खेती योग्य भूमि पर मृदा एवं जल संरक्षण उपाय मुख्य रूप से भूमि ढाल एवं वर्षा पर निर्भर रहता है । जिन क्षेत्रों में भूमि का ढाल 2 प्रतिशत से कम होता है ऐसे क्षेत्रों के लिए वानस्पतिक उपाय अनुशंसित किये जाते हैं । दूसरी तरफ जहाँ ढाल 2 प्रतिशत से अधिक होता है, वहाँ यांत्रिक उपायों की अनुशंसा की जाती है । सफल संरक्षण हेतु वानस्पतिक एवं यांत्रिक उपायों को एकीकृत भी किया जा सकता है ।
भू – क्षरण नियंत्रण के उपाय –
1. जुताई विधियाँ
भूमि क्षरण को रोकने हेतु जुताई की संख्या, गहराई व विधि का विशेष महत्व है । ग्रीष्म ऋतु में खाली खेत छोड़ना, जुताई करने की अपेक्षा अधिक हानिकारक है, क्योंकि ग्रीष्म ऋतु में जुताई किये गये खेत में अधिक पानी शोषित होता है, जो कि भू – क्षरण को कम करता है । पानी द्वारा अधिक क्षरण होने वाले क्षेत्रों में कम जुताई करना लाभप्रद है । ढाल के विपरीत जुताई करना चाहिए । साथ ही जुताई दोनों तरफ मिट्टी पलटने वाले हल से करना चाहिए ।
2. कंटूर खेती
इस पद्धति में कृषि क्रियाएं जैसे जुताई, बुवाई एवं निदाई आदि समान ऊँचाई पर की जाती है, जिससे बहने वाले पानी की गति कम हो जाती है ।
3. फसल पद्धति
फसलें क्षेत्र विशेष के वातावरण एवं मृदा आदि पर निर्भर करती हैं । इन्हें उगाने की तकनीक को फसल पद्धति कहते हैं ।
4. फसलों का चयन
खेत में उगाई जाने वाली फसलों को भूमि संरक्षण के उद्देश्य से निम्न भागों में विभाजित किया जाता है ।
a) क्षरण अरोधी
उर्द, मूँग, लोबिया, ग्वार, मूंगफली, कुल्थी, जई, जौ, गेहूं एवं बाजरा इस वर्ग में आते हैं ।
b) क्षरण अवरोधी
इस में वर्षा में वे फसलें जिनका वानस्पतिक आच्छादन कम या जिनकी बीज दर कम अथवा कतारों से कतारों या पौधों से पौधों की दूरी अधिक होती है, सम्मिलित की जाती है । जैसे मक्का, कपास आदि|
5.फसल चक्र
भूमि की उर्वरता को स्थिर रखने में फसल चक्र का महत्वपूर्ण स्थान है ।
फसल चक्र के प्रमुख सिद्धांत
1. क्रमबद्ध खेती
2. मृदा उर्वरता में वृद्धि
3. विभिन्न खरपतवार, बीमारी व कीट फसलों के आक्रमण की रोकथाम
4. खेती की भूमि क्षरण से सुरक्षा ।
किन्हीं भी क्षेत्रों में लगातार अरोधी फसलें जैसे
ज्वार आदि के उगाने की अपेक्षा फसल चक्र में अवरोधी जैसे – हुगली, मूंगफली, उर्द, लोबिया, बरसीम आदि मूँग भी सम्मिलित कर लिया जाये तो भू-क्षरण को रोकने में फसलें महत्वपूर्ण योगदान देती हैं ।
6. पट्टीदार खेती ( स्ट्रिप क्राॅपिंग )
ऐसे क्षेत्र जहाँ पर पानी द्वारा भू-क्षरण की संभावना होती है, वहाँ पर अवरोधी तथा अरोधी फसल को एकान्तर पट्टियों पर उगाते हैं । ढालू भूमियों में ढाल के विपरीत कन्टूर पट्टिका खेती की जाती है । समतल क्षेत्रों में फसलों को समानान्तर ( अवरोधी व अरोही फसलें ) पट्टियों में उगाई जाती हैं । वायु क्षरण वाले क्षेत्रों में अरोही फसलों में लम्बी ऊँचाई वाली फसलें जैसे – ज्वार, बाजरा, मक्का की पट्टी के बाद कम ऊँचाई वाली फसलें जैसे – ज्वार, बाजरा, मक्का की पट्टी के बाद कम ऊँचाई वाली अवरोधी फसलें जैसे हुलकी उर्द, मूंग आदि को उगाते हैं ।
7. कृत्रिम आवरण
मृदा को क्षरण से बचाने के लिए मृदा की सतह पर भूसा, पत्तियों या पोलिथीन का कृत्रिम आवरण बहुत ही लाभकारी पाया जाता है । कृत्रिम आवरण की मोटाई जितनी अधिक होगी वह उतना ही लाभकारी होगा ।
स्रोत-
- जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर,मध्यप्रदेश