परवल में अफलत् की समस्या एवं निदान

कद्दूवर्गीय सब्जियाँ सबसे ज्यादा पोषकीय गुणों जैसे-प्रोटीन (2.0 प्रतिशत), वसा (0.3 प्रतिशत), कार्बोहाइडेªट (2.2 प्रतिशत), विटामिन ए (153 अ. ई.) तथा विटामिन सी (29.0 मिली ग्राम) से युक्त होती हैं। इसलिए परवल को कद्दूवर्गीय सब्जियों का राजा कहा जाता है। परवल आर्थिक समृद्धि का आधार है। उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल एवं ओडिशा में व्यापक पैमाने पर उगाया जाता है। यह सही है कि कभी-कभी परवल में अफलत एवं कम फलन की समस्या सब्जी उत्पादकों द्वारा महसूस की जाती है जो उत्पादन एवं उत्पादकता को कम करने का प्रमुख घटक होता है। परवल में अफलत् एवं कम फलन् के जिम्मेदार घटकों का विश्लेषण एवं उनके निवारण के उपाय निम्नलिखित है।

 

1. समस्या

परवल की खेती में उपयुक्त प्रजातियों का समावेश न करना परवल की खेती में उपयुक्त प्रजातियों का समावेश न करना अफलत् की एक आम समस्या है।

सुझाव

भारतीय कृषि शोध संस्थानों एवं कृषि विश्वविद्यालयों से परवल की अनेक उन्नतिशील प्रजातियों का विकास किया गया है, जिनका विवरण नीचे दिया गया है। किसान भाइयों को खेती में इन्ही प्रजातियों का प्रयोग करना चाहिए।

  •  काशी अलंकार- काशी अलंकार प्रजाति का विकास भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान, वाराणसी से किया गया है। इसके फल लम्बे मुलायम एवं हल्के रंग के होते है। फलों में बीज की मात्रा कम एवं गुदा ज्यादा होता है। औसत उपज 30.0 टन प्रति हेक्टेयर है। यह प्रजाति मिठाई बनाने के लिए भी उपयुक्त है। यह प्रजाति बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा एवं पश्चिम बंगाल में ज्यादा प्रचलित है।

 

  • काशी सुफल- इस प्रजाति का विकास भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान, वाराणसी से किया गया है। इस प्रजाति के फलों में हल्की धारियां पाई जाती है। फल मोटे व पतले छिलके वाले होते हैं। फलों में गूदा की मात्रा ज्यादा एवं बीज कम होता है। यह किस्म दूर के बाजारों में बेचने के लिए उत्तम है। इसकी औसत उपज 31.0 टन प्रति हेक्टेयर है।

 

  • स्वर्ण अलौकिक- इस प्रजाति का विकास हार्टीकल्चर एण्ड एग्रो फारेस्ट्री रिसर्च प्रोग्राम, राँची (झारखण्ड) से किया गया है। इसके फल हल्के हरे रंग के और नीचे  की तरफ नुकिले होते हैं। फलों की लम्बाई 5.0-80 सेन्टीमीटर, ठोस पतले छिलके वाले तथा मुलायम होते हैं। यह प्रजाति भी मिठाई बनाने के लिए उपयुक्त है। मचान पर खेती करने से इसकी औसत उपज 23.0- 28.0 टन प्रति हेक्टेयर होता है।

 

  • स्वर्ण रेखा- यह ओज पूर्ण प्रजाति है जिसका विकास हार्टीकल्चर एण्ड एग्रो फारेस्ट्री रिसर्च प्रोग्राम, राँची (झारखण्ड) से किया गया है। इसके फल हल्के हरे सफेद, पट्टीदार, 8.0-10.0 सेन्टीमीटर लम्बे व दोंनो किनारे पर नुकिले होते हैं। इसकी औसत उपज 20.0-23.0 टन प्रति हेक्टेयर है। यह प्रजाति बिहार, उत्तर प्रदेश, अ¨ड़ीशा एवं पश्चिम बंगाल में ज्यादा प्रचलित है।

 

  •  सी.एच.ई.एस. संकर-1 यह ओज पूर्ण संकर प्रजाति है जिसका विकास हार्टीकल्चर एण्ड एग्रो फारेस्ट्री रिसर्च प्रोग्राम, राँची (झारखण्ड) से किया गया है जिसके फल ठोस हरे पट्टीदार एवं 30.0-35.0 ग्राम वजन के होते हैं। इसकी औसत उपज 28.0-32.0 प्रति टन हेक्टेयर है। इस संकर किस्म में फल मक्खी का प्रकोप नहीं होता है।

