परवल बहुत ही पौष्टिक, स्वास्थ्यवर्धक एवं औषधीय गुणों से भरपूर सब्जी है । यह आसानी से पचने वाली, शीतल, पित्तनाशक, हृदय एवं मस्तिष्क को बलशाली बनाने वाली एवं मूत्र संबंधी रोगों को ठीक करने में काफी लाभदायक है । इसका प्रयोग अचार और मिठाई बनाने के लिए भी किया जाता है । इसमें विटामिन, कार्बोहाइड्रेट तथा प्रोटीन अधिक मात्रा में पाई जाती है ।
सामान्यतः परवल की किस्में रंग एवं गुण के आधार पर उपलब्ध हैं जो क्षेत्र विशेष में स्थानीय नामों से जानी जाती है । गहरे हरे रंग की मोटी, लम्बी और सफेद धारी युक्त परवल जो सामान्यतः 6-10 से.मी. तक लम्बा होता है । इसकी खेती बिहार के रांची एवं साबौर के आस-पास के इलाकों में होती है ।
- गहरे हरे रंग की धारीयुक्त, छोटे एवं गोल आकार के परवल जिसकी खेती उत्तर प्रदेश के मैदानी भागों में की जाती है ।
- हल्के हरे रंग की मोटी एवं लम्बी बिना धारी वाली परवल जिसकी खेती उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में की जाती है ।
- काली धारी युक्त छोटी एवं गोल परवल की प्रजाति जिसमें औषधीय गुण सबसे ज्यादा पाया जाता है । इसकी खेती उत्तर प्रदेश के बस्ती एवं गोरखपुर जिले के आस-पास की जाती है ।
- छोटी, गोल एवं फूली हुई प्रजाति जिसकी खेती बिहार के सिवान एवं पटना के आस-पास की जाती है ।
- हल्का पीला सफेद रंग का परवल जो मध्य प्रदेश में काफी लोकप्रिय है ।
परवल की किस्में
१.काशी अलंकार:
अधिक उपज देने वाली किस्म है । यह उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखण्ड में खेती के लिए उपयुक्त है । इस किस्म के फल हल्के हरे रंग के होते हैं । खाने योग्य फलों में बीज काफी मुलायम रहता है । इस किस्म की पैदावार प्रति हैक्टेयर 180-190 कुन्टल है ।
२.काशी सुफल:
अधिक उपज देने वाली किस्म है । यह उत्तर प्रदेश एवं बिहार में खेती के लिए उपयुक्त पाई गई है । इस किस्म के फल सफेद धारीदार के साथ हल्के हरे रंग के होते हैं । इस किस्म के फल मिठाई बनाने के लिए उपयुक्त है एवं पैदावार 190-200 कुन्टल/हैक्टेयर है ।
३.स्वर्ण रेखा:
फल हरे रंग के धारीदार, लम्बे होते हैं और इस किस्म के बीज मुलायम होते हैं । पैदावार 175-200 कुन्टल/हैक्टेयर है ।
४.स्वर्ण अलौकिक:
फल हल्के हरे रंग के और मिठाई बनाने हेतु उपयुक्त होते हैं । पैदावार 230-250 कुन्टल/हैक्टेयर प्राप्त की जा सकती है ।
जलवायु
परवल की खेती के लिए सामान्यतः गर्म एवं आर्द्र जलवायु उपयुक्त होती है । ऐसे क्षेत्र जिनमें पाले का प्रकोप नहीं होता, इसकी खेती के लिए उत्तम माने जाते हैं । शरदकाल में पौधा सुषुप्तावस्था में पड़ा रहता है ।
भूमि एवं भूमि की तैयारी
