पेन में मत्स्य-पालन द्वारा उत्पादकता में वृद्धि

बिहार राज्य जलीय और मात्स्यिकी संसाधनों से समृद्ध है। बिहार के जलीय क्षेत्रों में आर्द्र क्षेत्रों की बहुलता है जिन्हें स्थानीय भाशा में चैर तथा मान कहा जाता है, जो उच्च मत्स्य उत्पादन की क्षमता रखते हैं। परन्तु वार्शिक बाढ़, अवांछित जीवों (परभक्षी मछलियां, सांप, मेढ़क तथा पक्षी आदि), जलीय पौधे तथा अनियंत्रित जल क्षेत्र के कारणों से पूरे जल निकाय में मत्स्य उत्पादन करना कठिन हो जाता है। अतः ऐसे जल क्षेत्रों में पेन (घेरे) लगाकर मत्स्य-पालन सबसे उपयुक्त, सरल एवं सस्ती तकनीक माना जाता है। साथ ही साथ पेन में वैज्ञानिक तरीके से मात्स्यिकी प्रबंधन, उपयुक्त प्रजाति, आकार, संचयन तथा संग्रहण से उत्पादन कई गुणा बढ़ाया जा सकता है।

 

पेन क्या है?

पेन जल निकाय में बने उस घेरे को कहा जाता है जिसमें मछली पालन किया जाता है। पेन जाल या बांस की दीवार से बना एक स्थिर घेराव होता है जो ऊपर की तरफ खुला होता है तथा इसका निचला भाग जल स्त्रोत के तल में खुला रहता है।

 

पेन में मछली पालन के लाभ

खुले तथा अनियंत्रित जल क्षेत्र में आसानी से पालन प्रबंधन तथा प्रग्रहण किया जा सकता है। खरपतवारों, जलीय पौधों तथा अवरोध वाले जल क्षेत्रों में भी मत्स्य-पालन किया जा सकता है। पेन के घेरे में जल निकाय की निचली सतह मछलियों की पहुंच में होती है जहाँ से मछलियां प्राकृतिक आहार ले सकती हैं जो उनके विकास एवं वृद्धि के लिए उपयोगी है। अपनी आवश्यकता के अनुसार विशेष प्रजातियों का चयन कर पालन किया जा सकता है, जिससे अवांछित मछलियों तथा पौधों से भोजन एवं आक्सीजन के लिए प्रतिस्पर्धा नहीं रहती है। पूरक आहार तथा मछलियों के प्रबंधन में सुविधा होती है। परभक्षी तथा शिकारी जीवों से सुरक्षित रहती हैं एवं प्रग्रहण में सुविधा होती है। फलस्वरूप अत्याधिक मत्स्य उत्पादन होता है।

 

पेन में मछली पालन के लिए जल क्षेत्रों में स्थान का चयन

पेन की स्थापना के लिए चयनित प्रजातियों के अनुसार पेन के क्षेत्र में वर्श भर में 4-8 महीनों तक स्थिर या धीमी गति से प्रवाहित जल होना चाहिए। पेन के लिए हल्की ढ़लान तथा 1 से 1.5 पानी की गहराई वाला स्थान उपयुक्त माना जाता है। चयनित स्थान की निचली सतह सख्त तथा तीव्र जल एवं अत्याधिक वायु प्रवाह से मुक्त होनी चाहिए। पेन का क्षेत्र प्रदूशण मुक्त होना चाहिए। पेन स्थापना का स्थान खुला होना चाहिए ताकि सूर्य की किरणें पेन के घेरे में पहुंच सके।

 

पेन की आकृति और आकार

यह वर्गाकार, आयताकार या गोल हो सकता है। गोल पेन अन्य पेन की अपेक्षा किफायती होता है। मत्स्य बीज पालन में बेहतर प्रबंधन तथा उत्पादन के लिए पेन का आकार 0.05-0.2 हे. उपयुक्त होता है।

 