 

  •  सी.एच.ई.एस. संकर-2 यह ओज पूर्ण संकर प्रजाति है जिसका विकास हार्टीकल्चर एण्ड एग्रो फारेस्ट्री रिसर्च प्रोग्राम, राँची (झारखण्ड) से किया गया है। यह संकर किस्म अधिक उत्पादक (30.0-40.0 टन प्रति हेक्टेयर) है। इसके फल पट्टीदार हरे रंग के एवं प्रत्येक फल का भार 25.0-30.0 ग्राम का होता है।

 

  •  राजेन्द्र परवल 1- इस प्रजाति का विकास राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय बिहार से किया गया है। इसके फल बड़े एवं पट्टीदार हरे रंग के होते हैं। इसकी औसत उपज 14.0-15.0 टन प्रति हेक्टेयर है।

 

  •  राजेन्द्र परवल 2– इस प्रजाति का विकास राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय बिहार से किया गया है। इसकेफल बड़े गहरे हरे रंग के तथा सफेद पट्टीदार होते हैं। इसकी खेती बिहार एवं उत्तर प्रदेश के मैदानी एवं नदियों के किनारे की जा सकती है। इसकी औसत
    उपज 15.0-17.0 टन प्रति हेक्टेयर है।

 

  •  फैजाबाद परवल-1 परवल की इस प्रजाति का विकास नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय फैजाबाद से किया गया है। इसके फल आकर्षक एवं हरे रंग के होते हैं। इसकी खेती उत्तर प्रदेश एवं बिहार में की जाती है। इसकी औसत उपज 15.0-17.0 टन प्रति हेक्टेयर है।

 

  •  फैजाबाद परवल-3 परवल की इस प्रजाति का विकास नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय फैजाबाद से किया गया है। इसके तकुआनुमा हरे रंग के तथा कम पट्टीदार होते है। इसकी औसत उपज 12.5-15.0 टन प्रति हेक्टेयर है। यह पूर्वी एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खेती के लिए संस्तुत की गयी है।

 

  •  फैजाबाद परवल-4 परवल की इस प्रजाति का विकास नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, फैजाबाद से किया गया है। इसके फल हल्के हरे तकुआनुमा तथा किनारे पर पतले होते है। यह मचान बनाकर खेती करने के लिये उत्तम है। इसकी औसत उपज 10.0-15.0 टन प्रति हेक्टेयर है।

 

2. समस्या

पौध प्रसारण सामग्री की सही जानकारी का अभाव परवल में नर व मादा पौधे अलग-अलग बनते है और आपसी परागण से फल का विकास होता है। अक्सर सब्जी उत्पादक पहले से लगे परवल के खेत में जाते हैं और जमाव लिये पौध दिख जाने पर जड़ सहित खुदाई कर मुख्य खेत में रोपणकर देते है। अक्सर ऐसा होता है कि पके बीज जमीन पर गिरकर जम जाते है और नये पौध बनाते है जिसे किसान भाई प्रसारण के लिए प्रयोग करते हैं जिसमें नर पौध ज्यादा 80-85 प्रतिशत व मादा पौध कम (15-20 प्रतिशत) होते हैं।
बीज से तैयार पौध ज्यादा 80-85 प्रतिशत व मादा पौध कम (15-20 प्रतिशत) होते है। बीज से तैयार पौध कमजोर होता
है पुष्पन (नर व मादा) का देर से असंन्तुलित मात्रा में अलग-अलग समय पर विकसित होते हैं अतः फलत् कम होती है।

सुझाव

पौध प्रसारण सामग्री का चुनाव केवल वांक्षित प्रजाति के मातृ पौधे (नर व मादा) के वर्धीय भाग से करें। बीज द्वारा पौध प्रसारण न करें और नहीं खेत में गिरे बीज से उगे पौधों को मुख्य खेत में रोपण करें। अच्छा होगा कि फलत समय ही नर व मादा पौध पहचान कर उसे अलग चिन्हक लगाकर अलग कर लें।

 

