पान की खेती की विधी / Betel leaf farming

 उत्तर भारत में पान की खेती हेतु कर्षण क्रियायें 15 जनवरी के बाद प्रारम्भ होती है। पान की अच्छी खेती के लिये जमीन की गहरी जुताई कर भूमि को खुला छोड देते हैं। उसके बाद उसकी दो उथली जुताई करते हैं, फिर बरेजा का निर्माण किया जाता है। यह प्रक्रिया 15-20 फरवरी तक पूर्ण कर ली जाती है। तैयार बरेजों में फरवरी के अन्तिम सप्ताह से लेकर 20 मार्च तक पान बेलों की रोपाई पंक्ति विधि से दोहरे पान बेल के रूप में की जाती है उल्लेखनीय है कि पान बेल के प्रत्येक नोड़ पर जडें होती है, जो उपयुक्त समय पाकर मृदा में अपना संचार करती है व बेलों में प्रबर्द्वन प्रारम्भ हो जाता है।

बीज के रोपण के रूप में पान बेल से मध्य भाग की कलमें ली जाती है, जो रोपण के लिये आदर्श कलम होती है। पान की बेल में अंकुरण व प्रबर्द्वन अच्छा हो इसके लिये पान के कलमों को घास से अच्छी प्रकार मल्चिंग करते हुये ढकते हैं व तीन समय पानी का छिडकाव करते हैं। चूंकि मार्च से तापमान काफी तीव्र गति से बढता है। अतः पौधों के संरक्षण हेतु पानी देकर नमी बनायी जाती है, जिससे कि बरेजों में आर्द्रता बनी रहे। पान बेल के अच्छे प्रवर्द्वन हेतु बेलों के साथ-साथ सन की खेती भी करते हैं, जो पान बेलों को आवश्यकतानुसार छाया व सुरक्षा प्रदान करता है।

उल्लेखनीय है कि पान के बेलों को यदि संरक्षित नही किया जाता है, तो बेलों में ताप का शीघ्र असर होता है व बेले में सिकुडन आती है व पत्तियां किनारे से झुलस जाती है, जिससे उत्पादन प्रभावित होता है। अतः पान की अच्छी खेती के लिये सावधानी और अच्छी देखभाल की अत्यन्त आवश्यकता होती है। अच्छी खेती के लिये आवश्यक है कि पान के कलम का उपचार फफूदनाशक से करने के साथ उन्हें वृद्धि नियमक से भी उपचारित करें, जिससे कि जड़ों का उचित विकास हो सके।जैसे-एन0ए0ए0,आई0बी0ए0 आदि।

अच्छी खेती के लिये पंक्ति से पंक्ति की उचित दूरी रखना आवश्यक है। इसके लिये आवश्यकतानुसार पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30×30 सेमी0 या 45×45 सेमी0 रखी जाती है।

भूमि शोधन

पान की फसल को प्रभावित करने वाले जीवाणु व फंफूद को नष्ट करने के लिये पान कलम को रोपण के पूर्व भूमि शोधन करना आवश्यक है। इसके लिये बोर्डो मिश्रण के 1 प्रतिशत सांद्रण घोल का छिड़काव करते हैं।

कलमों का उपचार

पान के कलमों को रोपाई के समय के साथ-साथ प्रबर्द्वन के समय भी उपचार की आवश्यकता होती है। इसके लिये बुवाई के पूर्व भी मृदा उपचारित करने हेतु 50 प्रतिशत बोर्डा मिश्रण के साथ 500 पी0पी0एम0 स्ट्रेप्टोसाईक्लिन का प्रयोग करते हैं। उसके बाद बुवाई के पूर्व भी उक्त मिश्रण का प्रयोग बेलों को फफूंद व जीवाणुओं से बचाने के लिये किया जाता है।

 

सहारा देना

पान की खेती के लिये यह एक महत्तवपूर्ण कार्य है। पान की कलमें जब 6 सप्ताह की हो जाती है तब उन्हें बांस की फन्टी,सनई या जूट की डंडी का प्रयोग कर बेलों को ऊपर चढाते हैं। 7-8 सप्ताह के उपरान्त बेलों से कलम के पत्तों को अलग किया जाता है, जिसे ”पेडी का पान“ कहते है। बाजार में इसकी विशेष मांग होती है तथा इसकी कीमत भी सामान्य पान पत्तों से अधिक होती है। इस प्रकार 10-12 सप्ताह बाद जब पान बेलें 1.5-2 फीट की होती है, तो पान के पत्तों की तुडाई प्रारम्भ कर दी जाती है।

जब बेजें 2.5-3 मी0 या 8-10 फीट की हो जाती है, तो बेलों में पुनः उत्पादन क्षमता विकसित करने हेतु उन्हें पुनर्जीवित किया जाता है। इसके लिये 8-10 माह पुरानी बेलों को ऊपर से 0.5-7.5 सेमी0 छोडकर 15-20 सेमी0 व्यास के छल्लों के रूप में लपेट कर सहारे के जड के पास रख देते हैं व मिटटी से आंशिक रूप से दबा देते है व हल्की सिंचाई कर देते हैं।

उल्लेखनीय है कि बेलों को लिटाने से उनकी बढबार सीमित हो जाती है और पान तोडने का कार्य सरल हो जाता है। साथ ही कुंडलित बेलों से अधिक मात्रा में किल्ले फूटते हैं व जडें निकलती है, जिससे नई बेलों को अधिक भोजन मिलता है व उत्पादन अच्छा मिलता है।

