत्ते सूखने के उपरांत भी 1 माह के लिए जमींन में रहने देना चाहिए ताकि कंद पककर गहरे भूरे रंग के हो जायें । इसके उपरांत ही खुदाई करना चाहिए ।
प्रसंस्करण एवं भंडारण
मूसली की खुदाई के उपरांत बड़ी एवं छोटी जड़ों को अलग अलग करें एवं बड़ी जड़ों को विक्रय हेतु रखे । विक्रय की जाने वाली जड़ों को पानी से साफ कर मिट्टी अलग करें । उखाड़े गये कंदों की टोकरियों को पानी के बहाब के नीचे रखकर भी कंदों की धुलाई की जा सकती है । विक्रय किए जाने वाले कंदों की ऊपरी सतह को चाकू, कांच या पत्थर से घिसकर उसका छिलका उतार दें । छीलने के उपरांत छिली हुई मूसली को सुखाया जाता है ताकि उसमें उपस्थित नमीं पूर्णतया सूख जाए । छीलने तथा सुखाने की प्रक्रिया में ताजी मूसली खेत से उखाड़ी हुई मूसली का 20 से 25 प्रतिशत तक सूखी मूसली के रूप में प्राप्त होता है ।
सूखी प्रसंस्कृत मूसली जिसमें 7 -8 प्रतिशत से अधिक आर्द्रता न हो उसे पाॅलीथिन या नाइलोन की बोरियों या थैलियों में भरकर शुष्क स्थान में विक्रय हेतु रखें ताकि यह सुरक्षित रह सके तथा इस पर किसी प्रकार की नमीं आदि का प्रभाव न पड़े ।
आगामी फसल के लिए कंदों को भंडारित करना
छोटी जड़ों को डिक्क सहित बिना साफ किए, बीज हेतु छाया में रेत के अंदर भंडारित करना चाहिए ताकि उन्हें अगले वर्ष की रोपाई के काम लाया जा सके । सफेद मूसली की खुदाई करते समय ही हिस्क से संलग्न एक या दो मूल को जमीन में ही छोड़ दिया जाये तो अलग से भंडारण की जरूरत नहीं पड़ेगी । ये कंद शीत एवं ग्रीष्म ऋतु में खेत में सुसुप्त पड़ी रहकर अगले साल बीज के काम आएगी ।
उत्पादन एवं बाजार मूल्य
ताजी सफेद मूसली का उत्पादन 15-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है जिससे 4-5 क्विंटल सूखी जड़ें प्राप्त होती हैं । जड़ें 700-800 रूपये प्रति किलो के भाव से बिकती हैं ।
स्रोत-
- जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर,मध्यप्रदेश