फसलोत्पादन में जस्ता का महत्व

जस्ता (जिंक) पौधों के लिए मुख्य पोषक तत्व (नाइट्रोजन, फाॅस्फोरस एवं पोटाश) तथा गौण पोषक तत्व (कैल्शियम, मैग्नीशियम एवं सल्फर ) की तुलना में बहुत कम मात्रा में आवश्यक होता है, लेकिन पोषक तत्व की तुलना में इसका महत्व फसल उत्पादन में है । हरित क्रांति के कारण मृदाओं में जिंक की कमी का मुख्य कारण सघन खेती, अधिक उपज देने वाली किस्में, जिंक से मुक्त उर्वरक का प्रयोग एवं जैविक खादों का प्रयोग नही के बराबर करना इत्यादि है, जिससे हमारी मृदा मे पोषक तत्वों का संतुलन खराब हो गया है । फसलोत्पादन में वृद्धि करने के लिए जिंक का मृदाओं में प्रबंधन जरूरी है ताकि बढ़ती हुई आबादी को अनाज, फल-फूल, सब्जी, दाल एवं पशुओं के लिए चारा आदि प्राप्त हो सके ।

 

जस्ते का महत्व

फसलोत्पादन में जस्ते का विशिष्ट योगदान है, क्योंकि मुख्य पोषक तत्वों के समान, भूमियों में जस्ते का पौधा वृद्धि के लिए होना आवश्यक है । जिंक पौधों में आॅक्सीकरण, कार्बोहाइड्रेट्स के रूपान्तरण में आवश्यक है । मृदा से पौधों द्वारा जल के अवशोषण को बढ़ा देता है । प्रोटीन व कैरोेबीन आदि के निर्माण में सहायक है । यह क्लोरोफिल निर्माण में एक उत्प्रेरक का कार्य करता है । जस्ता पौधों में पाये जाने वाले विभिन्न एन्जाइम का महत्वपूर्ण भाग है साथ ही साथ एन्जाइम की क्रियाशीलता को बढ़ाता है । आॅक्सीजन, प्रोटीन संश्लेषण तथा बीज उत्पादन में योगदान है ।

 

भूमि में जस्ते की कमी के कारण

1.अधिक उपज देने वाली फसलों की जातियों का प्रयोग ।
2. गोबर की खाद, हरी खाद तथा कम्पोस्ट जैसी कार्बनिक खादों का प्रयोग कम करना ।
3.सघन खेती ।
4.नाइट्रोजन एवं फाॅस्फोरस उर्वरकों के अधिक प्रयोग करने से जिंक की कमी का होना ।
5.जस्ते की कमी नम भूमि जहां साल भर पानी भरा रहता है तथा लवणीय, क्षारीय, पीट मृदाओं में रहना है ।

 

जिंक की कमी के लक्षण

जिंक की कमी होने पर पौधों में सबसे पहले वृद्धि दर पर प्रभाव पड़ता है । तने की लंबाई घट जाती है तथा पत्ती मुड़ जाती है । मक्का में जिंक की कमी से पत्तियों के आधे भाग में सफेद धारियाँ पड़ जाती हैं, मध्यशिरा तथा पत्तियों के किनारे हरा रंग रहते हैं जो सफेद कली (व्हाईट बड) रोग कहलाता है । जस्ते की कमी के लक्षण नई व पुरानी पत्तियों पर दिखाई देते हैं । पत्तियों का आकार छोटा जो फल वृक्षों में ज्यादा दिखाई पड़ता है, पत्तियाँ मुड़ जाती हैं । धान की रोपाई के 15-20 दिनों बाद पुरानी पत्तियों पर (पौधों के ऊपर से तीसरी या चैथी पत्ती) चाकलेटी गहरे भूरे या पत्तियों पर छोटे-छोटे हल्के पीले रंग के धब्बे दिखाई देते हैं । जोे खैरा रोग के नाम से जाना जाता है । धान की खैरा रोग की सूचना 1966 में डाॅ. वाई.एल.नेने द्वारा गोविन्द वल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय में दी गई थी ।

