हमारे भोजन में साग सब्जियों का खास महत्व है, जिससे हमारी सभी आवश्यक तत्वों की पूर्ति होती है ! रबी के मौसम में सभी प्रकार की साग सब्जियां उगाई जाती है ! ये सभी प्रायः सीमित प्रक्षेत्रो में ही लगाई जाती है, और किसान भाई फसलचक्र को नहीं अपनाते है जिससे साग सब्जियों में रोगों व कीटों का प्रकोप बहुतायत से मिलता है !
रबी मौसम की प्रमुख साग सब्जियां आलू, टमाटर, मटर एवं गोभी (फूल पत्ता व गांठ) मानी जाती है लेकिन आधुनिक युग में आर्थिक द्रष्टि से मुली, गाजर, शलगम के अलावा भाजी, पालक, चुकंदर तथा प्याज़, लहसुन तथा शिमला मिर्च का महत्व भी दिनों दिन बढ़ता जा रहा है !
(अ) प्रमुख रोग(Major Diseases of rabi crops)
सब्जियों में रोगों की समस्या प्रधान बनती जा रही है ! इनमे लगने वाले रोगों को नुकसान के आधार पर इस प्रकार विभाजित किया गया है !
- पर्णदाग रोग
- जड़ व तना सडन
- झुलसन
- सूखा या म्यानी
- फल सडन या गलन
- विषाणु रोग
- सूत्र कृमि रोग
- सूक्ष्म तत्वों की कमी के रोग
1. लगभग सभी साग भाजी में नाना प्रकार के पर्ण दाग पाये जाते है ये रोग बीज या वायु जनित होते है और कई प्रकार के फफूंद, शाकाणु, बीजाणु या अन्य पोषक तत्वों के अभाव से पैदा होते है तथा नर्सरी अवस्था से ही फसल में लग जाते है ! बीमार रोपणी के पौध ही खेतो में रोग प्रसार का साधन बन जाते है ! पर्णदाग मुख्यता – आल्टरनेरिया, सरकोस्पोरा, बोटाइटिस, हेल्मिन्थोस्पोरियम, कोलिटो, टाईकम के कारण होते है ! पत्तियों पर नाना प्रकार के दाग बन जाने से पौधे की उपज और उपयोगिता पर प्रतिकूल प्रभाव होता है ! फल फूल भी अक्सर झड जाते है या कमज़ोर फल बनते है !
2. जड़ तना या पत्ती सडन रोग भी ज्यादातर फफूंद द्वारा ही उत्पन्न होते है जिनमे राईझोक्टोनिया, पीथियम, फाईटोप्योरा और हाईफोमाईशिटीज तथा मिक्जोमाईशिटीज मुख्य है ! इन रोगों से पौधे अनुत्पादक हो जाते है और किसी भी अवस्था में मर जाते है जिससे खेत में पौधों की संख्या कम हो जाने से उपज में भारी कमी आ जाती है !
3. फल सडन रोग अधिकतर भूमि जनित सूक्ष्मजीवियो के कारण होते है इनमे टमाटर का फाईतोप्थोरा फल सडन, भटे का फोमप्सिस व पीथियम मुख्य है !
4. झुलसन रोह मुख्यता फाईतोप्थोरा, एस्कोकाईटा, स्टमफायलियम, फोमा या फोमोप्सिस से होते है जो बीज या भूमि जनित होते है और हवा द्वारा तीव्रता से फैलते है ! जीव पौधों के कई भाग को गंभीर नुकसान करने की क्षमता रखते है !
5. सूखा जा मुर्झान रोग – फ्यूजेरियम, स्युडोमोनाज (शाकाणु) स्क्लेरोशियम या फाईतोप्थोरा फाफुदों द्वारा होते है अक्सर यह रोग भूमि में बने रहते है और लगातार एक ही फसल लगाते रहने पर ये रोग उग्र रूप धारण कर लेते है इस स्तिथि में लम्बे फसल चक्र अपनाने के अलावा रोगों से बचाव का कोई रास्ता नहीं होता !
6. पदगलन या सडन रोग मुख्यतः पीथियम, फाईतोप्थोरा, राइजोक्टोनिया व स्केरोशियम द्वारा होते है ! जमीन की सतह से पौधे गलने लगते है और तना काफी उपर तक सड जाता है ये ही रोग आगे जाकर पौधों को सुखा भी देते है !
