खाद्यान्न का सुरिक्षित भंडारण एक सर्वोच्च प्राथमिकता का विषय है। रबी फसलों में गेहूँ जौ, चना, मटर, मसूर व तिलहनों का भंडारण करना आवश्यक है। उत्पादकता क्षेत्र व मौसम के आधार पर भंडारण की व्यवस्था की जानी चाहिए। भंडारण के दौरान होने वाले नुकसान में, खेत में होने वाले नुकसान के मुकाबले अधिक आर्थिक क्षति होती है। यद्यपि उत्पादकता व उपज में हमारे देश ने काफी उन्नति की है तदापि हमें लक्ष्य पूरा करने के लिए और अधिक वैज्ञानिक रूप से परिश्रम करने की आवश्यकता है। इस लक्ष्य को प्राप्त न कर पाने का एक मुख्य कारण है कि भण्डारण का वैज्ञानिकीकरण नहीं हुआ है। हमारे देश में लगभग 65 प्रतिशत उपज असंगठित क्षेत्र में भंडारित की जाती है। खाद्यान्न के साथ-साथ बीजों का भंडारण भी ठीक से नहीं हो पाता जिससे उनकी अकंुरण दर कम हो जाती है।
भण्डारण के दौरान खाद्यान्न निम्न कारकों द्वारा प्रभावित होता है-
1. भौतिक कारक (तापमान व नमी)
2. जैविक कारक (कीड़े, चूहे, पक्षी, सुक्ष्म जीवाणु व अन्य रीढ़धारी जन्तु)
3. उत्पाद में रसायनिक विघटन
4. उत्पाद में उपस्थित जीवनाशी
5. अभियांत्रिकी अथवा मशीनीकरण
6. सामाजिक एवं आर्थिक कारक (खेती की पद्धति, भंडारण और विपणन विधि)
वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार भंडारण में अनुमानतः 108 प्रजातियां खाद्यान्न को नुकसान पहुंचाती हैं जिनमें से 93 प्रजातियां कीटों की हैं। साधारणतः भृंग कुल व पतंगा कुल के कीट मुख्य क्षति का कारण है। साबुत अनाज या दालों को कुछ कीट हानि पहुंचाते हैं जिन्हें प्राथमिक पीड़क कीट कहा जाता है और अन्य कीट टूटे हुए अनाज या दालें अथवा याँत्रिकी द्वारा भोज्य पदार्थो में बदले गये खाद्यान्न अथवा प्रारम्भिक कीटों द्वारा पूर्व संक्रमित अनाज को ही हानि पहुंचाने में सक्षम होते हैं इन्हे गौण पीड़क कीट कहते हैं। ये कीट खाद्य पदार्थो के अलावा तिलहनों, मसालों व अन्य दलहनों को नुकसान पहुंचाते हैं।
गोदामों तक संक्रमण पहुँचाने में गाड़िया/वैगन/रेलगाड़ी के डिब्बे जो कि पहले से संक्रमित होते हैं नये अनाज की बोरियों को संक्रमित कर देते हैं। इससे बचने के लिए अनाज की ढुलाई विशेष प्रकार की बोरियों में करनी चाहिये। इनमें नमी का संचार भी नहीं होता है। कुछ कीट खेत में पके हुए आनाज पर आक्रमण करने में सक्षम होते है। अनाज को मंडाई व ओसाई के बाद धूप में सुखा कर ही भंडारण करना चाहिये। भंडार घर में अनुकूल आर्द्रता (नमी) व तापमान मिलने पर कीट प्रजनन कर जनसख्या में वृद्धि करते हैं। आसानी से उपलब्ध भोजन, प्रकृतिक शत्रुओं का अभाव, अनुकूल वातावरण व प्रति मादा अधिक अंडे् देने की क्षमता होने के कारण कीट अधिक संख्या में पनपते हैं और नुकसान करने में सक्षम हो जाते हैं।
खाद्यान्न को हानि पहुंचाने वाले प्रमुख कीट
भृंग प्रजाति के कीट
इन कीटों को बोलचाल की भाषा में सुरसरी कहा जाता है। ये गहरे भूरे रंग के 3-5 मि.मी. लम्बे व 1-1.5 मि.मी. चैड़े होते हैं। भंडारण में पांच प्रमुख भृगं प्रजातीय कीट विभिन्न अनाजो पर आक्रमण करते हैं। धान की सुरसुरी (साइटोफिलस ओराइजी) धान, गेहूँ, मक्का व दालों को क्षति पहुंचाती है। अनाज में इसका प्रकोप होने से गोल छेद बन जाते हैं। इस कीट को आक्रमण करने के लिए 12-14 प्रतिशत नमी की आवश्यकता होती है। इसकी मादा अनाज में छेद करके अंडा देती है। अनाज का छोटा भेदक आकार में सुरसुरी से छोटा होता है। इसका मादा अनाज के ऊपर अंडे देती है और उनसे छोटी सी सूंडी निकलकर अनाज में प्रवेश कर उसे खाकर अन्दर ही अन्दर खोखला कर देती है। इसका प्रकोप अनाज व दलहनों पर होता है।