जस्ते की कमी से सरसों के पौधों  की बढ़वार मन्द पड़ जाती है । 20 दिनों वाली नई पत्तियों की नसों के बीच पत्तियों का रंग पीला सफेद हो जाता है । चना एवं मसूर की पत्तियाँ ऊपर या नीचे प्याले के समान रूप धारण कर लेती हैं । चना एवं मसूर की पत्तियों का बीच वाला हरा रंग लाल भूरे रंग में परिवर्तित हो जाता है और बाद में यह पत्तियाँ सूखने लगती हैं ।

 

जिंक (जस्ता) की कमी की पहचान

जिन मृदाओं में उपलब्ध जिंक की मात्रा 0.6 पीपीएम से कम तथा पौधों में 20 पीपीएम से कम हो तो ऐसी स्थिति में मृदा एवं पौधे जस्ते की कमी वाले कहलाते हैं ।

 

जस्ते की कमी वाले राज्य

पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, गुजरात, तमिलनाडु, कर्नाटक आदि हैं ।

 क्र.  उर्वरक  रासायनिक सूत्र  जिंक प्रतिशत
 १.  जिंक ऑक्साइड  Zno  78%
 २.  जिंक कार्बोनेट  ZnCo3  52%
 ३.  जिंक सल्फाइड  ZnS  67%
४.  जिंक सल्फेट (मोनो हाइट्रेट)  ZnSo4-H2O  35%
५.  जिन सल्फेट (हेप्टाहाइट्रेट)  ZnSo4-7H2O  23%
 ६.  जिंक सल्फेट  Zn3(PO2)  51%

 

अनुशंसा

फसल की बुवाई या रोपाई के समय 25 कि.ग्रा. Znso4 प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में मिला दिया जाता है, जिसका असर चूना युक्त मिट्टी में 4 तथा अन्य मिट्टी में 6 फसलों तक रहता है । इसके प्रयोग से उपज में अच्छी वृद्धि पाई गई है । 25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर प्रत्येक 3 वर्ष में व्यवहार करने की अनुशंसा की जाती है, परन्तु धान-गेहूं फसल-चक्र के लिए 50 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर प्रति 2 वर्ष में व्यवहार करना लाभदायक होता है । अगर प्रत्येक वर्ष मूँग या प्रत्येक 2 वर्ष पर एक बार हरी खाद के रूप में ढैंचा का व्यवहार हरते हैं तो सूक्ष्म पोषक तत्व की कम मात्रा डालनी चाहिए ।

जैविक खाद जैसे कम्पोस्ट या गोबर की सड़ी खाद को जिंक सल्फेट के साथ मिलाकर मिट्टी में डालने से जस्ते की कार्यक्षमता बढ़ जाती है । 50 क्विंटल कम्पोस्ट तथा 12.5 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में डालने से उतना लाभ होता है, जितना कि 25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर देने से होता है । जैविक खादों के व्यवहार से जिंक सल्फेट की अनुशंसित मात्रा में 50 प्रतिशत तक की बचत की जा सकती है ।

 

पौधो पर छिड़काव विधि

इस विधि से ग्रसित पौधों को बचाया जा सकता है । इसके लिजए 5 ग्रा. जिंक सल्फेट एवं 2.5 ग्राम बुझा हुआ चूना प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर खड़ी फसल पर 10-15 दिनों के अन्तराल पर 2-3 छिड़काव कर देने से जस्ते की कमी के लक्षण दूर हो जाते हैं और फसलों की उपज में 30-40 प्रतिशत तक वृद्धि होती है ।

इस प्रकार मिट्टी जाँच कराकर जिंक का प्रबंधन कर अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है

स्रोत-

  • गहरा पानी धान अनुसंधान उपकेन्द्र बिरौल, दरभंगा (बिहार)
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