मक्का की खेती

मक्का की खेती- परिचय

मक्का को विश्व को खा़द्यान्न फसलों (Food crop) की रानी कहा जाता है क्यों कि इसकी उत्पादन क्षमता खा़द्यान्न फसलों में सबसे अधिक है । पहले मक्का को विशेेष रूप् से गरीबों का मुख्य भोजन माना जाता था जबकि अब ऐसा नहीं है ।मक्का का चूरा  धनवान लोगों का मुख्य नाश्ता है । छोटे बच्चों के लिए मक्का का चूरा पोष्टिक भोजन है तथा इस के दाने को भूनकर भी खाया जाता है । शहरों के आसपास मक्का की खेती हरे (कच्चे) भुट्टों के लिए मुख्य रूप से की जाती है । आजकल मक्का की विभिन्न प्रजातियों को अलग-अलग तरह से उपयोग में लाया जाता है । मक्का को पाॅपकाॅर्न, स्वीटकाॅर्न, एवं बेबीकाॅर्न के रूप में पहचान मिल चुकी है ।

भारत में पिछले कुछ वर्षों में मक्का उत्पादन में नये आयाम खड़े किये हैं जिनकी बदोलत वर्ष 2010-11 में मक्का का उत्पादन 217.26 लाख टन के उच्च स्तर पर पहुंच गया है एवं उत्पादकता 2540 कि.ग्रा. अधिक है के स्तर पर है जो 2005-06 की तुलना में 600 कि.ग्रा. अधिक है। इसकी बदोलत मक्का की विकास दर खाद्यान्न फसलों में सर्वाधिक है जो इसकी बढ़ती उपयोगिता एवं लाभदायिकता को दर्शाती है । भारत में लगभग 80% मक्का की खेती खरीफ के मौसम में होती है ।

यह फसल विश्व के लगभग 166 देशों में उगाई जाती है जो विश्व के सकल खाद्यान्न उत्पादन में एक चैथाई से ज्यादा का योगदान करती है । विश्व के कुल मक्का उत्पादन में भारत का 3% योगदान है । अमेरिका, चीन, ब्राजील, एवं मैक्सिको के बाद भारत का पाँचवा स्थान है । मक्का भारतवर्ष के लगभग सभी क्षेत्रों में उगाई जाती है । राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आंध प्रदेश, कर्नाटक, बिहार, हिमाचल प्रदेश, जम्मू एवं कश्मीर तथा उत्तरी पूर्व राज्यों में मक्का मुख्यतया उगाई जाती है ।

 

मक्का उत्पादन में भूमि का चयन एवं तैयारी

मक्का की खेती विभिन्न प्रकार की मिट्टियों में सफलतापूर्वक की जा सकती हैं । उचित जल निकास युक्त बलुई मटियार से दोमट मृदा जिसमें वायु संचार एवं पानी के निकास की उत्तम व्यवस्था हो तथा पी.एच.मान 6.5 से 7.5 के बीच हो (अर्थात न अम्लीय हो न ही क्षारीय) में मक्का सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है । जिस जमीन में खारे पानी की समस्या है वहाॅ मक्का की बिजाई मेड़ के ऊपर के बजाय साइड में करें जिससे जड़ें नमक से प्रभावित न हों ।

खेत की तैयारी जून के दूसरे सप्ताह मेें शुरू कर देनी चाहिए । खरीफ की फसल के लिए एक गहरी जुताई (15-20 सें.मी.) मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए । अगर खेत गर्मियों में खाली हैं तो जुताई गर्मिंयों में करना अधिक लाभ दायक रहता है । इस जुताई से खरपतवार, कीट पतंगे व बीमारियो की रोकथाम में काफी सहायता मिलती है ।