परवल एक बहुवर्षीय सब्जी है । सफलतापूर्वक कई वर्षों तक उपज प्राप्त करते रहने के लिए बलुई दोमट भूमि जिसमें जीवांश पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो, उत्तम मानी जाती है । भारी मिट्टी इसकी खेती के लिए अच्छी नहीं मानी जाती है । परवल की सफल खेती के लिए नदी के किनारे की जलोढ़ मिट्टी अत्यन्त उपयोगी रहती है । भूमि का चयन करते समय यह ध्यान देना चाहिए कि उसमें जल निकास का उचित प्रबन्ध हो । मई-जून के महीने में पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करके खेत को खुला छोड़ देना चाहिए तथा वर्षा शुरू होने पर 2-3 जुताईयां देशी हल या कल्टीवेटर से करके खेत को तैयार कर लेते हैं ।
खाद एवं उर्वरक
खेत की अंतिम जुताई के समय 20-25 टन अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट और 6-7 कुन्टल अरण्डी की खाद खेत में मिलाना चाहिए । इसके अतिरिक्त तत्व के रूप में 60 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 40 कि.ग्रा. फास्फोरस और 40 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हैक्टेयर की दर से खेत में डालना चाहिए । पौध लगाने के पूर्व प्रत्येक गड्ढे में 100 ग्राम नीम की खली या 5 ग्राम फ्यूराडान डालना आवश्यक है, जिससे दीमक या अन्य मृदा जनित हानिकारक कीट मर जाएं ।
नाइट्रोजन की 20 कि.ग्रा. मात्रा और फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा खेत की अंतिम जुताई के समय खेत में डालना चाहिए । बची हुई नाइट्रोजन की मात्रा को 3 बराबर भागों में बांटकर खड़ी फसल में टाप ड्रेसिंग (छिड़ककर) के रूप में जड़ों से 6 से.मी. की दूरी पर देना चाहिए । प्रत्येक तुड़ाई के बाद 750 ग्राम यूरिया प्रति 1360 वर्ग फीट के हिसाब से देने पर उपज अधिक मिलती है । जब पहले वर्ष रोपित पौधों पर फल बनना बंद हो जाए तब जमीन की सतह से 6 इंच की दूरी तक तनों को छोड़कर काट देना चाहिए ।
सभी खरपतवार व पौधों की कटे तने को खेत से बाहर निकाल देना चाहिए और पौधे के मुख्य जड़ से 12 इंच की दूरी तक छोड़कर शेष जमीन को फावड़े से गहरी खुदाई कर दें । अब पौध के आस-पास की सफाई करके 6 इंच जगह छोड़ते हुए 6 इंच गहरा गड्ढा खोदकर उसमें लगभग 2 से 3 कि.ग्रा. गोबर की सड़ी खाद, यूरिया 60 ग्राम, सिंगल सुपर फास्फेट 80 ग्राम व म्यूरेट आफ पोटाश 40 ग्राम का मिश्रण बनाकर डाल दें । इस प्रकार पौधे की वृद्धि तेज होगी व जल्द फलत में आयेगा । पौध वृद्धि के समय (50 दिन बाद) 30 ग्राम यूरिया प्रति पौध जड़ों के आस-पास देना लाभदायक होता है । इसी प्रकार खाद एवं उर्वरकों की व्यवस्था अगले वर्ष फलत लेने के लिए भी करना चाहिए ।
लगाने का समय एवं विधि
परवल लगाने का सबसे अच्छा समय ’मग्धा’ नक्षत्र या 15 अगस्त के आस-पास होता है । नदियों के किनारे दियारा में परवल लगाने का समय अक्टूबर व नवम्बर का महीना (जब बाढ़ समाप्त हो जाए) उत्तम माना जाता है । खेत के पौधों से पुरानी व गहरे रंग वाली लताओं को लेकर खेत में लगाया जाता है । इसके लिए 30-40 से.मी. गहरे गड्ढें खोद लिए जाते हैं जिनमें 2-3 कि.ग्रा. गोबर या कम्पोस्ट की सड़ी खाद डाल देते हैं । लता की लम्बाई 60 से 75 से.मी. रखते हैं ।
