मूँगफली में समेकित नाशीजीव एवं रोग प्रबंधन

भारत में मूँगफली की खेती खरीफ, रबी, गर्मी एवं जायद / वसंत ऋतु की फसल के रूप में की जाती है । प्रमुख मूँगफली उगाने वाले राज्यों में गुजरात, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, राजस्थान तथा महाराष्ट्र हैं जो कि क्षेत्रफल तथा उत्पादन में लगभग 90 प्रतिशत का योगदान देते हैं । हालांकि भारत में मूँगफली की उत्पादकता (लगभग 1257 किलोग्राम/हैक्टेयर) है जो कि दूसरे देशों जैसे चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका, अर्जेन्टीना की तुलना में काफी कम है । इसके लिए इस फसल की वर्षा आधारित खेती, एक ही किस्म को बार-बार बोना तथा रोगों एवं कीटों के द्वारा नुक्सान को, एक साथ मिलाकर जिम्मेदार ठहराया जा सकता है ।

रोगों एवं कीटों के सफल प्रबंधन के लिए, मुख्य रोगों एवं कीटों की पहचान तथा इनके द्वारा होने वाले नुक्सान के प्रकार की जानकारी जरूरी है । यह विवरण पुस्तिका किसानों के लिए बनायी गई है, ताकि किसान रोगों एवं कीटों की सही पहचान कर सकें तथा उनके पर्यावरण के अनुकूल (पारिरक्षी) प्रबंधन के उपाय अपना सकें ।

 

मुख्य परपोशी कीट

इस फसल को लगभग 100 से ज्यादा प्रजाति के कीटों द्वारा नुक्सान पहुचाया जाता है । मुख्य कीटों के द्वारा पहँुचाए जाने वाले नुक्सान के प्रकार तथा उनकी पहचान की जानकारी नीचे वर्णित की गई है ।

पत्ती भक्षक कीट

१.मूँगफली पर्ण सुरंगक

ठनके प्रौढ़ लगभग 6 मिमी लंबे स्लेटी-भूरे रंग के होते हैं । इनके पंखों का फैलाव लगभग 10 मिमी होता है । शलभ पत्तियों के निचली तरफ अंडे देते हैं जो कि चमकीले सफेद रंग के होते हैं । डिम्भ 1 मिमी लंबे होते हैं, तथा स्फुटन होते ही पत्तियों के भीतर सुरंग बना देते हैं । सुरंग के आकार में वृद्धि के साथ ही बाद में, पत्रक मुड़-सिकुड़ कर अंत में सूख जाते हैं । गंभीर रूप से प्रभावित फसल-क्षेत्र जला हुआ दिखता है ।

 

२.तंबाकू-इल्ली

प्रौढ़-शलभ हल्के भूरे रंग के होते हैं, तथा पत्तियों की ऊपरी सतह पर सुनहरे भूरे रंग के अंडे देते हैं । हल्के हरे रंग के नवोदभिद डिम्भ पत्त्यिों पर समूह में भोजन करते हैं । गहरे निशानों वाले पीली हरित भूरे रंग के पूरी तरह से विकसित डिम्भ अकेले भोजन करते हैं । नए निरूप पत्तियों की सतह को कुरेद देते हैं जबकि बाद वाले निरूप गंभीर रूप् से ग्रसन कर सकते हैं और पौधे को पूरी तरह से निश्पत्रक कर करते हैं । नुकसान प्रायः रात के समय किया जाता है और सिर्फ पत्तियों एवं कपोलों पर होता है । हल्की मृदाओं में, फलियाँ भी बाद वाले निरुपों से ग्रसित हो सकती है ।

 

