पान पाइपरेसी कुल का पौधा है । यह एक बहुवर्षीय, सदाबहार, लत्तरदार, उभयलिंगी एवं छाया पसंद करने वाली लता है जिसे नकदी फसलों में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । पान की फसल से हमारे देश को प्रति वर्ष लगभग 7 सौ करोड़ रुपये की आमदनी होती है । देश में पान का कुल रकवा 51,700 हेक्टेयर है । जिसमें बिहार कुल रकवा 3000 हेक्टेयर है पान का हमारे सांस्कृतिक, धार्मिक एवं सामाजिक रीतिरिवाजों से घनिष्ठ संबंध रहा है ।
1. जलवायु
पान एक उष्ण कटिबंधीय पौधा है तथा इसके पैदावार के लिए अनुकूल परिस्थितियां आवश्यक है । इसकी बढ़वार नम, ठंडे व छायादार वातावरण में अच्छी होती है । बिहार राज्य की जलवायु अधिक गर्म और ठंडे होने के कारण इसकी खेती खुले खेतों में नहीं की जा सकती, इसलिए इसे कृत्रिम मंडप के अंदर उगाया जाता है जिसे बोलचाल की भाषा में बरेजा या बरेठा कहते हैं । पान की खेती शुष्क उत्तरी-पश्चिमी भाग को छोड़कर पूरे भारतवर्ष में की जाती है । इसकी खेती के लिए उपयुक्त तापमान 15-400 से., आर्द्रता 40-80% एवं वर्षा प्रतिवर्ष 2250-4750 मि.मी. होनी चाहिए । कम वर्षा (1500-1700 मि.मी.) वाले क्षेत्रों में इसकी खेती के लिए हल्की एवं बार-बार सिंचाई (गर्मी में प्रतिदिन एवं जाड़े में 3-4 दिनों के अंतराल पर) आवश्यक है । बरसात के दिनों में पान के बरेजा में अच्छी जल निकास की व्यवस्था भी अत्यन्त आवश्यक है ।
2. उपयुक्त भूमि का चुनाव
हमारे देश में पान का बेल हर प्रकार की भूमि में उगाई जाती है, परन्तु अच्छी पैदावार के लिए ऊँची, ढालू, उचित जल निकास वाली बलुई दोमट या बलुई मटियारी, उच्च कार्बनिक स्तर से भरपूर जीवांश वाली मिट्टी, जिसका पी.एच.मान 5.6 से 8.2 हो, पान की खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है । प्रायः तालाबों के मेढ़ या ऊँचे स्थानों पर पान की खेती की जाती है ।
जिस क्षेत्र में पान लगाना हो, वहां कम से कम 15 से.मी. मोटी परत वाली तालाब की काली मिट्टी (कैवाल मिट्टी) डालना उपयुक्त पाया गया है । जल निकासी के दृष्टिकोण से बरेजा के स्थान को ढालनुमा बनाना लाभदायक है । पानी का भराव या ठहराव होने से पान बरेजा में रोग लगने का डर रहता है । पान की खेती के लिए सालों भर सिंचाई की व्यवस्था सुनिश्चित होनी चाहिए ।
3. भूमि/खेत की तैयारी
बरेजा बनाने से पहले ही खेत की प्रथम जुताई अप्रैल-मई महीने में मिट्टी पलटने वाले हल से कर देनी चाहिए ताकि सूर्य की कड़ी धूप से मिट्टी में उपस्थित हानिकारक कीड़े-मकोड़े के अंडे, लारवा, प्यूपा मर जाएं तथा मिट्टीजनित फफूंद/जीवाणु के बीजाणु, सूत्रकृमि एवं खर-पतवार नष्ट हो जाए । बरेजा निर्माण के 20-25 दिन पूर्व देशी हल से अंतिम जुलाई करके मिट्टी को भुरभुरी कर देनी चाहिए ।
