मूंगफली को प्रभावित करने वाले 50 से अधिक रोगों को सूचीबद्ध किया गया है । इनमें से मुख्य रोगों के विशिष्ट लक्षण नीचे वर्णित किये जा रहे हैं ।
मृदा जनित रोग
१.ग्रीवा विगलन
बीज का उगने से पहले ही सड़ जाना, बीजांकुर का सड़ना, बीजांकुर में अंगमारी, पूरे पौधे की या इसकी शाखाओं की शीघ्रता से म्लानि, इसके विशिष्ट लक्षण हैं जिनके द्वारा इस रोग को पहचाना जा सकता है । प्रभावित पौधों का ग्रीवा क्षेत्र कटा हुआ एवं गहरे भूरे रंग का हो जाता है जो कि अत्यधिक मात्रा में कोनिडिया तथा कोनिडीयाधर के बनने की वजह से होता है । संक्रमित पौधों की जड़ विघटित हो जाती है ।
२.तना विगलन
मिट्टी के संपर्क में आने वाले तने के भाग एवं शाखाओं की आंशिक या पूर्ण रूप से म्लानि, इसके प्रारंभिक लक्षण हैं । पत्तियां भूरे रंग की होकर मुरझा जाती हैं फिर भी पत्तियां पौधों से जुड़ी रहती रहती हैं । खूंटों तथा फली का सड़ना एवं पत्तियों का मुरझाना यह तना विगलन रोग से संक्रमित पौधों के लक्षण हैं । संक्रमित तने के चारों ओर फफूंद की सफेद बढ़वार दिखती है तथा बाद में सरसों के बीज जैसे स्कलेरोशिया दिखाई देते हैं ।
३.एफ्ला जड़/पीला कवक
यह पीला कवक, सामान्यतयः सड़े एवं स्वस्थ दोनों ही तरह के बीजों एवं फलियों पर पाया जाता है । यह बीजांकुर के निकलने के निकलने के पश्चात प्रथम बीजपत्रों पर प्रकट होता है । इस रोग से संक्रमित पौधों का आकार छोटा रह जाता है या अवरुद्ध हो जाता है तथा साथ ही पत्तियां भी छोटी रह जाती है । पत्तियों की शिराऐं हरिमाहीन हो जाती हैं, एवं पत्रक पर भी हरिमाहीनता हो जाती है । इस तरह के बीजांकुर में द्वितीय जड़ प्रणाली नहीं होती है, जिसे एफ्ला जड़ के नाम से जाना जाता है । अधिक परिपक्व एवं क्षतिग्रस्त बीजों तथा फलियों पर इस कवक की पीली हरी कालोनियां विकसित हो जाती हैं |
४.सुखा जड़ विगलन
भूमि सतह से ठीक ऊपर, तने पर पानी से भीगे हुए परिगलित धब्बे नजर आते हैं । यदि प्रारंभिक संक्रमण से तने पर गड्ढे हो जाते हैं, तो कवक के बीज के बनने के साथ ही पौधों में म्लानि हो जाती है । तने का संक्रमित भाग कट-कट जाता है, जो कि काला एवं कालिख से भरा हुआ प्रतीत होता है । जड़, फली और खूंटे भी सड़ने लगते हैं, तथा कवक के बीजों के द्वारा ढक जाते हैं । संक्रमित फलियों के बीज काले हो जाते हैं पर्णीय रोग
५.अगेती टिक्का रोग