भंडारण का एक प्रमुख खतरनाक भृंग खपड़ा बिटल है। यह कम नमी, गर्म वातावरण में पनपता है तथा चार वर्ष तक बिना अनाज वाले गोदाम में सुषुप्त अवस्था में जीवित रह सकता है और अनुकूल परिस्थिति होते ही पनपने लगता है। इसके लारवा रोयदार होते हैं। पंजाब क्षेत्र में पाये जाने वाला खपड़ा में मैलाथियान व प्रधुमन के लिए प्रतिरोधिता पायी गई है।
दूसरे क्रम की श्रेणी में आने वाले दो प्रमुख कीट आटे का लालभृंग (ट्राइबोलियम कैस्टेनियम) व चावल की सूंडी (ओरजोफिलस् सुरिनामेनसिस्) है। अनाज के भंडारण के समय सफाई न करने पर यदि अनाज के टुकड़े या पूर्व संक्रमित अनाज होने पर इनके विकास को प्रोत्साहन मिलता है। ये दोनों कीट तैयार किये गये भोज्य पदार्थो को भी क्षति पहुंचाते हैं।
पतंगा वर्गीय कीट
इस वर्ग के कीटों में चार मुख्य कीट अनाज, दालों व यांत्रिक रूप से तैयार भोज्य पदार्थो को नुकसान पहुँचाते हैं। बादाम का पतंगा (केड्रा कोटेला) चावल, धान व गेहूँ के भंडारण में क्षति पहुंचाता है। भारतीय अनाज का पतंगा (प्लोडिया इटरपन्कटेला) धान व चावल को पूर्वी एशियाई देशों में आक्रमण कर क्षति पहुंचाते हैं। चावल का पतंगा (कोर्सिश सिफेलोनिका) स्थानीय व घरेलू भंडारण को अधिक नुकसान पहुंचता है। ये चावल, दलिया, दालों, सूजी इत्यादि पर आक्रमण करके उन्हें अपने लार से बाधंकर गुच्छे जैसी संरचना बनाकर उसमें रहता है। इस कारण यह अधिक अनाज को नुकसान पहुंचाता है।
धान व अन्य अनाजों को अनाज का पतंगा (साइटोट्रोगा सीश्लिेला) मुख्यः रूप से नुकसान पहुंचाता है। इसके आक्रमण का पता जल्दी से नहीं लग पाता क्योंकि सिर्फ मरे हुए पतंगे ही अनाज से बाहर दिखते है जिनका आकार बहुत छोटा और पंख बहुत पतले होने से यह अनाज में घुल मिल जाते है। पंतगों का जीवन चक्र 30° सेल्सियस तापमान व 13-14 प्रतिशत नमी होने पर एक मास में पूरा हो जाता है तथा कम समय के भंडारण में भी 4-5 पीढियाँ पूरी करके काफी नुकसान पहुंचा देते हैं। ध्यान से देखने पर धान में छेद दिखाई देता है जिसे पतंगा ढ़क देता है।
दलहन, तिलहन व मसालों को नुकसान पहुँचाने वाले प्रमुख कीट
दलहनी फसलों की खेती दोनों (रबी व खरीफ) मौसमों में होती है। इनकी खेती की योजना इस प्रकार से होनी चाहिये कि कीड़ों के आक्रमण को रोका जा सके। उन्नतशील बीजों का प्रयोग वाँछनीय है परन्तु उनमें भंडारण में आक्रमण करने वाले कीटों के प्रति प्रतिरोधिता होना आवश्यक है। क्षेत्रीय प्रजातियां व परम्परागत खेती के कुछ नियम आज के परिवेश में भी महत्वपूर्ण है, उन्हें वैज्ञानिक तौर पर परीक्षण करके पुनः अपनाना चाहिये। मूंग, उड़द, लोबिया व अरहर खरीफ में और मटर, चना, मसूर इत्यादि रबी में उगाये जाते है। दलहनों में भारत में आठ प्रकार के कीट आक्रमण करते है |
