फ्रासबीन को और कई नामों से भी जाना जाता है । जैसे – ग्वार, कलस्टरबीन आदि । यह एक महत्वपूर्ण व्यावसायिक बेमौसमी सब्जी है । यह सब्जी अन्य फसलों की तुलना में कम अवधि में अधिक पकने वाली तथा आय देने वाली फसल है । मैदानी क्षेत्रों में गर्मियों के समय जब सब्जियों का अभाव होता है , उस समय पर्वतीय क्षेत्रों में फ्रासबीन सब्जियों का समूह के माध्यम से बड़े स्तर पर उत्पादन किया जाये तो उसे रोजगार का बहुत अच्छा माध्यम बनाया जा सकता है । आज भी कई इलाकों में कृषकों को उन्नत प्रजातियों का बीज समय पर उपलब्ध नहीं हो पाता है । बीज की कीमत इतनी बढ़ जाती है कि कृषक खरीद नहीं पाता है ।
फ्रासबीन के स्वास्थ्य लाभ
- फ्रासबीन में उपस्थित कैल्शियम हड्डी को मजबूत बनाता है ।
- फ्रासबीन खून में उपस्थित कोलेस्ट्रोल को कम करता है ।
- यह एक पाचक का भी काम करता है ।
खेती की तैयारी
फ्रासबीन की अच्छी उपज के लिए बलुई दोमट व दोमट मिट्टी सर्वोत्तम होती है तथा खेत में जल निकास का उचित प्रबंधन होना चाहिए । मिट्टी का पी.एच. मान 6-7 के बीच होना चाहिए । खेत की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के उपरान्त आवश्यकता अनुसार एक या दो जुताईयां देशी हल से करके मिट्टी को भुरभुरा बना लें और पाटा लगा दें ताकि बुवाई के समय खेत में नमी बनी रहे ।
बीज का स्त्रोत
हमेशा, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के संस्थान, जिले के कृषि विज्ञान केन्द्र, किसी भी मान्य संस्था या बीज प्रमाणीकृत एजेन्सी से प्रमाणित/आधारीय बीज प्राप्त करके ही बीज उत्पादन का कार्य करना चाहिए ।
पृथक्करण दूरी
फ्रासबीन की दो भिन्न प्रजातियों के खेतों के बीज की दूरी आधारीय बीज के लिए कम से कम 10 मीटर एवं प्रमाणित की बीज की दूरी कम से कम 5 मीटर रखनी चाहिए ।
अनुमोदित प्रजातियाँ
बी.एल.बौनी बीन – 1:
इसकी फलियां चिकनी, हरी गोलाकार, रेशा रहित तथा हल्की मुड़ी हुई होती हैं तथा बीज गहरे भूरे व चित्तीदार होते हैं । इसके पौधों की लम्बाई 35-45 से.मी. तक होती है । यह सबसे अगेती किस्म है, जो 45-50 दिन में तुड़ाई के योग्य हो जाती है । इसकी औसत उपज 115-120 क्विन्टल प्रति हेक्टेयर होती है । यह प्रजाति जड़ विगलन तथा पर्ण चित्ती रोगों के प्रति सहिष्णु है ।
बी.एल.बीन – 2:
इस प्रजाति की फलियां चिकनी, हरी, गोलाकार, रेशा रहित तथा हल्की मुड़ी हुई होती हैं तथा बीज गहरे भूरे व चित्तीदार होते हैं । इसके पौधों की लम्बाई 40 – 45 से.मी. तक होती है । यह सबसे अगेती किस्म है, जो 45 – 50 दिन में तुड़ाई के योग्य हो जाती है । इसकी औसत उपज 100 – 125 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है । यह प्रजाति जड़ विगलन तथा पर्णचित्ती, एन्थ्रेक्नोज व गेरूई रोगों के प्रति सहिष्णु है ।
कन्टेन्डर:
यह झाड़ी वाली बौनी किस्म की प्रजाति है । इसके पौधों की लम्बाई 50-60 से.मी. फलियां गहरी हरी, लम्बी, गोल रेशा रहित होती हैं । यह बुवाई से 50-60 दिन बाद तुड़ाई के योग्य हो जाती हैं तथा इसकी फलियां 12-15 से.मी. तक लम्बी होती हैं । यह प्रजाति मोजेक के प्रति सहनशील है । इसकी औसत उपज 90-100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है ।
