फसलो में पोटाश के ऊर्जा संचारक गुण

जैसा कि किसान भाई जानते हैं आज के समय में कीट-बीमारियों का प्रकोप पुराने समय से अधिक हो गया है, हमें रासायनिक दवाओं का प्रकोप भी अधिक करना पड़ रहा है परन्तु फिर भी हमारी फसल से हम अधिक उत्पादन नहीं ले पा रहे हैं । आईये आज आपको अवगत कराते हैं, ऐसा क्यों हो रहा है ।

हमारे शरीर व पौधों के शरीर में एक ऊर्जा होती है, जो किसी भी रोगाणु व कीटों को शरीर में प्रवेश या हमला करने से रोकती है । परन्तु इस ऊर्जा की कमी से रोग व बीमारी लग जातीं हैं । इसलिए हमें ऊर्जा की मात्रा बढ़ानी चाहिए । जो कि पोटाश तत्व के नियंत्रण में होता है । पर्ण रंध्रो द्वारा पौधे सांस लेते हैं, खुलने बंद होने को पोटाश संचालित करके वाष्पीकरण द्वारा होने वाली नमी और ऊर्जा के नुकसान को नियमित करके पौधों को सूखने से बचाने में मदद करता है ।

पौधों में स्वस्थ जड़ों का विकास होता है । पौधों की जड़ों को मजबूत, घना, लम्बा और स्वस्थ बनाने में पोटाश कारगर है, जो कि पौधे को खराब मौसम व कीट रोगों से बचाने के साथ – साथ रोगरोधी क्षमता तैयार करता है । दानों व तेल वाली फसलों में दानों का आकार व तेल की मात्रा बढ़ाता है ।

बीज व फलों की अपेक्षा पोटेशियम पौधों के पत्तों व भूसे में अधिक होता है और पौधों के पत्ते व भूसा किसी न किसी रूप में भूमि में फिर लौट आते हैं । अतः प्रकृति में स्वयं पोटेशियम क चक्र चलता रहता है । जिस भूमि की पैदावार पत्तों सहित बाजार पहुंच जाती है, जैसे शलजम, प्याज, टमाटर, तम्बाकू, गोभी इत्यादि उन मिट्टियों में पोटेशियम की कमी हो जाती है ।
पोटाश तत्व की कमी के पौधों में लक्षण: पोटाश तत्व की कमी के लक्षणों को कुछ फसलों के उदाहरणों के साथ बताने का एक छोटा सा प्रयास यहां पर है:-

कपास

कपास की पुरानी पत्तियों का नोकों या किनारों से पीला पड़ जाने के बाद में ऊतक मर जाते हैं और पत्तियाँ सूख जाती हैं । पौधों की वृद्धि एवं विकास में कमी तथा तने और जडे़ं पतले – कमजोर हो जाते हैं । फूल व टिण्डे कम लगते हैं तथा कीड़ों, बीमारियों और सूखे का अधिक प्रकोप कम होने लगता है और कपास से रेशे छोटे व कमजोर रहते हैं, खींचने पर तुरन्त टूट जाते हैं, जिससे सही दाम नहीं मिलते ।

 

सरसों

सरसों में पोटाश खाद की कमी शुरू में दिखाई नहीं देती । पोटाश की कमी के कारण पत्तियों के किनारे मुड़ने लगते हैं । बाद में पत्तियों के किनारे पली पड़ने लगते हैं तथा पुरानी पत्तियाँ समय से पहले सूखने लगती हैं । फल्लियाँ कम लगती हैं तथा तेल उत्पादन कम हो जाता है । कमी के लक्षण दिखाई देने का इन्तजार नहीं करना चाहिए और शुरू से ही पोटाश खाद का प्रयोग करना चाहिए ।

 

प्याज

प्याज के पौधों की पत्तियों के सिरे सूख जाते हैं और झुलसे हुए दिखाई देते हैं । कंद का आकार छोटा रह जाता है और उसमें नमी भी ज्यादा होती है। पौधों की बढ़वार रुकने के साथ-साथ कमजोर रहते हैं और बीमारी, कीड़े और सूखा सहन करने की क्षमता कम जो जाती है । कंद की गुणवत्ता व भण्डारण क्षमता भी कम हो जाती है, जो कि उत्पादन लाभ का घटा देती है ।

 

मूंगफली

पुरानी पत्तियों का नोंकों या किनारों में पीला पड़नाा, बाद में उत्तक मरते हैं और पत्तियाँ सूख जाती हैं । पौधों की वृद्धि एवं विकास में कमी तथा तने और जड़ें पतले-कमजोर हो जाते हैं और फल्ली का कोष मजबूत व परिपक्व नहीं हो पाता है ।

 

मक्का

पुरानी पत्तियों का नोंकों व किनारों से पीला पड़ कर पत्तियाँ सूख जाती हैं । तने व जड़ें पतले तथा कमजोर हो जाते हैं । भुट्टे पूरे नहीं भरते तथा सुकड़े हुए दाने मिलते हैं । उपज की गुणवत्ता में कमी तथा कीड़े बीमारियों के साथ सूखे व पाले का अधिक प्रकोप होता है ।

 

गेहूँ

अविकसित पौधे व जड़ें जिससे फसल गिर जाती है और सड़ने लगती है । गेहूँ के दाने कम, छोटे और बदरंग हो जाते हैं । फसल की बीमारियों व रोग से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है ।

 