खेत की नमी को बनाये रखने के लिए कम से कम समय में जुताई करके तुरन्त पाटा लगाना लाभदायक रहता है । जुताई का मुख्य उद्देश्य मिट्टी को भुरभुरी बनाना है । अगर किसान भाई नवीनतम जुताई तकनीक जैसे शून्य जुताई (भूपरिष्करण) का उपयोग न कर रहे हों तो कल्टीवेटर एवं डिस्क हैरो से लगातार जुताई करके खेत को अच्छी तरह से तैयार कर लें । अगर सम्भव हो तो संसाधन प्रबंधन तकनीक का ही इस्तेमाल करें ।

 

मक्का की बुआई का समय एवं बीज दर

मक्के की बुआई वर्ष भर कभी भी खरीफ, रबी एवं  जायद ऋतु में कर सकते हैं लेकिन खरीफ ऋतु में बुआई मानसून पर निर्भर करती है । अधिकतर राज्यों पर सिंचाई सुविधा उपलब्ध हो वहां पर खरीफ में बुआई का उपयुक्त  समय मध्य जून से मध्य जुलाई है । पहाड़ी एवं  कम तापमान वाले क्षेत्रों में मई के अंत से जून के शुरू में मक्का की बुआई की जा सकती है

ऋतु बुआई का उपयुक्त समय
खरीफ जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई पखवाड़े तक
रबी अंतर फसल के लिए अक्टूबर के अंतिम सप्ताह और एकमात्र फसल के लिए 15 नवंबर तक

 

प्रति एकड़ बीज की मात्रा एवं कतार (लाइन) से कतार (लाइन) तथा पौधों से पौधों की दूरी निम्नलिखित सारणी में दी गई है|

सामान्य

मक्का

क्यू पी एम बेबीकॉर्न स्वीटकॉर्न पॉपकॉर्न चारे हेतु
बीज की मात्रा

किग्रा/एकड़

8-10 8 10-12 2-5-3 4-5 25-30
लइन से लाइन की दूरी (सें.मी.) 60-75 60-75 60 75 60 30
पौधे से पौधे की दूरी (सें.मी.) 20-25 20-22 15-20 25-30 20 10

 

विभिन्न अंतरालों की स्थिति में प्रति हेक्टेयर एवं प्रति एकड़ पौधों की संख्या|

पंक्ति से पंक्ति ग  पौध से पौध की दूरी (सें.मी.) पौधों की संख्या
प्रति हेक्टेयर प्रति एकड़
30 x 10 333.333 134.952
60 x 15 111.111 44.984
60 x 20 83.333 33.738
60 x 22 75.757 30.670
75 x 20 66.666 26.990
75 x 22 60.606 24.536
75 x 30 44.444 17.993

मक्का के बीज को 3.5-5.0 सें.मी. गहरा बोना चाहिए, जिससे बीज मिट्टी से अच्छी तरह से ढक जायें तथा अंकुरण अच्छा हो सके।

 

 बीज उपचार

बीज को बीज एवं मृदा जनित रोगों एवं कीट-व्याधियों से बचाने के लिए बुवाई से पहले कवकनाशियों तथा कीटनाशियों से नीचे दिये विवरण के अनुसार उपचारित करना चाहिए|

रोग एवं कीट कवनाशी/कीटनाशी प्रयोग की दर
टी.एल.बी.बी.एल.एस.बी., एम.एल.बी. 1:1के अनुपात में बाविस्टीन तथा कैप्टान 2ग्राम प्रति किलोग्राम बीज
बी.एल.एम.डी. टपरान 35 एस.डी. 4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज
पिथियम तथा सड़न कैप्टान 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज
दीमक तथा प्ररोह मक्खी (शूट फ्लाई) इमिडाक्लोरपिड़ या फिप्रोनिल 4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज या 4 मिलीलीटर  प्रति किलोग्राम बीज

 