केन्टुका वण्डर:
यह लताबीन है, फलियां लम्बी हरी, टेढ़ी, गद्देदार, कम रेशा युक्त होती हैं । बीज हल्के भूरे रंग के तथा बड़े आकार के होते हैं । इसकी फलियां 65-75 दिन बाद तुड़ाई के योग्य हो जाती है तथा इसकी औसत उपज 90-100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है ।
अर्का कोमल:
यह आई.आई.एच.आर. बंगलौर द्वारा विकसित प्रजाति है, जिसकी हरे रंग की गूदेदार, रेशायुक्त लम्बी और सीधी फलियां होती हैं । इसकी औसत उपज 50-60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है ।
पन्त अनुपमा:
यह बौनी प्रजाति है, जिसकी फलियां चिकनी, हरी गूदेदार, रेशारहित होती हैं तथा यह 55-60 दिन बाद तुड़ाई के योग्य हो जाती है और इसकी औसत उपज 90-100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है । प्रति प्रजाति मोजेक एवं पर्णचित्ती रोग के प्रति सहिष्णु है ।
पूसा मौसमी:
यह बरसात के लिए उपयुक्त किस्म है, 80 दिन में पहली तुड़ाई के योग्य हो जाती है ।
अन्य प्रजाति:
पूसा नसदार एवं गामा मंजरी ।
बुवाई का समय एवं बीज की मात्रा
निचले एवं मध्य पर्वतीय क्षेत्रों में फ्रासबीन की बीज फसल की बुवाई उचित समय फरवरी से 30 मार्च तक होता है । फ्रासबीन की बुवाई के लिए बीज दर 25-30 कि.ग्रा./हेक्टेयर की आवश्यकता होती है । बुवाई हमेशा लाइनों में करनी चाहिए । पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30-35 से.मी. तथा बीज से बीज की दूरी 10 से.मी. रखते हुए बीजों को 2.0-2.5 से.मी. की गहराई में बोना चाहिए ।
बीजोपचार
खेत की तैयारी करते समय खेत में खाद और उर्वरकों की अनुमोदित मात्रायें मिलाई जाती है । बोने से पूर्व विभिन्न रसायनों जैसे-थाईरम या कार्बेंडाजिम 2 ग्राम दवा प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिए । बीज को जैविक विधि से उपचार के लिए प्रति 10 कि.ग्रा. बीज को एक पैकेट (200-250 ग्राम) तथा एक पैकेट फास्फेटिका नाम जैव उर्वरकों से उपचारित करके बोना चाहिए ।
खाद एवं उर्वरक
उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना उपयुक्त रहता है । फ्रासबीन की अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 10-15 टन प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी गोबर (2-3 क्विंटल प्रति नाली) डालना चाहिए तथा रासायनिक खादों में 50 कि.ग्रा. नत्रजन, 80 कि.ग्रा. फास्फोरस एवं 40 कि.ग्रा. पोटाश ( एवं 0.8 कि.ग्रा. नत्रजन 1.6 कि.ग्रा. फास्फोरस एवं 0.8 कि.ग्रा. पोटाश प्रति नाली ) प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए । बुवाई से पूर्व नत्रजन की आधी मात्रा निराई-गुड़ाई के बाद देना चाहिए ।
सिंचाई
फ्रासबीन एक उथली जड़ वाली फसल है । इसलिए यह आवश्यकता से अधिक पानी बर्दाश्त नहीं कर सकती है । सिंचाई, भूमि के प्रकार और जैविक पदार्थ की उपस्थिति पर निर्भर करती है । इसके लिए शुरू में जमाव हेतु पर्याप्त नमी चाहिए । फूल निकलने के समय सिंचाई करने से फलियों की बढ़वार शीघ्र होती है ।
