लाल मिर्च की खेती / Red chilli farming

नकदी फसलों में लाल मिर्च भारत में बेहद अहम मानी जाती है। पूरे देश में इसका उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जाता है। मुख्यतौर पर कई तरह की कढ़ी और चटनी में इसका खास इस्तेमाल किया जाता है। इसके अलावा इसका इस्तेमाल सब्जी, मसाले, छौंक लगाने में, सॉस और अचार में बेहद लोकप्रिय है और जिसके बिना हमारी थाली का स्वाद अधूरा लगता है। लाल मिर्च का प्रयोग कई तरह से किया जाता है, जैसे कि कढ़ी पाउडर को स्वादिष्ट बनाने में। मिर्च में लाल रंग का जिम्मेदार कारक “कैपसेन्थिम’ है। वहीं, मिर्च में तीखापन के लिए कैपसाइसिन नाम का अल्केलॉयड जिम्मेदार है। मिर्च से इसी अल्केलॉयड या क्षाराभ को निकाला जाता है जिसका इस्तेमाल दवाई में किया जाता है।

भारत में मिर्च के प्रमुख उत्पादक क्षेत्र –

राज्य मिर्च के प्रमुख उत्पादक इलाके

1.आंध्र प्रदेश & तेलंगाना

गुंटुर, वारंगल, खम्मम, प्रकाशम, कृष्णा, हैदराबाद, निजामाबाद, कडप्पा,

राजमुंद्री और नेल्लोर

2.महाराष्ट्र

नागपुर, नासिक, अहमदनगर, सोलापुर, औरंगाबाद, नांदेड़ & अमरावती

3.पंजाब

अमृतसर, नाभा और पटियाला

4.उत्तर प्रदेश

बरेली और खुर्जा

5.तमिलनाडु

कोयम्बटूर, रामनाथपुरम, तूतीकोरीन, तिरुनेलवेल्ली, विरुदुनगर, कन्याकुमारी मदुराई,  सेलम, तिरुचि, विलुपुरम और कुड्डालुर जिले

6.पश्चिम बंगाल

मुर्शिदाबाद, उत्तरी & दक्षिणी 24 परगना, नादिया, कूचबिहार, जलपाईगुड़ी, पूर्वी & पश्चिमी मिदनापुर जिले

मिर्च खेती के अनुकूल जलवायु –

मुख्यतौर पर मिर्च या लाल मिर्च उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय (मकर और कर्क रेखा से लगे हुए क्षेत्र) क्षेत्र की फसल है। यह फसल 20 से 25 डिग्री तापमान और थोड़ी गर्मी और नमी वाले वातावरण में बहुत अच्छा परिणाम देता है। वहीं, कोंपल या कली के खिलने, फल बनने के दौरान अगर मिट्टी में आर्द्रता की मात्रा कम हो तो इससे फसल को नुकसान पहुंचता है। वहीं, दूसरी ओर ज्यादा बारिश भी फसल को नुकसान पहुंचाती है जिससे पत्ते झड़ने लग जाते हैं और जड़ सड़ने लग जाता है। वर्षा सिंचित क्षेत्र में इसकी खेती के लिए वार्षिक बारिश का औसत 25 से 30 इंच है।

मिर्च खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी –

मिर्च की खेती कई तरह की मिट्टी में हो सकती है लेकिन इसके लिए सबसे अच्छी काली मिट्टी है। यह मिट्टी नमी को लंबे समय तक बनाये रखने में सक्षम है। सिंचाई की सुविधा से युक्त उपयुक्त जल निकासी वाली मिट्टी, डेल्टा मिट्टी, बलुई मिट्टी भी इसके लिए अच्छी है। हालांकि

उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में इसकी खेती कई तरह की मिट्टी में होती है जिसमें बजरी और मोटे दाने से मिश्रित रेत और चिकनी बलुई मिट्टी भी शामिल है।

मिर्च के बफर जोन का रख-रखाव-

मिर्च की जैविक खेती में बफर जोन के लिए 7.5 से 15 मीटर की जगह छोड़ दी जाती है। इसमे फार्म की जगह किस तरह की है इसका भी ध्यान रखा जाता है। वहीं, इस तरह के बफर जोन से पैदा होने वाली फसल को ऑर्गेनिक या जैविक नहीं माना जाना चाहिए।

मिर्च की खेती के लिए भूमि और इसकी तैयारी-

इसकी खेती सभी तरह की नर्म और बलुई मिट्टी में हो सकती है। इसमे भी खासकर अगर मिट्टी चिकनी बलुई, सख्त चिकनी, दोमट मिट्टी हो और अच्छी तरह से सूखी गैस से भरी हो तो और भी अच्छा परिणाम देती है। अम्लीय मिट्टी इस तरह की खेती के लिए अच्छी नहीं होती है।