पान के नये बरेजा में प्रारंभिक सूत्रकृमि की रोकथाम के लिए कार्बोफ्यूराॅन (3G) 15.20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर या नीम की खली 0.5 टन कार्बोफ्यूराॅन (3G) 15.20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए । पुराने पान लगे बरेजा में कार्बोफ्यूराॅन नहीं डालना चाहिए क्योंकि इसका अवशेष पत्तियों में बचा रह जाता है । अतः पत्तियों की तुड़ाई के 60-70 दिन उपरांत ही पुराने बरेजा में कोई रासायनिक दवा का छिड़काव करना चाहिए जो स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहतर है ।
4. बरेजा निर्माण
जिस भूमि पर बरेजा बनाना होता है वहां सबसे पहले पतली रस्सी एवं पैमाना की सहायता से प्रस्तावित क्षेत्रफल नाप लेते हैं । उसके बाद चूने से एक सीधी लकीर क्यारी बनाने के लिए खींच देते हैं । इन लकीरों पर एक मीटर के अंतराल पर 3-4 मीटर लम्बे बांस गाड़ देते हैं । 2.5 मीटर की ऊँचाई पर बांस की कमचियों से लंबाई और चैड़ाई दोनों तरफ से बांध कर छप्पर जैसा बना देते है । इस छप्पर को खर-पुआल से ढक देते हैं तथा बांस की छोटी-छोटी कमचियों के सहारे बांध देते हैं ताकि छत (खर-पुआल) हवा में उड़ न सकें ।
अब छत की ऊँचाई के बराबर इस मंडप के चारों ओर चारदिवारी की तरह टटिया से घेर देते हैं लेकिन ध्यान रहे कि पूर्व दिशा की टटिया पतली तथा उत्तर व पश्चिम दिशा की मोटी तथा ऊँची बांधनी चाहिए ताकि इन दिशाओं से आने वाली ’लू’ का असर कम हो ।
5. बरेजा की उपयोगिता
बरेजा पान को गर्मी एवं ठंड दोनों से बचाती है और जाड़े में जब तापमान 100ब् से कम हो जाता है तब पौधों से पत्तियों के झड़ने की क्रिया तेज हो जाती है । ऐसी परिस्थिति में बरेजा की मोटी पुआल निर्मित छत पत्तियों को झड़ने से बचाती है अर्थात् जाड़े में ठंड और पाला से बचाव करता है । इसी प्रकार बरसात में भी बरेजा की छत से वर्षा की हल्की फुआर ही अंदर आ पाती है जो पत्तों की धुलाई व हल्की सिंचाई का काम करता है । इस प्रकार बरेजा गर्मी, जाड़े एवं बरसात तीनों मौसम से पान फसल की रक्षा करता है ।
6. भूमि शोधन
बरेजा निर्माण होने के बाद बरेजा के अंदर साफ-सफाई तथा कुदाल के सहारे 15 से.मी. ऊँची एवं 30 से.मी. ऊँची चैड़ी क्यारी का निर्माण करते हुए नाली बनायी जाती है । स्थानीय भाषा में क्यारी को सपरा व नाली को पाहा कहते हैं । प्रत्येक क्यारी को 1% बोर्डो मिश्रण से उपचारित करते हैं । ऐसा पाया गया है कि माॅनसून आने के पूर्व प्रथम बार बोर्डो मिश्रण से मिट्टी उपचारित करने पर मिट्टी जनित रोगों से पौधों को निजात मिलती हैै, जिससे पान फसल को काफी लाभ होता है ।
7. रोपाई हेतु पान बेल का चुनाव
प्रायः3-5 वर्ष पुराने लतर के डंठल के टुकड़ा (कटिंग) जिसमें 3-5 गांठ हो और स्वच्छ एवं स्वस्थ पत्ती लगी हो, रोपनी के लिए उपयुक्त होता है । मातृत्व पत्ते वाली लतर का एक गाँठ वाला बेल भी रोपाई हेतु उपयुक्त पाया गया है । मातृत्व पत्ते वाली बेल से तात्पर्य वैसे लतर से है जिसमें ऊपरी एवं मध्य कलिका उपस्थित रहे तथा अंकुरण क्षमता अधिक हो । इस तरह का बेल नीचे जमीन से 90 से.मी. ऊपर के भाग, जिसमें किसी प्रकार के दाग-धब्बे न हों और प्रत्येक गांठ के पास एक पत्ती लगी हो, का चुनाव उपयुक्त माना जाता है । बेल की टुकड़ों की लंबाई 15 से.मी. होनी चाहिए जिसे ब्लेड या तेज धार वाले चाकू से काट कर मुख्य लतर से अलग कर लेना चााहिए ।
