बकरी तथा भेड़ राजस्थान राज्य के महत्वपूर्ण पशुधन हैं। इस राज्य की प्रगति में बकरियों एवं भेड़ों का वर्षो से प्रमुख योगदान रहा है। ये पशु शुष्क क्षेत्र में पायी जाने वाली अन्य पशु प्रजातियों के मुकाबले कई बीमारियों के प्रति अधिक प्रतिरोधक क्षमता रखते हैं तथा वातावरण में परिवर्तन के अनुसार अपने व्यवहार में बदलाव लाकर स्वयं को स्वस्थ रखते हैं। पशु पालक इन पशुओं का वैज्ञानिक तौर पर प्रबंध करके अपना जीवनयापन अच्छे ढंग से व्यतीत कर सकते है। बकरी व भेड़ के स्वास्थ्य की देख-भाल इनके प्रबंधन का एक प्रमुख स्तम्भ है। लेकिन प्रतिकूल परिस्थितियों में किसी बीमारी से ग्रसित हो जाने पर इसका सीधा प्रभाव पशु पालक की आर्थिक स्थिति पर पड़ता हैं।
अतः बीमार पशु को तुरंन्त पशु चिकित्सक के पास ले जाकर सलाह लेनी चाहिये। “इलाज से अच्छा बचाव” कहावत के अनुसार, पशु पालक अपने पशुओं को स्वस्थ रखने के लिए बकरी व भेड़ की निम्नलिखित प्रमुख बीमारियाँ तथा उनसे बचाव की जानकारियों को अपनाकर भरपूर फायदा उठा सकते हैंः-
फड़किया (Enterotoxemia)
यह बकरी व भेड़ में पाया जाने वाला मुख्य जीवाणु जनित रोग है। इसके रोगाणु मृदा एवं पशु की ग्रास नली में अपनी प्राकृतिक अवस्था में पाये जाते हैं। इस बीमारी की चपेट में आए पशु की मृत्यु प्रायः चरते-चरते मौके पर ही अथवा 36घन्टों के दौरान हो जाती है। इस बीमारी के प्रारम्भिक लक्षणःखाना-पीना छोड़ देना, चक्कर आना तथा खूनी दस्त करना हैं। पशु चारे में परिवर्तन या अत्यधिक मात्रा में भोजन ग्रहण करना इस बीमारी को बढने में सहायता प्रदान करते हैं। इस बीमारी के निम्न उपचार के उपरांत पशु एक सप्ताह में ठीक
हो जाता है। पशु के प्रभावित होने पर लगभग आधे कप पानी में लाल दवा के 1 या 2 दाने घोलकर पिला दें। गर्भवती बकरी व भेड़ (गर्भधारण का अन्तिम महीना) तथा 3 महीने से ऊपर के बच्चों का टीका करण करके इस बीमारी से बचा जा सकता है।
निमोनिया (Pneumonia)
भेड़ एवं बकरियां शुष्क क्षेत्रों में रहना पसंद करते हैं और नमी व ठंड के प्रति संवेदनशील होते हैं। ठंड व नमी वाले स्थानों पर निमोनिया बीमारी से ग्रसित होकर ये पशु मर जाते हैं। यह रोग वर्षा से भीगे पशओु में मुख्यतः देखा जा सकता है। इस बीमारी के लक्षणों में कठिनाई से सांस लेना, खाँसी, मुंह व नाक से स्त्राव, खाना पसंद न करना आदि प्रमुख हैं। तारपीन के तेल की भाप देने से पशु क आराम मिलता है। पशु पालको को चाहिए कि वे इन पशुओं को नमी व ठंड से बचाऐ।
चेचक (Pox)
यह एक विषाणु जनित रोग है जिसमें पशु के मुँह, नाक, थन पर तथा पिछली टागों के मध्य छाले बन जाते हैं। इससे पशु को बहुत खुजली होती है। यह छाले पकने के बाद झड़ जाते हैं तथा उनके निशान बन जाते हैं। लेकिन इस रोग से ग्रसित पशु की
मृत्यु नही होती है। सही समय पर टीेकाकरण ही इसका एक सफल बचाव है।
प्लेग((P.P.R.)
