भिण्डी एक महत्वपूर्ण सब्जी है जो देश के लगभग सभी भागों में उगाई जाती है । भिण्डी के फलों की सब्जी बनाने के साथ-साथ इसकी जड़ और तनों की मांग, गुड़ और शक्कर साफ करने में किया जाता है । विश्व के कुछ देशों में बीज का पाउडर बनाकर ’’काफी’’ के स्थान पर इसका प्रयोग किया जाता है । दो चार ताजी भिण्डी प्रतिदिन खाने से पेट साफ रहता है । ताजा सब्जियों के निर्यात में भिण्डी के निर्यात की हिस्सेदारी अकेले 60 प्रतिशत है । इसकी खेती से अच्छी मात्रा में विदेशी मुद्रा भी अर्जित कर रहे हैं ।
जलवायु
भिण्डी गर्म मौसम की सब्जी है जिसके लिए लम्बे गर्म मौसम की आवश्यकता पड़ती है । इसकी खेती के लिए औसत तापक्रम 25 से 300 सेन्टीग्रेट उपयुक्त पाया गया है । जब औसत तापक्रम 180 सेन्टीग्रेट से कम हो जाता है तो बीज के जमाव पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ।
भूमि और भूमि की तैयारी
इसको विभिन्न प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है, किन्तु उचित जल निकास वाली जीवांश युक्त दोमट या बलुई दोमट मिट्टी उत्तम होती है । खेत की 3-4 जुताई करके पाटा लगा देते हैं । इसकी अच्छी खेती के लिए 6 से 7 पी.एच. मान वाली मिट्टी सर्वोत्तम पाई गई है ।
भिण्डी की किस्में
1.काशी प्रगति (वी.आर.ओ.-6):
यह प्रजाति पित्त शिरा मोजैक एवं प्रारंभिक पत्ती मोड़ विषाणु से पूर्णतया अवरोधी है । इसमें फूल 38-40 दिनों में चैथे से छठवें गाँठ पर आ जाता है । इसकी पैदावार गर्मी के दिनों में 135 कुंटल तथा वर्षा ऋतु में 180 कु./है. तक होती है ।
2.काशी विभूति (वी.आर.ओ.-5):
यह भिण्डी की बौनी प्रजाति है । इसकी बढ़वार 60 से 70 से.मी. तक होती है । इसमें फूल 40 दिन में चैथे गाँठ पर आ जाते हैं । इसमें गाँठे 3 से.मी. की दूरी पर आती है जिससे यह किस्म बौनी होते हुए भी अच्छी उपज देती है । इसकी पैदावार वर्षा की फसल में 150 कुंटल व गर्मी में 120 कुंटल/हैक्टेयर तक होती है । यह किस्म भी पित्त शिरा मोजैक व इनेसन, विषाणु रोग से मुक्त है ।
3.काशी सातधारी (आई.आई.वी.आर.-10):
यह भिण्डी की सातधारी किस्म है । इसके पौधों में फूल 42 दिन में आ जाते हैं । यह प्रजाति भी पित्त सिरा मोजैक व प्रारम्भिक पत्ती मोड़ विषाणु से पूर्णतया मुक्त है । इसकी पैदावार वर्षा ऋतु में 140 कु./है. जा सकती है ।
4.काशी क्रांति:
इस किस्म के पौधे की ऊँचाई 100-120 से.मी. होती है एवं फल वाले, बुवाई के 45-46 दिनों बाद वर्षा ऋतु में चैथी गाँठ एवं गर्मी के दिनों में तीसरी गाँठ से फलों की तुड़ाई प्रारंभ होती है । विपणन अवस्था में फलों की लंबाई 8-10 से.मी. एवं औसत 17-18 फल प्रति पौध होती है । इसकी उपज 125-140 कु.्/है. एवं पीत शिरा मोजैक विषाणु एवं ओ.एल.सी.वी. प्रतिरोधी है ।
संकर किस्में
काशी भैरव, सारिका, सिन्जेन्टा-152, महिको 8888, यू.एस.-7109, एस.-5, जे.के. हरिता इत्यादि भिण्डी की पित्त शिरा विषाणु रोग प्रतिरोधी संकर किस्में हैं ।
खाद एवं उर्वरक
