शुष्क क्षेत्र में जैविक खेती( Organic Farming )

परिचय(Introduction)

शुष्क क्षेत्र भारत के 12 प्रतिशत (32 लाख हैक्टर) भू भाग में फैला हुआ है। इसका 60 प्रतिशत क्षेत्र राजस्थान में है। कम व अनिश्चित वर्षा इसकी मुख्य जलवायुविक विशेषता है। इन परिस्थितियों में पशु व कृषि अवशेष से बनी जैविक खाद का प्रयोग जल संरक्षण व फसल को संतुलित पोषण देने में सहायक होता है साथ ही अन्य कई पर्यावरण मित्र तकनीकों के समन्वित प्रयोग से न केवल वर्षा की अनिश्चिता में भी उत्पादन में स्थायित्व रखना संभव हो सकता है, वरन् इससे खेती की लागत कम होने व बाजार में जैविक उत्पाद की माँग होने से यह खेती लाभप्रद भी हो सकती है।

जैविक खेती(Organic farming)

स्थानीय रूप से उपलब्ध जैविक व प्राकृतिक संसाधनों जैसे पशु अपशिष्ट, फसल अवशेष, वर्षा जल इत्यादि के सदुपयोग व रसायनिक उर्वरक, कीटनाशक, खरपतवार नाशक आदि का प्रयोग न करके, प्रकृति मित्र तकनीकों से फसल का पोषण व रक्षण प्रबन्धन करने को जैविक खेती कहते हैं। इसमें जैविक खाद, जैव कीटनियंत्रक, फसल चक्र, मल्चिंग आदि का प्रयोग किया जाता है। जैविक खेती में भूमि की उर्वरता को जैव विधियों जैसे जैविक खाद, हरी खाद, फसल चक्र आदि से निरंतर बनाये रखने के तरीके अपनाये जाते हैं साथ ही नीम आदि कीटनाशक गुणों वाले पौधो के उत्पादो व मित्र कीट, सूक्ष्मजीवों का प्रयोग कर रोग-कीटों का नियंत्रण किया जाता है।

शुष्क क्षेत्र में जैविक खेती-तकनीक(Organic farming technique)

जैविक खेती में निम्न तकनीकों का समन्वित उपयोग किया जाता है।

फसलें व फसल चक्रः

शुष्क क्षेत्र में मुख्यतः बाजरा, ग्वार, मोठ, तिल व मसाले वाली फसलों का उत्पादन होता है इनमें से अधिकांश फसलें ऐसी हैं जिनका गुणवत्तायुक्त उत्पादन सिर्फ शुष्क जलवायु में ही संभव है जैसे जीरा, ईसबगोल आदि। इन फसलों की जैविक विधि से उत्पादन प्रमाणित होने पर विश्वबाजार में बहुत मांग है। यूरोप व अमेरिका में फाइटोसेनेटरी कानून के सख्ती से लागू होने के कारण भविष्य में फसलों के रसायन अवशेष युक्त उत्पाद का निर्यात लगभग असंभव हो जायेगा। अतः शुष्क क्षेत्रों की फसलों का जैविक विधि से उत्पादन करने पर न केवल निश्चित बाजार मिलेगा वरन् स्थानीय संसाधनों का सदुपयोग भी संभव होगा।

फसल चक्र में दलहन जैसे ग्वार, मोठ, मूँग को अवश्य ही शामिल करना चाहिये ताकि मृदा की उर्वरता बनी रहे। रबी में जीरा, ईसबगोल व रायड़ा को फसल चक्र में इस प्रकार शामिल करना चाहिये जिससे की जीरा एक खेत या खेत के एक ही भाग पर लगातार दो वर्ष तक उत्पादित न हो अर्थात जीरा के बाद रायड़ा या ईसबगोल का फसल चक्र अपनाना चाहिये।

पोषण प्रबंधन:

अक्सर किसान गोबर को बुवाई से काफी पहले खेत में डाल देते है । गोबर कई दिनों तक खुली हवा-धूप में पड़ा रहता है जिससे इसके कई पोषक तत्व नष्ट हो जाते है दूसरे इसका सड़ाव न होने के कारण खेत में कच्चा गोबर जाते ही दीमक (उदई) लग जाती है। कच्चा गोबर सड़ने के लिये खेत की नत्रजन को सोख लेता है। कई खरपतवार के बीज इस बिना सडे़ गोबर के साथ खेत में चले जाते है और उगकर समस्या पैदा करते है। इन सब समस्याओं का समाधान है कि गोबर की वैज्ञानिक विधि से जैविक खाद बनाई जाये।