मक्का की बुवाई विधि

पौधों की जड़ों को पर्याप्त नमी मिलती रहे और जल भराव से होने वाले नुकसान से बचाने के लिए यह उचित है कि फसल को मेड़ों पर बोया जाये । बुवाई पूर्वी-पश्चिमी दिशा की मेड़ों के दक्षिणी भाग में करना चाहिए । बीज को उचित दूरी पर लगाना चाहिए । आजकल विभिन्न बीज माप प्रणालियों के प्लान्टर उपलब्ध है, किन्तु एन्कलाइंड प्लेट, कपिंग या रोलर टाइप के सीट मीटरिंग प्रणाली सर्वोत्तम पायी गयी है । प्लांटर का उपयोग करना चाहिए , क्यों कि इससे एक ही बार में बीज व उर्वरकों को उचित स्थान पर डालने में मदद मिलती है । चारे के लिए बुआई सीडड्रिल द्वारा करनी चाहिए । मेड़ों पर बुआई करते समय पीछे की ओर चलना चाहिए ।

 

पोषण प्रबंधन

मक्का की अधिक उपज के लिए बुवाई से पहले मिट्टी की जाँच करवाना अति आवश्यक है । भारतीय मृदाओं में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश के अतिरिक्त कुछ सूक्ष्म – तत्वों जैसे – लोहा व जस्ता आदि की कई क्षेत्रों में कमी देखी गई हैं । बुवाई से 10 – 15 दिन पूर्व खेत में भलीभाँति सड़ी हुई 10-12 टन गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर मिला देनी चाहिए तथा 150 से 180 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 – 70 किलोग्राम फास्फोरस, 60 – 70 किलोग्राम पोटाश तथा 25 किलो ग्राम जिंक सल्फेट का प्रयोग किया जाना चाहिए । फास्फोरस, पोटाश और जिंक की पूरी मात्रा तथा 10 प्रतिशत नाइट्रोजन की आधार डोज (बेसल) के रूप् में बुवाई के समय देना चाहिए । शेष नाइट्रोजन की मात्रा को चार हिस्सों में निम्नलिखित विवरण के अनुसार देना चाहिए ।

  • 20 प्रतिशत नाइट्रोजन फसल में चार पत्तियाँ आने के समय देना चाहिए|
  • 30 प्रतिशत नाइट्रोजन फसल में 8 पत्तियाँ आने के समय देना चाहिए ।
  • 30 प्रतिशत नाइट्रोजन फसल पुष्पन अवस्था में हो या फूल आने के समय देना चाहिए ।
  • 10 प्रतिशत नाइट्रोजन का प्रयोग दाना भराव के समय देना चाहिए ।

 

जल प्रबंधन

मक्का एक ऐसी फसल है जो न सूखा सहन कर सकती और न ही अधिक पानी सहन कर सकती है । अतः खेत में जल निकासी के लिए नालियाँ बुवाई के समय ही तैयार कर देनी चाहिए व समय रहते अतिरिक्त पानी खेत से निकाल देना चाहिए । मक्का में जल प्रबंधन मुख्य रूप से मौसम पर निर्भर करता है । वर्षा ऋतु में मानसूनी वर्षा सामान्य रही तो सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकि भारत में लगभग 80 प्रतिशत मक्का विशेष रूप से वर्षा सिंचित क्षेत्रों में उगाई जाती है । जब फसल को पानी की आवश्यकता हो, उसी समय सिंचाई करनी चाहिए ।

पहली सिंचाई बहुत ही ध्यान से करने की आवश्यकता होती है, क्योंकि अधिक पानी से छोटे पौधों  की बढ़वार नहीं होती है । पहली सिंचाई में पानी मेड़ों के ऊपर से नहीं बहना चाहिए । सामान्य रूप् से नालियों में रिजेज / क्यारियों के दो तिहाई ऊँचाई तक ही पानी देना लाभप्रद रहता है । सिंचाई की दृष्टि से नई पौध, घुटनों तक की ऊँचाई, फूल आने तथा दाने भराव की अवस्थायें सबसे संवेदनशील होती है तथा इन अवस्थाओं में अगर सिंचाई की सुविधा हो तो सिंचाई अवश्य करना चाहिए ।

