हाल के वर्षों में औषधीय पादपों की मांग में काफी वृद्धि न केवल देश में हुई है बल्कि निर्यात के लिए भी इसकी मांग में काफी वृद्धि हुई है । इस अधिक मांग वाले क्षेत्र में ज्यादा से ज्यादा किसान आ रहे हैं । राष्ट्रीय औषधीय और सगंधीय पौध अनुसंधान केन्द्र, आनंद ने सनाय की खेती के लिए कृषि क्रियाओं का पैकेज विकसित किया है ।सनाय (कासिया एंगुस्टीफोलिया वहल) की पत्तियां और फलियां प्राकृतिक मृदुरेचक के रूप में आधुनिक और पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों दोनों में सामान्यतः उपयोग की जाती है ।
तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा रही है । तथापि इस पौधे के पत्तों की मांग अन्तर्राष्ट्रीय रूप से है और यूरोप में इसको हर्बल चाय के एक अवयव के रूप में प्राथमिकता दी जाती है ।यह एक छोटा 1-2 मीटर ऊंचा अर्द्ध-झाड़ीनुमा पौधा होता है जिसका तना सीधा होता है । इसकी मृदु और पीली हरी लंबी फैली हुई शाखाएं होती हैं जिनमें चार से आठ जोड़े पत्रक होत हैं । फूल छोटे और पीले होते हैं । फलियां सामान्यतः आयताकार, लगभग 5-8 सें.मी. लंबी और 2-3 सें.मी. चैड़ी होती हैं और इनमें लगभग छह बीज होते हैं । वर्तमान में इसकी खेती लगभग 25,000 हैक्टेयर क्षेत्र में की जाती है । सनाय पत्तों, फलियों और कुल सनाय सांद्र के लिए विश्व बाजार में भारत सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक है ।
जलवायु
सनाय सामान्यत: एक वर्षा आश्रित शुष्क फसल है और सिंचाई फसल के रूप में इसकी खेती बहुत ही कम की जाती है । यह एक गहरी जड़ वाला कठोर पौधा होता है और इसको गर्म और शुष्क जलवायु परिस्थितियों की आवश्यकता होती है । पौधे को अपनी वृद्धि अवधि में तेज धूप और यदा-कदा बारिश की जरूरत होती है । यह भारी वर्षा और जल भराव परिस्थितियों के प्रति संवेदनशील होता है ।
मिट्टी
सनाय की वृद्धि रेतीली दुमट, लाल दुमट और सख्त खुरदरी दुमट, लवणीय दुमट और उपजाऊ चिकनी मृदा धान के खेत में होती है । इसकी खेती काली कपास मिट्टी में भी सफलता पूर्वक की जा सकती है । जब अधिक लवणीय स्तर की मिट्टी में इसकी खेती की जाती है तो बिना किसी बाहरी लक्षणों के पौधे की वृद्धि रुक जाती है और कुछ नीचे के पत्ते भी गिर जाते हैं । इसकी खेती 8.5 तक पी-एच मान वाली मिट्टी में भी सफलतापूर्वक की जा सकती है ।
भूमि को तैयार करना
सनाय को अच्छी जुताई की जरूरत नहीं होती है । फिर भी खरपतवार और कंकड मुक्त भूमि की सिफारिश की जाती है । खेत की दो बार जुताई की जानी चाहिए, एक अथवा दो बार हैरो लगाई जानी चाहिए और उपयुक्त रूप से समतल किया जाना चाहिए । फालतू पानी को निकालने के लिए ढलाव पर विचार करते हुए पूरे खेत को उपयुक्त आकार के छोटे-छोटे प्लाटों में बांटा जाना चाहिए । यह ध्यान में रखना चाहिए कि यह फसल जल भराव वाली परिस्थितियों में एक दिन के लिए भी जीवित नहीं रह पाती ।
बुआई का समय
मानसून के प्रारंभ के अनुसार बुआई का समय अलग-अलग होता है । तथापि पश्चिमी भारत में बुआई का उत्तम समय जून-जुलाई है । दक्षिणी राज्यों में जहां पर फसल धान की फसल की कटाई के बाद परिस्थितियों में उगाई जाती है, इसकी बुआई सितम्बर-अक्टूबर में की जाती है । बुआई के समय में ज्यादा देरी वानस्पतिक अवस्था को कम कर देती है, विशेषकर उन क्षेत्रों में जहां सर्दी अक्टूबर के अंत में शुरू हो जाती है । इसके परिणामस्वरूप बाद में वनस्पति की प्राप्ति में काफी कमी आती है|
सनाय की किस्में
