मक्के में खरपतवार नियंत्रण
खरीफ के मौसम में खरपतवारों की अधिक समस्या होती है, जो फसल से पोषण, जल एवं प्रकाश के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं जिसके कारण उपज में 40-50 प्रतिशत तक नुकसान हो सकता है। मक्का की फसल के प्रमुख खरपतवार निम्नलिखित हैं:
१ .संकीर्ण पत्तियों वाले खरपतवारः सावा , गजू घास , झिंगारी/कोदो , वाइपर घास, मकरा , चिरचिटा , बनचरी , बन्दरा , दूब,नरकुल तथा मोथा ।
२.चोडी पत्तियो वाले खरपतवारः कुंदा घास , चौलाई, साटी , कनकौवा, हजारदाना, जंगली जूट , सफेद मुर्गा , मकोई , हुलहुल तथा गोखरू ।
३.सेजेज : मोथा, यलों नटसजे
मक्का की अच्छी उपज लेने के लिये समय रहते खरपतवारों का नियंत्रण अति-आवश्यक है। आजकल शाकनाशियों का प्रयोग बढ़ने लगा है क्योंकि बरसात के दिनों में निराई-गुड़ाई के लिये समय भी कम मिल पाता है, और निराई-गुड़ाई कई बार करनी पड़ती है। अतःखरपतवारनाशी के प्रयोग से वर्षा ऋतु में लाभदायक परिणाम मिलते हैं। शाकनाशी रसायनों में एट्राजीन या ट्रेफाजीन (50 प्रतिशत डब्ल्यू.पी.) के प्रयोग से एक वर्षी घास तथा चैड़ीपत्तियों वाले, दोनों ही प्रकार के खरपतवारों का नियंत्रण हो पाता है, लेकिन दूब, मोथा, केना आदि खरपतवार इससे नहीं मरते।
अतः इनकों खुरपी से निराई करके नियंत्रण किया जा सकता है। एट्राजीन की मात्रा भूमि के प्रकार पर निर्भर करती हैं जो हल्की मिट्टियों में कम तथा भारी मिट्टियों में अधिक होती हैं। प्रति हैक्टेयर लगभग 1.0 से 1.5 कि.ग्रा. एट्राजीन की आवश्यकता होती है जिसको लगभग 600 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के तुरन्त बाद (खरपतवार निकलने से पूर्व) छिड़काव करना चाहिए। मृदा सतह पर छिड़काव के समय नमी का होना अत्यन्त आवश्यक है। छिड़काव करने वाले व्यक्ति को छिड़काव करते समय आगे की बजाय पीछे की तरफ बढ़ना चाहिए ताकि मृदा पर बनी एट्राजिन की परत ज्यों की त्यों रहे। अच्छे वायुसंचार तथा बचे हुए खरपतवारों को जड़ से उखाड़ने के लिए एक या दो निराई की जा सकती हैं। निराई करते समय भी व्यक्ति को पीछे की ओर बढ़ना चाहिए ताकि मिट्टी में दवाब न आये तथा वायुसंचार अच्छा बना रहें।
फसल सुरक्षा
कीट प्रबंधन
१.तना भेदक
खरीफ की फसल के दौरान लगभग पूरे देश में मक्का तना भेदक का लारवा मुख्य रूप से हानिकारक होता है। तना भेदक पतंगे पत्तियों
पर अंडे देते है। इनकी सूंडी गोभ में घुसकर पौधे को नष्ट कर देती हैं। पौधा यदि 20 से 25 दिन तक बच जाए तो तना भेदक के लिए प्रतिरोधक क्षमता प्रबल हो जाती है। अगर तना भेदक का प्रकोप अधिक हो तो इसकी रोकथाम के लिए पौध जमने के 10-12 दिन के पश्चात 2 2 मि.ली. (35 ईसी.) इन्डोसल्फान प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए या गोभ में उचित जगह पर कार्बोफ्यूरान 3जी डालना चाहिये या पौध जमने के 10-12 दिन के पश्चात प्रति हेक्टेयर 8 ट्राइकोकार्ड रिलीज करने से भी इनकी रोकथाम की जा सकती है।
२.दीमक
दीमक ताने के साथ सुरंग बनाकर पौधो को नष्ट कर देती है। ग्रसित पौधा हाथ से खींचने पर आसानी से बाहर आ जाता है व खोखली जड़ों में मिट्टी नज़र आती है। दीमक के प्रकोप वाले क्षेत्रों में क्लोरपाइरीफास से उपचारित बीजों का प्रयोग करना चाहिए। पहली फसल के अवशेश खेत में नहीं रहने देने चाहिये। हल्का पानी लगाने के बाद फिप्रोनिल के दाने उचित जगह पर डालने चाहिए।
मक्का के रोग
खरीफ के मौसम में मक्का की फसल में देश के विभिन्न भागों में अनेक प्रकार की बीमारियाँ लग जाती हैं। अगर इनका उचित प्रबंधन न किया जाए तो इससे फसल की उपज पर विपरीत प्रभाव पडता है।