यह रोग साधारणतया बुवाई के 30 दिन के आसपास दिखाई पड़ता है । प्रारंभ में पत्तियों की ऊपरी सतह पर अर्धगोलाकार से गोल बारीक हरिमाहीन धब्बे विकसित होते है, जो बाद में भूरे रंग में बदल जाते हैं। यह धब्बे पीले रंग के प्रभामण्डल से घिरे हुए रहते हैं । कवक का बीजाणुकजनन प्रचुर मात्रा में होने के कारण पत्तियों की निचली सतह पर यह धब्बे गहरे भूरे रंग के दिखाई देते हैं । गंभीर रूप से संक्रमित पत्तियां पूर्ण विकास के पूर्व ही गिर जाती हैं, यह रोग तने और शाखाओं तक भी फैल जाता है ।
६.पछेती टिक्का रोग
यह रोग सामान्यतः 60 दिन की फसल से लेकर कटाई तक देखा जाता है । प्रारंभ में पत्तियों की ऊपरी सतह पर महीन हरिमाहीन धब्बे विकसित होते हैं, जो कि बाद में अनियमित आकार के गहरे भूरे धब्बों में बदल जाते हैं । उन्ही पत्तियों की निचली सतह पर गहरे भूरे से काले रंग के धब्बे दिखाई देते हैं, जो कि कवक क प्रचुर मात्रा में बीजाणुकजनन के कारण होते हैं । रोग की गंभीर अवस्था में सारे धब्बे आपस में जुड़ जाते हैं, जिससे पत्तियां परिपक्व होने से पूर्व ही झड़ जाती हैं। तना तथा शाखा ओंपर भी आयताकार धब्बे पाए जाते हैं ।
७.रोली या गेरूआ
प्रारंभिक तौर पर पत्तियों की ऊपरी सतह पर हरिमाहीन धब्बे बनने लगते हैं, जब कि उसी पत्ती की निचली सतह पर नारंगी रंग के उभरे हुए धब्बे दिखते हैं । गंभीर रूप से संक्रमित पत्तियां परिगलित होकर सूखने लगती हैं, परन्तु पौधे से जुड़ी रहती है । रोगग्रसित पौधों में दाने भी छोटे और सिकुड़े हुए बनते हैं ।
८.अल्टरनेरिया पत्ती अंगमारी
प्रारंभ में पत्तियों का ऊपरी भाग जलना प्रारंभ होता है, जो कि हल्के भूरे रंग के श्वीश् आकार के धब्बे में परिवर्तित हो जाता है, तत्पश्चात यह रोग पत्तियों के बीच तक फैल जाता है तथा पूरी पत्ती जली हुई दिखाई देती है । संक्रमित जली हुई पत्तियाँ अंदर की तरफ मुड़ जाती हैं एवं भंगुर हो जाती है ।
विषाणु रोग
१.मूंगफली कलिका ऊतकक्षय
संक्रमित पौधे छोटे रह जाते हैं तथा पत्तियां भी संकरी एवं छोटी रह जाती हैं । संक्रमित पौधे झाड़ीनुमा दिखते हैं – जो कि इस रोग का विशिष्ट लक्षण है । इसमें, कक्षीय प्ररोह का प्रचुरोöवन होने के साथ पत्तियां गंभीर रूप से विकृत हो जाती हैं । अंतस्थ तथा कक्षीय कलियों का ऊतकक्षय भी होता है । बाद की अवस्थाओं में पत्तियों पर हरिमाहीन होती है ।
प्रमुख सूत्रकृमि रोग
इस फसल को 90 से अधिक सूत्रकृमियों द्वारा नुक्सान पहुंचाया जाता है । भारत में मूंगफली की फसल पर संक्रमण करने वाले सूत्रकृमियों की मुख्य प्रजातियों एवं उनके नैदानिक लक्षणों को नीचे वर्णित किया गया है ।
१.जड़ गांठ