8.पान बेल शोधन
बीज जनित रोगों से बचाव के लिए बेल शोधन अति आवश्यक है एक हेक्टेयर रकबा में बेल लगाने हेतु 1.5 लाख बेल की आवश्यकता होती है जिसे निम्नलिखित दवाओं से उपचारित कर लेने के बाद ही रोपाई करें:-
(अ) 75 ग्राम काॅपर आॅक्सीक्लाराईड + स्ट्रेप्टोसाकलीन (6 ग्राम) +25 लीटर पानी या
(ब) ट्राइकोडरमा विरीडी (5 ग्राम) + स्यूडोमोनास फ्लोरोसेंस (5 ग्राम) + 1 लीटर पानी या
(स) बोर्डो मिश्रण (0.5%) + स्ट्रेप्टोसाइक्लीन (6 ग्राम) ।
9.पान बेल की रोपाई
उत्तरी बिहार में मुख्य रूप से ’बंगला’ किस्म व दक्षिण बिहार में ’मगही’ पान की खेती की जाती है । उत्तर बिहार में पान बेल की रोपाई जून से मध्य जुलाई तक की जाती है । दक्षिण बिहार में इसकी रोपाई मई से मध्य जून में की जाती है । एक हेक्टेयर रकबा के लिए 1.5 लाख बेल उपयुक्त माना जाता है । इसकी रोपाई हेतु मेड़ से मेड़ 80-100 से.मी. तथा पौध से पौध की दूरी 10-20 से.मी. रखना उपयुक्त होता है ।
रोपाई पूर्वाह्न 11 बजे से पहले तथा शाम 3 बजे के बाद करनी चाहिए ।
प्रत्येक क्यारी में एक स्थान पर तीन बेल 10-20 से.मी. की दूरी पर 4-5 से.मी. की गहराई में लगायें । प्रत्येक क्यारी में दो पंक्तियों में रोपाई करना चाहिए । रोपाई के बाद पौध को अच्छी तरह से दबाना आवश्यक है । पान बेलों की दो पंक्तियों में रोपाई विपरीत दिशा में करते हैं ताकि सिंचाई आसानी से की जा सके । प्रत्येक क्यारी पर रोपी गई पान बेलों को भिंगा हुआ पुआल की हल्की परत से ढक देते हैं ताकि हवा का संचरण बना रहे तथा मिट्टी में नमी भी बनी रहे ।
10.सिंचाई प्रबंधन
पान की खेती में हल्की, परन्तु बार-बार सिंचाई की आवश्यकता होती है । परंपरागत विधि से मिट्टी के बड़े आकार के घड़ों से कृषक सिंचाई करते हैं । मगध क्षेत्र में मिट्टी के इस विशेष घड़ा को ’लोटी’ एवं मिथिला क्षेत्र में ’माढ़’ कहते हैं ।
रोपाई के तुरंत बाद बेल को पुआल से ढक देना चाहिए । उसके उपरान्त हजारा या ’’लोटी’’ से हल्की सिंचाई करनी चाहिए । मगही पान में खास कर रोपाई के बाद 10-12 दिन तक प्रतिदिन 2-3 घंटे के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए । पान के फसल जल को चाहता है, पर जल जमाव बर्दाश्त नहीं कर सकता है ।
अतः पान फसल में सिंचाई के साथ-साथ जल निकास का प्रबंधन भी जरूरी है । इसमें मौसम के अनुसार सिंचाई करनी चाहिए । गर्मी के मौसम में 5-7 दिनों के अंतराल पर सिंचाई की जरूरत पड़ती है, वहीं जाड़े में 10-15 दिन के अंतराल पर जबकि बरसात में सिंचाई की विशेष आवश्यकता नहीं रहती है, फिर भी जरूरत पड़े तो हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए ।
