मिट्टी व पानी किसी भी फसल के उत्पादन के लिए मूलभूत आवश्यकताऐं होती हैं । इनमें से किसी भी तत्व के अभाव में फसल उत्पादन संभव नहीं है । समय के साथ-साथ मिट्टी की उत्पादकता में भी कमी आती है इसलिए उत्पादक में भी कमी आती है इसलिए उत्पादक भूमि व जल के उचित संरक्षण के बिना फसल उत्पादन में दीर्घकालीन स्थायित्व नहीं लाया जा सकता है ।
भौगोलिक क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थान भारत का सबसे बड़ा राज्य है लेकिन औसत वार्षिक वर्षा के आधार से यह राज्य अन्य राज्यों की तुलना में भारत में सबसे पीछे है । राज्य में औसत वार्षिक वर्षा 60 से.मी. देश की औसत वार्षिक वर्षा से आधी है । कम पानी व ज्यादा गर्मी यहां के जीवन के दो मुख्य बिन्दु हैं । राज्य का पश्चिमी भू-भाग जो थार मरुस्थल के नाम से भी जाना जाता है वहां जल संकट की समस्या और भी गंभीर हो जाती है । इस क्षेत्र के अधिकांश भू-भाग में भूजल अत्यधिक गहरा व लवणीय है ।मरुभूमि में सिंचाई के अन्य परम्परागत साधन जैसे नदी, तालाब, नहरों आदि का पूर्णतः अभाव है ।
उच्च वाष्पीकरण दर व लगातार तेज चलने वाली आंधियां इस भू-भाग को और भी अधिक विकट बना देती हैं । अतः यहां खेती पूरी तरह से वर्षा पर आधारित है । मरुभूमि में वर्षा ऋतु में वर्षा दिवस प्रायः 10 से 15 होते हैं । वर्षा अत्यधिक कम लेकिन प्रायः तेज व अनियमित होती है । भूमि पर पर्याप्त वनस्पति न होने के कारण तेज वर्षा होने या हवाऐं चलने पर जल और वायु द्वारा मृदा का क्षरण होता है । इन सभी विपरीत परिस्थितियों के कारण राज्य में इस भू-भाग को प्रायः सूखे व अकाल का सामना करना पड़ता है ।
विश्व के कुल जल उपयोग का लगभग दो तिहाई भाग कृषि कार्यों में उपयोग होता है । कृषि कार्यों में जल की भारी अपव्ययता का मुख्य कारण कृषि की अकुशल तकनीकियां है । जरूरत से अधिक जल से न केवल जल हानि होती है बल्कि इससे भूमि की उत्पादकता में भी कमी आती है । ऐसी परिस्थिति में स्थानीय संसाधनों के उचित संरक्षण व प्रबंधन द्वारा ही फसल उत्पादन किया जा सकता है ।
उत्पादन में संसाधनों के महत्व को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने मृदा व जल संरक्षण कार्यों की शुरूआत प्रथम पंचवर्षीय योजना के आरम्भ से ही कर दी थी । केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, जोधपुर ने पिछले कई वर्षों की शोध के द्वारा वर्षा जल व मृदा संरक्षण की तकनीकों को और अधिक प्रभावशाली व उन्नत बनाया है । संसाधन संरक्षण व प्रबंधन की इन तकनीकों को अपनाकर विषम परिस्थितियों में भी भरपूर फसल पैदा की जा सकती है ।
समोच्च खेती
परम्परागत विधि में प्रायः खेती ढाल के समानान्तर ऊपर से नीचे की ओर जाती है व यह तरीका मृदा व जल क्षरण का एक मुख्य कारण है । यदि समस्त कृषि कार्य एवं बोआई-रोपाई ढाल के अभिलम्ब दिशा में समोच्च रेखा पर किया जाये तो मृदा व जल क्षरण को काफी हद तक कम या रोका जा सकता है । इस विधि में जुताई करते समय ढाल के विपरीत दिशा में सूक्ष्म अवरोधों का निर्माण होता है जो मृदा व जल क्षरण को रोकने में सहायक होता है । मृदा व जल संरक्षण के अतिरिक्त समोच्च खेती मृदा की उर्वरता का भी संरक्षण करती है जिससे फसलों की उपज में वृद्धि होती है ।