लताओं से प्रसारण की गई विधियाँ हैं
(क) लता को अंगे्रजी के आठ (8) की आकृति में मोड़ देते हैं । इसके मुड़े हुए बीच बाले भाग को पहले से तैयार 15 से.मी. ऊँचे उठे हुए 2 ग 2 मीटर की दूरी पर बने थाले में मिट्टी से दबा देते हैं लेकिन इसमें ध्यान रखना चाहिए कि दोनों गोल शिराओं वाला भाग ऊपर की तरफ रहे क्योंकि इन्ही से फुटाव निकलते हैं । इस प्रकार एक हैक्टेयर क्षेत्रफल से 2500 पौधे/कलमें लगती हैं ।
(ख) लता का 60-90 से.मी. लम्बा कर्तन लेकर बंडल बना लेते हैं और इसका आधा भाग पहले से तैयार गड्ढे जो 2 ग 2 मी. की दूरी पर बने हांे में गाड़ देते हैं तथा आधा भाग जमीन के ऊपर की तरफ हवा में रखते हैं । फुटाव ऊपरी भाग के गाठों से होता है । इस प्रकार एक हैक्टेयर क्षेत्रफल में 2500 पौधे लगते हैं ।
(ग) लता की सीधी नाली में फैलाकर – परवल को इस विधि से लगाने के लिए खेत को अच्छी प्रकार जुताई करके पाटा चला देते हैं । तैयार खेत में नाली खोदकर उसमें सड़ी गोबर की खाद व मिट्टी का मिश्रण भी एक सतह तक भर दिया जाता है । इसके बाद बनी हुई नालियों में स्वस्थ्य लता के टुकड़ों को इस प्रकार फैलाते हैं कि मिट्टी में लगभग 15 से.मी. गहराई पर रहे और एक टुकड़ा का शिरा दूसरे टुकड़े के शिरा से मिला रहे । लगभग 15-20 दिनों में लता की गाठों से नई शाखाएं निकलना आरम्भ हो जाती हैं । इन उपरोक्त विधियों से औसतन 6000 से 7500 टुकड़े की आवश्यकता पड़ती है ।
(घ) नर्सरी विकसित करने के लिए 6 ग 4’’ प्लास्टिक की थैलियों का प्रयोग करते हैं । इसके लिए 4 से 5 गांठों वाले कर्तन को सितम्बर से अक्टूबर के महीने में थैलियों में विकसित होने के लिए रखते हैं । कर्तनों मे 15 से 20 दिन के अन्दर फुटाव हो जाता है । विकसित पौध को मुख्य खेत के तैयार गड्ढे में नवम्बर या फरवरी के महीने में करते हैं । इस विधि से तैयार पौधों को नर्सरी में काफी दिन तक रखा जा सकता है ।
(च) जड़ों द्वारा: कुछ क्षेत्रों में परवल के पुराने पौधों की जड़ों को प्रसारण हेतु लगाते हैं । इस विधि से फुटाव शीघ्र तो होता है लेकिन जड़ पुरानी होने के कारण अधिक उपज नहीं प्राप्त होती है । कभी-कभी रोग ग्रसित जड़ों के लग जाने से फसल मारी जाती है । अतः जड़ों द्वारा प्रसारण उचित नहीं है ।
नालियाँ तथा थाले बनाना
थाले 50 से.मी. व्यास के और 30 से.मी. गहरे बनाने चाहिए । कतार से कतार व पौध से पौध की दूरी 2 ग 2 मीटर रखते हैं । परन्तु जब इनको मचान बनाकर उगाते हैं तो यह दूरी 1.5 ग 1.5 मीटर रखते हैं । जबकि नदी की तलहटी में उगाने के लिए 2 ग 2 मीटर रखते हैं । लेकिन इन क्षेत्रों में गड्ढे का व्यास 30 ग 90 से.मी. रखते हैं । गड्ढा तैयार करते समय उसमें आधा भाग मिट्टी, एक चैथाई गोबर की सड़ी खाद व एक चैथाई बालू मिलाकर भर देते हैं । थाले जमीन से 15-20 से.मी. ऊँचाई तक भरते हैं जिससे जड़ों के पास पानी न लगे ।
अच्छी फलत के लिए नर एवं मादा पौधों का संतुलन