पेन की सामग्री और निमार्ण

इसके निर्माण के लिए स्थानीय स्तर पर उपलब्ध बांस जैसी सस्ती तथा टिकाऊ सामग्री का प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा जाल का भी प्रयोग किया जाता है। पेन की दीवार को चीरे हुए बांस की पट्टियों तथा जाल को नारियल या नायलाॅन की रस्सी से इस प्रकार बुना जाता है ताकि पानी का आदान प्रदान हो सके। हर 2 मी0 के अंतराल पर बांस का सीधा खम्भा गाढ़ा जाता है ताकि पेन की दीवार मज़बूती से खड़ी रहें। पेन की दीवार को तेज़ हवा से बचाने के लिए हर तीसरे खम्भे के साथ एक अतिरिक्त तिरछा खम्भा गाढ़ा जाता है। मत्स्य बीज को पेन से बाहर आने से बचाने के लिए दीवार के अंदर एक पतला जाल सिला जाता है।

पेन की दीवार जल स्तर से कम से कम 0.5 मी0 ऊपर रहनी चाहिए ताकि मछलियां कूद कर बाहर नहीं निकल सकें। बांस के स्थान पर एच.डी.पी.ई. जाल का प्रयोग भी किया जा सकता है, जो आर्थिक दृश्टि से अधिक किफायती होता है। इसके अलावा एक मज़बूत तथा मोटा जाल (3.5 फीट ऊंचाई) से पेन के भीतर रहने वाला भाग बनाया जाता है।

अंगुलिका प्राप्त करने के लिए जाल के फंदो का आकार 4 एम.एम. तथा बड़ी मछली उत्पादन के लिए 10 एम.एम. से अधिक नहीं होना चाहिए, मोटे जाल के निचले किनारे से 7-8 एम.एम. मोटाई वाली रस्सी तथा ऊपरी किनारे से 4-5 एम.एम. मोटाई की रस्सी सिली जाती है। इन्हीं रस्सियों की सहायता से जाल को खम्भों से बांधा जाता है, सीधे गाढ़े गए खम्भों के निचले सिरे में एक फांक बनाई जाती है तथा मोटे जाल के निचले सिरे वाली रस्सी में लूप बनाये जाते है। बांस की फांक को लूप में कसकर गाढ़ दिया जाता है ताकि जाल की दीवार मिट्टी में धंस जाए।

 

पेन में मत्स्य बीज पालन के चरण

उचित समय पर आवश्यक प्रजातियों के बीज, बीज की माप या आकार तथा उनकी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध्ता मत्स्य पालन की सफलता के मुख्य घटक हैं। इसी दृश्टिकोण से मत्स्य बीज पालन आर्थिक रूप से एक व्यवहार्य उद्यम के रूप में उभर रहा है। अन्य मत्स्य पालन तकनीकों की तुलना में पेन में मत्स्य बीज पालन एवं प्रबंधन काफी सरल होता है। साधारणतः पेन में मत्स्य बीज पालन के दो चरण होते हैं-

(1) धानी से अंगुलिका का उत्पादन,
(2) अंगुलिका से बड़ी मछली का उत्पादन

 

संचयन से पूर्व प्रबंधन

पेन में धानी से अंगुलिका उत्पादन के पहले जल क्षेत्र को अच्छी तरह से साफ कर लेना चाहिए। इसके लिए जाल चलाकर जल क्षेत्र में उपस्थित मत्स्यभक्षी मछलियों को निकाल लेते है, जलीय पौधों को हाथ से उखाड़कर बाहर किया जा सकता है। मछली के प्राकृतिक भोजन के लिए खाद का छिड़काव करना भी आवश्यक होता है। साथ ही साथ जल की गुणवत्ता को बनाये रखने के लिए 250-300 कि.ग्रा./हे. की दर से चूने का छिड़काव करना चाहिए।

 

संचयन

पेन में जलीय वातावरण एवं पारिस्थितिकी के अनुसार प्रजाति का चयन कर सही घनत्व दर तथा आवश्यक माप के अनुसार संचयन करना चाहिए। संचयन दर प्राकृतिक भोजन तथा पानी की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। पेन में मत्स्य पालन के लिए कार्प प्रजातियां जैसे (कतला, रोहू, नयनी, बाटा तथा रेवा) उपयुक्त होती  हैं। इनके अलावा ग्रास कार्प, सिल्वर कार्प, कामन कार्प, वायु स्वासी मछलियां जैसे (मागुर, सिंघी, केवई), तेलापिया, पंगास तथा मीठा जल झींगों का भी पालन किया जाता है। जिस स्थान पर जलीय पौधे हों वहां ग्रास कार्प का पालन किया जाना चाहिए। इसके अलावा विशेष आकार के मछली उत्पादन के लिए आवश्यक माप का बीज संचयन करना है।