समतलीकरण एवं मेड़बन्दी
ऊबड़-खाबड़ भूमि पर वर्षा जल का वितरण कहीं आवश्यकता से अधिक तो कहीं पर आवश्यकता से बहुत कम होता है । ये दोनों ही स्थितियां फसल उत्पादन के लिए बहुत प्रतिकूल है । खेत के समतलीकरण द्वारा वर्षाजल वितरण की इस असमानता को दूर किया जा सकता है । बहुत ऊबड़-खाबड़ भूमि में समतलीकरण का कार्य किश्तों में 2 से 3 साल में किया जा सकता है । ऊंचे स्थानों से मिट्टी को काट कर निचले स्थानों में जमा करके समतलीकरण का कार्य पूरा किया जा सकता है । समतल सतह से जल का बहाव कम होने के कारण वर्षाजल भूमि में अधिक मात्रा में रिसता है व नमी गहराई तक बनी रहती है ।
खेत के चारों ओर मेड़ न होने से वर्षा जल अनियंत्रित रूप से बहकर मृदा का अपरदन कर खेत में अवनालिकायें विकसित कर भूमि को खराब कर सकता है । अतः खेत को समतल कर चारों ओर न्यनतम 50 से.मी. से 60 से.मी. ऊंची मेंड़ बनाकर वर्षाजल, पोषक तत्व, खाद व बीज को बाहर जाने से रोका जा सकता है । मेड़बन्दी का मुख्य उद्देश्य खेत का पानी खेत में रहना चाहिए ।
समोच्च बांधन/वानस्पतिक अवरोध
जिन बड़े खेतों में अधिक ढलान के कारण समतलीकरण संभव नहीं होता है वहां ढलान के अभिलम्ब दिशा में मिट्टी के समोच्च अवरोध बनाकर वर्षाजल के बहाव व मृदा क्षरण को रोका जा सकता है । सामान्यतः दो समोच्च अवरोधों के मध्य 60 से 70 मीटर की दूरी रखी जाती है । जो स्थानीय वर्षामान व ढलान पर निर्भर करती है । समोच्च अवरोध 0.75 से 1 मीटर ऊंचे व 1 से 1.5 मीटर चैड़े आधार के बनाये जा सकते हैं इस अवरोधों को अधिक मजबूती प्रदान करने के लिए इन पर स्थानीय वनस्पति जैसे मूंजा, सेवण आदि को लगाया जा सकता है ।
पानी के बहाव के मार्ग में इन अवरोधों के होने के कारण पानी को भूमि में रिसने के लिए अधिक समय मिलता है व खेत में एक समान नमी बनी रहती है । समोच्च अवरोधों का निर्माण कार्य हमेशा खेत के ऊंचे स्थानों से आरम्भ करके निचले स्थानों पर समाप्त किया जाता है लेकिन समोच्च अवरोध सदैव ढलान के अभिलम्ब दिशा में ही बनाये जाते हैं । समोच्च बांधन के निर्माण के लिए मिट्टी को ढलान के ऊपर के स्थान से काट कर निचले स्थान पर जमा किया जाता है ।
प्रत्येक वर्षा के बाद समोच्च अवरोधों का निरीक्षण किया जाना चाहिए एवं किसी भी प्रकार की दरार या धंसने की स्थिति में समोच्च बांधन की तुरंत मरम्मत कर देनी चाहिए । समस्त कृषि कार्य यथा जुताई आदि ढलान के अभिलम्ब दिशा में करने चाहिए ।
समोच्च नाली
यह तकनीक प्रायः बंजर भूमि या चारागाह से उत्पादन प्राप्त करने के लिए प्रयुक्त की जाती है । इस तकनीक के तहत अधिक ढलान वाले खेत या चारागाह में ढलान के अभिलम्ब दिशा में समोच्च नाली बनायी जाती है । नाली से निकाली गई मिट्टी ढलान की तरफ मेड़ के रूप् मेें डाल दी जाती है । वर्षा होने पर सतही बहाव इस नाली में इकट्ठा हो जाता है जो पौधों को लगाने के लिए प्रारम्भिक अवस्था में बहुत लाभदायक सिद्ध होता है । ढलान की तरफ बनाई गई मेंड़ बहते पानी के मार्ग में अवरोध का कार्य करती है ।