जड़-गांठ सूत्रकृमि के संक्रमण के कारण पौधों की वृद्धि घट जाती है एवं पत्ते पीले पड़ने लगते हैं जिससे पौधे सूखने लग जाते हैं तथा खेत में जगह-जगह स्थान दिखने लगते हैं । अक्सर संक्रमित पौधों की जड़ें, खूंटे एवं फलियों के ऊपर गांठ तथा घाव पड़ने लगते हैं तथा जड़ों के ऊतकों में आंतरिक सूजन के कारण विभिन्न तरह के आकार उत्पन्न या विकसित होन लगते हैं । फलस्वरूप जड़ो का विकास आमतौर पर कम हो जाता है । ये सूत्रकृमि फली बनने वाली अवस्था को बुरी तरह से प्रभावित करती है ।
२.चित्तीदार फली/मूल विक्षती
जड़-घाव सूत्रकृमि के मुख्य लक्षण पौधों के भूमि-सतह के नीचे के हिस्सों पर होते हैं । गंभीर संक्रमण की अवस्था में पौधों का विकास अवरुद्ध होने के साथ ही पौधों कि पत्तियां भी हरमाहीन होने लगती हैं । पौधों के मूल तंत्र की लंबाई प्रतिबंधित होने लगती है । इस प्रकार मूल तंत्र छोटा रह जाता है । जैसे-जैसे सूत्रकृमि का संक्रमण बढ़ता है जडें, खूंटे तथा फली का रंग फीका पड़ने लगता है । समय के साथ संक्रमित फलियों पर ये फली-घाव छोटे, भूरे तथा पिन-बिंदु आकार के धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं । अंततः ये धब्बे आकार में बढ़कर गहरे काले रंग हो जाते हैं ।
३.कालाहस्ती रोग
मूंगफली के संक्रमित पौधे, खेतों में एक समूह में दिखाई पड़ते हैं तथा सामान्य पौधों कि तुलना में यह पौधे छोटे तथा ज्यादा गहरे हरे रंग के होते हैं । खूटों और विकसित होती हुई फलियों पर छोटे-छोटे भूरे पीले रंग के घाव दिखाई देते हैं । खूंटों की लंबाई कम रह जाती है । स्तंभन सूत्रकृमि के संक्रमण के उन्नत चरण में मूंगफली की संपूर्ण फली की सतह काली तथा खुरंडदार होने लगती है । इस बीमारी में रंगहीनता (मलिनीकरण) जड़ों पर भी पाई जा सकती है, लेकिन फलियों की रंगहीनता कि तुलना में कम रहती हैं । परन्तु आमतौर पर स्वस्थ फसल के बीजों की तुलना में रोगग्रस्त फलियों में बीज आकार में छोटे होते हैं।
समेकित रोग एवं नाशीजीव प्रबंधन
- मृदा में उपस्थित रोग तथा नाशीजीव के सन्द्रव्य को नष्ट करने के लिए गर्मियों मे 8-10 इंच की गहराई तक जुताई करें ।
- मूंगफली में स्वतः उगे हुए पौधों, फसल अवशेषों तथा खरपतवारों को नष्ट करें ।
- कीटों के ग्रसन तथा रोग से मुक्त अच्छी गुणवत्ता वाले प्रमाणित बीजों का ही प्रयोग करें ।
- कीट एवं रोग से सहिष्णु किस्मों का ही प्रयोग करें ।
- अगेती बुवाई से पर्ण सुरंगक, सफेद तथा ग्रीवा विगलन रोग के नुक्सान से काफी हद तक बचा जा सकता है ।
- ग्रीवा विगलन रोग के संक्रमण की संभावना कम करने के लिए गहरी बुवाई से बचें ।
- मृदा में उपस्थित तना विगलन रोग के सन्द्रव्य को नष्ट करने के लिए फसल क्रम में कपास, गेहूं, मक्का, ज्वार, प्याज तथा लहसुन को शामिल करें या मोठ के साथ मिश्रित फसल करें ।