7. अतिवृद्धि या हरिमा हीनता रोग बीजाणु द्वारा होते है जो रस चूसने वाले कीड़ो द्वारा फैला दिए जाते है ! इसके प्रकोप से पौधे की उत्पादकता लगभग समाप्त हो जाती है !
8. जड़ो की गठान वाले रोग प्रायः सूत्र कृमि (नेमेटोड) द्वारा होते है और लगातार एक ही फसल उगाते रहने पर रोग पैदा होते है पुरानी फसल की जड़ो से भी रोग होता है !
रबी की साग सब्जियों के प्रमुख रोग, रोग कारक एवं रोग प्रतिरोधक किस्में
क्र. |
सब्जियां |
रोग का नाम |
रोग का कारक |
प्रतिरोधी किस्मे |
1 | आलू | लेट ब्लाईट (पछेती अंगमारी) अरली ब्लाईट
(अगेती अंगमारी) बेक्टीरियल विल्ट
विषाणु रोग मोजेक-माइल्ड मोजेक सिवियर मोजेक क्रिकिल मोजेक रोगोज मोजेक लीफ रोल कवक कुर्चिका गोल्डन सिस्ट नेमेटोड रोग ब्लैक हर्ट, शीत क्षति फास्फोरस की कमी आदि रोग |
फाईतोप्थोरा इन्फेस्टेंस
आल्टरनेरिया सोलेनाई स्यूडोमोनास सालेनिसियेरम (शाकाणु) (राल्सटोनिया)
एक्स वाइरस वाई वाइरस एक्स + ए वाइरस वाई + एक्स वाइरस लुलियो वाइरस माइको प्लाज्मा (हेटेरोडेरा रोस्टोचाईनेंसिस) |
कुफरी, कुमार मोली, ज्योतिकुमारी जीवन |
2 | टमाटर | सेप्टोरिया लीफ ब्लाईट सेप्टोरिया लाई कोपर सिसी डेम्पिंग आफ पीथियम डिवेरियानम
बेक्टीरियल विल्ट सयुडोमोनाज सोलनेसियेरम
लीफ कर्ल बक आई फलसडन मुरझान / विल्ट रूटनाट (जड़गठान)
स्पोटेड विल्ट विषाणु तत्वों की कमी के रोग सन स्काल्ड |
जेमिनी विषाणु (सफ़ेद मक्खी वेक्टर) फाईतोप्थोरा पेरासिटिका फुयूजेरियम, बर्टीसीलीयम
मिलाईडोगायनी एनकोगानिटा सेलेक्शन 120 हिमार ललित (नेमेटोड)
(थ्रिप्स वेक्टर) काला विषाणु नाइट्रोजन, फास्फोरस सल्फर धूप से फलो का जलना जवाहर 218 (मिर्च) |
पंजाब केसरी बी. डब्ल्यू. आर 5 वी. टी. वैशाली सी.आर.ए. 66 सेल ए. एच. 24 |
3 | भटा एवं मिर्च | सरकोस्पोरा पर्णदाग बेक्टिरियल बिल्ट फोमोप्सिस ब्लाइट व फलसडन | सरकोस्पोरा सयुड़ोमोनाज सोलेनिसियेरम फोर्मोप्सिस बेक्सन्स | अन्नान्लाई, अर्कानिधि सोनाली, पंत ऋतुराज |
4 | गोभी के रोग | ब्लैकलेग (पत्ता गोभी) ब्लेक राट आलस्टरनेरिया अंगमारी स्टाकरात | फोमलिंगम ब्रासिसी जेन्थोमोनाज केमपेसिट्स आल्टरनेरिया फफूंद स्क्लेरोशियम | पूसा स्नोवाल से. पूसा इसहेड तथा सेलेक्शन 8 |
5 | मटर व सेम के रोग | पावडनी मिल्ड्यूडाउनी पावडरी मिल्ड्यू रस्ट (गेरुआ)
रूटराट (जड़ सडन) फूटराट या ब्लाइट बेक्टीरियल ब्लाइट |
पेरोनोस्पोरा पिंसी इरीसयफी पोलीगोनी युरोमाइसिस फेबी
फ्यूजेरियम सोलेनी एस्को काईटा पीनाइडी (माइक्रो स्फेरिल्ला) स्युडोमोनाज सिरिंजी |
जे.पी.83, जे.पी.4 पूसा पार्वती बी.एल.बोनी-1 कंचुकी रेसिसटो
बी.एन. -3
पंत. अनुपमा. कन्टेंडर
|
6