3. समस्या

खेत में नर व मादा पौधों का असंन्तुलन होना। सब्जी उत्पादक परवल की खेती तो करते हैं लेकिन खेत में नर व मादा पौधों की आपसी अनुपात नहीं रखते हैं। कभी-कभी तो सब्जी उत्पादक अधिक उपज की आशा से खेत में केवल मादा पौधों का ही रोपण करते हैं जिससे पौधों पर केवल मादा पुष्प बनते हैं, लेकिन नर पुष्प द्वारा मिलने वाला परागकण नहीं मिलता है। परागण के अभाव में मादा पुष्प में अण्डज अल्प विकसित या छोटा फल बनता है जो बाद में पीला व भूरा होकर गिर जाता है जिससे अफलत सामान्य बात हो जाती है।

सुझाव

परवल के खेत में पौध स्थापन (रोपण) के समय नर व मादा का अनुपात 1:10 का अवश्य रखें। ध्यान रहें कि नर पौध का विन्यास इस प्रकार हो कि प्रत्येक मादा पौध पर विकसित हो रहे पुष्प के पास नर भी विकसित हों।

 

4. समस्या

पौधों में अधिक वानस्पतिक वृद्धि का होना। आजकल परवल उत्पादकों के बीच अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए अधिक से अधिक कृषि रसायनों एवं पादप वृद्धि नियामकों के प्रयोग करने की होड़ लगी रहती है। इसके असंन्तुलित एवं अधिक प्रयोग, पौधों में बेतहासा वानस्पतिक वृद्धि में सहयोग करता है, अतः पौध¨ं में काबर्¨हाइड्रेटःनत्रजन (सी.एन.) अनुपात बिगड़ जाता है, जिससे अफलत की समस्या बन जाती है।

सुझाव

परवल का पौधा एक बार लगाने के बाद लगातार 3-4 वर्षों तक एक ही स्थान पर लगा रहता है अतः पौध रोपण के समय प्रत्येक थाले में 4-5 किलो ग्राम गोबर की सड़ी खाद या वर्मी कम्पोस्ट, 500 ग्राम नीम की खली 100 ग्राम डी. ए. पी. तथा 200 ग्राम म्यूरेट आफ पोटाश प्रयोग करें। परीक्षण में पाया गया कि परवल में जैविक खादों व कार्बनिक पलवार के प्रयोग से गुणवत्तायुक्त अधिक उपज मिलती है।

 

5. समस्या

अधिक पौध स्थापन  परवल की खेती करने वाले किसान भाई आवश्यकता से अधिक पौधों की स्थापना करते है यानि खेत में घना पौध
लगाते हैं अतः प्रत्येक पौधे बढ़कर एक दूसरे पर चढ़ जाती है। जिससे दो समस्या उत्पन्न होती है जो अफलत के लिए जिम्मेदार है।
a)अगर पौधों में वनस्पतिक वृद्धि ज्यादा है तो कार्बनः नाइट्रोजन अनुपात असन्तुलित हो जाता है जिससे पुष्प कम बनते है जो कम फलत् के लिए जिम्मेदार है।

b)खेत में अधिक पौध (घने पौध) स्थापन पर ज्यादा पुष्प विकसित होंगें एवं कुल उपज ज्यादा मिलेगी ऐसी  धारणा उत्पादकों में होती है यह परीक्षण में पाया गया है कि पौधों में बने केवल उपर के ही पुष्प कीटों से परागित होते है जिस पर फल बनते है लेकिन लता के
नीचे पुष्प बनने पर परागण के अभाव में फल नहीं बनते है पौध ज्यादा घना होने पर जमीन के नीचे से गर्मी निकली है जो विकसित हो रहे पुष्पों को गिरने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते है।

सुझाव

वाॅछित दूरी पर पौध रोपण करना चाहिए अतः कतार से कतार 1.5 मीटर तथा पौध से पौध की दूरी 1.0- 1.0 मीटर रखना चाहिए। अतः प्रति हेक्टेयर केवल 6000 मादा तथा 650 नर पौधों को ही लगाना चाहिए जिसे 30 * 30 * 30 से.मी. के गड्ढ़े में लगाना उत्तम रहता है। टेलीज पर पौध लगाने की दशा में 1.0 *1.0 मीटर की दूरी पर लगाकर टेªली रस्सी (नारियल, प्लास्टिक, जुट) आदि की सहायता से चढ़ा देवें।

 