- खाद्यान्न फसलों के साथ फसल चक्र लेने से जड़ गांठ सूत्रक्रमि का प्रकोप कम हो जाता है ।
- तम्बाकू-इल्ली का प्रकोप कम करने के लिए बाजरे की 3-4 पंक्तियां किनारों पर तथा अरंडी (250 ग्राम बीज/हैक्टेयर की दर से मूंगफली के बीजों में मिलाएं) को पाश-सस्य के रूप में लगायें ।
- थ्रिप्स द्वारा मूंगफली कलिका ऊतकक्षय रोग का परिगमन कम करने के लिए बाजरा या मक्का को अन्तःसस्य के रूप में करें ।
- टिक्का तथा रोली रोग की संक्रमकता कम करने के लिए मूंगफली की अन्तःसस्य, बाजरा या ज्वार या मक्का या अरहर के साथ करें ।
- पर्ण सुरंगक, थ्रिप्स तथा जेसिड का प्रकोप कम करने के लिए मूंगफली की अन्तःसस्य, सोयाबीन के साथ करें । पर्ण सुरंगक का प्रकोप कम करने के लिए लोबिया के साथ अन्तःसस्य करें ।
- ग्रीवा विगलन एवं तना विगलन का संक्रमण कम करने के लिए अरंडी या नीम या सरसों की खल को 500 किलोग्राम/हैक्टेयर की दर से मृदा में बुवाई के 15 दिन पहले या कुंड में बुवाई के समय मिलायें ।
- मृदा में बीज एवं मृदा जनित रोगों की रोकथाम के लिए, ट्राइकोडर्मा हरजियानम या ट्राइकोडर्मा विरिडी, 10 ग्राम/किलोग्राम बीज की दर से अथवा टेबुकोनाजोल डी एस 1.5 ग्राम/किलोग्राम बीज दर से या कार्बेन्डाजिम पाउडर 2 ग्राम/किलोग्राम बीज दर से या मेंकोजेब 3-4 ग्राम/किलोग्राम बीज की दर से बीज उपचार करें । इसके साथ-साथ ट्राइकोडर्मा हरजियानम या ट्राइकोडर्मा विरिडी से उपचारित गोबर की खाद ( / 4 किलोग्राम/250 किलोग्राम गोबर खाद) अथवा अरंडी की खल 200 किलोग्राम/हैक्टेयर की दर से मिलायें ।
- सूत्रकृमि का प्रकोप कम करने के लिए बुवाई के सात दिन पहले नीम या अरंडी की खाल, एक टन प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करें । अथवा इस मृदा उपचार के साथ साथ, कारबोसल्फान (25 डी एस) 3 प्रतिशत सक्रिय तत्व (वनज के आधार पर) बीजोपचार करें ।
- पत्तियों को खाने वाले नाशीजीवों का नियंत्रण करने के लिए 5 मिली नीम का तेल तथा एक ग्राम डिटर्जेंट पाउडर प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर या नीम के बीजों का सत (5 प्रतिशत जलीय घोल) का छिड़काव करें । यह उपचार टिक्का एवं रोली रोग के प्रकोप को भी कम करता है ।
- अंडे के समूहों, पंथी डिम्भों (तम्बाकू की इल्ली एवं लाल बालों वाली इल्ली) और प्रौढ़ों (सफेद लट) को यथासंभव एकत्रित कर नष्ट कर दें ।
- शलभों की क्रियाकलाप की निगरानी के लिए खेतों में 1-2 प्रकाश प्रति हैक्टेयर की दर से तथा तम्बाकू की इल्ली एवं चने के फली छेदक के लिए 10 फेरोमन ट्रैप प्रति हैक्टेयर की दर से और पर्ण सुरंगक के लिए 25 फेरोमन ट्रैप प्रति हैक्टेयर की दर से लगायें ।