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लहसुन व प्याज के रोग | परपल ब्लाच
पिंक रूट पाउडरी मिल्ड्यू स्मज प्याज ब्लास्ट ब्लेक मोल्ड साट राट प्याज ब्लोट |
आल्टरनेरिया पोरी
पाइरेनोकीटा टेरिस्टिस पेरेनोस्पोरा डिस्ट्रकटर कोलेटोटाईकम सरीनेंस बोटाइटीस एली एस्परजिलस इर्वीनिया केरेटोबोरा
डाईटिलेन्क्स डिपसाकी नेमेटोड रोग |
आई.एच.आर. 56.1, एवं 2-4-1 पूसा रत्नार पूसा रोड
पूना रेड वैलारी रेड |
7 | धनिया के रोग स्टैम गाल | मेटोमाइसिस मेक्रोस्पोरस ब्लाइट | सरकोस्पोरा (फफुंद) |
साग भाजी के रोगों की पहचान एवं नियंत्रण
सब्जी फसल की उत्पादकता एवं उनके द्वारा होने वाले अधिक लाभ के मददेनजर इनमे रोग नियंत्रण के समन्वित से ही रोग का प्रबंधन किया जा सकता है ! साग सब्जी में कोई न कोई फसल साल भर खेत में खड़ी रहती है इसलिए उनमे रोग आसानी से पनपते रहते है ! इसी वजह से इनमे रोग नियंत्रण का कोई एक उपाय लाभकारी व प्रभारी नहीं होता ! अतः रोग नियंत्रण के लिए प्रभावी उपयोग ही यहाँ सुझाये जा रहे है ! इन उपायों की पहली कड़ी यह होती है कि रोहो से बचाओ किया जाये और उनकी शीघ्रताशीघ्र पहचान करके आगे कदम उठाया जाये !
रोग से बचाओ के लिए खेतो को साफ सुथरा रखें यहाँ तक मेढ़या नदी नालो के अवांछित खरपतवार को नष्ट किया जाये ! साथ ही गर्मी के मौसम में खेतो को खाली छोड़ कर उनमे गहरी जुताई करके तमाम कूड़े कचरे को जला दिया जाये सब कार्य आवश्यक है क्योकि साग भाजी के अधिकतर रोग भूमि जन्य होते है और बिना फसल के भी साल दो साल जीवित रह जाते है ! इस प्रयास के अभाव में इन रोगों का दवा से उपचार करने में दुगना-तिगुना खर्चा हो जाता है !
स्वस्थ बीज का प्रयोग रोग निरोधक जातियों पर शीघ्रतिशीघ्र रोग पहचान करके तुरंत दवा का छिडकाव करना रोग नियंत्रण का गुण है ! साथ ही फसल चक्र को प्रभावी बनाने के लिये खेतो की साफ़ सफाई आवश्यक रूप से करनी जरुरी है ! रोग की पहचान को आसान करने के लिये रोगों की समय पर जानकारी होना जरुरी होता है जो सारांश में यहाँ डी जा रही है !
रोग उपचार एवं नियंत्रण
कुछ पेचीदा रोगों के नियंत्रण की विस्तृत जानकारी यहाँ दी जा रही है जो अन्य रोगों पर भी लागु की जाने पर रोगों की रोकथाम के लिए सार्थक हो सकती है !
आलू का लेट ब्लाइट रोग :- (फाईतोप्थोरा इन्फेस्टन्स)
यह रोग बीज या भूमि में कवक जाल व जुस्पोर के रूप में रहता है तथा ठंडे व नम मौसम में अति तीव्रता से फैलकर, रोग महामारी का रूप धारण करता है ! अनुकूल मौसम में 24-72 घंटे में ही फसल को नष्ट कर देता है राट को तापमान 4 घंटे तक डियू पॉइंट के नीचे 100 से. ग्रे. आसपास रहे तथा दूसरे दिन बादल रहे या बरसात हो जाये तो इस रोग को फैलने की पूर्ण संभावना बन जाती है !