१.बैडेड लीफ एवं शीथ ब्लाइट
नाम के मुताबिक इस रोग में पत्तों व शीथ पर चैड़ाई के रूख स्लेटी या भूरे रंग की गहरी पट्टियाँ दिखायी देती है। उग्र अवस्था में भुट्टे भी क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। भूमि को छूने वाली 2-3 रोगी पत्तियों को शुरू में ही तोड़ देने से एंव 30 से 40 दिन की फसल पर 10 ग्राम राइजोलेक्स 50 डब्ल्यू0 पी0 प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करने से रोग की रोकथाम की जा सकती है तथा स्यूडोमोनास फ्ल्यूरोसेंस 16 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज में मिलाकर बीजोपचार करने से भी रोग की रोकथाम की जा सकती है।
२.टरसिकम लीफ ब्लाइट
रोगी पौधों की निचली पत्तियों पर लंबे चपटे स्लेटी या भूरे रंग के धब्बे दिखायी देते हैं जो धीरे.धीरे ऊपर की ओर बढते हैं। यह बीमारी पहाड़ी तथा प्रायद्वीपीय भारत में खरीफ के मौसम में ज्यादा फैलती है। इसके उपचार के लिए 8.10 दिन के अन्तराल पर एक लीटर पानी में 2.5 से 4.0 ग्राम मेनेबध्जिनेब मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। जहाँ पर इस रोग का प्रकोप अधिक हो उन क्षेत्रों में रोग प्रतिरोधी किस्में जैसे कि प्रो -345, बायो-9636, पूसा अर्ली हाईब्रिड -5 , प्रकाशए जे0 एच0 -10655 एवं एम0 सी0 एच0-117 उगानी चाहिए।
३.मेेिडिस लीफ ब्लाइट
पत्तियों की शिराओं के बीच में पीले भूरे अंडाकार धब्बे बन जाते हैं जो बाद में लंबे होकर चैकोर हो जाते हैं। इनसे पत्तिया जली हुई दिखाई देती हैं। रोग के लक्षण दिखते ही 8-10 दिन के अन्तराल पर एक लीटर पानी में 2.4 से 4. 0 ग्राम डाइथेन एम-45/जिनेब
मिलाकर छिड़काव करें। जहाँ पर इस रोग का प्रकोप अधिक हो उन क्षेत्रो में रोग प्रतिरोधी किस्में जैसे कि प्रो-324, आई सी आई-701, बायो-9636, पूसा अर्ली हाइब्रिड-5, प्रकाश, जे एच-10655 एवं जे के एम एच-1701 उगानी चाहिए।
४.पोलीसोरा रस्ट
मांझर बनते समय नमी अधिक होने पर पत्तियों की दोनों सतहों पर गोल, लंबे, सुनहरे या गहरे भूरे रंग का पाउडर बिखरा दिखायी देता है जो बाद में भूरे काले रंग का हो जाता है। रोग के प्रथम लक्षण दिखते ही 15 दिन के अन्तराल पर एक लीटर पानी में 2.0 से 2.5 ग्राम डाइथेन एम-45 मिलाकर छिड़काव करना चाहिए।
५.मक्के के पुष्पन के पश्चात् वृन्न्त सड़ऩ (पी.एफ.एस.आर.)
यह रोग समय पर बुवाई (10 से 20 जुलाई के मध्य में) करने से उत्तर भारतीय क्षेत्रों में कम फैलता है। अच्छे जल निकास वाली भूमि में पौघों की संख्या प्रति हैक्टेयर पचास हजार से कम रखने पर भी यह रोग कम फैलता है। फूल आते समय फसल को पर्याप्त मात्रा में जल की आपूर्ति होने से तथा विशेष रूप से पोटाश के स्तर को 80 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर तक बढ़ाकर मृदा उर्वरता के संतुलन को बनाये रखने से रोग को कम करने में मदद मिलती है। रोग रोधी किस्मों का प्रयोग करना चाहिए।
६.डाउनी मिल्ड्य्यू (मृदृदुलुल रोेिमिल आसिता)
बारिश के पहले बुवाई एवं रोग प्रतिरोघक किस्में जैसे कि प्रो-345, बायो-9636, पूसा अर्ली हाइब्रिड-5, प्रकाश, जेण् एचण्-10655 एवं एनण् इण् सीण् एसण्-117 उगाने से भी रोग की रोकथाम की जा सकती है। एप्रोन 35 एस. डी. का 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करें तथा सिस्टेमिक फफूंदनाशी जैसे कि मेटालैक्सिल, रोडोमिल 25 डब्ल्यू. पी. का छिड़काव रोग के लक्षण दिखाई देने से पहले करने पर रोग का प्रकोप कम किया जा सकता है।
स्रोत-
- मक्का अनुसंधान निदेशालय ,नई दिल्ली