मिर्च की खेती के लिए जमीन को दो से तीन बार जुताई कर तैयार किया जाता है। हर जुताई के बाद खेत में मौजूद ढेले को तोड़कर अच्छी तरह से मिलाया जाता है। बुआई से 15 से 20 दिन पहले खाद या एफवाईएम @ 150-200 प्रति क्विंटल इस्तेमाल करना चाहिए। अंतिम जुताई के बाद मिट्टी मेंओ.एच.सी.@ 8-10 किलोग्राम प्रति एकड़ और एल्ड्रीन या हेफटाफ @10-15 किलोग्राम प्रति एकड़ इस्तेमाल करना चाहिए। इसके इस्तेमाल से सफेद कीट और दूसरे घातक कीट से बचाव होता है।

पौधा रोपन और संवृद्धि-

बीज से ही मिर्च की उत्पत्ति होती है। नर्सरी या पौधा गृह के लिए एक अच्छी किस्म की बीज की जरूरत होती है जो विनाशकारी जीव और रोगों से लड़ने में सक्षम हो। बीज का चयन किसी मान्यता प्राप्त ऑर्गेनिक फार्म से बेहद सावधानी के साथ किया जाना चाहिए। या फिर बीज अपनी नर्सरी में कार्बनिक या जैविक तरीके उगाई गई हो। अगर इस तरह की बीज ना हो तो स्थानीय स्तर पर उपलब्ध दूसरी अच्छी किस्म के बीज का भी इस्तेमाल किया जा सकता है।

मिर्च के प्रकार-

उत्तराखंड में खेती के लिए पुसा सदाबहार, पुसा जलवा और पंत सी-1 की किस्में हैं। हालांकि अधिकांश किसान लंबे समय से पंतनगर सी या फिर अपने बीज का इस्तेमाल कर रहे हैं।

पौधा रोपन का वक्त और बीज दर-

खरीफ फसल के लिए बुआई मई-जून में और ग्रीष्म ऋतु के लिए जनवरी में की जाती है। प्रति एक हेक्टेयर एरिया के लिए एक से ढेढ़ किलो बीज की जरूरत होती है।

बीज प्रबंध या इलाज-

अच्छी फसल के लिए बीज पर किसी कवकनाशी या कीटनाशक का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। जब संभव हो तो ऐसे मामले में स्वदेशी तौर-तरीके ही ज्यादा फायदेमंद रहता है। नर्सरी में ट्रीकोडर्मा या सूडोमोनस एसपी. 10 ग्राम प्रति किलो का इस्तेमाल कर बीज को खराब होने से बचाया जा सकता है।

उत्तराखंड की पहाड़ी में नर्सरी के काम का आदर्श वक्त फरवरी-मार्च है। बीजारोपन का वक्त अप्रैल-मई है और नर्सरी में इस काम के लिए प्रति एकड़ 400ग्राम बीज पर्याप्त होता है।

नर्सरी में मिर्च उत्पादन-

नर्सरी की क्यारियों में ताजे बीज का इस्तेमाल किया जाता है। हालांकि खेत में फैलाकर उगाने के तरीके का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। अच्छी किस्म और टिकाऊ बीज के लिए इस तरह का बीजारोपन अच्छा परिणाम देता है। नर्सरी में क्यारियों को जमीन के स्तर से ऊंचा उठाकर बनाया जाता है और इसमे खाद और बालू मिलाकर तैयार किया जाता है। ट्रीकोडर्मा की मदद से तैयार बीज की रोपाई की जाती है और इसे बालू की मदद से हल्के तरीके से ढंक दिया जाता है। बीज के अंकुरण का वक्त करीब पांच से सात दिन का होता है। 40 से 50 दिन के बाद बीज की रोपाई मुख्य खेत में कर दी जाती है।

फसलों के बीच दूरियां-

बीजारोपन के लिए 40 से 50 दिन पुराने बीज का इस्तेमाल किया जाता है। खासकर उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में बीजारोपन का कार्य आमतौर पर अप्रैल-मई में की जाती है। बीजारोपन का कार्य ऊंचाई पर हल्की खाई या गड्ढे में किया जाता है। कुछ जगहों पर पौधों के बीच की दूरी 60 गुना 60 सेमी या 45 गुना30 सेमी या 30 गुना 30 सेमी रखी जाती है। हालांकि, प्रति एकड़ 22200 पौधों की संख्या पर करीब 60 गुना 30 सेमी की दूरी और प्रति एकड़ 19750 पौधों की संख्या के लिए 45 गुना 45 सेमी की दूरी आदर्श मानी जाती है।