6. समस्या

पुष्पों में परागण का न होना परवल में परागण समस्या भी अफलत के लिए जिम्मेदार है। अक्सर सब्जी उत्पादक हानिकारक कीट रसायनों का प्रयोग फलत् के समय करते हैं, जिससे परागण करने वाले कीट भी मर जाते हैं जिससे फलत् कम होती है। कभी-कभी
वतिकाग्र पर चूर्ण या पाउडर जमा हो जाता है जिससे परागकण उपलब्ध होने के बाद भी परागकण- नलिका विकसित नहीं होती है, परिणामतः अफलत की समस्या हो जाती है।

सुझाव

परवल में उचित सांद्रता वाले कीटनाशकों जैसे इमिडाक्लोप्रिड की 2.0 मिली लीटर प्रति लीटर पानी में  डालकर प्रयोग करना चाहिए एवं यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पाउडर वाले कृषि रसायन का प्रयोग कदापि न करें। पादप वृद्धि नियामकों जैसे फ्लानोफेक्स की 200 पी. पी. एममात्र का ही प्रयोग करना चाहिए। इससे परागण नलिका का समुचित विकास होगा और सुडौल फल बनेगें। कीटनाशकों
प्रयोग हमेशा सुबह 8-10 प्रातः के बीच करना चाहिए क्योंकि कि परवल के फूल सांयाकाल के समय पुष्पित होते है।

 

7. समस्या

फलों की तुड़ाई करते समय लता का बेधित (पंक्चर) होना अक्सर परवल की खेती मैदानी व नदियों के किनारे जमीन पर फैलाकर करते हैं जिससे फल की तुड़ाई करते समय लताओं को दबा देते हैं जिससे पौध के लताएं बेधित (पंक्चर) हो जाते है और तना का रस भी दबने से बाहर आ जाता है। अतः पोषक तत्वों का संवहन रूक जाता है तथा दबे भाग पर द्वितीयक रोग कारक संक्रमण करते हैं, जिससे अफलत हो जाती है।

सुझाव

यही सही है कि नदियों के किनारे तथा ग्रीष्म काल में पौधों को टेªलीज पर चढ़ाया नहीं जा सकता है लेकिन मैदानी भागों में पौध रोपण कर वर्षाकाल में फलत् टेªलीज पर पौध चढ़ाकर सुगमता से प्राप्त किया जा सकता है। इससे प्रत्येक पुष्प में समुचित परागण तथा सुगमता पूर्वक फल को तोड़ा जा सकता है।

 

8. समस्या

सूत्रकृमि का प्रयोग परवल में अफलत के लिए सूत्रकृमि का प्रकोप भी ज्यादा जिम्मेदार है। परवल की खेती करने वाले किसान दूसरे खेत से जड़ युक्त पौध को लाकर लगाते हैं। अक्सर जड़ों में सूत्रकृमि के अण्डे चिपके रहते है। जड़ रोपण के बाद पौध तो विकसित होता है लेकिन बाद में कमजोर पड़ जाता है और पुष्पन किये पौध पर फल कमजोर या नहीं बनते है।

सुझाव

पहली बार पौध रोपण एवं प्रत्येक वर्ष तना कन्र्तन करते समय प्रत्येक गड्ढ़े में 200-250 ग्राम नीम की खली तथा 15 ग्राम फ्यूराड़ान का प्रयोग करना चाहिए। अच्छा होगा कि रोपण के समय या पूर्व सभी लताओं को 1000 पीपी. एम. क्वीनालफास के घोल में 4-6 घण्टे तक डुबोकर लगावें।

 

9. समस्या

फल व तना छेदक का प्रकोप परवल में लगने वाले हानिकारक कीटों में फल मक्खी व तना छेदक प्रमुख कीट है जिससे परवल में कम फल लगते हैं। तना छेदक कीट पौधे के मुख्य तना में छेद कर देता है जिससे जड़ों से प्राप्त पोषक तत्वों का अग्र भागों तक संवहन
नहीं होता है और तना फूल जाता है। अतः फलत् कम हो जाती है। इसी प्रकार फल मक्खी परागण के पूर्व या परागण के बाद कोमल फलों में छेद कर देती है और बहुत छोटी अवस्था में ही फल भूरे होकर मर जाते है।

सुझाव

तना छेदक को नियन्त्रित करने के लिए इंडोक्साकार्ब अन्तः प्रवाही कीटनाशी की 1 मिली ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर 20 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिए। फल मक्खी के बचाव के लिए इमिड़ाक्लोप्रिड 1 मिली ग्राम दवा को 2 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।

 

Source-

  • India Institute of Vegetable Research
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