भूमि में पौधों के विकास के लिए सभी आवश्यक तत्व होने चाहिए । अन्य जीवधारी की तरह पौधों को बढ़वार के लिए भोजन की आवश्यकता होती है । यदि उन्हें ठीक भोजन मिले तो वे तेजी से बढ़ेंगे, स्वस्थ होंगे और उनमें रोग तथा कीट पतंगों से अवरोध की क्षमता बढ़ेगी । बढ़ती हुई जनसंख्या से निपटने के लिए अधिक अन्न उपजाना आवश्यक है, परन्तु बिना भूमि की उर्वराशक्ति में सुधार हुए अन्न की अधिक उपज प्राप्त करना कठिन है ।
भूमि की उर्वराशक्ति में सुधार से तात्पर्य यह है कि भूमि में पौधों के लिए सभी आवश्यक पोषक तत्वों की मात्रा को बढ़ाया जाए । पौधों के विकास के लिए 16 आवश्यक पोषक तत्व होते हैं इनमें कुछ तत्वों की आवश्यकता अधिक मात्रा में होती है, जबकि अन्य तत्वों की आवश्यकता कम मात्रा में होती है । जिन तत्वों की आवश्यकता अधिक मात्रा में होती है वे कार्बन, हाइड्रोजन, आॅक्सीजन, नाइट्रोजन, फाॅस्फोरस, पोटाश कैल्शियम, मैग्नीशियम तथा सल्फर हैं । इनमें से कार्बन, हाइड्रोजन तथा आॅक्सीजन पौधों द्वारा मुख्यतः जल तथा वायु से ग्रहण किये जाते हैं ।
नाइट्रोजन, फाॅस्फोरस एवं पोटाश की भी अधिक मात्रा में पौधों को आवश्यकता होती है । इसलिए इन्हें मुख्य पोषक तत्व कहते हैं । कैल्शियम, मैग्नीशियम एवं सल्फर को द्वितीय पोषक तत्व कहते हैं, इनका कार्य मुख्य पोषक तत्वों से कम होता है । लोहा, मैग्नीज, काॅपर, जिंक, बोरान, कोबाल्ट, क्लोरीन तत्वों की सूक्ष्म मात्रा में आवश्यकता होती है, जिस कारण इसे सूक्ष्म पोषक तत्व कहते हैं । भूमि में इन तत्वों की पर्याप्त मात्रा में होनी चाहिए । कमी होने पर इनकी पूर्ति खाद, उर्वरक, हरी खाद तथा खलियों द्वारा की जाती है । वायु तथा जल से उपलब्ध होने वाले तत्वों कार्बन, हाइड्रोजन तथा आॅक्सीजन की कमी नहीं होती । नाइट्रोजन वायु मण्डल में 78: उपस्थित रहती है, परन्तु पौधे वायुमण्डल से सीधे नाइट्रोजन प्राप्त नहीं कर सकते हैं ।
वायुमण्डल से कुछ नाइट्रोजन वर्षा के पानी के साथ एवं नाइट्रोजन स्थिरीकरण द्वारा भूमि में पहुंच पाता है । नाइट्रोजन पौधों के क्लोरोफिल, एमिनों अम्ल, प्रोटीन इत्यादि के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । फाॅस्फोरस फलीदार फसलों की जड़ों में स्थित ग्रंथियों की संख्या तथा आकार में वृद्धि करता है, जिसके कारण वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण होता है । पोटेशियम पत्तियों में शर्करा एवं स्टार्च के निर्माण में वृद्धि करता है, तथा फसल में बीमारी व कीट – पतंगों के आक्रमण के प्रतिरोधकता बढ़ाता है ।
कैल्शियम दना व तना को सख्त बनाती है तथा दलहनी फसलों की जड़ों में ग्रंथियों का विकास करता है । मैग्नीशियम क्लोरोफिल का आवश्यक अवयव है । सल्फर प्रोटीन, एमिनो अम्ल, तेल व विटामिन के निर्माण में सहायक हैं तथा प्याज, लहसुन एवं सरसों की फसल के लिए आवश्यक है । जिंक, मैग्नीज, काॅपर क्लोरोफिल निर्माण के लिए आवश्यक है । बोरान परागण, प्रजनन क्रियाओं व फल बीज बनाने में सहायक है । मोलिब्डेनम दलहनी फसलों की जड़ों में नत्रजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणु के लिए आवश्यक है । क्लोरीन क्लोरोफिल रचना में सहायक है । पौधा की वृद्धि एवं विकास में मृदा से प्राप्त होने वाले पोषक तत्वों का महत्वपूर्ण स्थान है।
ये पोषक तत्व , पौधे अपनी जड़ों द्वारा चूसते हैं । यदि इन तत्वों की पर्याप्त मात्रा में उपलब्धता न हो तो फसल कमजोर तथा उपज कम होती है । इनकी अनुपस्थिति से पौधे मर सकते है। इन तत्वों की पूर्ति करने के लिए जैविक खादों, रासायनिक उर्वरकों, हरी खाद, खलियाँ तथा मृदा सुधारकों का प्रयोग किया जाता है ।