मिर्च की खेती में सीधी बुआई-

वर्षा सिंचित क्षेत्र में इस तरह का पौधारोपन किया जाता है। ऐसे में मशीन से इसकी बुआई मार्च के अंत में या अप्रैल के पहले सप्ताह में कर दी जाती है। इस तरह की खेती में प्रति एकड़ ढाई से तीन किलो बीज खर्च आता है। बुआई के 30 से 40 दिनों के बाद आसमान में बादल छा जाए तब ढंकने और गड्ढा भरने का काम किया जाता है।

पानी आपूर्ति और सिंचाई-

मिर्च का पौधा ज्यादा नमी को बर्दाश्त नहीं कर पाता है। इसलिए सिंचाई तभी की जाती है जब जरूरत हो। कभी-कभार और ज्यादा सिंचाई घातक होता है और इससे पौधा दुबला-पतला हो जाता है और फूल गिरने लगता है। इतना ही नहीं ज्यादा सिंचाई की वजह से पौधे का विकास, शाखाओं का बढ़ना और मिर्च के सूखने की प्रक्रिया बुरी तरह प्रभावित होती है। इस फसल के लिए मौसम और मिट्टी की गुणवत्ता बेहद अहम होती है और इसी आधार पर सिंचाई

की रणनीति तैयार की जाती है। अगर चार बजे शाम को पत्ते लटकते दिखाई दें तो समझ लीजिए इसे पानी की जरूरत है। मिर्च की खेती में फूल और पौधे का विकास और सिंचाई की तकनीक बेहद अहम हिस्सा है। सामान्य तौर पर मिर्च की खेती वर्षा-सिंचित क्षेत्र में की जाती है। लेकिन जहां हम सिंचाई पर निर्भर होते हैं वहां हमे बेहद सतर्क रहने की जरूरत है और वहां जल को जमने नहीं देना चाहिए। फफूंद संक्रमण से बचने के लिए नर्सरी हो या खेत दोनों ही जगहों पर जल-जमाव को रोकना चाहिए।

अंतर कृषि कार्य, कूड़ा-करकट, कटाई-छंटाई-

नर्सरी को छोड़कर पौधारोपन के 25 से 30 दिन के बाद जो क्यारियां ढंकी हुई थी उसे हाथ से हटाना होता है। ऐसा करने से ही प्रति वर्ग मीटर 30 से 60पौधे का उत्पादन निश्चित किया जा सकता है। अंत में पौधे की सघनता प्रकृति और मिट्टी की ऊर्वरता ही निर्भर करता है। सीमांत मिट्टी में इसकी संख्या काफी ज्यादा होती है। खर-पतवार हटाने और निराई-गुड़ाई का काम आम तौर पर दो बार किया जाता है। पहली बार, बुआई के 20 से 25 दिनों के भीतर होता है और दूसरी बार करीब 40 से 50 दिनों के बाद।

अगर कहीं ज्यादा खर-पतवार पैदा हो रहा है तो ये प्रक्रिया एक-दो बार और दोहराई जा सकती है। ऐसे घास-फूस जो हानिकारक कीट-पतंगों को अपनी ओर खींचते हैं उन्हें कीटों को फंसाने के लिए बढ़ने देना है, लेकिन जैसे ही पौधे में फूल खिलना शुरू हो उससे पहले ही उसे हटा देना चाहिए। साथ ही जरूरत पड़ने पर मिट्टी को उपर करना चाहिए। अंतर या मिश्रित फसल के लिए मिर्च की खेती जैविक तरीके से की जा सकती है। यह अपेक्षा की जाती है कि मिर्च की खेती में बदलाव के तौर पर फलीदार फसल का इस्तेमाल करना चाहिए।

मिर्च की खेती में खाद और ऊर्वरक की भूमिका-

खेती की तैयारी करते वक्त एफवाईएम या कप्मोस्ट (वानस्पतिक खाद) की मात्रा प्रति हेक्टेयर 10 से 11 टन होनी चाहिए। मिर्च की बरसाती किस्म के पौधारोपन के दौरान 50 किलो नाइट्रोजन, 25 किलो फॉस्फेट का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। पौधारोपन के दौरान नाइट्रोजन और फॉस्फेट की आधी-आधी मात्रा का उपयोग किया जाना चाहिए। पौधारोपन के 30 दिनों के बाद नाइट्रोजन की बची मात्रा का उपयोग करना चाहिए। वहीं, सिंचित किए गए फसल के लिए प्रति हेक्टेयर 100 किलो नाइट्रोजन, 50 किलो फॉस्फेट और 50 किलो पोटैशियम का इस्तेमाल करना चाहिए। ऊर्वरक का इस्तेमाल चार बराबर मात्रा में किया जाता है। पहला पौधारोपन के दौरान, दूसरी बार चौथे सप्ताह, तीसरी बार 11वें सप्ताह और अंतिम बार 13वें सप्ताह के दौरान किया जाता है।