३.लाल बालों वाली इल्ली

शलभ भूरे सफेद, तथा व्यस्क डिम्भ हल्के भूरे रंग के होते हैं जो कि पूर्ण विकसित होने पर लाल रंग के हो जाते हैं तथा शरीर लाल भूरे रंग के सघन बालों से ढका रहता है । इनके शरीर के अगले तथा पिछले हिस्सों पर लाल वर्तुलों से घिरे हुए काले वर्तुल पाए जाते हैं । यह लार्वा समूह में पत्तों को नीचे से नोचकर खाते हैं । यह पत्ते, फूल तथा बढ़वार वाले भागों पर भक्षण करते हैं । जब बड़ी संख्या में लार्वा फसल पर भक्षण करते हैं तो संपूर्ण फसल का नुक्सान होता है । नुक्सान प्रायः रात के समय होता है । युवा लार्वा झुंड में अत्यधिक नुक्सान करते हैं, तथा फसल को पूर्णतया निष्पत्रित कर देते हैं – ऐसा खेत दूर से पशुओं द्वारा चरा हुआ प्रतीत होता है ।

४.चना-फली-छेदक

शलभ मंद भूरे रंग के होते हैं, जो कि हल्के सफेद रंग के अंडे एक एक करके नई पत्तियों तथा फूलों की कलियों पर देते हैं । डिम्भ हरे भूरे रंग के होते हैं (इलकी पीठ पर तंबाकू की इल्ली की तरह काले धब्बे नहीं होते हैं) । लार्वा अत्यधिक नुक्सान करते हैं, वे फूल तथा पत्तियां खाते हैं और पौधों को निष्वत्रित कर देते हैं । जब यह कपोलों को खाते है तो पत्रकों को खोलकर, एक जैसे छेद या कटे भाग देखे जा सकते हैं ।

रस चूसने वाले की

१.थ्रिप्

थ्रिप्स छोटे आकार (लगभग 2 मिमी लंबे) के कीट होते हैं । इसके अर्भक एवं प्रौढ़ पत्तियों की सतह पर दीर्णता (पर्णशीर्ष के किनारों पर बनाये गए अनियमित कटाव ) से नुक्सान पहुंचाते हैं । इनके द्वारा पत्तियों के रस को चूस जाने से पत्तियों की निचली सतह पर सफेद रंग के धब्बे बन जाते हैं तथा पत्तियां बिना मुड़े ही विरूपित हो जाती हैं, यह अवस्था पौट्स कहलाती हैं । गंभीर रूप से ग्रसित पौधे छोटे रह जाते हैं । यह कीट मूँगफली कलिका ऊतकक्षय नामक रोग को भी फैलाता है ।

२.चेपा/ऐफिड

प्रौढ़ छोटे आकार के लगभग 2 मिमी लंबे होते हैं तथा हरे भूरे या काले रंग के होते हैं । अधिकतर अर्भक गहरे भूरे रंग के होते हैं । प्रायः प्रौढ़ पंख रहित होते हैं परन्तु पंख वाले भी पाए जाते हैं । अर्भक एवं प्रौढ़ नयी प्ररोहों एवं फूलों का रस चूसकर नुक्सान पहुंचाते है । प्रभावित पौधे छोटे रह जाते हैं तथा उनकी पत्तियां और तना टेढ़े हो जाते हैं । काली या मटमैली फफूंद का पाया जाना, एफिड से प्रभावित फसल का एक विशिष्ट लक्षण है । यह फफूंद एफिड के द्वारा निकाले गए मधु बिंदु पर आती है । एफिड रोगकारक विषाणुओं के वाहक का काम भी करता है जैसे मूँगफली का धारी विषाणु एवं मूँगफली का रोजेट विषाणु

३.तेला/जैसिड/लीफहाॅपर

प्रौढ़ हल्के हरे रंग के होते हैं तथा पत्तियों की मध्य शिरा के पास अंडे देते हैं । अर्भक एवं प्रौढ़ पत्तियों के मध्य तथा वृंत से रस चूसकर नुक्सान पहुंचाते हैं । इस कीट के लम्बे समय तक रहने से पत्तियों की नोक पर श्टश् आकार में पीलापन दिखई देता हैं, जिसके विस्तृत होने पर पूरी पत्रक पीली हो जाती है । गंभीरता से ग्रसित फसल जली हुई प्रतीत होती है इसलिए इस अवस्था को श्होपर बर्नश् कहते हैं ।