यह भी एक विषाणु जनित बीमारी है। यह बीमारी भेड़ की अपेक्षा बकरी में तीव्रता से फैलती है। इससे 4 से 12 महीने के बच्चे अधिक प्रभावित होते है|इस रोग से ग्रसित होने पर पशु को तेज बुखार, दस्त (बुखार के 3-4 दिन बाद) एवं सांस लेने में तकलीफ होती हैं। पशु को भूख नहीं लगती, आँख व नाक से स्त्राव निकलता है तथा पशु उदास हो जाता है। दस्त शुरू होने के बाद पशु एक सप्ताह के दौरान मर जाता है। इस बीमारी का टीकाकरण ही एकमात्र बचाव है, जो कि प्रत्येक तीन वर्ष में एक बार लगाया जाता है।
खुरपका-मुँहपका(F.M.D.)
यह तीव्रता से फैलने वाली एक विषाणु जनित बीमारी है। इस रोग के मुख्य लक्षणों में मुँह में तथा खुरों के मध्य छाले बनना, लँगड़ा कर
चलना, भोजन न करना, तीव्र बुखार एवं गर्भपात आदि हैं। पशु की वृद्धि दर कम हो जाती है। लेकिन मृत्यु बहुत ही कम पशुओं में होती
है। इस रोग के विषाणु आपसी स्पर्श व वायु द्वारा फैलते हैं। पशु के मुँह में फिटकरी तथा खुरों पर नीले थोथे का घोल लगाने से पशु को
आराम मिलता है। इस बीमारी से ग्रसित होने के पश्चात पशु स्वतः ही ठीक हो जाता है। प्रत्येक छः महीने पश्चात् टीकाकरण ही इस
बीमारी से प्रमुख बचाव है।
बाह्नय परजीवी (Ectoparasites)
भेड़ों व बकरियों पर अधिक मात्रा में ऊन व बाल होने के कारण इनमें बाहय परजीवियों का आक्रमण अधिक संख्या में होता है जो कि बरसात के मौसम में अत्यधिक हो जाता है। ये परजीवी पशु का रक्त चूसते हैं, खुजली करते हैं तथा कई प्रकार की बीमारियाँ फैलाते हैं। इसी वजह से पशु कमजोर हो जाता है, वृद्धि रूक जाती है तथा कभी-कभी पशु मर भी सकता है। इन परजीवियों के आक्रमण से बचाव के लिए पशुओं की डिपिंग (डेल्टामेथरीन/सायपरमेथरीन का घोल-1 मिली. प्रति ली. पानी के अनुपात में मिलाकर स्नान) अति आवश्यक है। इसी समय बाडे के अन्दर भी कीटनाशक घोल का छिड़काव करना बहुत जरूरी है। पशु पालक पशु के शरीर पर कपूर, तम्बाकू व खेर का लेप लगाकर उसे बाहय परजीवियों से दूर रख सकते हैं।
अन्तःपरजीव (Endoparasites)
यह परजीवी इन पशुओं में गम्भीर समस्या पैदा करते हैं। ये इनका रक्त चूसते हैं तथा खनिज लवण व विटामिन की कमी पैदा करते हैं। ऐसा होने से पशु कमजोर हो जाता है, वृद्धि रूक जाती है, गुहा पतली हो जाती है एवं उसमें से बदबू आती है। इन परजीवियों से बचाव के लिए पशुओं को समय-समय पर पशु चिकित्सक की देख-रेख में कृमिनाशक (एल्बेन्डाजोल/फेनबेन्डाजोल आदि) घोल देना चाहिए। लगभग 250 ग्राम अ¨क के फूलों क¨ 500 मि.ली. पानी में उबालकर पिलाने से पेट के कीडे़ बाहर आ जाते हैं।
खूनी दस्त (Coccidiosis)
यह बीमारी 1 से 4 महीनों के बच्चों में एक अन्तः परजीवी के कारण होती है। इस बीमारी के लक्षणों में तीव्र ख्ूानी-दस्त, भूख न लगना,
शारीरिक भार में गिरावट, रक्तहीनता आदि प्रमुख हैं। एक ही बाड़े में सीमित संख्या से अधिक बच्चे व फर्श के गीला होने से इस बीमारी में बढोत्तरी हो जाती है। इससे बचाव के लिए फर्श की सफाई के साथ-साथ खाने व पानी की जगह को भी साफ र£ना अति आवश्य है। पशु चिकित्सक की सलाह से इस रोग हेतु काम आने वाली एम्प्रोलियम व मोनेन्सिन आदि दवाइयों का उपयोग इस बीमारी के बचाव के लिए बरसात के मौसम के पहले किया जा सकता है।
कीटोसिस (Ketosis)