शोध के परिणाम का निष्कर्ष है कि पान की उपज एवं जल बचत की दृष्टि से परंपरागत विधि की तुलना में सूक्ष्म सिंचाई पद्धति काफी फायदेमंद है । टपक विधि से सिंचाई करने पर पान के बढ़वार एवं पत्तियों के उत्पादन में वृद्धि होती है । साथ ही यह विधि 100-150ः तक वाष्पोत्सर्जन की क्रिया को कम कर जल संरक्षण में मददगार होता है । ऐसा पाया गया है कि IW/CPE अनुपात जब एक रहे, तो 3-5 से.मी. की गहराई तक सिंचाई करने से पान के लतर की बढ़वार एवं पत्तियों के उत्पादन बेहतर पाये गए हैं ।
11. पान बेल बाॅधना एवं चढ़ाना
रोपनी के 20-30 दिनों बाद बेलों से जड़ निकल आती है और नई बेल बढ़ने लगती है । बाँस की पतली छड़ी या इकड़ी को बेल के पास गाड़ देते हैं । बढ़ते हुए बेलों को सहारा देने के लिए बेलों को काँस से इकड़ी में बांध देते हैं ताकि बेल इसके सहारे ऊपर चढ़ जाये । 20-30 से.मी. की लंबाई के अंतराल पर बेल को इकड़ी के सहारे बांधा जाता है । यह प्रक्रिया पूरे वर्ष आवश्यकतानुसार चलते रहती है ।
12. निकाई-गुड़ाई
पान के अच्छे उत्पादन के लिए बरेजा की सफाई नितांत आवश्यक है । क्यारी कोड़ते समय या नाली की सफाई के दौरान जब भी खरपतवार दिखलाई पड़े, उसे निकालकर बाहर फेंक देना चाहिए । समय-समय पर खर-पतवार निकाल देने से पौधे में रोग-कीट-व्याधि के प्रकोप से भी बचा जा सकता है ।
13. खाद एवं उर्वरक प्रबंधन
पान की अच्छी उपज के लिए पूरे वर्ष में 200:100:100 किलो ग्राम, नत्रजनःस्फुरःपोटाश (एन.पी.के.) प्रति हेक्टेयर की दर से अनुशंसित की गई है ।प्रायः पान पत्ते की गुणवत्ता को ध्यान में रखते हुए नत्रजन का प्रयोग जैविक खाद जैसे वर्मी कम्पोस्ट, सरसों की खली, नीम की खली तथा जीवाणु खाद (एजोटोबैक्टर, फास्फोबैक्टर) के रूप में करना चाहिए । फाॅस्फोरस का प्रयोग एस.एस.पी. के रूप में करने से गुणवत्ता के साथ-साथ उपज में भी काफी वृद्धि होती है तथा रोग भी कम लगते हैं । ऐसा पाया गया है कि अच्छे फसल उत्पादन हेतु नत्रजनीय रसायनिक उर्वरक (यूरिया) का छिड़काव करने से श्रेयकर परिणाम प्राप्त होता है, पोषक तत्व प्रबंधन को निम्न रूपों में अपनाना चाहिए –
1)यदि नत्रजन का प्रयोग यूरिया के रूप में करते हैं, तो इसे 4 बार 90 दिनों के अंतराल पर दें या फिर 6 बार 60 दिनो के अंतराल पर देना हितकर होगा या फिर 30 दिनों के अंतराल पर 12 बार भी देने से लाभ होता है ।
२)वर्मी कम्पोस्ट – 10 टन प्रति हेक्टयर (3-3 माह के अंतराल पर चार बराबर भागों में बांटर मिट्टी में डालें)
3)एजोटोबैक्टर या फाॅस्फाबैक्टर – 10 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर (चार बराबर भागों में बांटकर प्रथम छिड़काव 30 दिनों पर तथा बाद के तीनों छिड़काव 3-3 माह पर देना चाहिए)
4)सरसों खली: यूरिया 1:1 उपर्युक्त चारों अवयवों में लागत एवं लाभ तथा गुणवत्ता के दृष्टिकोण से एजोटोबैक्टर का प्रयोग करना अधिक फायदेमंद साबित हुआ है । सरसों की खली एवं यूरिया का बराबर अनुपात में व्यवहार करने से भी लाभ पाया गया है, परन्तु रोग का प्रभाव फसल पर देखा गया है । सबसे उत्तम पैदावार वर्मीकम्पोस्ट डालने से मिलता है ।