- आवश्यकतानुसार ही कवकनाशियों का प्रयोग करें । टिक्का एवं रोली रोग के लिए प्रोपिकोनाजोल 25 ए सी (0.1 प्रतिशत) या हेक्जाकोनाजोल 5 प्रतिशत ए सी (1 मिली/लीटर) या टेबुकोनाजोल 25.9 प्रतिशत एम/एम इ सी (1मिली/लीटर) को 500 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें ।
- आवश्यकतानुसार रस चूसने वाले कीटों के प्रबन्धन के लिए रसायनों का छिड़काव करें । थ्रिप्स एवं लीफ होप्पर्स के लिए डाईमिथोएट 30 इ सी 2 मिली/लीटर या मोनोक्रोटोफाॅस 36 एस एल 2.5 मिली/लीटर या एमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस एल 0.3 मिली/लीटर या थिअक्लोप्रिड 480 एस सी 0.3 मिली/लीटर या थिओमेथोजम 25 डब्लू जी 0.2 ग्राम/लीटर या एसेटमीप्रिड 20 एस पी 0.2 ग्राम/लीटर की दर से पानी में घोलकर बुवाई के 25 से 30 दिनों के बीच छिड़काव करें ।
- पत्तियों को खाने वाले नाशीजीवों जैसे तम्बाकू की इल्ली एवं चने के फली छेदक के प्रबंधन के लिए आवश्यकतानुसार क्लोरपायरीफोस् 20 इ सी 2.5 मिली/लीटर या क्यूनालफोस् 25 इ सी 2 मिली/लीटर या प्रोफेनोफोस 50 इ सी 2 मिली/लीटर या फ्लुबेंडियामीद 480 एस सी 0.2 मिली/लीटर या नोवालुरोन 10 इ सी 1 मिली/लीटर की दर से पानी में घोलकर छिड़काव करें ।
- पर्ण सुरंगक के प्रबंधन के लिए आवश्यकतानुसार प्रोफेनोफोस 50 इ सी 2 मिली/लीटर या स्पिनोसाद 45 एस सी 0.3 मिली/लीटर या फ्लुबेंडियामीद 480 एस सी 0.2 मिली/लीटर या क्वीनल्फोस 2 मिली/लीटर की दर से पानी में घोलकर छिड़काव करें ।
- सूत्रकृमियों के प्रबन्धन के लिए कारबोफुरान 3 जी 1-2 किलोग्राम सक्रिय तत्व प्रति हैक्टेयर की दर से बुवाई के की कुंड/लाइन में मृदा उपचार करें ।
- नाशीजीवों के प्राकृतिक शत्रुओं जैसे – काॅकिनेलिड्स, स्पाइडर्स, हायमनोप्टेरान एवं डीप्टेरान परभक्षियों का संरक्षण करने के लिए रसायनों के लिए रसायनों का प्रयोग आवश्यकतानुसार ही करें ।
- पत्ती सुरंगक एवं पत्तियों को खाने वाले नाशीजीवों के नियंत्रण के लिए ट्राईकोग्रामा चिलोनिस या टेलोनोमस रेमस के 50000 प्रौढ़ प्रति हैक्टेयर की दर से खेतों में, दो बार 7-10 दिन के अन्तराल पर छोड़ें, तत्पश्चात ब्रेकन हेबेटर 5000 प्रौढ़ प्रति हैक्टेयर की दर से खेतों में, दो बार 7-10 दिन के अन्तराल पर छोडें ।
- स्पोडोप्टेरा तथा हेलिकोवरपा के प्रबन्धन के लिए नुक्लियर पोलिहेडोसिस विषाणु (एन पी वी स्पोडोप्टेरा एवं एन पी वी-हेलिकोवरपा) के व्यवसायिक फोर्मूलेशन 0.4 मिली/लीटर एवं लाल बालों वाली इल्ली के लिए 0.3 मिली/लीटर की दर से पानी में घोलकर छिड़काव करें ।