सामान्यतः नाली 0.03 से 0.40 मीटर गहरी व 0.60 से 0.80 मीटर चैड़ी बनाई जा सकती है । दो नालियों के मध्य 60 से 90 मीटर का अन्तराल पर्याप्त होता है । समोच्च नाली तकनीक विशेषतः ढलान वाले चारागाहों में वृक्ष व घास स्थापित करने में काफी सहायक होती है ।
खेत में तालाब की तलछट का प्रयोग
बलुई मिट्टी में जल धारण क्षमता बहुत कम होती है इस कारण वर्षा का अधिकांश जल गहरे अन्तः स्त्राव के द्वारा बिना उपयोग के नीचे चला जाता है । वर्षाकाल के दौरान बहाव के साथ तालाबांे में चिकनी काली मिट्टी जमा हो जाती है । इस मिट्टी की जल धारण क्षमता बलुई मिट्टी की अपेक्षा ज्यादा होती है । अतः गर्मियों में तालाबों के खाली होने के बाद इनकी सतही काली मिट्टी को खेतों में बिछा देने से खेतों की बलुई मिट्टी की जल धारण क्षमता बढ़ाई जा सकती है व पानी अधिक समय तक फसलों के उपयोग के लिए भूमि में उपलब्ध रहेगा ।
अच्छे जमाव, पौधों की बढ़वार तथा अधिकतम उपज के लिए खेत की जुताई एक आवश्यक कृषि कार्य है । इससे खेत में खड्डे, खरपतवार, मिट्टी में छिपे हानिकारक कीट आदि नष्ट हो जाते हैं और जैव पदार्थों का भूमि में मिलाव अच्छी तरह से हो जाता है । मिट्टी भुरभुरी हो जाने से जड़ों का विकास भी अच्छी तरह से होता है और मिट्टी की जलधारण क्षमता बढ़ जाती है ।
खरीफ में आवश्यकता से अधिक जुताई करने पर तेज हवाओं द्वारा मिट्टी एवं नमीं का ह्रास होता है अतः जुताई करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि खेत की तैयारी एवं बुआई के बीच कम समय अन्तराल हो । बुआई के लिए अच्छी तरह खेत तैयार करने के लिए स्वीप कल्टीवेटर द्वारा एक जुताई बरसात के समय तथा एक जुताई बुआई से पहले पर्याप्त होती है । जुताई हमेशा खेत के ढाल के अभिलम्ब दिशा में करनी चाहिए । इससे मृदा क्षरण व जल के बहाव में काफी कमी आती है । संरक्षित व उचित जुताई द्वारा मृदा व नमी के ह्रास में कमी आती है व ऊर्जा का अपव्यय भी कम हो जाता है ।
पट्टीदार सस्यन
पट्टीदार सस्यन भूमि एवंज ल संरक्षण के दृष्टिकोण से मरुक्षेत्र में बहुत ही उपयोगी है । इसमें विभिन्न बढ़वार व स्वभाव वाली फसलों की निश्चित कतारों की पट्टियां एकांतर क्रम में खेत में बोयी जाती हैं । अनुसंधान के आधार पर यह ज्ञात हुआ है कि यदि तिल की चार कतारों के साथ मोठ की 6 कतारों की पट्टियां एकांतर क्रम में बोयी जायें तो अधिकतम लाभ मिल सकता है । इसी प्रकार सेवण घास के साथ खरीफ में दलहनी फसलों (मूंग, मोठ, ग्वार ) के पट्टीदार सस्यन से वायु द्वारा मृदा क्षरण को रोकने के साथ-साथ प्रति इकाई क्षेत्र से उपज भी अधिकतम प्राप्त होती है ।
