मटर के प्रमुख कीट एवं रोग

मटर के प्रमुख कीट एवं रोग इस प्रकार है:-

मटर के प्रमुक कीट एवं नियंत्रण

१.माँहू (एफिड)

इस कीट का प्रकोप जनवरी के महीने से आरम्भ हो जाता है। शिशु एवं वयस्क दोनों क्षतिकारक होते हैं जो पौधे के प्रत्येक कोमल भागों से रस चूसकर क्षति पहुँचाते हैं। इस कीट के आक्रमण के उपरान्त फसलों पर काले-काले धब्बे हैं। जिसका कुप्रभाव पौधों की वृद्धि और अन्त में उपज पर पड़ता है।

नियंत्रण

पौधे के तने अथवा अन्य भाग जहाॅँ माँहू का कालोनी दिखाई दें उसको तोड़कर नष्ट कर दें। अजादीरैक्टिन 300 पीपीएम / 5-10 मिली./लीटर या अजादीरैक्टिन 5 प्रतिशत / 0.5 मिली./लीटर की दर से 10 दिनो के अन्तराल पर छिड़काव करें। कीटनाशक जैसे इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल/ 0.5 मिली/लीटर या थायामेथेक्जाम 25 डब्लू जी. / 0.35 ग्राम/लीटर या फेनप्रोथ्रिन 30 ईसी. / 0.75 ग्राम/लीटर डाइमेथोएट 30 ई़सी. / 2.5 मि.ली./लीटर या क्यूनालफाॅस 25 ई़सी़ / 2.0 मिली/लीटर पानी की दर से 10 से 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए।

 

2.लीफ माईनर (पत्ती में सुरंग बनाने वाला कीड़ा)

यह कीट पौध वृद्धि अवस्था में ज्यादा हानिकारक होता है। मैगट पŸिायों में टेड़े-मेढ़े सुरंग बनाकर पŸिायों के हरे भागों को खाकर खत्म कर देता है। सुरंगों के अन्दर ही मैगट प्यूपा में परिवर्तित होता है। प्यूपा भूरे या पीले रंग के होते हैं इनके प्रकोप से पŸिायाँ मुरझाकर सूख जाती हैं और पौधा उपयुक्त रूप से फूल और फल नहीं दे पाता है। ज्यादा प्रकोप होने पर पूरी-की पूरी फसल सूखकर खत्म हो जाती है।

नियंत्रण

प्रतिरोधी किस्मों का चुनाव करना चाहिए। नत्रजन का समुचित प्रयोग करना चाहिए अन्यथा ज्यादा प्रयोग से कीट का आक्रमण बढ़ जाता है। पौध के निचले भाग पर कीड़ों से प्रभावित पुरानी पातियों को निकालकर नष्ट कर देना चाहिए। इसके नियंत्रण के लिए 4 प्रतिशत नीम गिरी चूर्ण का छिड़काव
(40 ग्राम नीम गिरी) प्रति लीटर पानी में लाभकारी पाया गया है। कीटनााशक जैसे इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल/ 0.5 मिली/लीटर या थायामेथेक्जाम 25 डब्लू जी. / 0.35 ग्राम/लीटर या डाइमेथोएट 30 ई़सी. / 2.5 मि.ली./लीटर या क्यूनालफाॅस 25 ई़सी़ / 2.0 मिली/लीटर पानी की दर से 10 से 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए।

 

3.फली छेदक कीट

हल्के हरे रंग के तीन धारी वाली सूड़ी फलों पर वृत्ताकार छेद बनाते हैं इस कीड़े को सूड़ी फलियों में छेद करके अन्दर बीज व कोमल भागों को खाती हैं जिसका सही पहचान यह है कि इसके शरीर का आधा हिस्सा बाहर व आधा हिस्सा अन्दर होता है।

नियंत्रण

एन.एस.के.ई. 4 प्रतिशत या बैसिलस थ्रूजेंसिस किस्म कुर्सटाकी (बी.टी.) / 2.5 ग्रा/ली. को पुष्पावस्था के दौरान छिड़काव करें। कीटनाशक जैसे रेनेक्सपायर 18.5 एससी./ 0.3 मिली/ली. या इमामेक्टिन बेंजोएट 5 एसजी./ 0.45 ग्राम/लीटर या इन्डाक्साकार्ब 14कृ5 एससी / 0.75 मिली/लीटर या क्लोरपायरीफाॅस 20 ई़सी./ 2 मिली/लीटर या डेल्टामेथ्रिन 2.8 ईसी./ 1 मिली./लीटर को 10 से 15
दिनों के अन्तराल पर दो या तीन बार पुष्पावस्था के दौरान छिड़काव करें।