कंद फसलें

पौधों की अत्यधिक वृद्धि कंद की वृद्धि कम हो जाती है, जिससे कंद की गुणवत्ता में कमी हो जाती है । फास्फोरस उर्वरक का भी हानिकारक प्रभाव पोटाश की कमी के कारण दिखाई देता है ।

1.पोटाश तत्व वाले उर्वरक

पोटाश युक्त उर्वरक देश में निर्मित नहीं होने के कारण विदेशों से खरीदना पड़ता है, जिससे किसानों व सरकार को अधिक धन निवेश करना पड़ता है ।

a)म्यूरेट आॅफ पोटाश

यह उर्वरक उदासीन होने की वजह सेे मृदा में अम्लता या क्षारता पैदा नहीं करना है । इस उर्वरक का प्रयोग तम्बाकू तथा चुकन्द की फसलों में नहीं करना चाहिए, उससे फसल के गुण बिगड़ जाते हैं । आलू, जौ व फल्लीदार फसलों में यह लाभप्र्रद है ।

b)पोटेशियम सल्फेट

चूने वाली मृदाओं में इसका प्रयोग अधिक लाभप्रद होता है । आर्द्र दशाओं में म्यूरेट आॅफ पोटाश की तुलना में यह उर्वरक विशेष उपर्युक्त पाया गया है । यह फलों मेें रस बढ़ाने में उपयुक्त होता है । अनेक बार जिन पौधों में फल नहीं लगते  हैं, वहां पोटेशियम उर्वरक देने से खूब फलने लगते हैं । तम्बाकू, आलू, चुकन्दर, गाजर, प्याज आदि । फसलों में यह विशेष रूप् से उपयोगी पाया जाता है ।

c)पोटेशियम नाइट्रेट

अम्लीय मृदाओं में उपयोग करने पर यह मृदा को पहले उदासीन फिर क्षारीय दशा पैदा करता है ।

d)पोटेशियम मैग्नीशियम सल्फेट

इसे लेटेराईट मृदाओं में गन्ना, मटर आदि फसलों में तथा बिहार की बालुई, लोम तथा चूनादार मृदाओं में जिसमें मैगनीज की मात्रा होती है, प्रयोग किया जाता है ।

e)पोटेशियम सोनाइट

उत्तरी बिहार की बलुई, दोमट तथा चूनेदार मृदाओं में जहां मैग्नीशियम की कमी हो और गन्ना, अन्नास, टमाटर आदि फसलों में प्रयोग किया जाता है ।

2. पोटाश तत्व वाले खाद

टहनियों तथा छोटी-छोटी शाखाओं की राख में जड़ तथा तनों की राख की अपेक्षा अधिक पोटाश रहता है । लकड़ी की राख में पोटाश म्यूरेट आॅफ पोटश के रूप में मिलता है । सन्तरा, आम, अमरूद, केले, आलू, टमाटर आदि फसलों में राख का प्रयोग किया जाता है । बैंगन तथा भिण्डी की फसल पर कीड़ों से बचाने के लिए राख छिड़की जाती है जिससे सही मायने में रोगरोधी क्षमता होता है |अगर घरेलू राख को फसलों पर छिड़का जाये कुल राख का 2.3 से 12.2 प्रतिशत पोटाश तत्व पौधों को मिलता है ।

कोयले की राख कई स्थानों पर उपलब्ध हो पाती है, परन्तु इसमें पोटाश की मात्रा कम पायी जाती है जो कि 0.5 प्रतिशत है । बबूल की राख में 3.5 – 4.5 तथा तम्बाकू के तनों की राख में 3.6 प्रतिशत पोटाश होता है । इसे उत्तम अगर यूक्लिप्लस के पत्तों की राख मि जाये तो सर्वोत्तम होगा क्योंकि इसमें 3.8 प्रतिशत पोटाश  पायी जाती है।

 

पोटाश का नत्रजन व फास्फोरस के साथ संतुलित उपयोग

कई शोध से यह साफ हो गया है कि नत्रजन व फास्फोरस के साथ पोटाश भी मुख्य तत्व है, अगर नत्रजन व फास्फोरस के साथ पोटाश न दिया जाये तो पौधे अपने तने पर खड़ा नहीं रह पाता है । अतः संतुलित मात्रा में तीनों तत्वों का उपयोग आवश्यक है ।

क्रमांक उर्वरक (कि. ग्रा.)
फसल यूरिया डी.ए.पी. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश
1. धान 210 130 100
2. गेहूं 210 130 100
3. ज्वार 145 87 33
4. बाजरा 210 130 50
5. मक्का 210 130 100
6. चना 10 130 50
7. प्याज 217 312 167
8. अरंडी 87 54 41
9. कपास 105 6 50
10. गन्ना 340 130 200
11. आलू 258 174 167

 

उर्वरक उपयोग का समय तथा विधि

पोटाश साधारणतया पोटाश उर्वरक बुवाई या पौध रोपण के समय अन्य उर्वरकों के साथ भूमि में मिला दिया जाता है । लाईन में बोई जाने वाली फसलों में बीज के नीचे या बीज के साइड में मृदा में जड़ वाले स्थान पर उर्वरक डाला जाता है । दूसरी बार छिड़काव करने के लिए बुवाई के 3 – 4 सप्ताह बाद छिड़काव किया जा सकता है । बेहतरीन तरीके से भूमि परिक्षण करके वैज्ञानिक तरीके से उचित मात्रा में उर्वरक प्रयोग करना चाहिए ।

 

 

स्रोत-

  • जवाहरलाल नेहरु विश्ववविधालय जबलपुर

 

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