इस प्रकार मरु क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के सस्यन से अधिकतम उपज एवं लाभ प्राप्त किया जा सकता है । जल संरक्षण की ऊपर दी गई विधियों के सफल प्रयोग से खरीफ की फसलोें की अच्छी उपज के साथ-साथ रबी की फसलों की बुआई के लिए भी नमी मृदा में संरक्षित रहती है ।
सतही पलवार
शुष्क क्षेत्रों में उच्च तापमान के द्वारा तीव्र वाष्पीकरण होता है जिससे मृदा में व्याप्त नमी का तेजी से ह्रास होता है व पौधे नमी के अभाव में सूखने लगते हैं । अतः संचित नमी को बचाये रखने के लिए खेत से निकाले गये खरपतवार व अन्य घास-फूस से सतह पर की गई पलवार मृदा के वातीय व जलीय क्षरण तथा मृदा नमी को बचाने में काफी सहायक होती है । सतही पलवार से भूमि के तापमान में कमी आती है फलस्वरुप जल वाष्पन कम हो जाता है । सतही पलवार के रूप में उपलब्धता के आधार पर फसलों के अवशिष्ट अंश, पत्तियां, सूखी घासं, लकड़ी का बुरादा या पालिथीन की चादरें काम में ली जा सकती हैं । लगभग 6 टन प्रति हैक्टेयर की दर से घास की पलवार लगाने से फसलों की उत्पादकता दुगनी की जा सकती है |
उचित फसलों का चुनाव व समय पर बुआई
मरुस्थलीय क्षेत्रों में फसलोत्पादन पूरी तरह से वर्षा पर निर्भर करता है अतः इन क्षेत्रों मेे फसलों का चुनाव करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि फसलें ऐसी हो जो कम पानी व कम समय में तैयार हो जाये तथा इनमें सूखा सहन करने की क्षमता हो । मरुस्थल में ऊपरी सतह पर मृदा जल की कमी होने के कारण ऐसे क्षेत्रों में गहरे जड़ों वाली फसलें ज्यादा उपयुक्त रहती हैं । फसलों की बुआई सही समय पर करनी चाहिए । ऐसा न करने से फसलों की बढ़वार के लिए अनुकूल अवधि कम रह जाती है और फसल के पकने के समय सूखे का सामना करना पड़ सकता है । रेतीली मिट्टयों के लिए बाजरी, मूँग, मोठ, ग्वार आदि फसलें उपयुक्त रहती हैं । इन फसलों की किस्म विशेष का चुनाव भूमि व उपलब्ध जल आदि के आधार पर किया जा सकता है
पौध संख्या एवं रक्षण
शुष्क क्षेत्रों में पानी की कमी के कारण पौधों की संख्या सिंचित कृषि की तुलना में 10 से 15 प्रतिशत कम रखी जाती है । यदि अधिक सूखे की स्थिति उत्पन्न हो रही हो तो पौधों की संख्या 20 से 30 प्रतिशत तक कम की जा सकती है । पौध संख्या कम करने से घटी हुई पौध संख्या को ज्यादा पानी उपलब्ध रहेगा । पौध संख्या कम करने से उत्पादन में हुई कमी को कम पौधों को ज्यादा पानी उपलब्ध करने से उत्पादन में हुई वृद्धि द्वारा पूरा किया जा सकता है । बुआई से पूर्व बीजोपचार किया जाना आवश्यक है । 2 से 3 वर्ष के अन्तराल पर जैविक खाद का प्रयोग भी फसल उत्पादन में फाफी सहायक होता है ।
समय पर खरपतवार निकालना
खरपतवार खेत में उपलब्ध जल व पोषक तत्वों को शीघ्रता से ग्रहण करते हैं फलस्वरूप फसलों को आवश्यक पौषक तत्व व पानी पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल पाते हैं । अतः फसलों को पर्याप्त नमी व पौषक तत्व उपलब्ध कराने हेतू समय पर खेत को खरपतवारों से मुक्त कर देना चाहिए । खरपतवार को उपयुक्त फसल चक्र अपनाते हुए खुरपी, कल्टीवेटर या खरपतवार नाशक दवाइयों का प्रयोग करके नियंत्रित किया जा सकता है ।