परवल में नर व मादा पुष्प् अलग-अलग पौधे पर लगते हैं, इसलिए अच्छी उपज के लिए मादा पौधों के साथ नर पौधों का होना आवश्यक है । रदव मादा पौधे का निर्धारण पुष्प के आधार पर करते हैं । मादा फूल का निचला भाग फूला हुआ सफेद और रोयंेदार होता है जबकि नर पुष्प सीधा व लम्बा होता है । अच्छी उपज के लिए प्रत्येक 10 मादा पौधे के साथ एक नर पौधे को खेत में इस प्रकार लगाना चाहिए कि सम्पूर्ण मादा पौधे पर बनने वाले पुष्प को परागित कर सके ।
सिंचाई एवं जल निकास
परवल के कर्तनों के अच्छी विकास हेतु लता लगाने के तुरन्त बाद थालों के पास हल्का पानी देना चाहिए एवं पानी देने की प्रक्रिया लगातार कई दिनों तक करनी चाहिए । इससे जड़ें जल्दी निकल आती हैं । सामान्यतः मार्च, अप्रैल, मई व जून को छोड़कर अन्य महीनों में पानी की आवश्यकता नहीं पड़ती है । गर्मी के दिन में जब पौधों पर कल्ले बनते हैं उस समय पानी की ज्यादा आवश्यकता पड़ती है । इस प्रकार गर्मी में 7-8 दिन के अंतराल पर हल्की सिंचाई करते रहना चाहिए । पुष्पन व फलन के समय खेत में उचित नमी रहने पर उपज बढ़ जाती है । पाले से बचाने के लिए खेत को नम रखना चाहिए । पानी भरा रहने पर परवल की लताएं शीघ्र ही सड़कर नष्ट हो जाती हैं ।
अंतः सस्य क्रियायें
लताओं की रोपाई करने के बाद से फल लगने की अवधि तक आवश्यकतानुसार 5 से 7 निकाई गुड़ाई करके खेत को खरपतवार से मुक्त रखना चाहिए । रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण के लिए स्टाम्प 3.3 लीटर 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से पौध लगाने के 2 दिन पूर्व छिड़काव करना चाहिए । वृद्धि काल में हाथ से खरपतवार निकालना अच्छा रहता है ।
मचान बनाकर परवल के बेलों को चढ़ाना
परवल की लताओं को सहारा देकर मचान पर चढ़ा कर खेती करने से 5 से 10 कुन्टल प्रति हैक्टेयर अधिक उपज मिलती है । फल जमीन के संपर्क में न रहने के कारण सड़ते-गलते नहीं तथा फलों की तुड़ाई में काफी सुविधा होती है चढ़ाने के लिए बांस, सीमेंट के खंभे या एंगिल आयरन पर लोहे के तारों से मचान 5 फीट की ऊँचाई पर बनाते हैं । मचान पर खेती करने के लिए कतार से कतार व पौध से पौध की दूरी 1.5 ग 1.5 मीटर ही रखी जानी चाहिए । इस प्रकार 1 हैक्टेयर में कुल 4000 थालें बनते हैं । जब परवल की बेल 30 से.मी. से अधिक बढ़ना शुरू हो जाए तो इन बेलों को मचान पर रस्सी का सहारा देकर चढ़ाना चाहिए । मचान बनाने का कार्य मार्च महीने से प्रारंभ कर देते हैं लेकिन लताओं को वर्षा ऋतु में ऊपर चढ़ाते हैं ।
सहफसली खेती
परवल की खेती मिलवां फसल के रूप में भी की जाती है । पूर्वी उत्तर प्रदेश में इसकी खेती पान के साथ की जाती है, जिससे पान के कोमल पत्तों को छाया प्राप्त होती है । चूंकि नवम्बर से जनवरी तक पौधा सुषुप्तावस्था में रहता है अर्थात् वृद्धि नहीं करता है अतः इस समय सह फसल के रूप में मटर या राजमा की खेेती हरी फली के लिए रिक्त जगह में की जा सकती है । इसके अलावा पालक, प्याज, मूली, मेंथी, फूलगोभी व पत्तागोभी भी सफलतापूर्वक सह फसली के रूप में ली जा सकती हैं । इससे रिक्त स्थान के उपयोग के साथ-साथ अच्छी आय अन्य फसल से ली जा सकती है । सह फसल के रूप में पालक सबसे उत्तम पाई गई है ।