हानिकारक कीट-पतंग पर नियंत्रण-

मिर्च की फसल में लगने वाले हानिकारक कीड़े हैं– कीट, घुन, पौधे को चूसने वाला कीड़ा, कृमि और पोड बोरर (हरे रंग का कीड़ा)। फसल को कृमि के संक्रमण से बचाने के लिए अच्छी तरह से तैयार किये गए फार्म यार्ड या कृषि क्षेत्र की खाद का इस्तेमाल करें। रुट ग्रब या क्रीमी को रोकने के लिए नीम केक खाद का उपयोग करें(100 ग्राम प्रति एकड़)। खेती के तौर-तरीके में बदलाव लाकर भी हम कृमि की रोकथाम अच्छी तरह से कर सकते हैं। रुट क्रब या क्रीमी के संक्रमण को रोकने के लिए मार्च महीने से लाइट ट्रैप (अल्ट्रावाइलेट किरणों के साथ या बगैर भी) का जाल भी बिछा सकते हैं जो कुछ खतरनाक कीट-पतंगों को अपनी ओर खींचते हैं।

खेत में कई जगहों पर घास का छोटा ढेर बना देना चाहिए ताकि ग्रब या क्रीमी वहां जमा हो जाए। इसके बाद सुबह सभी क्रीमी को जमा कर खत्म कर देना चाहिए। प्रति एकड़ 400 ग्राम ब्यूवेरिया बैसियाना नाम के खास फंगस का खेतों में छिड़काव कीट के खिलाप बेहतरीन काम करती है। इस फंगस को जब कीट खाता है तो यह उसके शरीर में पहले बढ़ता है और फिर बाद में उसके पोषक तत्व को ही खत्म कर देता है अंत में कीट की मौत होने लगती है। अप्रैल के प्रथम पखवाड़े से पहले पौधारोपन से भी रुट ग्रब यानी कृमि पर रोक लगाने में काफी मदद मिलती है।

कीट, पौधे को चूसने वाला कीड़ा और घुन पर नियंत्रण करने के लिए नीम के बीज से निकाला गया पदार्थ(एनएसकेई) बेहद प्रभावकारी है। 10 ग्राम एनएसकेई को 15 लीटर पानी में डालकर उबाल लेना चाहिए। इसके बाद इसमे से 200 एमएल पानी को 15 लीटर पानी में मिला कर चार से पांच बार छिड़काव करना चाहिए। इससे पौधे को चूसने वाले घातक कीड़े से निजात मिल जाएगी। किसान बकायन (मेलिया अजादिरच) के सत को बिच्छू घास या कनाली (अर्टिका डिओईका) के साथ मिलाकर भी घातक कीड़े को मारने का काम करते हैं।

गौरतलब है कि बिच्छू घास में एक ऐसा पदार्थ निकलता है जो जलन पैदा करता है। कीट और घुन पर लगाम लगाने के लिए प्रत्येक 15 दिन पर क्रिसोपर्ला कोर्निया के लार्वा का प्रयोग काम आता है। फल या फली में छेद करने वाला कीट सबसे ज्यादा खतरनाक होता है जो बड़े पैमाने पर फसल को नुकसान पहुंचाता है। ऐसे कीट पर एक हद तक जैविक तरीके से लगाम लगाया जा सकता है। एक एकड़ में फेरोमोन ट्रैप की पांच मशीनों के सीमित इस्तेमाल से भी कीट-पतंगों पर निगरानी रखी जा सकती है।

दस दिन के बाद जब फेरोमोन के जाल में कीट फंस जाएं तब एनपीवी यानी लार्वल इक्वीवेलेंट का चार से पांच बार छिड़काव फायदेमंद होता है। इससे फल में छेद करने वाले कीट को शुरुआती अवस्था में ही रोक दिया जाता है। इसके लिए एनपीवी का घोल प्रति एकड़ 200 एलवी के इस्तेमाल से तैयार किया जाता है। स्पोडोप्टेरा बोरर के अंडों को मशीन की मदद से एक जगह जमा कर नष्ट किया जा सकता है। कीट के दिखने पर दो दिन के बाद ट्रिकोग्राम्मा का प्रयोग किया जाता है। कीट-पतंगों पर नियंत्रण के लिए नीम के कीटनाशक पदार्थों का और बैसिलस थूरिनजेनसिस (0.4ग्राम प्रति एकड़) का इस्तेमाल अच्छा परिणाम देता है।