यदि हमें अंगुलिकाओं उत्पादन करना है तो पोना (जीरा अथवा धानी) का संचयन करना चाहिए और अगर हमें बड़ी मछलियों का उत्पादन करना है तो अंगुलिकाओं (80-100 एम.एम.) का संचयन करना चाहिए। पेन से अंगुलिकाएं प्राप्त करने के लिए साधारणतः 40-50 एम.एम. (4-5 से.मी.) के पोना 2,50,000 प्रति हे. की दर से संचयन किया जाता है जबकि बड़ी मछलियों के उत्पादन के लिए 100 एम.एम. (10 से.मी.) की अंगुलिकाओं का संचयन 4,000-5,000 प्रति हे. की दर से किया जाता है। साधारणतः चैर में जलीय पौधे एवं मलवा अथवा अपरद अधिक मात्रा में होती है। अतः ग्रास कार्प, कामन कार्प अथवा मृगल का संचयन अधिक होता है। प्रजातियों की संचयन दर निम्नलिखित रूप में होती है रू.

ग्रास कार्प – 50%
कामन कार्प – 20%
कतला – 10%
रोहू – 10%
नयनी – 10%

 

संचयन उपरांत प्रबंधन

मछलियों की बेहतर वृद्धि के लिए प्राकृतिक आहार के अलावा पूरक आहार भी दिया जाना आवश्यक है। पूरक आहार षारीरिक भार के 2-5 प्रतिषत की दर से दिन में 2 बार (सुबह एवं षाम) को दिया जाना चाहिए। मछलियों को षारीरिक रूप से स्वस्थ रखने के लिए उनके आवास तथा जल की गुणवत्ता का ध्यान रखना चाहिए तथा नियमित रूप से स्वास्थ्य एवं जल की जांच करनी चाहिए। समय-समय पर मछलियों की वृद्धि (लम्बाई और भार) की भी जांच करनी चाहिए। मछली में बीमारी होने पर उसे बाहर निकालकर तुरंत उपचार करना चाहिए। मृत मछली को तुरंत बाहर निकाल देना चाहिए। पेन की दीवार की सफाई एवं मरम्मत करनी चाहिए।

 

प्रग्रहण

निर्धारित माप के हो जाने के बाद सुबह या षाम के समय प्रग्रहण करना चाहिए। चूंकि पेन में थोड़ी बड़ी माप के पोनों का संचयन किया जाता है, अतः इनकी उत्तरजीविता ज्यादा होती है। अंगुलिकाएं 2 महीने में 10 से0मी0 (15 ग्रा0) ये अधिक हो जाती हैं। 2 महीने में प्रति हे. 127930 अंगुलिकाओं का उत्पादन किया जा सकता है जबकि बड़ी मछली (औसत भार 800 ग्रा0) उत्पादन में 2,880-3,600 कि0ग्रा0/हे0 उपज 6 महीनों में प्राप्त की जा सकती है।

 

आर्थिकी

पेन में मत्स्य बीज पालन की आर्थिकी निकाली गयी है जोकि जन्दाहा (वैषाली) में प्रचलित मूल्यों पर आधारित है। प्रथम वर्श में अंगुलिकाओं की 2 तथा द्वितीय और तृतीय वर्श में 3 फसलें प्राप्त की जा सकती हैं। प्रथम वर्श 0.1 हे0 के पेन के लिए स्थिर लागत रू. 11,350/- तथा परिवर्तनषील लागत रू. 35,720/- परिकलित की गयी है। द्वितीय और तृतीय वर्श में मज़दूर तथा सामग्री के रूप में थोड़ा अतिरिक्त व्यय होता है। 0.1 हे0 के पेन से प्रथम वर्श रू. 29,688/- तथा द्वितीय और तृतीय वर्श रू. 58,957/- की षुद्ध आय प्राप्त की जा सकती है। पेन में मत्स्य बीज पालन के लिए ठरूब् (लाभः खर्च) अनुपात 1.93 प्राप्त किया गया है। इसी प्रकार एक हेक्टर पेन में बड़ी मछली उत्पादन से 6 महीानों में 3,45,600-4,32,000 रू. की आय प्राप्त की जा सकती है।

 

 

Source-

  • Central Inland Fisheries Research Institute, Barrackpore
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