 

मटर के प्रमुख रोग एवं नियंत्रण

1.चूर्णिल आसिता

यह रोग पत्ती, तना तथा फलियों को प्रभावित करती है जिससे प्रभावित स्थान पर हल्के दाग बनते हैं, जो बाद में, सफेद पाउडर के रूप में बढ़कर एक दूसरे से मिल जाते हैं और धीरे-धीरे पूरी की पूरी पत्ती ढ़ँक जाती है एवं बाद में गिर जाती है।

नियंत्रण
  • घुलनशील गंधक का चूर्ण 3 ग्राम दवा/लीटर पानी की दर से एक हेक्टेयर खेत में लगभग 600 से 700 लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है।
  • रोगरोधी किस्म का चयन करना लाभदायक होता है।
  • पेन्कोनाजोल 1 मिली दवा/4 लीटर पानी में या केलिक्सीन 0.5 मिली दवा/लीटर पानी के घोल कर 10 दिन के अंतराल पर 2-3 बार छिड़काव करें या फ्लूसिलाजोल 1 मिली/लीटर पानी के घोल का छिड़काव करने से इस रोग का निदान किया जा सकता है।

 

2.उकठा एवं जड़ सड़न

मटर की यह फफूँदजनित बीमारी है। प्रभावित पत्तियाँ पीली पड़ जाती है एवं पौधा सूख जाता है। रोग का प्रकोप अधिक होने पर फलियों में बीज नही बनते और तने के नीचे के भाग का रंग बदल जाता है। जड़े सड़ जाती है, निचली पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं और पौधा सूख जाता है।

नियंत्रण
  •  फसल चक्र अपनावें (ज्वार, बाजरा एवं गेहूँ का ही फसल लिया जा सकता है)।
  • हरी खाद की जुताई के एक सप्ताह के अन्दर ट्राइकोडर्मा पाउडर 5-6 किग्रा./हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए।
  • बुआई के पहले कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम/किग्रा. बीज की दर से उपचारित करने के उपरान्त बुआई करना चाहिए।
  • टेबुकोनाजोल नामक दवा की 1 मिली मात्रा/लीटर पानी की दर से घोल बनाकर पौधों की जड़ों को दो बार तर करें और दस दिन के अन्तराल पर दुहरा देवें।

 

3.गेरूई (रस्ट)

इस रोग के प्रभाव से पौधे जल्दी सूख जाते हैं, उपज कम हो जाती है। प्रारम्भ में पत्तियों की निचली सतह पर छोटे-छोटे गेरूई या पीले रंग के उठे हुए धब्बे बनते हैं जो धीरे-धीरे धब्बे भूरे लाल पड़ने लगते हैं और बाद में धब्बे आपस में मिल कर पत्तियों सूखा देते हैं।

नियंत्रण

रोग से प्रभावित पौधों के अवशेषों को इकट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए। हेक्साकोनाजोल या विटरेटीनाल 1 मिली/लीटर पानी में घोल बनाकर 2-3 बार छिड़काव करने से रोग का नियंत्रण हो जाता है।

 

4.एन्थ्रेक्नोज

इस रोग में पत्तियों पर पीले से काले रंग के सिकुड़े हुए धब्बे बन जाते हैं, जो कालान्तर में पूरी पत्ती को
ढँक लेते हैं। छोटे फलों पर भी काले रंग के धब्बे बनते है, और फलियाँ सिकुड़ कर मर जाती हैं। यह रोग बीज के माध्यम से एक मौसम से दूसरे मौसम में भी जाती रहती है।

नियंत्रण
  • बुआई के पूर्व, बीज को कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम दवा/किग्राबीज की दर से उपचारित करके बुआई करना चाहिए।
  • फूल आने के बाद कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम/लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें।
  • प्रारम्भिक लक्षण दिखने के बाद, डाईफेनोकोनाजोल 1 मिली/लीटर पानी की दर से 15 दिन के अंतराल पर दो बार छिड़काव करें।

 

स्रोत-

  • भारतीय सब्जी अनुसधान संसथान

 

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