रोग के स्पोरेजिया पानी में लाखो की संख्या में बनते है जिसमे करोड़ो जू-स्पोर निकलकर वस्थ पौधों में रोग उत्पन्न करते है रोग की रोकथाम के लिए समेकित रोग प्रबंधन के उपाय करने के साथ ही बोर्डोमिश्रण (0.5 प्रतिशत) के तीन छिडकाव एक माह के अन्तर से करना जरुरी है ! रोग निरोधक जातियां जैसे कुफरीजीवन, कु. अलंकार, कु. खासी व कु. बादशाह उगाने के साथ ही फसल चक्र को अपनाना जरुरी है ! रिडोमिल 10.2 प्रतिशत दवा का छिडकाव लाभकारी होता है !
टमाटर का बेक्टीरियल बिल्ट रोग (स्यडमोजन सोलेनेसियेरम)
यह रोग आलू कुल की सभी फसलो जैसे टमाटर, मिर्च, भटा आदि के साथ ही अन्य कई फसलो में लगता है ! यह रोग रोपणी (नर्सरी) के साथ या मिटटी से पैदा होकर खेत में फैल जाता है ! आलू के बीज के साथ ये शाकाणु एक स्थान से दूसरे स्थान तक फैल जाते है ! शाकाणु नम भूमि में अक्सर साल भर जीवित रहते है ! नम व गरम (37˚से.) मौसम में यह रोग अत्याधिक फैलता है एक बार भूमि में रोग के शाकाणु आ जाने पर हमेशा वहाँ बने रहते है ! तब इस रोग नियंत्रण असंभव हो जाता है !
लगातार रोपणी लगाने व एक ही खेत में बार बार सोलेनेसी फसल उगाने से शाकाणु की संख्या उस खेत में इतनी हो जाती है कि वर्षो तक उस खेत में टमाटर उगाना नुकसान देय होता है ! इस रोग की रोकथाम के लिए रोग रहित बीज या पौधों को उगाना जरुरी है ! रोग रहित बीज के उपयोग से रोग नियंत्रण की शरुआत की जाये ! गर्मी के मौसम में खेतो की 9-10 इंच गहरी जुताई 2-3 बार करें तथा गोभी, प्याज, लहसुन व धान की फसल से 2-3 साल का फसल चक्र अपनाने से रोग नियंत्रण संभव है ! रोग निरोधक जातियों का उपयोग करें !
मटर का पाउडरी मिल्ड्यू (बुकनी रोग) इरिसायफी पोलीगोनी
यह रोग मृदा व वायु जनित है ! सूखे मौसम में रोग बड़ी तीव्रता से फैलता है ! जल्दी बोई जाने वाली अगेती मटर में रोग कम लगता है ! नवम्बर में बोई जाने वाली मटर में रोग भरी आर्थिक नुकसान करता है ! पत्तियों पर सफ़ेद चूर्ण के कारण आसानी से पहचाना जा सकता है ! रोग नियंत्रण के लिये शुरू से ही दवा छिडकाव जरुरी है घुलनशील गंधक युक्त फफूंदनाशी दवाओ जैसे सल्फेंक्स या बोर्डो मिश्रण के तीन छिडकाव करना चाहिए दवा के साथ साथ सर्फ़ या अन्य कोई स्प्रेनडर दवा मिलाना जरुरी होता है रोग की तीव्रता के समय दवाई का एक दो बार छिडकाव करना जरुरी है ! रोग प्रतिरोधी किस्मों का उपयोग करना अधिक लाभदायी है !
मिर्च का चुरडा-मुरडा रोग –(एरियोफिड माईट या विषाणु)
गर्म जलवायु वाले क्षेत्रो में यह रोग मिर्च पर प्रायः अधिक रूप से आता है ! इस रोग के कारण मिर्च उगाना ही मुश्किल हो जाता है ! वर्षा समेत गर्मी के आठ माह इस रोग के लिये ग्राही है जब यह रोग अधिक नुकसान करता है ! इसलिये नर्सरी अवस्था से ही दवा का छिडकाव जरुरी हो जाता है ! एरियोफिड माईट कीट के कारण यह रोग बड़ी तीव्रता से फैलता है क्योंकि ये सूक्ष्म कीट हवा के द्वारा दूर दूर तक आसानी से फैल जाते है ! दवाओ के लगातार छिडकाव से रोग नियंत्रण संभव है ! डाईमेथोयेट दवा के साथ घुलनशील गंधक (0.3 प्रतिशत) दवा जैसे सल्फेक्स के घोल को हर माह में छिडकाव करने से रोग नितंत्रण होता है ! साथ ही रोग नियंत्रण जाती जैसे जवाहर मिर्च उगाना लाभदायक है !