खरपतवार नियंत्रण
फ्रासबीन में पहली निराई-गुड़ाई 20-25 दिन बाद करें । उसके बाद आवश्यकता अनुसार 10-15 दिन के अंतराल में निराई-गुड़ाई करते रहें । रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण के लिए लासो (एनाक्लोर) के 2.0 कि.ग्रा. सक्रिय पदार्थ को 800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के बाद छिड़काव करना चाहिए ।
अवांछनीय पौधों को निकालना
अवांछित पौधे, जैसे खरपतवार, रोगग्रस्त पौधे, अन्य प्रजातियों के पौधे तथा उसी प्रजाति के भिन्न पौधों ( जैसे-अधिक या कम ऊंचाई या कम ऊंचाई, फूल आने एवं पकने की अवधि, पत्तियों फूलों तनों और बीज के रंग ) को हटाना ताकि फसल की आनुवांशिक शुद्धता बनी रहे, रोगिंग कहलाता है । यह कार्य फूल आने के पूर्व से लेकर कटाई तक किया जाता है ।
रोग एवं कीट प्रबंधन
१.श्यामवर्ण
इस रोग का संक्रमण फसल की हर अवस्था में पौधे के किसी भी भाग से प्रारंभ हो सकता है । इसमें अनियमित आकार के पीले भूरे धंसे हुए धब्बे दिखाई देने लगते हैं । यह एक बीज जनित रोग है, इसलिए हमेशा उपचारित बीज ही बोना चाहिए । इस रोग के नियंत्रण के लिए बीजों को थायरम या कैप्टान की 2.5 ग्राम मात्रा या कार्बेण्डाजिम की 1.0 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें ।
२.जीवाणु पर्ण अंगमारी धब्बा
इसमें रोग ग्रसित पौधों की पत्तियों पर पीले-हरे रंग के जलीय धब्बे बनते हैं, जो बाद में काले हो जाते हैं । इससे ग्रसित फलों पर भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं । इसकी रोकथाम के लिए स्टेªप्टोसाइक्लिन की 0.1 प्रतिशत ( 100 मि.ग्रा. प्रति लीटर पानी ) मात्रा से बीज को उपचारित करके बीज की बुवाई करें । खड़ी फसल को बचाने के लिए काॅपर आॅक्सीक्लोराइड ( 0.2 प्रतिशत ) एवं स्टेªप्टोसाइक्लिन ( 0.1 प्रतिशत ) का घोल बनाकर 7-8 दिनों के अन्तराल पर आवश्यकता अनुसार 3-4 छिड़काव करना चाहिए ।
३.चूसक कीट
इस कीट का प्रकोप मई से अक्टूबर तक ज्यादा रहता है । इसका निम्फ दोनों अवस्थायें पत्तियों के रस चूसकर सफेद दानेदार धब्बे बना देते हैं । इस कीट का अधिक प्रकोप होने पर इमिडाक्लोप्रिड 0.3 मि.ली./लीटर पानी का छिड़काव करें ।
४.फफोला भृंग
इस कीट का प्रकोप जुलाई से सितम्बर के दौरान ज्यादा होता है । इनको हाथों से चुनकर पानी में डुबोकर मार दें । प्रकोप के अधिक होने पर रासायनिक विधि से नियंत्रण हेतु मैलाथियान 5 प्रतिशत धूल का 20-25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से इसके अतिरिक्त डेल्टामेथ्रिन ( 2.8 ई.सी. ) का एक मि.ली. प्रति लीटर की दर से फसल पर छिड़काव करें ।
बीज संसाधन
मड़ाई के बाद बीज को अच्छी तरह साफ किया जाता है ताकि उसमें निष्क्रिय पदार्थ, हल्के, छोटे, कटे-फटे बीज एवं खरपतवारों के बीज अलग हो जायें । वैज्ञानिक तरीके फ्रासबीन की खेती करने पर फसल की उपज लगभग 14-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त हो जाती है ।
स्रोत-
- जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्व विद्यालय ,जबलपुर,मध्यप्रदेश