४.चूर्णी मत्कुण

चूर्णी मत्कुण एक कोमल, अंडाकार कीट होता है जो रुई के जैसा प्रतीत होता है । सफेद पाउडर वाली मोम की परत से ढके रहने के कारण इनके प्रौढ़ों का नियंत्रण कठिन होता है । इनके तरुण रेंगने वाले एवं गुलाबी रंग के होते हैं । चूर्णी मत्कुण, पत्तियों तथा तनों का रस चूसकर नुक्सान पहुंचाते हैं । यह विषाणु रोग भी फैलता है ।

५.मृदा कीट

सफेद गिडार/लटयह नाशी-जीव, सामान्यतः बलुई-दोमट एवं हल्की लाल मृदाओं में होता है । प्रौढ़ 20-25 मिमी लंबे गहरे भूरे रंग के होते हैं तथा सफेद रंग के गोलाकार अंडे देते हैं । प्रौढ़ तथा डिम्भ दोनों ही नुक्सान पहुंचाते हैं । वयस्क डिम्भ चमकीली-सफेद जो कि 20-45 मिमी लंबी होती है तथा महीन मुलिकाओं तथा बाद मे फलियांे को भी खाती है। प्रभावित पौधा कई प्रकार की म्लानि दर्शाता है एवं अंततः मृत हो जाता है । जगह-जगह खेत में पौधे मृत मिलते हैं जिन्हें खीचकर आसानी से उखाड़े जा सकते हैं ।

६.दीमक

दीमक बलुई एवं लाल मृदाओं को पसंद करती है और दीमक गृह में रहती हैं । प्रौढ़ मृदा एवं पौधों पर अंडे देती है । मूसला जड़ों में घुसकर उसको खोखला कर देती हैं, जिससे म्लानि के पश्चात् पौधों की समय से पूर्व मृत्यु हो जाती है । यह फलियो के छिलके खाते हैं, संवहन उतकों के बीच में पाए जाने वाले काग-एधा को निकाल देते हैं । जिससे फली श्खुरची हुईश् प्रतीत होती हैं, जिसके परिणामस्वरूप फसल मृदा में पाई जाने वाली फफूंदी से आसानी से प्रभावित हो जाती है । यही फफूंद अफ्लाविष पैदा करती है ।

भंडारण कीट

१.ब्रुचिड भृंग

प्रौढ़ भृंग 7-5 मिमी लंबे, तथा 5 मिमी चैड़े होते हैं, और दुधिया सफेद रंग के अंडे देती है । गिडार, फलियों तथा दानों को भीतर से खाती है । डिम्भ फलियों की सतह को छेदकर दानों को खाती है । इसके द्वारा प्रभावित फलियों को सतह पर बने हुए छिद्रों से पहचाना जा सकता है । जो कि कोशिनयन से पहले गिडार द्वारा बनाये जाते हैं, यह इसका विशिष्ट लक्षण है यही छिद्र व्यस्कों के फलियों से निकलने के काम आते हैं । खेंतों में प्रारंभिक पर्याक्रमण ही भण्डारण के दौरान इसके प्रभाव को स्थापित करता है तथा नुक्सान का निर्धारण करता है । भण्डारण में इस कीट की अधिकतर संख्या एवं अनुकूलतम परिस्थितियाँ (तापमान और सापेक्ष आर्द्रता) के होने पर, फफूंद के उगने का खतरा बढ़ जाता है जिससे  मूँगफली अफ्लाविष से संदूषित होती है तथा प्रभावित उत्पाद मनुष्य एवं पशुओं के खाने के लिए अयोग्य हो जाता है ।

 

स्रोत-

  • मूँगफली अनुसंधान निदेशलय

 

 

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