सिंचाई व जल निकास व्यवस्था

उत्तर भारत में प्रति दिन तीरन से चार बार (गर्मियों में) जाडों में दो से तीनबार सिंचाई की आवश्यकता होती है। जल निकास की उत्त व्यवस्था भी पान की खेती के लिये आवश्यक है। अधिक नमी से पान की जडें सड जाती है, जिससे उत्पादन प्रभावित होता है। अतः पान की खेती के लिये ढालू नुमा स्थान सर्वोत्तम है।

 

अन्त शस्य

इसकी खेती काफी लागत की खेती होती है। अतः अच्छे लाभ के लिये पान की खेती में अन्तः शस्य की फसलों का उत्पादन किया जाना आवश्यक है। इसके लिये उत्तर भारत में पान की खेती के साथ-साथ परवल,कुन्दरू, तरोई, लौकी,खीरा, मिर्च, अदरक, पोय,रतालू,पीपर आदि की खेती सफलतापूर्वक की जाती है।

 

फसल चक्र

अच्छे पान की खेती के लिये खाली समय में अच्छे फसल चक्र का प्रयोग करना चाहिये। इसके लिये दलहनी फसलों यथा-उर्द,मूंग,अरहर,मूंगफली व हरे चारे की फसलें यथा-सनई,ढैंचा,आदि की खेती करनी चाहिये। जिससे कि मृदा में नत्रजन की अच्छी मात्रा उपलब्ध हो सके।

उर्वरक की आवश्यकता

पान के बेलों को अच्छा पोषक तत्व प्राप्त हो इसके लिये प्रायः पान की खेती में उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है। पान की खेती में प्रायः कार्बनिक तत्वों का प्रयोग करते हैं। उत्तर भारत में सरसों ,तिल,नीम या अण्डी की खली का प्रयोग किया जाता है, जो जुलाई-अक्टूबर में 15दिन के अन्तराल पर दिया जाता है। वर्षाकाल के दिनों में खली के साथ थोडी मात्रा में यूरिया का प्रयोग भी किया जाता है।

प्रयोग की विधि

खली को चूर्ण करके मिटटी के पात्र में भिगो दिया जाता है तथा 10 दिन तक अपघटित होने दिया जाता है। उसके बाद उसे घोल बनाकर बेल की जडों पर दिया जाता है। इसे और पौष्टिक बनाने के लिये उस घोल में गेहूं चावल और चने के आटे का प्रयोग भी करते हैं।

मात्रा

प्रति है0 02 टन खली का प्रयोग पान की खेती के लिये पूरे सत्र में किया जाता है।उल्लेखनीय है कि प्रति है0 पान बेल की आवश्यकता नाइट्रोजनःफास्फोरसःपोटेशियम का अनुपात क्रमशः 80:14:100 किग्रा0 होती है, जो उक्त खली का प्रयोग कर पान बेलों को उपलब्ध करायी जाती है।

नोट:- 1. पान बेलों के उचित बढबार व बृद्वि के लिये सूक्ष्म तत्वों और बृद्वि नियामकों का प्रयोग भी किया जाता है।

2. भूमि शोधन हेतु बोर्डोमिश्रण के 1 प्रतिशत सान्द्रण का प्रयोग करते हैं तथा वर्षाकाल समाप्त होने पर पुनः बोर्डोमिश्रण का प्रयोग (0.5 प्रतिशत सान्द्रण) पान की बेलों पर करते हैं।

बोर्डोमिश्रण तैयार करने के विधि

01 किग्रा0 चूना (बुझा चूना) तथा 01 किग्रा0 तुतिया अलग-2 बर्तनों में (मिटटी) 10-10 ली0 पानी में भिगोकर घोल तैयार करते हैं, फिर एक अन्य मिटटी के पात्र में दोनों घोलों को लकडी के धार पर इस प्रकार गिराते हैं कि दोनों की धार मिलकर गिरे। इस प्रकार तैयार घोल बोर्डामिश्रण है। इस 20 ली0 मिश्रण में 80 ली0 पानी मिलाकर इसका 100 ली0 घोल तैयार करते हैं व इसका प्रयोग पान की खेती में करते हैं।

 

प्रयोग विधि

1. भूमि शोधन हेतु 24 घंटे पूर्व पक्तियों में बोर्डोमिश्रण के घार का छिड़काव करते हैं।।

2. खडी फसल मे माह में एक बार बोर्डोमिश्रण का प्रयोग जुलाई से अक्टूबर तक कर सकते हैं।

पान की प्रमुख प्रजातियां

उत्तर भारत में मुख्य रूप से जिन प्रजातियों का प्रयोग किया जाता है, वे निम्न है- देशी,देशावरी, कलकतिया, कपूरी, बांग्ला,सौंफिया, रामटेक, मघई, बनारसी आदि।

मिटटी का प्रयोग

पान बेल की जडें बहुत ही कोमल होती है, जो अधिक ताप व सर्दी को सहन नही कर पाती है। पान की जडों को ढकने के लिये मिटटी का प्रयोग किया जाता है। जून, जुलाई में काली मिटटी व अक्टूबर, नवम्बर में लाल मुदा का प्रयोग करते हैं।

निराई-गुडाई व मेड़ें बनाना

पान की खेती में अच्छे उत्पादन के लिये समय-समय पर उसमें निराई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है। बरेजों से अनावश्यक खरपतवार को समय-समय पर निकालते रहना चाहिये। इसी प्रकार सितम्बर, अक्टूबर में पारियों के बीच मिटटी की कुदाल से गुड़ाई करके 40-50 सेमी0 की दूरी पर मेड़ बनाते हैं व आवश्यकतानुसार मिटटी चढ़ाते हैं।

Source-

  • vikaspedia.in

 

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