फलदार पौधों का प्रवर्धन

पौधों का प्रवर्धन दो प्रकार का होता है-

1. बीज प्रवर्धन
2. वानस्पतिक प्रवर्धन

1. बीज प्रवर्धन

इस प्रकार के प्रवर्धन में बीजों का उपयोग किया जाता है।

विशेषताएं

1. नवीन किस्मों का विकास – फल तथा फूलों की नवीन किस्मों का विकास बीज द्वारा ही सम्भव हो पाता है।
2. अनिवार्य विधि – फलों की कुछ ऐसी प्रजातियां हैं, जिन्हें वानस्पतिक विधि से प्रवर्धित नहीं किया जा सकता है, इसलिए बीज प्रवर्धन, उनके लिए एक अनिवार्य विधि है,जैसे – पपीता आदि।

3. सरलता – बीज प्रवर्धन अन्य प्रवर्धन विधियों की तुलना में सरल है। उपयुक्त समय पर उपयुक्त वातावरण में बीज की बीजाई करके पौधे तैयार किये जा सकते हैं।

4. मूलवृंत तैयार करने में सहायक – कलिकायन और ग्राफटिंग विधि में पहले मूलव्रत तैयार किया जाता है, जिन पर कलिकायन और गा्रफटिंग की जाती है।

कमिया
  • पैतृक गुणों में विभिन्नता – बीज से प्रवर्धित पौधों मे उनके पैतृक गुणों में विभिन्नता रहती है। उनके विशिष्ट गुणों को बनाये रखना सम्भव नहीं होता है।
  •  किशोर प्रावस्था में वृधि- बीजू पौधों में किशोर प्रावस्था अधिक समय तक चलती है। अतः वृक्षों में फल आने के लिए अधिक समय की आवश्यकता होती है। नींबू के बीजू पौधे में 7 से 8 वर्ष में फल लगते हैं, जबकि वानस्पतिक विधि से तैयार किया गया पौधा 3 से 4 वर्ष में ही फलने लगता है।
  •  आकार में वृधि- बीजू पौधे आकार में अधिक फैले हुए और ऊचे रहते हैं। इसलिए इनमें उद्यानिक क्रियाएजैसे – रोग तथा कीटनाशक औषधियों का उपयोग या छिड़काव, कंटाई, छंटाई तथा फलों की तुड़ाई आदि, करने में असुविधा होती है। बीजू पौधे अधिक फैलने के कारण प्रति हेक्टर पौधों की संख्या कम हेाती है।
  • मूलव्रत के लाभ से वंचित – बीज प्रवर्धन में मूलवंृत के लाभ या हानि प्राप्त करने की संभावना नहीं रहती है।

2. वानस्पतिक प्रवर्धन

वानस्पतिक प्रवर्धन के अंतर्गत बीज के अतिरिक्त पौधे के अन्य अंगों – जड़, तना, पातियों तथा कलिकाओं का उपयोग पौधे तैयार करने के लिए किया जाता है। इस विधि में कोशिकाओं का समसूत्री विभाजन होता है। जिसमें गुणसूत्रों का विभाजन नहीं होता है। जनन कोशिकाए° इस विधि में क्रियाशील नहीं होती हैं, अर्थात नर तथा मादा कोशिकाओं का मिलन नहीं होता है।

विशेषताएं

 किस्मों के पैतृक गुणों का स्थायीकरण 

वानस्पतिक प्रवर्धन से तैयार किये गये पौधों में पैतृक विभिन्नता नहीं आ पाती है, अतः वे अपने मातृ वृक्षों के गुणों के समान ही होते हैं। वृधि पुष्पन, फलन तथा फलों की गुणवता आदि गुणों में परिवर्तन नहीं आता है।

 बीज के अभाव की पूर्ति 

पौधों की कुछ ऐसी प्रजातियां होती है, जो प्रवर्धन के लिए बीज उत्पन्न नहीं करती हैं अथवा उनके बीजों में प्रवर्धन की क्षमता कम होती है। केला, अनन्नास, अंजीर, बीज रहित नींबू, अमरूद, अंगूर आदि में बीज, प्रवर्धन के लिए उतने सक्षम नहीं होते हैं। ऐसी परिस्थितियों में इन्हें उनके विभिन्न अंगों द्वारा वानस्पतिक विधि में  किया जाता है।

अनुपयुक्त बीजों का विकल्प 

कुछ ऐसी प्रजातियां हैं जो बीज तो उत्पन्न करती हैं किन्तु बीज के अंकुरण में कठिनाई होती है। उनमें या तो सुप्तावस्था होती है अथवा उनके अंकुरण के लिए विशेष उपचार की आवश्यकता होती है, ऐसी परिस्थितियों में इनका प्रवर्धन वानस्पतिक विधियो से सुगमतापूर्वक किया जा सकता है। गुलाब, अनार तथा शहतूत आदि के पौधें वानस्पतिक विधि से बीज की अपेक्षा सरलता से तैयार किये जा सकते है।

वृक्षों में किशोर-प्रावस्था की कमी – इस विधि से तैयार पौधों में परिपक्वता शीघ्र आ जाती है। इनमें किशोर प्रावस्था की अवधि कम हो जाती है।

कमिया
  • नवीन किस्मों का विकास संभव नहीं होता – वानस्पतिक प्रवर्धन द्वारा फल व पुष्प की नवीन किस्मों का विकास नहीं किया जा सकता है।
  • अधिक तकनीकी कुशलता की आवश्यकता – वानस्पतिक प्रवर्धन की विधियों, जैसे – कलिकायन एवं ग्राफटिंग को सम्पन्न करने के लिए अभ्यास की आवश्यकता होती है। पौधों की स्थिति, पौधों की उम्र तथा वायुमण्डलीय वातावरण का भी समुचित ध्यान
    रखना पड़ता है।
  • अधिक समय की आवश्यकता – कलिकायन और ग्राफटिंग विधि से पौधे तैयार करने में सामान्यतः डेढ़ से दो वर्ष लग जाते हैं। मूलवृत तैयार करने में एक वर्ष लग जाता है।
  •  अतिरिक्त व्यय तथा परिश्रम – मूलवृंत तैयार करना, सांकुरडाली या उपचार करना तथा पौधे तैयार करने के पश्चात उनकी सघन रूप से देखभाल करना आदि विशेष कार्यों के सम्पन्न करने में व्यय तथा परिश्रम की अधिक आवश्यकता होती है। यही कारण है कि वानस्पतिक विधि से तैयार पौधे अधिक महंगे होते हैं।

 

स्रोत

  • चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हरियाणा

 

 

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