 

निराई – गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण

खरीफ के मौसम में खरपतवारों की अधिक समस्या होती है, जो फसल से पोषण, जल एवं प्रकाश के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं जिससे कारण उपज में 40 – 50 प्रतिशत तक नुकसान हो सकता है । मक्का की फसल के प्रमुख खरपतवार निम्नलिखित हैं|

स्ंकीर्ण पत्तियों वाले खरपतवार

सावा (इकाइनोक्लोआ कोलोनम), गूज घास (एक्रकन रेसीमोस), झिंगारी / कोदो (एल्यूसाइना डंडिका), वाइपर घास (डाइनेब्रा रेट्रोफ्रेक्सा), मकरा (डक्टाइलोक्टेनम इजिप्टिका), चिरचिटा (सिटेरिया वीरिडिस), बनचरी (सोरगम हेलपेन्स), बन्दरा (सिटेरिया ग्लौका), दूब (साइनोडान डेक्टाईलाॅन), नरकुल (फेग्माइटिस कर्का) तथा मोथा (साइपरस स्पिसीज)

चैड़ी पत्तियों वाले खरपतवार

कुन्द्रा घास (डाइजेरा आरवेंसिस), चैलाई (ऐमेंरेन्थस स्पिसीज), साटी (ट्राइएंथिमा पोरचुलेक्सट्रम), कनकौवा (कोमेलाइना बेंगालेन्सिस), हजारदाना (फाइलेन्थस निरूराई), जंगली जूट (कोरकोरस एक्टून्गूलस), सफेद मुर्गा (सिलोसिया आर्जेन्शिया), मकोई (सोलेनम नाइर्गम), हुलहुल (क्लिओम विस्कोसा) तथा गोखरू (ट्रइबूलस टेरिस्टििस)

सेजेज: मोथा (साइपरस रोटोन्डस), यलो नटसेज (सइपरस एस्कुलेन्टस)

मक्का की अच्छी उपज लेने के लिए समय रहते खरपतवारों का नियंत्रण अति आवश्यक है । आजकल शाकनाशियों का प्रयोग बढ़ने लगा है क्योंकि बरसात के दिनों में निराई-गुड़ाई के लिए समय भी कम मिल पाता है, और निराई-गुड़ाई कई बार करनी पड़ती है । अतः खरपतवारनाशी के प्रयोग से वर्षा ऋतु में लाभदायक परिणाम मिलते हैं । शाकनाशी रसायनों में एट्राजीन या ट्रेफाजीन (50 प्रतिशत डब्ल्यू.पी.) के प्रयोग से एक वर्षीय घास तथा चैड़ीपत्तियों वाले, दोनों ही प्रकार के खरपतवारों का नियंत्रण हो पाता है, लेकिन दूब, मोथा, केना आदि खरपतवार इससे नहीं मरते । अतः इनको खुरपी से निराई करक नियंत्रण किया जा सकता है ।

एट्राजीन की मात्रा भूमि के प्रकार पर निर्भर करती है जो हल्की मिट्टियों में कम तथा भारी मिट्टियों में अधिक होती है । प्रति हेक्टेयर लगभग 1.0 से 1.5 कि.ग्रा. एट्राजीन की आवश्यकता होती है जिसको लगभग 600 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के तुरन्त बाद (खरपतवार निकालने से पूर्व) छिड़काव करना चाहिए । मृदा सतह पर छिड़काव के समय नमी का होना अत्यन्त आवश्यक है । छिड़काव करने वाले व्यक्ति को छिड़काव करते समय आगे की बजाय पीछे की तरफ बढ़ना चाहिए ताकि मृदा पर बनी एट्राजिन की परत ज्यों की त्यों रहे । अच्छे वायुसंचार तथा बचे हुए खरपतवारों को जड़ से उखाड़ने के लिए एक या दो निराई की जा सकती है । निराई करते समय भी व्यक्ति को पीछे की ओर बढ़ना चाहिए ताकि मिट्टी में दवाब न आये तथा वायुसंचार अच्छा बना रहे ।