यह बीमारी उन मादा पशुओं के गर्भकाल की अन्तिम तिमाही में व ब्याने के बाद सम्भावित है, जिनके गर्भ में दो या अधिक भ्रूण विकसित हो रहे हैं अथवा शारीरिक दृष्टि से अत्यधिक कमजोर हैं। ऐसा इन पशुओं में ऊर्जा की कमी, कार्बोहाड्रेट के उपायचय में गड़बड़ी तथा रक्त में कीटोन पदार्थो का बनना हैं। पशु के श्वास से एक विशेष प्रकार की मीठी गंध काआना इस बीमारी का प्रमुख लक्षण है। अन्य लक्षणों में स्वास्थ्य में अत्यधिक गिरावट, गिर पड़ना, खड़े न हो पाना तथा मृत्यु हो जाना हैं। इसके बचाव के लिए पशु के पोषण में ऊर्जा से भरपूर पदार्थ जैसे कि शीरा या गुड़ की मात्रा को बढ़ाना चाहिए।
आफरा (Bloat/Tympany)
जुगाली पशु के उदर (ओजरी) में आवश्यकता से अधिक गैस के बनने एवं इकठ्ठा होने से आफरा हो जाता है। यदि यह गैस न निकले तो पशु की तुरंत मृत्यु हो जाती है। पशुओं में अत्यधिक मात्रा में हरा चारा खा लेने से या चारे में एकदम बदलाव होना आफरा का कारण बन जाता है। पेट का फूलना, बेचैनी, कठिनाई भरा श्वास, खाना-पानी छोड़ देना आफरा के मुख्य लक्षण हैं। आफरा रोकने के लिए पशु को एक स्थान पर खड़े न रहने देना व निरन्तर चलाना, पशु के पेट से गैस निकालना(पशु के बाँय पेट पर ट्रोकार केनुला या मोटी सुई द्वारा छेद करके) एवं पशु को तेल पिलाना चाहिए।
पशु को 10-20 मि.ली.ब्लोटासिल/ब्लोटिनेक्स या 15-20 ग्राम टिम्पोल पाउडर, 30 ग्राम मीठा सोडा सहित दिन में दो बार पिलाने से आफरे से बचाया जा सकता है। गुनगुने पानी में फिटकरी, गुड़ व हल्दी का मिश्रण पिलाने से भी पशु का आफरा कम हो जाता है। उपरक्त बीमारियों के अलावा इन पशुओं में गल घोटू, लंगड़िया बुखार, गर्भपात (ठतनबमससवेपे), टी.बी. आदि बीमारियाँ भी पायी जाती हैं।
बकरी व भेड़ को बीमारियों से दूर रखने के उपाय
1. पशु पालक को स्वस्थ बकरी व भेड़ ही खरीदनी चाहिए तथा यह भी सुनिश्चित करें कि वहाँ पशु को निरंतर आवश्यक टीके लगते रहे है या नही।
2. अन्य फार्म से अपने फार्म पर लाये पशु को लगभग एक महीने तक उसको मुख्य समूह में न मिलाएं तथा उसको निगरानी में रखें।
3. फार्म पर पशुओं का मल-मूत्र जमा न होनें दें तथा उसका तुरंत निस्तारण करें।
4. फार्म के फर्श, खाने व पीने का स्थान व अन्य सामग्री की सफाई रोजाना करें तथा उचित जीवाणुनाशक घोल का प्रयोग नियमपूर्वक करें।
5.पशु के बीमार होने पर उसको तुरंत समूह से अलग करें एवम् उसका उपचार करवाएं।
6. पशुओं के लिए साफ-सुथरे चारे व पानी की व्यवस्था सुनिश्चित करें।
7. पशुओं का नमी व वर्षा से बचाव करें।
8. पशुओं का उचित समय पर निम्नलिखित सारणी अनुसार टीकाकरण अवश्य करवाएं।
बीमारी का नाम | टीके का नाम | खुराक दर | पुनरावृत्ति |
फड़किया | मल्टी-कम्पोनेन्ट/ टाईप-डी | 2 मि.ली., त्वचा के नीचे | प्रत्येक 6 महीने बाद |
पी.पी.आर. (प्लेग) | टिशू कल्चर | 1. मि.ली., त्वचा के नीचे | प्रत्येक 3 वर्ष बाद |
खुर पका-मुँह पका | पाली वेलैन्ट | 2-3 मि.ली., त्वचा के नीचे
या माँस में |
प्रत्येक 6 महीने बाद |
गल घोंटू | आयल-एडजूवेन्ट | 2 मि.ली., माँस में | वर्ष में एक बार |
लंगड़िया बुखार | पाली वेलैन्ट/
फार्मल किल्ड |
2-3 मि.ली. त्वचा के नीचे | वर्ष में एक बार |
स्रोत-
- केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, जोधपुर