पपीता एक स्वादिष्ट, औषधीय एवं पौष्टिक फल है। जिसमें विटामिन ए प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है जो कि आँखो की सेहत के लिये आवश्यक है साथ ही साथ पपीता रेषेदार फल हैं जो कि पेट को साफ रखने में एवं कब्ज को दूर करने में सहायक होता है। इन कारणों से यह फल लोगों द्वारा पसंद किया जाता हैं।पपीते की खेती आसानी से की जा सकती है तथा व्यवसायिक दृष्टिकोण से भी यह फसल लाभदायक है। अतः इसकी खेती को बढावा देने की आवश्यकता हैं।
परिचय
पपीता (Carica papaya L.) उष्ण एवं उपोष्ण क्षेत्र का महत्वपूर्ण फल है। यह कैरीकेसी ;ब्ंतपबंबमंमद्ध कुल का पौधा हैं। पपीते की खेती न केवल गह वाटिका हेतु बल्कि व्यवसायिक स्तर पर भी की जा रही हैं। भारत में बहुत ठंडे क्षेत्रों को छोड़ कर सभी स्थानों में इसकी व्यवसायिक खेती की जा रही है जो कि आय का उत्तम स्त्रोत साबित हो रही है।
एक और जहाँ कच्चा पपीता सब्जी बनाने के उपयोग में आता है वही दूसरी ओर पका फल सीधे खाने के लिये उपयोग किया जाता हैं। पपीते से प्रसंस्कृत उत्पाद जैसे जैम, सिरप, मुरब्बा, कैंडी एवं अचार इत्यादि बनाये जाते हैं वही पपीते के दूध को सूखा कर पेपेन तैयार किया जाता है जो कि पाचन क्रिया को दुरूस्त करने हेतु दवाई बनाने के लिये उपयोग में आता है। इसका उपयोग चमड़े उद्योग में भी किया जाता हैं।
क्षेत्रफल एवं उत्पादन
भारत विश्व में सर्वाधिक पपीता उत्पादक देश हैं। देश में पपीते की खेती 73.7 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल में होती हैं तथा उत्पादन 25.90 लाख टन हैं। भारत में लगभग 24 राज्यों में पपीते का उत्पादन होता हैं। इनमे मुख्य पपीता उत्पादक राज्य असम, कर्नाटक, गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, बिहार, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश, मणीपुर एवं उत्तर प्रदेश के मैदानी भाग हैं। पिछले चार दशकों में पपीते का व्यावसायिक उत्पादन लगभग दस गुना बढा हैं।
पपीते में लिंग भेद
पपीता एक बहुलिंगीय पौधा है और इसमें निम्नलिखित प्रकार के फल लगते हैं- नर, मादा एवं उभयलिंगी। इसमें से केवल मादा फूल ही स्थाई होते हैं तथा इनमें लिंग परिवर्तन नही होता हैं। नर या उभयलिंगी पौधे वातावरण परिवर्तन होने पर लिंग परिवर्तन कर सकते हैं। यदि एक पौधे पर एक से अधिक प्रकार के फूल आये ंतो ये अस्थाई होते है।
नर पुष्प
नर पुष्प परागण का कार्य करते हैं। इसमें फल नही लगते हैं। ऐसे पौधों में फूल 1.0 से 1.50 मी. लम्बे डंठल से गुच्छों में निकलते हैं। प्रत्येक नर पुष्प छोटा, नलिकाकार होता है जिसमें पुंकेसर पाये जाते हैं, जहां से पराग उत्पन्न होता है। पुंकेसर (स्टेमन) की संख्या 10 होती हैं। ज्यादातर प्रजातियों में नर फूल हल्के पीले रंग के होते है तथा कभी-कभी इसमें गंध भी होती हैं।
मादा पुष्प