 

कटाई व उपज

ज्ब भुट्टों को ढ़कने वाली पत्तियाँ पीली पड़ने लगें (दानों में 25-30 प्रतिशत नमी) तब मक्का की कटाई करनी चाहिए । अच्छा होगा अगर भुट्टों को शेलिंग (दाना निकालना) के पहले धूप में सुखाया जाए तथा दानों में 13-14 प्रतिशत नमी होने पर शेलिंग की जाए । शेलिंग ऊर्जा चालित मेज शेलर या हाथ से करनी चाहिए । उचित भण्डारण के लिए दानों को सुखाने की प्रक्रिया तब तक करनी चाहिए जब तक कि उनमें नमी का अंश लगभग 8-10 प्रतिशत न हो जाये और इन्हें वायुप्रवाहित जूट के थैलों में रखना चाहिए ।

 

अन्तः फसल

  • अन्तः फसल एक तरह का फसल बीमा है, जो किसान को जैविक व अजैविक आपदाओं से बचाता है मक्का के साथ कम अवधि में पकने वाली दलहनी फसलें जैसे मूँग, उड़द, लोबिया, अरहर, तिलहनी फसलें जैसे मूँगफली, सोयाबीन तथा सब्जियाँ एवं फूल आदि फसलें ली जा सकती हैं |
  • अन्तः फसली खेती में मुख्य फसल की निर्धारित उर्वरक की मात्रा के अलावा अन्तः फसल की निर्धारित उर्वरक का प्रयोग करना चाहिए ।
  • मक्का तथा अन्तः फसल की दो-दो या मक्का की दो एवं अन्तः फसल की एक लाइन बोनी चाहिए ।
  • खरपतवारों का नियंत्रण अन्तः फसल में निराई गुड़ाई से करना चाहिए ।
  • शाकनाशी रसायनों के इस्तेमाल से अन्तः फसल पर बुरा प्रभाव पड़ता है । अगर रवी मक्का को अन्तः फसल के साथ खेती करते हैं तो यह बहुत ही लाभदायक साबित होता है । कई फसलें जैसे कि – मैथी, मूली, आलू, हरी मटर, पालक, पत्ता गोभी, फूलगोभी, चुकन्दर, गाजर, राजमा, हरी प्याज, ब्रोकली, शलजम तथा ग्लैडिओलस, इत्यादि, सर्दी के मौसम में मक्का के साथ सफलता पूर्वक उगाई गयी है । इसमें अन्तः फसलें उगाने से एक फसल का दूसरी फसल पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता, बल्कि कुछ अन्तः फसले मृदा उर्वरता को बढ़ाती हैं तथा ठंडे मौसम में होने वाले नुकसान से मक्का को दक्षिण दिशा तथा अन्तः फसल को उत्तर की तरफ बोते हैं तो यह उत्तरी ठंडी हवा से मक्का का बचाव करती है । सामान्यतः कम अवधि वाली फसल को मक्का के साथ अन्तः फसल के रूप में उगाने को प्राथमिकता देते है । मक्का के लिए निर्धारित उर्वरक की मात्रा के अतिरिक्त अन्तः फसल की निर्धारित उर्वरक का भी प्रयोग करना चाहिए । खरीफ के मौसम में हरी फली तथा चारा हेतु लोबिया, उर्द, मूँग इत्यादि को मक्का के साथ अन्तः फसल के रूप में उगाया जाता है । किसान के लिए अन्तः फसल के कई विकल्प हैं, लेकिन आर्थिक दृष्टिकोण से ठंडी के मौसम में मटर और आलू की खेती बड़े पैमाने पर अन्तः फसल के रूप् में की जा सकती है ।

 

Source-

  • मक्का अनुसंधान निदेशालय
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