भिण्डी की अच्छी पैदावार के लिए आवश्यक है कि गोबर की खाद के साथ-साथ उर्वरकों का भी संतुलित मात्रा में उपयोग की जाए । इसके लिए यह आवश्यक है कि पहले से ही मिट्टी की उर्वरता की जाँच करा लें । वैसे साधारण भूमि में 20-25 टन सड़ी गोबर की खाद, 100 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 50 कि.ग्रा. फास्फोरस और 50 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हैक्टेयर की दर से देनी चाहिए । गोबर की खाद खेत की तैयारी के समय अच्छी प्रकार मिट्टी में मिला देना चाहिए । नाइट्रोजन की एक तिहाई मात्रा तथा फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बुआई के पूर्व मिट्टी में मिला देना चाहिए । नाइट्रोजन की शेष मात्रा बुआई के 30 व 60 दिन के बाद फसल में टाप ड्रेसिंग के रूप में देनी चाहिए ।
बुआई का समय
उत्तर एवं मध्य भारत के मैदानी इलाकों में इसकी दो फसल ली जाती है । वर्षा की फसल की बुआई जून-जुलाई और ग्रीष्म ऋतु की फसल की बुआई फरवरी -मार्च में करते हैं । उत्तर भारत में व्यावसायिक अगेती फसल का काफी महत्व है । इसकी बुवाई 15 फरवरी से जुलाई तक सिंचाई की सुविधा होने पर किसी भी समय कर सकते हैं । बीज वाली फसल के लिए वर्षा ऋतु (10-15 जुलाई) का समय ही उपयुक्त है क्योंकि इसके पहले बुवाई करने से बीज के पकने के समय वर्षा होने से बीज की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तथा इसमें फली छेदक कीटों का प्रकोप भी बढ़ जाता है ।
बीज की मात्रा एवं दूरी
बीज की मात्रा बोने के समय व दूरी पर निर्भर करती है । खरीफ की खेती के लिए 8-10 कि.ग्रा. तथा ग्रीष्मकालीन फसल के लिए 12-15 कि.ग्रा. बीज प्रति हैक्टेयर आवश्यकता होती है । जब कि फरवरी के प्रथम सप्ताह में लगाने पर बीज की मात्रा 15-20 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर आवश्यकता पड़ती है । ग्रीष्म कालीन फसल के लिए पौध से पौध व कतार से कतार की दूरी फरवरी के प्रथम सप्ताह में बोने पर 60 ग 20 से.मी. व इसके बाद बोने पर दूरी 60 ग 30 से.मी. तथा वर्षा कालीन फसल के लिए 60 ग 30 से.मी. रखनी चाहिए ।
बुआई
भिण्डी की बुआई का समतल क्यारियों एवं मेड़ों पर की जाती है । जहाँ मिट्टी भारी तथा जल निकास का अभाव हो वहाँ बुआई मेड़ों पर करते हैं । गर्मी के दिनों में अगेती फसल लेने के लिए बीज को 24 घण्टे तक पानी में भिगोकर एवं छाया में थोड़ी देर सुखाकर बुआई करनी चाहिए । बुआई के पूर्व कैप्टाफ या थिरम नामक कवकनाशी दवा से 2.5 से 3.0 ग्राम दवा/कि.ग्रा. बीज उपचारित करें । बीज की बुवाई 2.5 से 3.00 से.मी. की गहराई पर करते हैं ।
सिंचाई
यदि भूमि में अंकुरण के समय पर्याप्त नमी न हो तो बुआई के तुरन्त बाद हल्की सिंचाई कर दें । अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहें । सिंचाई मार्च में 10-12 दिन व अप्रैल में 7-8 दिन तथा मई-जून में 4-5 दिन के अंतराल पर करनी चाहिए । वर्षा ऋतु में यदि वर्षा होती है तो सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती । वर्षा ऋतु में भिण्डी की फसल में पानी अधिक देर तक नहीं ठहराना चाहिए ।
अंतः सस्य क्रियायें
भिण्डी की फसल के साथ प्रारंभ के 25-30 दिनांे में अनेक खरपतवार उग आते हैं जो पौधे की विकास एवं बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं । खरपतवार के नियंत्रण के लिए डयुअल (मेटोलेक्लोर-50 ई.सी.) की 2 लीटर मात्रा या स्टाम्प (पेंडिमेथलीन 30 ई.सी.) की 3.3 लीटर दवा 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से बुआई के 48 घंटे के अंदर छिड़काव करने से खरपतवार नष्ट हो जाते हैं ।
प्रमुख कीट एवं नियंत्रण
1.फुदका (जैसिड):