शुष्क क्षेत्रों में खाद तैयार करने के लिये 4-6 महीने का समय मिल जाता है वहाँ पशु मल व फसल अवशेष से भूमि के नीचे गड्ढे में खाद बनाना उचित रहता है। जैविक खाद (कम्पोस्ट) बनाने की इन्दौर विधि का ही परिवर्तित रूप यहाँ प्रस्तुत है इसमें 1 मीटर गहरा व 2 मीटर चौड़ा गड्ढा या खाई बनाते हैं जिसकी लम्बाई आवश्यकता व सुविधा के अनुसार रखते है।

गड्ढे के तल को मुड़ या कंक्ररीट से पक्का कर देते है। गड्ढा ऐसे स्थान पर बनाया जाये जहाँ बरसात का पानी न भरता हो और वृक्षों की छाया रहती हो। यदि ये दोनों चीज उपलब्ध न हो तो गड्ढे की खुदाई से निकली मिट्टी से गड्ढे के चारों ओर मेड़ बना देनी चाहिये ताकि बरसात का पानी गड्ढे में इकट्ठा न हो सके साथ ही इसके चारों ओर अरंडी जैसी शीघ्र बढ़ने वाली झाड़ियाँ लगा देनी चाहिये। गड्ढे का आकार, उपलब्ध गोबर-फसल अवशेष के अनुसार इतना बनाना चाहिये ताकि गड्ढा 5-7 दिन में भर जाये। इस प्रकार कई गड्ढे बनाने चाहिये।

जैविक खाद के निर्माण हेतु भरने वाली सामग्री में निम्न बातें ध्यान रखनी चाहियें

1. सामग्री में जितनी विविधता होगी उतनी ही खाद की गुणवत्ता अच्छी होगी अर्थात् विभिन्न फसलों के अवशेष, खरपतवार (जिन्हें पशु नहीं खाते हैं), पत्ते, गोबर आदि सभी का खाद के निर्माण में प्रयोग किया जाना चाहिये। फसल अवशेष को 5-7 से.मी. आकार के टुकड़ो में काट लेना चाहिये ताकि उनका विघटन शीघ्र हो सके।

2. खाद के लिये प्रयोग में लाये जाने वाले पदार्थ में कार्बनःनाइट्रोजन अनुपात ठीक रखने के लिये पत्तियों का प्रयोग अधिक करना चाहिये साथ ही धमासा, सणियाँ, नीम, आँक आदि की पत्तियों और कोमल शाखाओं का उपयोग अवश्य करना चाहिये।

3. उपरोक्त कचरे, गोबर (गीला) व मिट्टी (यदि गाय के मलमूत्र युक्त मिट्टी मिलें तो अच्छा रहेगा) को 70ः20ः10 के अनुपात में मिलाकर /परत बनाकर गड्ढेे को भरना चाहिये और इसके बाद गीली मिट्टी की परत से ढक देना चाहिये। मिश्रण को गीला करने में गौ मूत्र का उपयोग करने से खाद की ताकत बढ़ जाती है।

4. गर्मियों में 10-15 दिन बाद व सर्दियों में 20-30 दिन बाद एक बार उपरोक्त मिश्रण को उलट-पलट करना चाहिये, और पुनः मिट्टी से ढक देना चाहिये।

पकने पर जैविक खाद का रंग गहरा भूरा हो जाता है, दुर्गन्ध समाप्त हो जाती है तथा सम्पूर्ण मिश्रण चाय की पत्ती जैसे पदार्थ में बदल जाता है। पूर्णतः पक जाने पर खाद को गड्ढेे से निकालकर तथा ट्राइकोडर्मा नामक फफूंद नियत्रंक (सूक्ष्म जीव) के 10 किलोग्राम (मूल्य रूपये 100/- प्रति किलोग्राम) प्रति टन खाद में मिलाकर 5-6 दिन छाया में रखते है तथा उसके बाद इस खाद को बुवाई से 7-10 दिन पूर्व खेत में मिला देते है। बारानी फसलों में 5-6 टन खाद/हैक्टर/वर्ष प्रयोग करना ठीक रहता है। इस सम्पूर्ण जैविक खाद के प्रयोग से फसलों को संतुलित पोषण मिलता है। जैविक खाद का संतुलित प्रयोग करने से भूमि की जलधारण क्षमता बढ़ती है जो फसल की बढ़वार में सहायक होती है।

खरपतवार नियंत्रण (Weed Control)

खरपतवार नियंत्रण के लिये पकी हुई जैविक खाद व साफ बीज का प्रयोग करना चाहिये। खेत में उगे खरपतवारों को हाथ से उखाड़कर फसल की पंक्तियों के बीच मल्च के रूप में बिछा देना चाहिये।