ए.एल.एफ.टी.-2 नाम किस्म मूलतः देर से पुष्पित होने वाली एक किस्म है और इसका पर्णसमूह फसल की अधिक पैदावार करता है । एक अर्ध फैलाव वाली किस्म-टीन्नीवेल्ली सनाय तमिलनाडु में बेहद लोकप्रिय है । केन्द्रीय औषधीय एवं सगंधीय पादप संस्थान, लखनऊ द्वारा पहचानी गई सोना किस्म राजस्थान के कुछ भागों में भी उपजायी जाती है ।
किस्म | उपलब्धता के स्रोत |
ए एल एफ टी-2 | प्रमुख, औषधीय एवं सगंधीय पौधों पर अखिल भारतीय सम्वित अनुसन्धान परियोजना, आनन्द, गुजरात | |
टीन्नवेल्ली सनाय | अनुसन्धान निदेशक, तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय, कोयम्बटूर, तमिलनाडु | |
सोना | निदेशक केन्द्रीय औषधीय एवं सगंधीय पादप संस्थान, लखनऊ, उत्तरप्रदेश | |
बीज दर
सिंचित दशाओं में 15 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर तथा वर्षा आश्रित दशा में करीब 25 कि.ग्रा. बीज प्रति हैक्टेयर छिटकवां विधि द्वारा बोया जाना बेहतर होता है । बोने के लिए सुघड़ ’रोग मुक्त’ तथा परिपक्व बीजों का चयन किया जाना चाहिए तथा पौध व्याधियों से बचाव के लिए बीजों को थीरम से 3 ग्रा./कि.ग्रा. की दर से उपचारित किया जाना चाहिए । यदि सिंचित दशा में पंक्ति बुआई के रूप में फसल उगाई जाती है, तो खुरपी द्वारा बोए जाने पर अनुकूल पादप संख्या के लिए करीब 6 कि.ग्रा. बीज प्रति हैक्टेयर पर्याप्त हैं ।
बोने का तरीका
पश्चिमी भारत में अच्छी पैदावार के लिए 45 ग 30 सें.मी. अन्तराल के साथ पंक्ति बुआई अपनाएं । समान अंकुरण के लिए खुरपी के माध्यम से मिट्टी में 1-2 सें.मी. की गहराई पर बीजों को लगाने के लिए सावधानी बरती जानी चाहिए । बोने के तत्काल बाद एक हल्की सिंचाई से 9०:तक अंकुरण में वृद्धि होती है और उचित पादप संख्या कायम रहती है ।
खाद एवं उर्वरक
भूमि की तैयारी के समय 10 टन एफ वाई एम प्रति हैक्टेयर का प्रयोग करें । अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में, जैविक रूप से उगाई गई सनाय की पत्तियों से अधिमूल्य कीमत मिलती है । इसलिए, उपजानेवालों को अधिमूल्य कीमत प्राप्त करने के लिए जैविक रूप से उगाए गए सनाय का प्रमाणीकरण प्राप्त करना पड़ता है ।
सिचाई
मिट्टी की नमी की दशा के आधार पर, 4-6 सिंचाइयों का प्रयोग करें । तथापि, दो सिचाइयां अत्यन्त महत्वपूर्ण होती हैं, एक बोने के तत्काल बाद तथा दूसरी बोने के 30 दिनों के बाद, यदि मिट्टी की नमी अपर्याप्त हो ।
निराई-गुड़ाई
25-30 दिनों पर तथा पौध छंटाई के 90 दिनों के बाद दो निराई-गुड़ाई प्रकियाएं, अपेक्षित हैं । आरम्भ में इस फसल की वृद्धि बहुत धीमी होती है और इसे अधिक देखरेख की जरूरत होती है । जैसे ही पादपों की ऊंचाई 20-25 सें.मी. की हो जाती है, खरपतवार की वृद्धि स्वतः ही समाप्त हो जाती है ।
रोग और कीट-नाशीजीव नियंत्रण
उत्तरी और पश्चिमी भागों में फसल को अगर कम जल निकासी वाली मिट्टी में उगाया जाता है तो फसल को आर्द्रगलन रोग हो जाता है । उचित ढलान सुनिश्चित करके जल निकासी की परिस्थितियों को सुधारने की सिफारिश की जाती है ।थीरम 3 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से बीज उपचार लाभदायक है । अल्टेरनेरिया अल्टरनेटा पत्ती धब्बा और फाइलोस्टिका प्रजाति द्वारा प्रेरित पत्तों की अंगमारी दो प्रमुख गंभीर रोग हैं । आकाश में बदली वाले दिन और आर्द्र जलवायु परिस्थितियां रोग के फैलाव के लिए सहायक होती हैं, जो छोटे-छोटे धब्बों के रूप में पत्तों पर दिखाई देते हैं और बाद में गहरे भूरे रंग में बदल जाते हैं ।
गंभीर संक्रमण में पत्ते सूखने शुरू हो जाते हैं और गिर जाते हैं । रोग के विकसित स्तर में फलियां भी प्रभावित होती हैं । रोग के नियंत्रण के लिए एक सप्ताह के अन्तराल पर डाइथेन एम-45 के दो से तीन छिड़काव किए जाने चाहिए । ऐसे मामलों में अंतिम छिड़काल के 25-30 दिनों के बाद ही पत्तों की कटाई की जानी चाहिए ।