- लाल बालों वाली इल्ली, स्पोडोप्टेरा एवं हेलिकोवरपा के लिए बेसिलस थुरिंजीन्सिस 2 ग्राम/लीटर की दर से पानी में घोलकर छिड़काव करें ।
- कीट-रोगकारक फफुंदों जैसे लेपिडोपटेरन इल्लियों के लिए नोमुरिया रिली या व्योवेरिया बैसियाना, 2 ग्राम/लीटर तथा रस चूसने वाले कीटों के लिए वर्टिसिलियम लेकताई 5 ग्राम/लीटर की दर से पानी में घोलकर छिड़काव करें ।
- ब्रुचीड भृंग (केरिडोन सिरेटस) के प्रबन्धन के लिए भंडारगृह या गोदाम की दीवारों, फर्श एवं छत पर भण्डारण से पहले मेलाथियन 1.25 प्रतिशत या डेलटामेथरीन 0.04 प्रतिशत को पानी में मिला के छिड़काव करें तथा एलुमिनियम फाॅस्फिड 56 प्रतिशत की एक थैली प्रति टन फालियों की दर से रखनी चाहिए । कीटनाशक
- घोल की मात्रा भंडारगृह के क्षेत्रफल पर निर्भर करती है ।
आर्थिक हानि होने के लिए मुख्य नाशीजीवों का क्षति सीमा स्तर
नाशीजीव | सीमा |
मूंगफली पर्ण सुरंगक | 5 सुरंगे प्रति पोधा, 30 दिन की फसल पर |
तम्बाकू इल्ली | 20-25% निष्पत्रण, 40 दिन की फसल पर |
चना फली छेदक | 20-25% निष्पत्रण, 40 दिन की फसल पर |
लाल बालों वाली इल्ली | 20-25% निष्पत्रण, 40 दिन की फसल पर |
थ्रिप्स | 5 थ्रिप्स प्रति अंतस्थ कलिका |
तेला/लीफ होपर (जेसीड) | 5 से 10 प्रोढ प्रति पोधा, अंकुरण के 30 दिन तक |
चेंपा (ऐफिड) | 5-10 एफिड प्रति अंतस्थ कलिका, पौध अवस्था पर |
सफेद गिडार/लट | 1 गिडार / वर्ग मीटर |
मूंगफली के नाशीजीवों एवं रोगों के प्रबंधन में करने तथा न करने वाले तथ्य
ऐसा करें:–
- मृदा का सौरीकरण, गहरी जुताई एवं साफ सुथरी खेती (खरपतवार तथा फसल-अवशेषों से मुक्त) करें ।
- अंतःसस्य गतिविधियों के दौरान नवोदभिद पौधों को क्षति मृदा के कणों के जमाव से बचायें ।
- बीजोपचार, फसल-चक्र और अंतःसस्य अपनायें ।
- आवश्यकानुसार प्रबंधन हेतु उपलब्धनाशीजीवों का सर्वे तथा निगरानी करें ।
- प्राकृतिक एवं जैविक रसायनों के प्रयोग को यथासंभव प्राथमिकता दें । अन्य रसायनों का प्रयोग अपरिहार्य परिस्थितियों में ही करें ।
- नाशीजीवों के प्राकृतिक शत्रुओं के संरक्षण के लिए उनके मुताबिक फसल लगायें ।
- फलियों को अच्छी तरह से सुखाने तथा साफ करने के बाद ही भण्डारण करें ।
- पीड़कनशियों का छिड़काव ऊषाकाल या सायकाल में ही करें ।
- मूंगफली कलिका ऊतकक्षय रोग से प्रभावित पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर दें ।
ऐसा नहीं करें:-
- मूंगफली कलिका ऊतकक्षय रोग से प्रभावित पौधों की खेतों में अनदेखी ।
- नत्रजन उर्वरकों का अत्यधिक प्रयोग ।
- पीड़कनशियों का अनावश्यक प्रयोग ।