जिन किसानों के खेतों में जिंक या मैग्नीज की कमी हो, उन्हें पान की अच्छी फसल उत्पादन के लिए 0.4% जिंक सल्फेट तथा 0.1% मैग्नेशियम सल्फेट का व्यवहार 60 दिनों के अंतराल पर करना चाहिए ।
14, काली मिट्टी का प्रयोग (मिट्टी चढ़ाना)
जून-जुलाई में पान की जड़ को ढकने के लिए काली मिट्टी को भुरभुरी बनाकर क्यारी पर डाला जाता है । कुछ समय पहले तक तालाबों व गड्ढों की मिट्टी डाली जाती थी, परंतु अब मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी के साथ-साथ सूत्र-कृमियों (जड़ गांठ व रेनी-फार्म) का प्रकोप बढ़ गया है ।
कृषक जिनके पास वर्तमान में बरेजा है और वे मिट्टी चढ़ाते वक्त पोषक तत्वों के रूप में वर्मी कम्पोस्ट, खली (नीम, करंज, अंडी, सरसों इत्यादि) जैसे जैविक खाद तथा जैव उर्वरकों (जीवाणु खाद), जैव-फफूंदनाशी, सूत्र-कृमि नियंत्रक तथा जैव-जीवाणुनाशियों का मिश्रण मिट्टी में मिलाकर बरेजा की क्यारी की मिट्टी पर चढाएँ जिससे पान की नई फसलों को पोषक तत्वों एवं प्रतिरक्षक उत्पादों की आपूर्ति हो जायेगी । यह जैविक पान उत्पादन के लिए शुरूआती प्रयास होगा ।
बरेजा की मिट्टी में ज्यों-ज्यों कार्बनिक पदार्थों की मात्रा बढ़ती जायेगी, उसमें जल-धारण क्षमता अधिक होती जाएगी जिससे सिंचाई में जल की मात्रा के उपयोग में कमी आएगी । साथ ही साथ बरेजा की भूमि लंबे समय तक नमीयुक्त रहेगी और स्वतः उस भूमि में लाभदायक सूक्ष्मजीवियों (माइक्रोफ्लोरा) की संख्या में गुणात्मक वृद्धि होगी ।
सिंचाई के इस स्वरूप को बदलने हेतु बरेजा में फव्वारा सिंचाई (स्प्रिंकलर सिस्टम) की व्यवस्था से मानव श्रम की बचत, समय का सदुपयोग तो होगा ही, साथ-साथ आवश्यकतानुसार उचित मात्रा में सिंचाई भी की जा सकती है । पोटाश, सूक्ष्म पोषक तत्वों, वृद्धिकारक हार्मोन्स इत्यादि की आपूर्ति लगातार होती रहेगी, तो पौधों का भरपूर पोषण होगा साथ-साथ रोग एवं व्याधियों के प्रतिरोधी क्षमता का भी विकास होगा ।
15. पान की मिश्रित खेती
मिश्रित खेती के तौर पर पान बरेजा में ऐसी शाक भाजियां लगाई जाती हैं, जो दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ पान की बेलों का नुकसान भी नहीं करता । परवल, पोई, पपीता, अरबी, मिर्च, लौकी, तोरई, ककड़ी, पालक, रतालू एवं अदरक आदि उपयुक्त शाक भाजियों से पान कृषक काफी मात्रा में अतिरिक्त आमदनी भी कर लेते हैं जो उनकी आर्थिक स्थिति को मजबूत करती है । पान रोपाई के साथ पालक, कोदो आदि बोया जाता है जो बरेजा के सूक्ष्म वातावरण की नमी को बढ़ाते हुए पान के कोमल पौधों को लू लगने से भी बचाती है । साथ ही यह किसानों की दैनिक खाद्य आवश्यकता में भी पूरक होती है ।
16. उपज
जो पान का पत्ता बिचड़ा के साथ रोपण में इस्तेमाल किया जाता है, उस पान को बरसात से पूर्व तोड़ लिया जाता है ।नये पौधे से विक्रय हेतु पान तोड़ई का कार्य पौधों की बढ़वार एवं पत्तियों की परिवक्वता पर निर्भर करता है । पूरे वर्षभर में एक पौधे से लगभग 60-70 पत्ते प्राप्त हो जाते हैं, अर्थात् पूरे वर्ष में एक हेक्टेयर जमीन से 60-70 लाख पत्ते की तुड़ाई की जा सकती है । पान को हमेशा डंठल सहित तोड़ा जाता है ।