कभी-कभी केटोप्सीलिया पाइरंथे को आहार बनाकर वनस्पति को गंभीर नुकसान पहुंचाता है और यह जुलाई से अक्टूबर तक सक्रिय रहता है । स्वथाव में ये अधिकतर ट्राकोग्रामा चिलोनीस द्वारा परजीवी नाशी जीव के अंडे देने के साथ वयस्क अवस्था में प्रति हैक्टेयर सप्ताह 1.5 लाख प्रति हैक्टेयर की दर से टी.चिलोनीस को खेतों में छोड़ा जाना इस नाशीजीव प्रबंधन की काफी प्रभावी प्रणाली है ।
फसल चक्र
व्यावसायिक रूप से उगाए जाने वाले क्षेत्रों में फसल चक्र में सनाय खरीफ फसल के रूप में सही बैठती है । दक्षिणी राज्यों में यह धान के बाद उगाई जाती है और उत्तरी व पश्चिमी भारत में इसको सरसों और धनिए के बाद उगाया जाता है |
कटाई और पैदावार
फसल की कटाई तब की जानी चाहिए जब ज्यादातर पत्ते पूरी तरह से विकसित, मोटे और रंग में हल्के नीले हो जाएं । उद्योग में 2.0 से 2.5: सेनोसाइड्स वाले विकसित पत्ते और 2.5-3.0: वाली फलियां स्वीकार्य हैं । जब सिंचित परिस्थितियों में यह फसल उगाई जाती है तो अधिकतम पैदावार के लिए तीन बार फसल की कटाई की सलाह दी जाती है । बुआई के लगभग 90 दिनों के बाद पहली कटाई की जाती है और बुआई के 150 और 210 दिनों के बाद क्रमशः दूसरी और तीसरी कटाई की जाती है । वर्षा आश्रित परिस्थितियों में बुआई के 4-5 महीनों के पश्चात पौधों की कटाई की जानी चाहिए ।
बीज उत्पादन के लिए जब पौधे ’हल्के भूरे’ रंग के हो जाते हैं तो फरवरी-मार्च के दौरान फलियां एकत्रित की जाती हैं । ऐसे बीजों में अधिक अंकुरण प्रतिशतता होती है । एकत्रित की गई फलियों को सुखाया जाता है और बीजों को अलग किया जाता है । पैकेज कृषि क्रियाओं को उचित रूप से अपना कर प्रति हैक्टेयर 300-400 कि.ग्रा. बीज की पैदावार ली जा सकती है । औसतन वर्षा वाली परिस्थितियों में प्रति एकड़ लगभग 600-700 कि.ग्रा. शुष्क पत्ते और सिंचाई वाली परिस्थितियों में प्रति हैक्टेयर लगभग 1500-2000 कि.ग्रा. सूखे पत्तों की अधिकतम पैदावार होती है ।
सुखाना और ग्रेडिंग
नमी को कम करने के लिए 6-10 घंटों के लिए खुली धूप में साफ फर्श पर कटाई किए गए पत्तों को फैलाया जाना चाहिए । इसके पश्चात् पूरी तरह से हवादार कमरों में छाया में सुखाना चाहिए । 3-5 दिनों के भीतर एकसार सुखाने (अंतिम दिनों में 8ः शुष्कता) के लिए नियमित पलटाई की जानी चाहिए । हल्के हरे रंग से हरे-पीले रंग को प्राथमिकता दी जाती है । अनुपयुक्त सुखाई से यह भूरे रंग की बजाए काले रंग में बदल जाती है, जिससे कम कीमत मिलती है । बड़े पत्ते और पीले हरे रंग की मोटी फलियों की बेहद मांग है और उनको अधिक कीमत मिलती है|
भण्डारण और विपणन
उचित रूप से सुखाने के बाद पत्तों को ठंडे और शुष्क स्थान में भंडारित किया जाना चाहिए । परिवहन के लिए आकार घटाने हेतु हाइड्रोलिक प्रैस द्वारा दबाया जाता है । भंडारित उत्पादों में सेनोसाइड अंशों की क्षति बहुत धीरे-धीरे होती है और भंडारण के एक साल के बाद भी क्षति नगण्य होती है । पत्तों की बाजार कीमत 8-10 रुपये प्रति कि.ग्रा. है ।
आर्थिकीयह फसल सीमान्त भूमि से प्रति हैक्टेयर लगभग 5,000-10,000 रुपये का शुद्ध लाभ दे सकती है ।
सावधानी: औषधीय और सगंधीय पौधों की खेती पहले इसके बाजार सुनिश्चित करके की जाती है । हानिपूर्ण विक्रय के जोखिम को कम करने के लिए पूर्व खरीददारी का इंतजाम करना अच्छा होगा ।
स्रोत-
- राष्ट्रीय औषधीय और सगंधीय पौध अनुसंधान केन्द्र, बोरियावी,आनंद