- जाली अथवा मिलावटी पीड़कनाशियों का प्रयोग ।
- धूप वाले दिनों एवं हवा के बहाव की विपरीत दिशा में छिड़काव ।
- ज्यादा मारक क्षमता वाले पीड़कनाशियों का प्रयोग ।
- तजे उत्पादक का (बिना ठीक से सुखाए हुए) उत्पाद का भण्डारण ।
- ग्रसित गोदामों या बोरों में उत्पाद का भण्डारण ।
अनुशंसित पीड़कनाशी एवं उनके व्यापारिक नाम
पीडकनाशियों के रासायनिक नाम | पीडकनाशियों के व्यापारिक नाम |
टेबुकोनजोल 2 डी एस | रैकिशल, ट्रीट |
कार्बेडाजिम 50 डब्लू पी | चेमेस्टीन, ज़ेन, किल्यर, बेनगाड,बोविस्टीन, ज़ूम, धनुस्टीन, डेरोसोल, बेनफिल, कारजिम, एग्रोजिम, सुपरस्टेन |
मैनकोज़ेब 80 डब्लू पी | इंडोफिल एम-45, धनुका एम-45, अबीक एम-45, स्पर्श एम-45, टाटा एम-45, सुपर एम-45, |
कार्बोसल्फान 25 डी एस | मार्शल |
प्रोपीकोनाजोल 25 इ सी | क्लीनर, टिल्ट, तीर, सुपर प्रोपी |
हेक्साकोनाजोल 5 ई सी | दंजोल, कांटाफ, हेक्सोन ट्रिग्गर, सुपरहेक्सा, चेमेट, हेक्साकोनजोल, हेक्साजोल |
टेबुकोनज़ोल 25.9 ई सी | फोलीक्योर, देविकुरे |
डायमेथोएट 30 ई सी | तारा-909, टाफगोर, टीका, रोगर, केम-ओ-गोर, रोगरस |
मोनोकरोटोफ़ॉस 36 एस एल | नूवाक्रोन,मोनोसिल, मोनोस्टार, पोरीफोर्स, मनोधन, लुफोस, बलवान, मोनोक्राउन, बिलफोस, मोनोप्लस, परमोनो, माँ-ओ-केम, मोनोकेम, अग्रोमोनार, तोपसिल,हिल्क्रोन |
मोनोकरोटोफ़ॉस 36 एस एल | नूवाक्रोन,मोनोसिल, मोनोस्टार, पोरीफोर्स, मनोधन, लुफोस, बलवान, मोनोक्राउन, बिलफोस, मोनोप्लस, परमोनो, माँ-ओ-केम, मोनोकेम, अग्रोमोनार, तोपसिल,हिल्क्रोन |
इमीडाक्लोप्रीड 17.8 एस एल | इमिगरो, उल्टिमो 200 एस एल, इमिग्रो, अग्रोमिडा, इमिडा प्लस, कॉनफीडर, टाटामिडा, अग्रोमिडा, हिलमिडा |
थायोक्लोप्रीड 480 एस सी | स्प्ले-डर-कालीप्सों |
थायोमेथोसम 25 डब्लू जी | एक्टरा, एविडेंट, स्टेटस, अनंत, विल्लोक्साम, दोतारा,सितारा |
एसीटामायप्रीड 20 एस पी | ऐस, वापकिल, एंपायर, नागार्जुना एन्नोवा, रेकार्ड, असितल, हिलिप्रड |
कलोरपयरीफोस 20 ई सी | डसेबैन, डूमेट,दनुसबन, मस्वेन, ट्रीसेल, धनवान, फोर्स, स्ट्राइक, क्लासिक, टोपलाइन |
क्रूइनालफोस 25 ई सी | एकालक्स, फ्लैश, स्मैक, शक्ति, धनुलक्स,वज्र्रा, हींकूइन, अग्रोकूइन, |
प्रोफेनोफास 50 ई सी | प्रोफेन 50, प्रोफेक्स, केरीना, प्रुडेंट, हिल्फोस, सल्क्रोंन |
नोवल्युरोन 10 ई सी | रिमाँड, ट्रेसर, ताफ्फिन, |
फ्लूबेंडामाइड 480 एस सी | फेम |
डेल्टामेथ्रीन 2.5 एस सी | सामाथियोन, धानुका, मेलाथीयान, एथिओलातियो, हेल्मेथियोन, मेलाथियान |
अल्युमिनियम फोस्फाईड 56% | सेल्फास, अलफोस |
स्रोत-
- मूंगफली अनुसंधान निदेशालय,जूनागढ़