पादप परजीवी सूत्रकृमि

१.धान की जड़ में सूत्रकृमि ( हर्शिमेनेयला म्यूक्रोनेटा) रोग:

यह सूत्रकृमि पौधों की नई जड़ों को भेदता है व उनकी बल्कुट (कोर्टेक्स) कोशिकाओं को खाता है जिससे पत्तियां भूरी व पीली हो जाती हैं। स्वस्थ पौधों की तुलना में रोग ग्रस्त पौधों में फुटाव कम होता है व हैं। रोगी पौधों में पुष्पगुच्छ व बालियां कम व छोटी आती हैं। बालियों में दाने कम बनते हैं जिससे पैदावार कम होती है।

नियंत्रण

  • फसल चक्र अपनाते हुए रबी के मौसम में गेहूं, आलू, फूलगोभी, सरसों,चना और खरीफ में मूंगफली व पटसन लगाना चाहिए।
  • गर्मी के मौसम में खेत की मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करें।
  • कार्बोफ्युराॅन (1 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर) के हिसाब से एक बार नर्सरी बोते समय व दूसरी बार पौध रोपाई के 7 दिन पहले डालें।
  • खेत में पौध रोपाई के 7 दिन बाद कार्बोफ्युराॅन (1 कि.ग्रा./है.) के हिसाब से दूसरा रोपाई के 50 दिन बाद डालें।
  • खाद का सही मात्रा में उपयोग करें एवं साफ-सफाई का ध्यान रखें।
  • फसल कटाई के बाद जड़ें व पुआल आदि को इकट्ठा करके नष्ट कर दें।

२.धान में जड़ गांठ सूत्रकृमि ( ग्रेगनिकोला एवं मिलाॅइडोगाइन ट्रिटीकोराइगी) रोग:

यह सूत्रकृमि नर्सरी में ही पौधों में लग जाता है व पौधों की बढ़वार कम कर देता है। खेत में रोग से प्रभावित पत्तियों में पीलापन किनारे से बीच की तरफ बढ़ता है परिणामस्वरूप पत्तियां

धीरे-धीरे सूख जाती हैं। पौधे में फुटाव व बढ़वार कम हो जाता है। पौधों में कम व छोटी बालियां बनती हैं।

 

नियंत्रण

  • पौध क्यारियों का गर्मी के मौसम में सूर्यतपन करें।
  • नर्सरी लगाने वाली क्यारियों में कार्बोफ्युराॅन व फोरेट को 2 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डालना चाहिए।
  • रोपण से पहले अच्छी तरह से कीचड़ (पडलींग) बनायें।
  • फसल चक्रः खेत में चना, सरसों, पटसन, तोरई, मटर व मिर्च लगायें।
  • सूत्रकृमि सहिष्णु किस्मं, जैसे- टी.के.एम. 6, धूमल, सी.एच. 47 व हमसा आदि की बुवाई करें।
  • कार्बोसल्फान का 0.1 प्रतिशत का घोल बनाकर उसमें 12 घंटे तक बीज भिगोकर, बीजोपचार करने से सूत्रकृमि की रोकथाम कर सकते हैं।
  • कार्बोफ्युराॅन 1 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से दो बराबर मात्रा में 15 और 45 दिन के अन्तर पर पौध रोपाई कर खेत में डालें।

 

३.गेहूँ का सेहूं या गैगला रोग:

रोग से प्रभावित पत्तियों में सिकुड़न व तुड़ी-मुड़ी व ऐंठी सी दिखाई देती हैं। पौधे का मिट्टी के समीप तने का निचला भाग फूल जाता है एवं पौधे में फुटाव, स्वस्थ पौधे की अपेक्षा ज्यादा होता है। पौधे में बाली बनने के समय सूत्रकृमि पुष्प में प्रवेश कर जाताहै और यहीं पर अपने जीवन की अन्य अवस्थाओं को  पूरी करता है। इस समय तक बाली के कुछ या सभी दाने भूरे, कठोर, गोलाकार, गैगले/पिटिकाओं में परिवर्तित हो जाते हैं। रोगी बालियां, छोटी व बिखरी दिखाई पड़ती हैं। यह सूत्रकृमि पिटिका/गैगला में 30 साल तक जीवित रह सकता है। इस रोग का फैलाव गेहूँ की बीजों के साथ सूत्रकृमि पिटिकाओं के जाने से होता है। यह 50प्रतिशत तक पैदावार का नुकसान कर सकता है।

नियंत्रण

  • गैगला को बीज से छलनी द्वारा, हाथ से चुनकर, हवा में सुखाकर या पानी में बीज भिगोकर, साफ करें।
  • बीज को 5  प्रतिशत नमक व पानी के घाले में डालकर व ऊपर तरै ते गगैला को  अलग करके नष्ट कर दे आरै बीज को साफ पानी मेंअच्छी
    तरह धाके र नमक निकाल दो बीज को छाया में  सूख कर खते  में  बुआई  करे

 

४.गेहूँ में सेहूं/गैगला सूत्रकृमि (एंग्विना ट्रिटिसाई  क्लेवीबेक्टर मिचीगनेनसीस) तेन्दु रोग:

गेहूँ की बालियां ओस भरे ठंडे मौसम में तेन्दु रोग से पीली व पतली होकर ऐंठी सी, चिपक कर कड़ी हो जाती हैं। रोगी पौधे कमजोर व सीधे खड़े न होकर जमीन पर फैलते हैं। पौधे पीले पड़कर बौने रह
जाते हैं और बालियों व पत्तियों से गोंद के समान चिपचिपा पीले रंग का तरल पदार्थ निकलता है। इसी पीले पदार्थ से बाली चिपक जाती है, सूखकर भूरी व
कड़ी हो जाती है और बालियों में बीज नहीं बनते हैं। इस रोग का फैलाव गेहू की बीज के साथ मिलकर होता है।

नियंत्रण

इसका नियंत्रण सेहूं/गैगला रोग के उपायों की तरह करें।

 

५.गेहूँ में (हेटेरोडेरा एवीनी) मोल्या रोग:

गेहूँ की फसल में मोल्या रोग,राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं जम्मू वकश्मीर के क्षेत्रों में पाया जाता है। फसल में इस रोग के आने से पौधेभिन्न-भिन्न समूहों में कहीं पर छोटे पीले रंग के व कहीं पर बड़े दिखाई देते हैं। पौधों में (किल्ले फुटाव) कम होते हैं, पौधे पीले व बौने रह जाते हैं। रोगी पौधों में बालियां अगेती व छोटी आती हैं जिससे दाने पतले व कम बनते हैं। रोगी पौधों की जड़ें पतली, छोटी व गुच्छेदार हो जाती हंै। यह 30 प्रतिशत तक उपज में कमी कर देता है।

 

नियंत्रण

  • मई-जून के महीने में 10-15 दिन के अंतराल पर 2-3 दिन बार खेत की गहरी जुताई करें।
  • रबी के मौसम में 1-2 साल तक फसल चक्र अपनाते हुए सरसों, मटर, चना, अलसी, सौंफ व गाजर की फसल उगायें।
  • उचित मात्रा में खाद डालें जिससे पौधों में रोग सहिष्णु शक्ति बढ़ेगी।
  • रोग अवरोधक किस्में – राज 2184 व एम आर 1 को उगाकर सूत्रकृमि को नियंत्रित कर सकते हैं।
  • गेहूँ की बुवाई के समय हल्की सिंचाई के साथ कार्बोफ्युराॅन 1 कि.ग्रा./हेक्टेयर की मात्रा में डालें तो फसल में हानि कम होगी। अगेती या पछेती बुवाई पौधे को इनके नुकसान से बचाती है।

 

Source-

  • भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान
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