गोभी का काल सडन रोग – (जेन्थोमोनाज केम्पेस्ट्रिस-शाकाणु)
रोग भूमि व बीज जनित होने के कारण लगातार फसले उगाने से आजकल भारी नुकसान देखा गया है फूल या पत्तागोभी की फसल सालभर उगाये जाने के कारण कई जगह माहमारी का रूप ले चूका है ! इस रोग के कारण पत्ता गोभी की सम्पूर्ण फसल सड़ जाती है संकर जाति की पत्तागोभी भी इस रोग से प्रभावित होती है ! रोग के कारण उपज को अधिक समय तक रखने से फूल सड़ने लगते है ! पत्तियों के किनारे पर अंग्रेजी के ट आकार के पीले दाग इस रोग की पहचान है रोग के शाकाणु ग्राम निगेटिव होते है तथा पानी की बूंदों के साथ फैलते है रोग नियंत्रण के लिये स्वस्थ नर्सरी लगाने तथा बीज को उपचारित करने के बाद ही उपयोग करने के अलावा रोग से बचाओ के अन्य कोई उपाय नहीं है ! रोग प्रतिरोधी किस्मों में रोग कम मात्रा में आता है !
प्याज व लहसुन का परपल ब्लाच रोग – (आल्टरनेरियापोरी )
यह रोग भूमि तथा वायु जन्य है ! रोग के कोनीडिया गरम व नम मौसम में अधिक समय तक जीवित रहकर रोग उत्पन्न करते है ! समय पर दवा का छिडकाव शुरू न करने पर रोग नियंत्रण असंभव हो जाता है ! रोग निरोधक जातियां आई. एच. आर. 561, एन.2-4-1 पूसा, रत्नार पूसा रेड लगाना चाहिए ! रोग नियंत्रण के लिये बार्डो मिश्रण या डाईथेन एम -45 का छिडकाव करने से रोग नियंत्रण होता है लेकिन दवा का छिडकाव रोग आने के पहले से ही शुरू करना जरुरी है ! एक या दो पत्तियों पर रोग दिखाई देने पर छिडकाव शुरू करना चाहिये ! दवा के घोल में सर्फ़ या अन्य स्पेडर दवा जैसे टी-पाल आदि मिलाने से प्रभावी रोग नियंत्रण संभव है !
रूटनाट नेमोटोड रोग – (मलाईडोगिनी इनकोगनीटा)
यह नेमेटोड (सूत्रकृमि) भूमि जन्य है तथा एक बार मृदा पर आने पर यह सूत्रकृमि उस खेत में बढ़ता है ! भटा, मिर्च, टमाटर, मुली, गाजर के साथ ही लगभग सभी साग भाजी में यह रोग होता है ! जड़ो में छोटी छोटी गठाने इस रोग की पहचान है ! इस रोग के नियंत्रण के लिये नर्सरी तथा खेत की मिटटी सोलेराईजेसन क्रिया से उपचारित करके रोग पर नियंत्रण किया जा सकता है ! अन्यथा यह रोग किसी अन्य तरीके से नियंत्रण में नहीं आ सकता न ही कोई निरोधक प्रजातीयां इसमें कामयाब होती है ! सलेराईजेसन क्रिया अप्रेल-मई माह की गर्मी के मौसम में की जाती है सूरज की गर्मी के ताप द्वारा सूत्रकृमि को जमीन के अंदर ही समाप्त कर दिया जाता है !
