परजीवी वह होते हैं जो अपने रहने व खाने के लिए दूसरे जीव के अन्दर या बाहर, ऊपर या उस पर निर्भर रहते हैं । इससे ग्रस्त दुधारू पशुओं में दूध देने की क्षमता कम हो जाती है तथा बैल एवं भैंसों में कार्य करने की क्षमता कम हो जाती है, जिससे किसानों को आर्थिक क्षति होती है । पशुओं में इनकी अधिकता मृत्यु का कारण हो सकती है । अतः समय पर उपचार जरूरी है । परजीवी दो प्रकार के होते है|
आन्तरिक परजीवी एवं बाह्य परजीवी
आन्तरिक परजीवी
यह परजीवी पशु के अन्दर रहते हैं, जैसे – गोलकृमि ( पटार ) आदि
बाह्य परजीवी
यह परजीवी पशु के शरीर के ऊपर या बाहर रहते हैं, जैसे – चीचड़िया ( किल्लियाँ ) जुएं, पिस्सू आदि । पशुओं में गोलकृमि ( पटार )
रोग एवं उपचार
गोलकृमि का प्रकोप भैंस के बछड़े, बछिया व संकर नस्ल के बछड़े, बछिया में अधिक होता है । लगभग 90: बछड़े इससे ग्रसित होते हैं । यदि उचित देखभाल व इलाज न किया जाए, तो मृत्यु दर काफी होती है ।
पटार सफेद रंग के गोलकृमि होते हैं, जो संक्रमण दूषित चारा, दाना, पानी से होता है, गाय व भैंस में गर्भ के दौरान भी संक्रमण संभव है । यही कारण है कि एक महीने की उम्र से पहिले भी भैंस के बछड़े – बछिया में वयस्क पटार निकलते हैं । रोग से ग्रसित गाय व भैंस के शिशुओं का वनज अधिक नहीं होता है, उन्हें दस्त होता है, कभी कब्ज रहता है, पेट मेें दर्द होता है, चमड़ी खुरदुरी रहती है, बालों में चमक नहीं रहती, कई बार निमोनिया भी होता है ।
पटार सफेद रंग के गोलकृमि होते हैं, जो संक्रमण दूषित चारा, दाना, पानी से होता है, गाय व भैंस में गर्भ के दौरान भी संक्रमण संभव है । यही कारण है कि एक महीने की उम्र से पहिले भी भैंस के बछड़े – बछिया में वयस्क पटार निकलते हैं । रोग से ग्रसित गाय व भैंस के शिशुओं का वनज अधिक नहीं होता है, उन्हें दस्त होता है, कभी कब्ज रहता है, पेट मेें दर्द होता है, चमड़ी खुरदुरी रहती है, बालों में चमक नहीं रहती, कई बार निमोनिया भी होता है ।
बचाव व इलाज
पटार में भैंस के नजवाज में 15 दिन व 1-1/2 माह में कृमिनाशक दवा पिलाने से लगभग सभी बछड़े इसके प्रकोप से बचे रहते हैं । पाईपराजीन साल्ट का प्रयोग बेहतर होता है , जिसे 200 मि.ग्रा. प्रति कि.ग्रा. शरीर भार पर दिया जाता है । इसके अलावा अलबेण्डाजाॅल, फेनबेण्डाजाॅल व आईवरमेक्टीन का प्रयोग भी किया जाता है । जिसे कब्ज हो उसे पहिले एनीमा दें बाद में दवा दें । दवाई देने के 1-2 घण्टे बाद 50 मि.ली. सरसों का तेल पिलायें ।
पशुओं के चीचड़ियां, जुएं व पिस्सू की रोकथाम व उपचार
इनका प्रकोप मार्च, अक्टूबर व नवम्बर में बहुत बढ़ जाता है । किल्लयों का जीवन चक्र ऐसा होता है वे अण्डे देने के लिए पशु को छोड़कर पशुशाला के छेदों में छिपकर अण्डे देती हैं, ये अण्डे हजारों की संख्या में होते हैं तथा कुछ दिन पनपने के बाद ही वहां से हटकर अगली अवस्था के रूप में अन्य पशुओं पर लग जाते हैं । पशुशाला को 1 प्रतिशत मेलाथियान व अन्य कीटनाशक से अच्छी तरह छिड़काव करें व इसे समय-समय पर छिड़कें । नये पशुओं को पुराने पशुओं के साथ पशुशाला में बांधने से पहले अच्छी तरह देख लें कि उन पर किल्लियां तो नहीं लगी हैं यदि हैं तो 1 प्रतिशत मेलाथियान के घोल का छिड़काव करें ।
चरागाह का बदलना
जिन पशु पालकों के पशु बाहर चरने जाते हैं, उन्हें थोडे़ दिनों बाद चारागाह को बदलते रहना चाहिए, क्योंकि खून चूसने के बाद किल्ल्यिां पशु को छोड़कर नीचे जमीन पर पनपतीं हैं व अगली अवस्था में बदलकर अन्य पशु की तलाश में रहते हैं, यदि समय पर उन्हें पशु नहीं मिले तो कुछ समय बाद वे स्वयं ही मर जाते हैं ।
उपचार
कम संख्या में किल्लयां हों तो हाथ से निकालें व मार दें या जमीन में दबा दें ।अधिक संख्या में होने पर बुटोक्स 0.3 प्रतिशत, सिपरोल 0.1 प्रतिशत इनमें से किसी भी दवाई को उचित मात्रा में घोल बनाकर स्पे्र पंप से पशुशाला व पूरे शरीर पर छिड़काव करें, परन्तु कान, पूंछ, अगले व पिछले पैरों के बीच अच्छा छिड़काव करें एवं हर 1-2 सप्ताह बाद छिड़काव करते रहना चाहिए, जब तक कि सभी चीचड़ियां खत्म न हो जायें । छोटे पशुओं ( भेड़ बकरी के बच्चे ) को घोल में डुबोना चाहिए, ध्यान रहे कि पशु का सिर ऊपर रहे । ये दवा चारा, दाना, पानी में न मिलने पाये और न ही जानवर इसे चाट पायें, क्योंकि ये जहरीली दवा होती है|
स्रोत-
- पशुपालन महाविद्यालय, अंजोरा, दुर्ग ( छ. ग. )