रोग-कीट नियंत्रण(Diseases and pest management)

रोग-कीट नियंत्रण के लिये निम्न उपायों का समन्वित प्रयोग करना चाहियेः

1. स्वस्थ, रोग-कीट रहित बीज का चयन कर 4-6 ग्राम ट्राइकोडरमा पाऊडर से प्रति किलो बीज को उपचारित कर बुवाई करनी चाहिये।

2. अच्छी पकी हुई जैविक खाद का प्रयोग 5.0 टन प्रति हैक्टेयर की दर से भूमि तैयारी के समय करना चाहिये।

3. खेत के आसपास या गाँव में उपलब्ध नीम के वृक्षों की पकी हुई निम्बोली पानी में भिगोकर

उसका छिलका उतार देना चाहिए व गुठली को सुखाने के पश्चात कूटकर 150 से 200 किलोग्राम/है. की दर से जुताई के समय मृदा में मिला देना चाहिए।

4. खेत में कीट प्रजाति के अनुसार फेरोमोन ट्रेप का प्रयोग करना चाहिये (मूल्य रूपये 150-200/- प्रति है.)।

5. खेत में प्रतिदिन निरीक्षण करना चाहिये तथा रोग-कीट की शुरूआत होने पर नीम बीज गिरी का 5.0 प्रतिशत जलघोल का सांयकाल छिड़काव करना चाहिये।

6. खेत की बाड़ व बीच में पंक्तियों में कई प्रकार के फूलदार वृक्ष-झाड़ी लगाने चाहिये जिससे फसल के लिये लाभकारी कीटों को आश्रय व भोजन मिलता रहे। खेत की बाड़ पर कुछ वृक्ष नीम के भी लगाने चाहिए ताकि जैविक कीट नियंत्रक बनाने हेतु निम्बोली मिल सके।

इस प्रकार समन्वित पोषण व रक्षण से सफल जैविक उत्पादन संभव हो पाता है। केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान के प्रमाणित जैविक फार्म पर किये गये प्रयोगो में ग्वार की 630 किलो/है., तिल की 886 किलो/है., जीरे की 516 किलो/है. व ईसबगोल की 808 किलो/है.तक उपज प्राप्त की गई है। जैविक व्यवस्था को बनाने में 2-3 वर्ष का समय लग सकता है, किन्तु एक बार व्यवस्था बन जाने पर बाहरी साधनों पर निर्भरता बहुत कम हो जाती है व रोग-कीट का प्रकोप भी कम हो जाता है। इस व्यवस्था में स्वयं के खेत से तैयार बीज के अलावा खाद, कीटनियंत्रक आदि अधिकांश आदान शुष्क क्षेत्र में बहुतायत से अपनाये जाने वाली मिश्रित कृषि पद्धति (फसल $ वृक्ष $ पशु) के उपोत्पाद के रूप में मिल जाते है। अतः जैविक पद्धति की लागत कम होती है।

प्रमाणीकरण

जैविक उत्पादन को उपभोक्ता व बाजार का विश्वास प्राप्त करने के लिये इसको प्रमाणित कराने की आवश्यकता होती है। इसके लिये भारत सरकार से मान्यता प्राप्त किसी संस्था से पंजीकरण कराना चाहिये। इसके बाद निरीक्षक समय-समय पर आकर निरीक्षण करते है व कृषक पुस्तिका में आदानों व उत्पादों के विवरण को सत्यापित करते है। सब कुछ सुचारू रूप से नियमानुसार होने पर तीन वर्ष पूरे होने पर जैविक प्रमाण पत्र मिल जाता है जिसके आधार पर प्रमाणित जैविक उत्पाद का विक्रय किया जा सकता है। सरकार द्वारा प्रमाणीकरण योजना में शामिल होने वाले कृषकों को रूपये 10000/- तक का अनुदान देने का प्रावधान है। जैविक प्रमाणीकरण करवाने हेतु निम्नलिखित सरकारी संस्थान से सम्पर्क किया जा सकता है।

राजस्थान जैविक प्रमाणीकरण संस्था, तृतीय तल, पंत कृषि भवन, जनपथ, जयपुर-302 005

 

शोध-प्रसार

केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, जोधपुर में एक प्रमाणित आदर्श जैविक खेत (फार्म) की स्थापना की गयी है जहाँ पर जैविक खेती पर अनुसंधान जारी है तथा कृषकों और कृषि अधिकारियों के लिये प्रशिक्षण की व्यवस्था भी है।

 

Source-

  • Central Arid Zone Research Institute.

 

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