17. भंडारण
साधारणतया पान की पत्ती को 10 से 15 दिनों तक प्रयोग में लाई जा सकती है । ऐसा देखा गया है कि परिवहन के दौरान पान की पत्ती का 30-70 प्रतिशत भाग सड़ जाता है । अतः आवश्यक है कि पान की पत्तियों की भंडारण क्षमता को बढ़ाया जाए । विभिन्न आयु के पान की पत्तियों में रासायनिक तत्व, प्रकाश संश्लेषण एवं श्वसन दर भिन्न होती है । प्रकाश संश्लेषण और श्वसन दोनों जैविक क्रियायें पत्तियों को जीवित रखने में सहायता करती हैं ।
अनुसंधान द्वारा यह निष्कर्ष निकाला गया है कि तने के अगले भाग से 7-8 स्तर की पत्तियों में कोशिका पोषक पदार्थ तथा प्रकाश संश्लेषण से निर्मित कार्बनिक पदार्थ अन्य विकसित पत्तियों से अधिक होता है तथा अधिक परिपक्व पत्तियों में, जो तने के निचले भाग में लगी होती है, रासायनिक तत्वों का अभाव होने लगता है ।
उपर्युक्त तथ्यों से यह निष्कर्ष निकलता है कि 6-8 स्तर की पत्तियों को तोड़ने पर उन्हें कई दिनों तक सुरक्षित रखा जा सकता है ।
पत्तियों के सड़ने का मुख्य कारण उसमें रासायनिक तत्व जैसे प्रोटीन, न्यूक्लिक एसिड, तैलीय पदार्थ एवं कोशिका कला की मात्राओं की कमी होती है । यह पाया गया है कि वेन्जिल एडनीन (25 पी.पी.एम) के घोल में पान की पत्तों को 6 घंटे भिगोने के बाद इन्हें सामान्य तापक्रम पर अधिक दिनों तक सुरक्षित रखा जा सकता है ।
पत्ती के डंठल में एक विशेष प्रकार का रासायनिक तत्व होता है जो पत्ती सड़ने का कारण होता है । पत्ती को डंठल समेत रखे जाने से यह कम समय तक ही सुरक्षित रह पाती है । इसलिए पत्ती को डंठल से अलग सामान्य तापक्रम पर रखने से यह अधिक समय तक सुरक्षित रह सकती है । पान की पत्ती का उत्तम भंडारण के लिए निम्न तरीके अपनाये जा सकते हैं:-
1. पत्तियों को पाॅलीथीन के थैलों में भरकर कम तापक्रम (4-50 C) पर रखने से पत्ते कड़े, ताजा तथा अधिक दिनों तक सुरक्षित रहते हैं ।
2. पत्तियों को नम कपड़े में लपेटकर बांस की टोकरी में सामान्य तापक्रम पर रखने से वायु संचार होता रहता है, जिससे सड़ने की दर कम हो जाती है तथा कम तापक्रम (4-50 C) पर उपर्युक्त क्रिया को रोका जा सकता है । इस प्रकार पान को बाजार में उचित मूल्य पर बेचा जा सकता है ।
18. पान की ग्रेडिंग एवं पैकिंग
तुड़ाई के उपरांत पान के आकार, दाग धब्बों इत्यादि के अनुसार छंटाई कर एक दूसरे के डंठल के बीच 1-1.5 से.मी. की दूरी रखकर 100 पान एक थाक लगाते हैं । बोलचाल की भाषा में 200 पान के एक बंडल को एक ’ढोली’ कहते हैं, जिसमें एक सौ पत्ता दूसरे सौ पत्तों के ऊपर विपरीत दिशा में रखा जाता है । बांस की जालीदार टोकरी को बिछाकर उस पर एक ढोली के ऊपर दूसरी ढोली बिना दबाए रखे जाते हैं । इस टोकरी के भर जाने पर उसके ऊपर दूसरी टोकरी उलट कर दोनों को सुतली से बांध दिया जाता है । और उस टोकरी को विपणन के लिए बाजार में भेज दिया जाता है ।
स्रोत-
- बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर, भागलपुर