भटे का लिटिललीफ माइकोप्लाज्मा (एम.एल.ओ.) रोग
यह रोग फुदका कीट सिस्टियस फाईसाइटिस द्वारा बड़ी तीव्रता से फैलता है और फल आने तक लगभग 50 प्रतिशत पौध रोग ग्रसित हो जाते है ! बहुवर्षीय या बहूमौसमीय फसल में यह रोग 100 प्रतिशत तक फैल जाता है ! रोग लग जाने पर रोगी पौधों को उखाड़ने के अलावा कोई चारा नहीं बचता ! रोगी पौधों में फल नहीं लगते जिससे आर्थिक नुकसान अधिक होता है रोग रोधी जातियां भी इनमे कारगार योगदान नहीं कर पाती है ! इसलिये रोग नियंत्रण में लम्बे समय का फसल चक्र तथा साफ़ सुथरी खेती ही इस रोग के नियंत्रण में मदद करती है ! फसल चक्र में प्याज, लहसुन,गोभी आदि फसलों के कारण लाभप्रद एवं प्रभावी रहती है !
रोग की शुरुआत से ही दवा का छिडकाव शुरू कर देना चाहिये अथवा छिडकाव की तारीख फसल की उम्र के हिसाब से पहले ही तय कर लेना चाहिये ! क्योंकि रोगों में देखभाल पूर्व सावधानी वाली बात अधिक लागू होती है !
(ब) प्रमुख कीट(Major pests of rabi crops)
मध्य प्रदेश में रबी मौसम में विशेषकर आलू, मैथी, पालक, प्याज़, टमाटर, बैगन, फूल एवं पत्ता गोभी, मिर्च धनिया, सेम आदि लगाई जाती है ! इन सब्जियों में विभिन्न प्रकार के कीड़े लगते है जो कि इनके उत्पादन के अलावा स्वाद व गुणों में भी कमी करते है ! इस लेख में विभिन्न सब्जियों के कीड़े और उनके नियंत्रण के बारे में जानकारी डी जा रही है !
फूल व पत्ता गोभी के कीड़े एवं उनकी रोकथाम
1.फुदका भृंग (बीटल)
ये कीड़े पत्तियों में छोटे छोटे छेद बनाते है ! ये कीड़े शाम होने से पहले तक अधिक सक्रीय रहकर इन फसलों को नुकसान पहुँचाते है !
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रोकथाम
इनकी रोकथाम के लिये इन्डोसल्फान 4 प्रतिशत या मेलाथियान 5 प्रतिशत पाउडर का 20 से 25 किलो प्रति हेक्टेयर के हिसाब से भुरकाव करें ! छिडकाव के लिये इन्डोसल्फान 35 ई.सी. का 1000 मि.ली. या मेलाथियान 50 ई.सी. का 1000 मि.ली./ हेक्टेयर छिडकाव करें !
2.माहो (एफीड)
इस कीट का आक्रमण पौध अवस्था से शुरू होकर तोड़ने की अवस्था तक बना रहता है ! यह छोटा व मुलायम कीट है ! इसके व्यस्क व शिशु पत्तियों का रस चूसकर नुकसान पहुँचाते है ! ये हजारो की संख्या में समूह में दिखाई देते है ! रस चूसने के कारण पौधे कमज़ोर हो जाते है ! इसके कारण उत्पादन पर विपरीत असर होता है !
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रोकथाम
पौध अवस्था में मिथाइल डेमेटान 25 ई.सी.या डायमिथियेट 30 ई. सी. का 600 मि. ली./हेक्टेयर के हिसाब से अच्छी तरह छिडकाव करें !
3. हीरकप्रष्ट शलभ (डायमंड बेकमाथ)
इस कीट की इल्ली विकसित अवस्था से लेकर तोड़ने तक की अवस्था रक् पत्तियों को खाकर नुकसान पहुँचाती है ! इसकी इल्ली छोटी तथा पत्तियों की निचली सतह पर दिखाई देती है ! कभी कभी ये नरम नरम फूल के हिस्सों को भी खाती है !
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रोकथाम
इस कीड़े के लिये इन्डोसल्फान 35 ई.सी. या मेलाथियान 50 ई.सी. का 1 लीटर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिडकाव करें !
4. तम्बाकू की इल्ली (टोबेको केटर पिलर)
इस कीट की इल्ली पत्तियों के अलावा बंधा के अंदर घुसकर खाती है ! इससे आक्रमित फूल या बंधा खाने के योग्य नहीं रहते है
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रोकथाम
इस कीट की इल्ली की रोकथाम के लिये क्लिनालफास 25 ई.सी. (इकालाक्स) या इन्डोसल्फान 35 ई.सी. का 1 ली./हेक्टेयर के हिसाब से छिडकाव करें !