इन्हें साधारणतः ‘ढ़ोरा’ कहा जाता है। मूंग में कैलोसोब्रुकस मैकयुलेटस् अधिक नुकसान पहुंचाता है। चना व अरहर में कैलोसोब्रुकस काइनेन्सिस् अधिकतर पाया जाता है लेकिन ढोरा की और प्रजातियां भी अरहर पर आक्रमण करती है। अरहर के भंडारण के कुछ समय बाद चना, मटर व मसूर भण्डार गृह में पहुंचाते है| इस कारण अरहर का संक्रमण एक माध्यम बन जाता है और ढोरा के आक्रमण को बढ़ावा मिल जाता है। संस्तुत उन्नत बीजों व उन्नत उत्पादन तकनीक के प्रयोग से कीटों के आक्रमण में कुछ कमी लायी जा सकती है।
राजमा में एक अन्य प्रकार का ढोरा लगता है जिसे जे़बराटिस् सबफेसिएटस नाम दिया गया है। इसका आक्रमण का अनुमान कीट के एक जीवन चक्र पूरा हो जाने पर ही लगता है। ढोरे के व्यस्क अन्य दालों की तरह राजमा के अन्दर से बाहर निकलते समय एक छेद बना देते हैं। संक्रमित भंडारगृह में नया भंडारण करते ही क्षति होती है। तिलहनों को अधिकतर आटे का लाल भृंग व बादाम का पतंगा आक्रमण करते हैं। तम्बाकू का भृंग (लैसियोडर्मा सेरिकोर्नी) गोदामों में मसालों पर आक्रमण करता है। यह भृंग अपनी राल द्वारा बीजों को जोड़कर उसके अन्दर निवास करता है।
सुरक्षित भंडारण के उपाय
धातु की टंकी (घेरलू अथवा साइलो), कमरों, गोदामों में बोरियों की कतार, कच्ची मिट्टी की कोठियों या सीमेंट व ईंट से बने कोठी में अनाज का भंडारण करने से पहले निम्नलिखित विशेष बातों का ध्यान रखना आवश्यक है।
1. अनाज को भली प्रकार से साफ करें। अनाज के टूटे टुकडे़ और अन्य कोई भी पदार्थ-उदाहरणतः मिट्टी, कंकड़, भूसा व तने के टुकड़े आदि को हटा दें।
2. अनाज की नमी कम करने के लिए भली प्रकार से सुखायें। अनाज का दाना दांत से दबाने पर टूट जाना चाहिये, दांत में चिपकना नहीं चाहिये।
3. अनाज, दलहन या तिलहन रखने से पहले टंकी, कोठी या गोदामों के सुराखों व दरारों को भली-भांति सीमेन्ट या अन्य उपायों से बंद करें।
4. गोदाम में अनाज पहुंचाने से पहले मैलाथियान (50 प्रतिशत ई.सी.) का 30 मि.ली. दवा प्रति 100 वर्ग मी. के क्षेत्र में छिड़काव कर सुखा लें। छिड़काव गोदाम के आसपास भी होना चाहिये।
5. यदि अनाज बोरियों में भरना हो तो उन्हें भली प्रकार से धूप में सुखा कर डेल्टामैथ्रिन का छिड़काव ऊपर व नीचे करके फिर से सुखाकर प्रयोग करें।
6. अनाज की बोरियां दीवार से कुछ स्थान छोड़कर कतारों में लगायें। बोरियों के नीचे लकड़ी का तख्ता या बांस की चिटाई बिछायें ताकि नमी अनाज तक न पहंुचे। गोदाम में सीलन नहीं होनी चाहिये।
7. अलग-अलग तरह के अनाज को अलग-अलग कतारों में लगायें। अनाज को कमरे में बिखरने न दें।
8. रोशनदानों व खिड़कियों पर जाली लगी होनी चाहिये ताकि चूहें गोदाम में प्रवेश न कर सकें।
9. समय-समय पर गोदाम का निरीक्षण करें और खुले मौसम के दिन खिड़की व रोशनदान खोलकर अनाज को हवा लगवा दें।
10. इन उपायों के बावजूद यदि अनाज में कीड़ों का प्रकोप हो जाए तो ऐल्युमिनियम फास्फाइड, सेल्फास, क्विकफास, हाइड्रोजन फास्फाइड से प्रधुमित करें। इसकी तीन ग्राम की एक गोली एक टन अनाज को प्रधुमित करने के लिए पर्याप्त है। प्रद्यूमित करने के लिए भंडार गृह की हवा बन्द होनी चाहिए। अनाज की टंकी, पूसा कोठी या पूसा कोठार को अच्छी तरह से हवाबन्द करके सावधानी पूर्वक प्रधुमित करना चाहिये। इसमें आयतन के अनुसार दवाई का असर होता है अतः टंकी को पूरा भरा होना चाहिये। प्रधुमित पात्र को
बार-बार नहीं खोलना चाहिए।
स्रोत-
- भाकृअप – भारतीय कृषि अनुसंधान संसथान