टिब्बा स्थिरीकरण
थार मरुस्थल में रेतीले टिब्बे बहुतायत में पाये जाते हैं । गर्मी में मौसम में हवाओं के चलने के साथ इन टिब्बों की रेत उड़कर एक स्थान से दूसरे स्थाने पर आसानी से पहुंच जाती है । यह रेत कृषि योग्य भूमि मकान सड़कों आदि के लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकती हैं । इसलिए इन टिब्बों का स्थिरीकरण बहुत आवश्यक है । टिब्बों का स्थिरीकरण इन पर स्थानीय वनस्पति लगाकर किया जा सकता है ।
टिब्बों पर बनस्पति को पशुओं से सुरक्षित रखने के लिए टिब्बों के चारों ओर बाड़ लगा देनी चाहिए । इसके अतिरिक्त टिब्बों की ओर वायु के आने की दिशा में 5 मीटर गुणा 5 मीटर में शतरंज की विसात के आकार में सूक्ष्म वायु अवरोध स्थापित कर देने चाहिए । सूक्ष्म वायु अवरोधों को स्थापित कर देने के लिए घासों में सेवन व अंजन धामन झाड़ियों में कैर, फोग, बोर्डी व आक व पड़ों में बबूल, कुमठ, विलायती बबूल व इजरायली बबूल लगा देना चाहिए ।
वायु अवरोधक रक्षक पटिट्याँ
वायु अवरोधक रक्षक पटिट्याँ वास्तव में रोपित पेड़ों और झाड़ियों के सजीव अवरोध होते हैं । ये वायु के वेग, वाष्पीकरण और मृदा क्षरण को रोकने में सहायक होते हैं । रक्षक पट्टियों को वायु की सामान्य दिशा के लंबवत् पंक्तिबद्ध लगाना चाहिए । वर्ष में यदि वायु एक से अधिक सामान्य दिशा में बहती हो तो अधिक रक्षक पट्टियों का रोपण करना चाहिए । रक्षक पटिट्याँ जितनी अधिक ऊंची होंगी उतनी अधिक दूरी तक वायु के वेग से रक्षा होगी । प्रायः वायु बहने की दिशा में 15 से 20 गुणा अवरोध की ऊंचाई के बराबर तक व वायु आने की दिशा में 5 गुणा पट्टी की ऊंचाई के बराबर की दूरी तक वायु के वेग को कम करती है ।
5 पंक्तियों वाली रक्षक पट्टी के लिए मध्यम पंक्ति के लिए बबूल, सिरस, नीम, शीशम व खेजड़ी के पेड़ लगाये जा सकते हैं । मध्य पंक्ति के दोनों ओर वाली पंक्तियों में कुमठ, विलायती बबूल व इजरायली बबूल लगा देने चाहिए । बाहरी पंक्तियों में कैर, फोग बोर्डी की झाड़ियाँ लगायी जा सकती हैं ।
खड़ीन
ऊपरी सतह एवं चट्टानी तल से वर्षा जल बहाव के साथ-साथ चिकनी मिट्टी निचली सतहों पर इकट्ठी हो जाती है । ऐसे स्थानों पर खेत की निकासी की तरफ मिट्टी के बांध उचित अधिप्लवन मार्ग के साथ यदि बनाये जाये तो इन स्थानों को उपजाऊ खेतों में बदला जा सकता है । इन्हें प्रादेशिक भाषा में खड़ीन कहा जाता है । इस प्रकार की जल दोहन तकनीक एवं भू उपयोग जैसलमेर जिले में व्यापक है । वर्षा कम होने की स्थिति में जल अधिग्रहण क्षेत्र एवं सिंचित क्षेत्र का अनुपात अधिक हो जाता है |
रेतीले खेतों में इन सभी कृषि तकनीकों को अपना कर अच्छी पैदावार ली जा सकती है । इन तकनीकों को भूमि विशेष के अनुसार एकीकृत रूप से या अलग अलग रूप् से अपनाकर शुष्क क्षेत्रों में मृदा व जल संरक्षण किया जा सकता है व फसलों की उत्पादकता में दीघ्र्रकालिक स्थायित्व प्राप्त किया जा सकता है ।
स्रोत-
- केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान जोधपुर 342 003