इन कीटों के अलावा जाला बनाने वाली इल्ली, अर्द्धकुंडक इल्ली, चितकबरी मत्कुण का भी आक्रमण होता है इनकी रोकथाम के लिए ऊपर बताई गई दवा का उपयोग करें !
आलू के कीड़े व उनकी रोकथाम
1.माहू (एफीड)
यह कीट छोटा तथा हल्के हरे पीले रंग का होता है तथा पत्त्यों का रस चूसकर नुकसान पहुँचाता है ! यह कीट विषाणु रोग भी फैलाता है तथा पर्ण कुंचन (लीफ कर्ल) नाम से जाना जाता है जिसके कारण कंद छोटी तथा कम संख्या में बनती है !
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रोकथाम
इस कीट की रोकथाम के लिये विषाणु रोग से ग्रस्त पौधों को खेत में न रखे ! कीट की रोकथाम के लिये मिथाइल डेमिटान 25 ई.सी. का 750मि.ली. या डायमिथोएट 30 ई.सी. का 750 मि.ली./ हेक्टेयर के हिसाब से छिडकाव करें !
2.कटुआ कीट (एग्रोटिस स्पीसीस)
इस कीट की इल्लियाँ जमीन में रहकर पौधों एवं शाखाओ को सतह से काट देती है ! साथ साथ आलू को भी खा कर नुकसान पहुँचाती है ! इल्लियाँ मिटटी के या जड़ो के पास रहती है तथा रात्रि में अधिक सक्रीय रहती है !
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रोकथाम
यदि संभव हो तो इल्लियों को इकटठा कर नष्ट करें ! शाम के समय हरे चारे का ढेर लगाये तथा इन्ही ढेरो को हटाकर छिपी हुई इल्लियों को नष्ट करें ! इया कीट के सलभ को प्रकाश प्रपंच (लाईट ट्रेप) से पकड़कर नष्ट करें ! रासायनिक नियंत्रण में, नियमित रूप से कीट ग्रसित खेतो में फोरेट 10 जी को 10-12 किलो प्रति हेक्टेयर के हिसाब से बोने के पूर्व मिटटी में मिलावे !
बैंगन के कीड़े व उनकी रोकथाम
1.फल एवं प्ररोह भेदक (फ्रूट एवं शूट बोरर)
इस कीट की इल्ली पौधे के बढ़ते हुये भाग या शाखाओ के सिरे को चूसकर अंदर ही अंदर खोखला करती है जिसके कारण छोटा पौधा सूखकर मर जाता है तथा बड़े पौधे में नयी शाखाये लटक जाती है ! इनके अलावा ये फलों में छेदकर फल को बेकार कर देती है ! इस कीट से नुकसान अधिक होता है !
- नियंत्रण
- प्रतिरोधी किस्मे पूसा पर्पल लांग को लगाये
- मुरझाये कीट ग्रस्त भागो को तने की इल्ली सहित नष्ट करें ! लम्बे फसल चक्र अपनाये !
- कीट ग्रस्त फसल में पौध अवस्था में फस्फोमीडान 85 एस. का 250 मि.ली./ हेक्टेयर की दर से छिडकाव करें !
- इन्डोसल्फान 35 ई.सी. का 1000 मि,ली./हेक्टेयर के हिसाब से छिडकाव करें !
2. माहो फुदका (जेसिड) एवं मत्कुण (बग)
ये कीट पौधे की पत्तियों का रस चूसकर नुकसान पहुँचाते है ! इनके रस चूसने से पौधों की बढवार रुक जाती है तथा फल कम लगते है !
-
रोकथाम
यदि फसल में फल ना लगे हो तो मिथाइल डेमीटान 25 ई.सी. या डायमिथिएट 30 ई.सी. का 700 मि.ली. प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिडकाव करें !
मिर्च के कीड़े एवं उनकी रोकथाम
1. तेला (थ्रिप्स) माहो (एफिड) अष्टपदी (माईट)
ये कीट मिर्च फसल की पौध अवस्था में ही सक्रीय हो जाते है तथा पत्तियों का रस चूसकर नुकसान पहुँचाते है ! तेला एवं अष्टपदी (माईट) पौधे में विषाणु रोग भी फैलाते है जिसे चूर्डामुरडा बीमारी कहते है ! इस कीड़े में रस चूसने के कारण पत्तियाँ अंदर की और मुड़ जाती है ! इस फसल से कीट अत्याधिक नुकसान पहुँचाते है !