मिर्च की खेती में रोग नियंत्रण-

शाखाएं और पत्तियों का सूखना और काला पड़ जाना और फल का सड़ जाना ये दो प्रमुख रोग हैं। ये दोनों रोग कोलेटोट्रीचम केपसिसी और बक्टीरियल विल्ट की वजह से होते हैं। वायरस से पैदा होनेवाले पत्ते पर धब्बे, पाउडर जैसे फफूंद और पच्चीकारी जैसे रोग भी बेहद अहम हैं। सावधानी से बीज का चयन और फाइटोसेनिटरी तरीके(पौधे के कीट को मारने के खास तरीके) अपनाकर भी रोग पर नियंत्रण किया जा सकता है।

ट्रिकोडर्मा के साथ बीज का उपचार नर्सरी में ही बीज को सड़ने से रोकता है। जब स्थिति ज्यादा गंभीर हो जाये तब रोग को सहने की क्षमता रखनेवाला विविध तरीके अपनाये जाने चाहिए। मोजैक वाइरस के होने की स्थिति में प्रभावित पौधे की पहचान कर नष्ट कर देना चाहिए। रोग पर और प्रभावी नियंत्रण करने के लिए ट्रिकोडर्मा या सूडोमोनस स्पेशल की 10 ग्राम मात्रा को एक लीटर पानी में मिलाकर एक घोल तैयार कर उसका छिड़काव करना चाहिए।

मिर्च में विकास का चरण-

आमतौर पर मिर्च की फसल 150 से 180 दिनों की होती है। हालांकि इस अवधि को निर्धारित करने में पौधे की किस्म, मौसम और वातावरण, उर्वरकता और पानी का प्रबंधन अहम भूमिका निभाता है। मिर्च की वृद्धि वानस्पतिक और प्रजननीय चरण पर निर्भर करता है। आमतौर पर वानस्पतिक चरण 75 से 85दिनों का और प्रजननीय चरण 75 से 95 दिनों का होता है। पौधे की लंबाई में वृद्दि और घनी शाखाओं के लिए वानस्पतिक चरण जिम्मेदार होता है।

घनी शाखाओं से अच्छी हवा और सूर्य की रोशनी छन कर आती है। यह स्थित पौधे को सड़ने से भी रोकता है। पौधारोपन के 40 से 50 दिनों के बाद या 80 से85 दिनों के बाद फूल आना शुरू हो जाता है। अक्सर मिर्च का पौधा संकर परागण वाला होता है जिसमे 50 फीसदी संकर प्राकृतिक होता है। परागण और विकास के बाद मिर्च के फल को विकसित और परिपक्व होने में 40 दिन का वक्त लगता है।

फसल कटाई-

दूसरे फसलों के मुकाबले मिर्च बहुत ही नाजुक है और अपेक्षाकृत बहुत जल्द नष्ट हो जाती है। यही वजह है कि फसल की कटाई, भंडारण और परिवहन के दौरान बहुत ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। यहां दो और अहम बातें –

  • सब्जी के लिए उपयोग में आने वाली मिर्च की फसल को उसी वक्त काट लिया जाता है जब वो पूरी तरह विकसित हो जाती है और हरापन लिये हुए रहती है।
  • डिब्बे में पैकिंग के मकसद से मिर्च को लाल होने के बाद तोड़ा जाता है। सूखी मिर्च पाने के मकसद से इसे अच्छी तरह से पकने के बाद तोड़ा जाता है ताकि इसे मिर्च पाउडर में तब्दील किया जा सके।

मिर्च की उपज या पैदावार-

उपज के तौर-तरीके पर पैदावार की मात्रा निर्भर करती है। वर्षा सिंचित क्षेत्र में सूखी मिर्च का उत्पादन प्रति एकड़ 200 से 400 किलो होती है। साथ ही जहां सिंचाई की सुविधा होती है वहां प्रति एकड़ 600 से एक हजार किलो होती है। सूखी और ताजा मिर्च की उत्पादकता में 25 से 40 फीसदी का अनुपात होता है।

फसल कटाई के बाद के कार्य-

  • फसल को सुखाना
  •  छंटाई और पैकिंग
  • भंडारण

अंत में सबसे अहम बात ये है कि ये मसाले की खेती है और अगर इसकी खेती का प्रबंधन सही तरीके से किया जाये तो इससे मुनाफा भी अच्छा होता है।

 

Source-

  • iffcolive.com
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