फल की तुड़ाई एवं उपज
मैदानी क्षेत्रों में मार्च-अप्रैल के महीने में फल आना शुरू हो जातेे हैं जबकि नदियों के किनारे दियारा में लगाए गए पौधों पर फल फरवरी में ही आने लगते हैं । पौधों पर फल लगने के 15-16 दिन बाद पूर्ण विकसित हरे फलों की तुड़ाई करनी चाहिए । समय से फलों की तुड़ाई करते रहने से फल अधिक संख्या में लगते हैं । मैदानी क्षेत्रों में पहले वर्ष की फसल से औसतन 125 कुन्टल प्रति हैक्टेयर उपज प्राप्त होती है । दूसरे व तीसरे वर्ष की फसल से 250 से 300 कुन्टल तक उपज प्राप्त की जा सकती है । नदियांे के किनारे लगाए गए पौधों से 350 कुन्टल प्रति हैक्टेयर फलत मिलती है और प्रत्येक वर्ष नई फसल लगानी पड़ती है क्योंकि बाढ़ से फसल डूब जाती है बाढ़ समाप्त होने पर प्रतिवर्ष गड्ढे खोदकर नये पौधे लगाए जाते हैं ।
प्रमुख कीट एवं नियंत्रण
फल मक्खी: इस कीट की सूण्डी हानिकारक होती है । प्रौढ़ मक्खी गहरे भूरे रंग की होती है । इसके सिर पर काले तथा सफेद धब्बे पाये जाते हैं । प्रौढ़ मादा छोटे, मुलायम फलों के छिलके के अन्दर अण्डा देना पसन्द करती है, और अण्डे से ग्रब्स (सूड़ी) निकलकर फलों के अन्दर का भाग नष्ट कर देते हैं । कीट फल के जिन भाग पर अण्डा देती है वह भाग वहां से टेड़ा होकर सड़ जाता है । ग्रसित फल सड़ जाता है और नीचे गिर जाता है ।
नियंत्रण के लिए गर्मी की गहरी जुताई या पौधे के आस पास खुदाई करें ताकि मिट्टी की निचली परत खुल जाए जिससे फलमक्खी का प्यूपा धूप द्वारा नष्ट हो जाए तथा शिकारी पक्षियों को खाने के लिए खोल देता है । ग्रसित फलों को इकट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए । नर फल मक्खी को नष्ट करने लिए प्लास्टिक की बोतलों को इथेनाल, कीटनाशक (डाईक्लोरोवास या कार्बारिल या मैलाथियान), क्यूल्यूर को 6:1:2 के अनुपात के घोल में लकड़ी के टुकड़े को डुबाकर, 25 से 30 फंदा खेत में स्थापित कर देना चाहिए ।
कार्बारिल 50 डब्ल्यूपी./ 2 ग्राम/लीटर या मैलाथियान 50 ईसी / 2 मिली/लीटर पानी को लेकर 10 प्रतिशत शीरा अथवा गुड़ में मिलाकर जहरीले चारे को 250 जगहों पर 1 हैक्टेयर खेत में उपयोग करना चाहिए । प्रतिकर्षी 4 प्रतिशत नीम की खली का प्रयोग करें जिससे जहरीले चारे की ट्रैपिंग की क्षमता बढ़ जाए । आवश्यकतानुसार कीटनाशी जैसे क्लोरेंट्रानीप्रोल 18.5 एससी. / 0.25 मिली/लीटर या डाईक्लारोवास 76 ईसी. / 1.25 मिली/लीटर पानी की दर से भी छिड़काव कर सकते हैं ।
स्रोत-
- भा.कृ.अनु.प.-भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान पो.आ.-जक्खिनी (शाहंशाहपुर), वाराणसी 221 305- उत्तर प्रदेश