गर्मी वाली फसल फुदका के आक्रमण से ज्यादा प्रभावित होता है । यह पत्ती की निचली सतह पर बड़ी संख्या में पाया जाता है । शिशु तथा प्रौढ़ दोनों पत्ती की निचली सतह से रस चूसते हैं और साथ ही एक प्रकार का जहरीला पदार्थ अपने लार के साथ पत्ती के अंदर छोड़ते हैं जिसके फलस्वरूप पत्ती किनारे से पीली होकर (होपरब्रम) सिकुड़ती हैं तथा प्यालानुमा आकार बनाती हैं तथा धीरे-धीरे पत्ती सूख जाती है । वातावरण में अधिक नमी एवं अधिक तापक्रम में इनकी संख्या में भारी वृद्धि होती है ।
नियंत्रण:
बुआई के समय इमिडाक्लोप्रिड 48 एफएस / 5-9 मिली/कि.ग्रा. बीज या इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यू एस /5-10 ग्राम/कि.ग्रा. बीज या थायोमेथोक्जाम 70 डब्ल्यू एस 3-5 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें । आजादीरैक्टिन 300 पीपीएम./5-10 मि.ली./लीटर या आजादीरैक्टिन 5 प्रतिशत 0.5 मि.ली./लीटर का छिड़काव 10 दिनों के अंतराल पर करें । आवश्यकतानुसार किसी भी कीटनाशक जैसे इमिडाक्लोप्रिड / 125 ग्राम एआई./है. या थायोमेथेक्जाम 200 ग्राम एआई/है. या फेनप्रोथ्रिन 30 ईसी. /0.75 ग्राम/लीटर या लैम्डा साइहैलोथ्रिन 2.5 एससी./ 0.6 मि.ली./लीटर की दर से 10-15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें ।
2.सफेद मक्खी:.
इस कीट के निम्फ (परी) व वयस्क दोनों पौधों का रस चूसते हैं तथा पत्तियों पर इनके द्वारा विसर्जित मल द्वारा काले कज्जली मोल्ड्स विकसित हो जाते हैं जिससे पौधों में प्रकाश संश्लेषण बाधित होता है । इसके अतिरिक्त यह तराई के येलो मौजैक रोग के विषाणु को भी एक पौधे से दूसरे पौधे में फैलाती है ।
नियंत्रण:
बुआई के समय बीज को उपचारित करें जैसा कि फुदका के नियंत्रण में वर्णित है । मक्का, ज्वार या बाजरा को मेड़ फसल/अन्त सस्यन के रूप में उगाना चाहिए जो अवरोधक का कार्य करते हैं । जिससे सफेद मक्खी का प्रकोप कम हो जाता है । जैव कीटनाशक जैसे वर्टीसिलियम लिकैनी / 5 मि.ली./ली. या पैसिलोमाइसेज फेरानोसस / 5 ग्राम/ली. का प्रयोग भी किया जा सकता है । आवश्यकता के अनुसार कीटनाशकों जैसे इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. / 0.5 मि.ली. /लीटर या थाईमेथोक्साम 25 डब्लू जी. / 0.35 ग्राम/लीटर या फेनप्रोथ्रिन 30 ईसी. / 0.75 ग्राम/लीटर डाइमेथोएट 30 ईसी. / 2.5 मि.ली./लीटर या स्पाइरोमेसिफन 23 एससी. / 0.8 मि.ली./लीटर की दर से छिड़काव करें ।
3.तना एवं फल वेधक कीट:
बरसात वाली फसल इस कीट से ज्यादा प्रभावित होती है और 35 प्रतिशत से अधिक नुकसान होता है । सूड़ीयां तना के अग्र भाग एवं फलों में छेद करती हैं । तने मुरझा जाते हैं । जबकि ग्रसित फल सही आकार नहीं ले पाता है और टेड़ा हो जाता है । प्रभावित फल खाने योग्य नहीं रह जाते हैं सूंड़ी के रंग भूरा सफेद होता है जिनके ऊपर काले धब्बे पाए जाते हैं, इसलिए इसे चित्तिदार सूंड़ी कहते हैं ।
नियंत्रण:
गर्मी की गहरी जुताई करें जिससे मिट्टी की निचली परत खुल जाए और सूंड़ियां या प्यूपों को धूप द्वारा नष्ट हो तथा शिकारी पक्षियों को खाने के लिए खोल देता है । ग्रसित तनों एवं फल को ऊपर से सूंड़ी सहित तोड़कर नष्ट कर देना चाहिए । 100 सेक्स फेरोमोन फंदे प्रति हैक्टेयर की दर से (10 मी. ग 10 मी. की दूरी पर) पौधों की ऊंचाई से थोड़ा ऊपर लकड़ी या राड के सहारे लगाएं ।