जैविक खादो का प्रयोग
जैविक खादें पौधों के लिए न केवल आवश्यक पोषक तत्व उपलब्ध कराती हैं, बल्कि भूमि की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों में भी सुधार करती हैं । यह पोषक तत्वों को पौधों के लिए धीरे-धीरे प्रदान करता है तथा इस खाद का प्रभाव काफी वर्षों तक बना रहता है ।
उर्वरकों का प्रयोग
भूमि का लगातार उपयोग करने से तथा भूमि क्षरण से भूमि की उर्वराशक्ति कम हो जाती है । जैविक खाद पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न होने से कृषि एवं अन्य फसलों की उपज में कमी होने लगती है । जैविक खादों की कमी को पूरा करने के लिए रासायनिक खादों का प्रयोग करते हैं । उर्वरकों से पौधों के पोषक तत्व शीघ्र प्राप्त हो जाते हैं ।
हरी खाद का प्रयोग
हरी खाद बनाने के लिए शीघ्र बढ़ने वाली फसल की बुवाई कर उसे खेत में खड़ी अवस्था में ही जोत देते हैं । हरी खाद के लिए दलहनी एवं अदलहनी फसलें बोयी जाती हैं, लेकिन दलहनी फसलों का हरी खाद के रूप में विशेष महत्व है, क्योंकि फलीदार पौधे अपनी जड़ों की ग्रंथियों द्वारा वायुमण्डल से नाइट्रोजन खींचते हैं । जब फसल 50 – 55 दिनों की हो जाए तो मिट्टी पलटने वाले हल से फसल को भूमि में दबा देते हैं । हरी खाद देने से उपज 30 – 35 प्रतिशत तक बढ़ती है ।
फसल को पर्याप्त लाभ मिलने के लिए यह आवश्यक है कि भूमि में हरी खाद पलटने तथा दूसरी फसल बोने के बीच लगभग 2 महीने का समय होना चाहिए । हमारे देश में गोबर की खाद, कम्पोस्ट एवं अन्य जैविक पदार्थ की कमी है, जिससे कृषि उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है । भूमि की उर्वरता बनाये रखने के लिए तथा भूमि सुधारने के लिए हरी खाद विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध हो सकती है ।
खलियों का प्रयोग
खलियों में नाइट्रोजन, फाॅस्फोरस तथा पोटेशियम की मात्रा पायी जाती है । खलियों में मुख्य पोषक तत्वों के अतिरिक्त सूक्ष्म पोषक तत्व भी पाये जाते हैं, फसल बोने से 2-3 सप्ताह पूर्व खलियों को खेत में मिलाते हैं । प्रयोग करने से पहले खलियों को महीन पीस लेना चाहिए, ताकि इनको ठीक प्रकार से बिखराया जा सके साथ ही पिसाई करने से विच्छेेन भी शीघ्र ही प्रारम्भ हो जाता है तथा इनमें पाये जाने वाले पोषक तत्व आसानी से 1-2 महीने में उपलब्ध हो जाते हैं । खलियों को प्रत्येक फसल तथा प्रत्येक भूमि में दिया जा सकता है । खलियों का प्रभाव 3-4 वर्षों तक बना रहता है ।
भूमि सुधारकों का उपयोग मुख्यत
भूमि की अम्लीयता, क्षारीयता एवं भूमि की संरचना ठीक करने के लिए किया जाता है । भूमि सुधारक रासायनिक यौगिक होते हैं, जो मिट्टी की क्षारीयता दूर कर उदासीन बनाते हैं । मिट्टी की क्षारीयता दूर करने के लिए जिप्सम, पाइराइट डालते हैं । मिट्टी की अम्लीयता हटाने के लिए चूने का प्रयोग करते हैं ।
स्वस्थ मिट्टी एवं उसकी उर्वराशक्ति अच्छा फसलोत्पादन का आधार है । पौधे उगने से लेकर पकने तक मिट्टी पर ही आधारित रहते हैं । पौधे के समुचित विकास के लिए पोषक तत्व मिट्टी ये ही मिलते हैं । मिट्टी की उर्वराशक्ति उसमें उपस्थित पोषक तत्वों की उपलब्ध मात्रा पर निर्भर करती है । स्वस्थ एवं विकसित पौधों से ही हम अधिक उपज की आशा कर सकते हैं ।
स्रोत-
- गहरा पानी धान अनुसंधान उप केन्द्र बिरौल, जिला दरभंगा , बिहार