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रोकथाम
ये कीट रोपणी के पहले ही सक्रिय हो जाते है, इसलिये इनका उपचार रोपणी के पूर्व ही करना चाहिए ! इन कीटों के रोकथाम के लिये डायमिथिएट 30 ई.सी. का 750 मि.ली./हेक्टेयर के हिसाब से छिडकाव करें ! अष्टपदी (मकड़ी) की रोकथाम के लिये सल्फर 50 डब्ल्यू पी को 2.5 ग्राम प्रति लि. पानी में मिलाकर छिडकाव करें वैसे इन दोनो दवा को साथ में भी मिलाकर 15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करें । यदि हरि मिर्च का उपयोग करना है तो मेलाथियान 50 ई. सी. का 750-800 मि. ली./हे. के दर से छिड़काव करें। दवा छिड़काव के लगभग सात दिनो पश्चात ही फल तोड़कर उपयोग में लायें।
टमाटर के कीड़े एवं उनका नियंत्रण
1. माहू फुदका (जेसिड), सफेद मक्खी एवं पर्ण सुरंगक या नाग नागिन
ये कीट टमाटर की फसल को पौध अवस्था से लेकर तंड़ाई तक नुकसान पहुँचाते हैं। इन कीड़े के षिषु व वयस्क पत्तियों का रस चूसकर नुकसान पहुँचाते है। सफेद मक्खी व माहू विषाणु रोग फैलाते है जिसे पर्णकुचंन बीमारी के नाम से जाना जाता हैं। इसके कारण फलों की पैदावार कम होती हैं। पर्ण सुरंगक या (नाग नागिन) के प्रकोप के कारण पत्तियों पर टेढ़ी मेढ़ी सुरंगे बनती है। इस कीट का प्रकोप दिनो दिन बढ़ रहा हैं।
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रोकथाम
- विषाणु रोग से ग्रसित पौधो को उखाड़कर फेक देना चाहिये।
- रासायनिक नियंत्रण में डायमिथियेट 30 ई. सी. का 500 मि. ली./हे. के हिसाब से छिड़काव करें।
- फूल व फल की अवस्था में इन्डोसल्फान 35 ई.सी. का 1000 मि.ली./हे. के हिसाब से छिड़काव करें।
2.फलछेदक (फ्रूटबोरर)
टमाटर की फसल में फलछेदक (चने की इल्ली) का प्रकोप होता है। इस कीट की इल्ली फल के अन्दर घुसकर खाती है। कभी कभी इसका आक्रमण अधिक होता है।
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नियंत्रण
इस कीट से फलो को बचाने के लिये इन्डोसल्फान 35 ई.सी. का 1000 मि.ली./हे. के हिसाब से छिड़काव करें।
धरियाँ के कीट एवं उनका नियंत्रण
1.महू (ऐफिड)
धना फसल पर माहू का प्रकोप होता है। इसका प्रकोप मौसम पर अधिक निर्भर करता है। बदली युक्त मौसम में इनकी वृध्दि अधिक होती है। यह कीड़े रस चूसकर नुकसान पहुँचाते है जिसके फलस्वरूप पौधो की बाढ़ रूक जाती है। ग्रसित फसल बीमार सी लगती है।
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रोकथाम
इस कीट की रोकथाम के लिये मेलाथियान 50 ई.सी. का 750 मि.ली. या इन्डोसल्फान 35 ई.सी. का 1000 मि.ली./हे. के हिसाब से छिड़काव करें।
नोट:-
- कीटनाशक दवा और सब्जी जुताई के बीच कम से कम एक सप्ताह का अन्तर रखें।
- छिड़काव के समय सावधानी रखे।
- कीटो का सर्वेक्षण नियमित रूप से करें तथा आवश्यकतानुसार कीटनाशक दवाओं से उपचार दुहराये।
- सब्जियाँ खाने से पहले पानी से दो तीन बार अच्छी तरह धो कर खाये।
Source-
- Jawaharlal Nehru Krishi VishwaVidyalaya,Jabalpur(M.P.)