जैव कीटनाशक जैसे बैसिलस थुरिनजिनेसिस (बी.टी.) 0.5 कि.ग्रा./है. की दर से 1 सप्ताह के अंतराल में 2 या 3 बार छिड़काव करें । आवश्यकतानुसार किसी भी कीटनाशक का जैसे रैनेक्सपायर 20 एस.सी. / 0.2-0.4 मि.ली./ली. या इम्मामेक्टिन बेंजोएट 5 प्रतिशत एस.सी. / 0.35 ग्राम/ली. या डेल्टामेथ्रिन 2.5 ईसी. / 1 मि.ली./ली. या फेनवलरेट 20 ई.सी. / 0.75 मि.ली./ली. या साइपरमेथ्रिन 25 ईसी. / 0.5 मि.ली./ली. या फेनप्रोथ्रिन 30 ईसी. / 0.75 ग्राम/ली. की दर से 10-15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें।
4.फल छेदक:
गर्मी के दिनों में टमाटर का फल छेदक भिण्डी के तना व फल छेकद की अपेक्षा फलों को अधिक नुकसान पहुंचाता है । हल्के हरे रंग के तीन धारी वाली सूड़ी फलों पर वृत्ताकार छेद बनाते हैं जिसकी सही पहचान यह है कि इसके शरीर का आधा हिस्सा बाहर व आधा हिस्सा अंदर होता है।
नियंत्रण:
एच.एन.पी.वी. 250 (एल.ई.), एक कि.ग्रा. गुड़ और 0.1 प्रतिशत टीनोपाल का 800 लीटर पानी में घोल बनाकर 10 दिन के अंतराल पर सुबह या शाह के समय 3 बार छिड़काव करें । इसके साथ-साथ अण्डा परजीवी, कीट 50,000 अण्डा प्रति है. की दर से 10 दिन के अंतराल पर छोड़कर इस कीट का समुचित नियंत्रण संभव है । 100 सेक्स फेरोमोन फंदे प्रति हैक्टेयर की दर से (10 मी. ग 10 मी. की दूरी पर) पौधों की ऊंचाई से थोड़ा ऊपर लकड़ी या राड के सहारे लगाएं । जैव कीटनाशक जैसे बैसिलस थुरिनजिनेसिस (बी.टी.) 0.5 कि.ग्रा./है. की दर से 1 सप्ताह के अंतराल में 2 या 3 बार छिड़काव करें । जो कीटनाशक दवा तना एवं फल छेदक कीट के नियंत्रण में वर्णित है उसे प्रयोग किया जा सकता है ।
5.माइट (लाल मकड़ी):
लाल माइट बहुत छोटे कीट हैं जो पत्तियों पर एक ही जगह जाला बनाकर बहुत अधिक संख्या में रहते हैं । इनका प्रकाप ग्रीष्म ऋतु में अधिक होता है । इसके प्रकोप के कारण पौधे अपना भोजन नहीं बना पाते जिसके फलस्वरूप पौधे की वृद्धि रुक जाती है तथा उपज में भारी कमी हो जाती है ।
नियंत्रण:
पावर छिड़काव मशीन द्वारा पानी का छिड़काव करने से फसल पर से मकड़ी अलग हो जाती है । जिससे प्रकोप में कमी आती है । मकड़ी नाशक जैसे स्पाइरोमेसीफेन 22.9 एससी./0.8 मि.ली./लीटर या डाइकोफाल 18.5 ईसी. / 5 मि.ली./लीटर या फेनप्रोथ्रिन 30 ईसी. / 0.75 ग्राम/लीटर की दर से 10-15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें ।
प्रमुख रोग एवं नियंत्रण
1.पीत शिरा मोजैक:
यह रोग विषाणु द्वारा फैलता है जिसके कारण पौधों की बढ़ोत्तरी रुक जाती है पत्तियां एवं शिराएं पीली पड़ जाती हैं । जब तने और फलों का रंग पीला पड़ जाए तो समझो कि रोग का प्रकोप ज्यादा है । यह रोग सफेद मक्खी द्वारा एक पौधे से दूसरे पौधे तक पहुंचता है और धीरे-धीरे पूरे फलस में यह रोग फैल जाता है ।
नियंत्रण:
अंतर प्रवाही कीटनाशी दवा मेटासिस्टाक या नुआक्रान 1.5 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोलकर 15 दिन के अंतराल पर 3 बार छिड़काव करें तथा रोग अवरोधी किस्में लगायें ।
2.काला धब्बा:
इसका प्रभाव वर्षा की फसल में सितंबर के अंतिम सप्ताह से शुरू होता है एवं कम तापक्रम व अधिक आर्द्रता के साथ बढ़ता जाता है ।
नियंत्रण:
टापसिन एम या कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम या बेयकूर 0.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर जैसे ही धब्बे दिखाई देते हैं छिड़काव 8 से 10 दिन के अंतराल पर 2-3 बार कर देना चाहिए ।
3.सूखा व जड़ गलन रोग:
यह जमीन में उपस्थित फफूंद से फैलता है । फसल किसी भी अवस्था में प्रभावित हो जाती है । शुरूआत में पौधे पीले दिखाई देते हैं तथा बाद में सूख जाते हैं । यह दो प्रकार के फफूंदों से हाता है ।
क. माइक्रोफोमिना द्वारा:
यह फफूंद गर्मी की फसल में पानी की कमी होने पर ज्यादा नुकसान करती है । इसके प्रकोप से पौधों की जड़ों का ऊपरी छिलका पहले प्रभावित होता है । जिससे पौधा बाद में सूख जाता है ।
ख. फ्यूजेरियम द्वारा:
यह फफूंद वर्षा वाली फसल को ज्यादा प्रभावित करता है । खेत लगातार गीला या वर्षा में पानी लगने से जड़ों के बीच का भाग भूरा या काला हो जाता है तथा बढ़वार रुक जाती है और बाद में पौधे पीले पड़कर सूख जाते हैं ।
नियंत्रण:
1.फसल चक्र का प्रयोग करके इसको कुछ हद तक रोका जा सकता है ।
2.बीज को 0.3 प्रतिशत थीरम या कैप्टन 2 ग्राम प्रति कि.ग्रा. की दर से उपचारित करके बुआई करना चाहिए ।
3.गर्मी में फसल को समय से सिंचाई करते रहना चाहिए ।
4. वर्षा में जल निकास का उचित प्रबंध करना चाहिए ।
5. वैलिडामाईसीन 2 ग्राम/लीटर या टेबुकोनाजोल 1 ग्राम/लीटर के साथ मिट्टी की सिंचाई करना ।
4.चूर्णी फफूंद रोग:
इसके प्रभाव से पत्तियों पर गहरे भूरे रंग का चूर्ण बन जाता है जिससे बाद में पत्तियां सिकुड़कर सूख जाती हैं । यह सूखे मौसम व तापक्रम कम होने पर काफी तेजी से फैलता है ।
नियंत्रण:
माइक्लो ब्लूटानिल 1 ग्राम/ली. या घुलनशील गंधक 0.3 प्रतिशत छिड़काव करना चाहिए ।
5.नीमेटोड के लक्षण:
नीमेटोड की कई प्रजातियों से इसको भारी मात्रा में नुकसान पहुंचता है । भिण्डी का तरूण पौधा इसके प्रति बहुत ही सहिष्णु होता है । जिस पौधे पर इसका आक्रमण हो जाता हेै वह पौधा जल के अवशोषण दर को कम कर देता है । जिससे पौधे की बढ़त रुक जाती है । बाद में पत्तियां पीली पड़कर सूखकर गिरने लगती हैं जिससे उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ।
नियंत्रण
- रोकथाम के लिए जैविक नियंत्रण को प्रयोग में लाना चाहिए । इसके लिए नीमेटोडनासी जैसे कसावा, नीम का तेल, पशु का मूत्र आदि का प्रयोग करना चाहिए ।
- रासायनिक विधि से इसका नियंत्रण करने के लिए कार्बोफ्यूरान एक कि.ग्रा. प्रति है. की दर से या एल्डीकार्ब 0.5 से 1 कि.ग्रा. प्रति है. की दर से प्रयोग करना चाहिए ।
- प्रभावित क्षेत्र में बोने से पहले गहरी जुताई करने से लाभ होता है । खेत को हर साल बदलते रहना चाहिए ।
फलो की तुड़ाई और उपज
भिण्डी की फलों की तुड़ाई नरम एवं मुलायम अवस्था में फूल आने के 4 से 6 दिन बाद करनी चाहिए क्योंकि इससे अधिक दिन पर तुड़ाई करने पर उसमें रेशे की मात्रा बढ़ जाती है । उचित देखरेख, उन्नतशील किस्मम, खाद एवं उर्वरकों के उचित प्रयोग से प्रति हैक्टेयर गर्मी के दिनों में 100-120 तथा वर्षा में 150-200 कुंटल उपज प्राप्त कर सकते हैं । निर्यात के लिए तुड़ाई जब फली 6-8 से.मी. लंबी व सीधी करीब चार दिनों के अंतराल पर करनी चाहिए ।
स्रोत-
- भा.कृ.अनु.प.-भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान पो.आ.-जक्खिनी (शाहंशाहपुर), वाराणसी 221 305 उत्तर प्रदेश