मादा पुष्प् के डंठल छोटे होते हैं। ये पत्तियों के कक्ष से निकलते हैं। फूल एक या तीन फूल के समूह में निकलते हैं। पुष्प में पाँच बाहयदल, मांसल मड़े हुए और हल्के पीले रंग के होते है। इसमें पुंकेसर नही होता हैं। पुखुड़ियों के बीच में स्त्रीलिंग चक्र होता हैं। जिसका निचला भाग घड़ीदार होता है। यही फूल का गर्भाशय है जो बाद में लगभग गोल या अंडाकार फल के रूप् में विकसित होता है। पकने के बाद फल गूदेदार, पीले से नारंगी रंग के विकसित होते हैं। फल अन्दर से खोखले होते हैं। जिसमें सिकुड़न लिए काले या भूरे रंग के बीज होते हैं।
उभयलिंगी पुष्प
उभयलिंगी पुष्प में नर व मादा दोनों प्रकार के भाग पाये जाते हैं। फूल 3.5 से 4.5 से.मी. लंबे होते है जिनका निचला भाग नलिकाकार तथा उपरी हिस्सा 5 पीली पंखुड़ियों से बना होता है। जिसमें नर व मादा भाग संयुक्त रूप् से होते है। फलों में पुमंग तथा जायांग दोनो का विकास अच्छी तरह होता है। ऐसे फूलों के अण्डाशय में पाँच धारियाँ होती है और पुंकेसर की संख्या पाँच होती है।
फूलों से विकसित फल लम्बे आकार के होते हैं। उभयलिंगी पौधे में तापमान के उतार-चढाव के अनुसार लिंग परिवर्तन भी होता है। पपीते में लिंग भेद पौध रोपण के 6-7 माह बाद पता चलता है जब इनमें पुष्प आने लगते हैं। नये पपीते के पौधे में लिंग का पता नही चल पाता हैं। पपीते की अच्छी पैदावार के लिये प्रमाणित एवं उपयुक्त किस्म के बीज आवश्यक है।
पपीते की किस्में
पपीते की कई किस्में भारत में उगायी जाती हैं जिसमें से लगभग 15 किस्में प्रमुख हैं। प्रमुख रूप से पपीते की दो प्रकार की किस्में उपलब्ध हैं। डायोशियस-जिसमें नर व मादा पौधे अलग-अलग होते है। गाइनोडायोशियस इसमें नर व मादा भाग एक ही फूल में पाये जाते हैं। ये दोनों प्रकार के पौधे जब फूल आरम्भ होता है तभी पहचान में आते हैं। बीज द्वारा प्रवर्धन किये जाने पर डायोशियस प्रजाति नर व मादा 1ः1 के अनुपात में देती है, परन्तु गाइनोडायोशियस किस्में मादा व उभयलिंगी पौधे 1ः2 के अनुपात में पैदा करते हैं। पपीते की मुख्य किस्में निम्नलिखित है-
बंगलौर की किस्में
1.कूर्ग हनी ड्यू
यह किस्म भारतीय बागवानी षोध संस्थान, बंगलौर के चेथाली केन्द्र से विकसित की गयी है तथा हनी ड्यू किस्म से चयनित हैं। यह गाइनोडायोशियस किस्म है जो दक्षिण भारत की जलवायु में अच्छी फसल देता है। इसके फल लम्बे, अण्डाकार आकार के एवं मोटे गूदेदार होते है। इस किस्म की शुद्धता बनाये रखने के लिये इसे अन्य किस्मों से इतना दूर लगायें जिससे परागण न हो सकें।
2.पिंकफ्लैश
यह भी एक गाइनोडायोशियस किस्म है, जो स्वादिष्ट होती है तथा गूदे का रंग लाल होता है। उसमें कुल घुलनशिल ठोस 12-140 ब्रिक्स होता हैं।
3.सूर्या
यह गाइनोडायोशियस किस्म है जिसके प्रति फल का औसत वनज 500 से 700 ग्राम तक होता है। इसमें कुल घुलनशिल ठोस 10 से 120 ब्रिक्स होता हैं। यह सोलो एवं पिंक फ्लैश स्वीट द्वारा विकसित संकर किस्म हैं।
पूसा समस्तीपुर, बिहार की किस्में
1.पूसा डिलिशियस
यह एक गाइनोडायोशियस किस्म है। इसके पौधे मध्यम उंचाई एवं अच्छी उपज देने वाले होते हैं। यह एक अच्छे स्वाद सुगन्ध एवं गहरे नारंगी रंग का फल देने वाली किस्म है जिसकी औसत उपज 58 से 81 कि.ग्रा. प्रति पौधा तक होती हैं। इसमें घुलनशिल ठोस 10-120 ब्रिक्स होता है । इस किस्म के फल का औसत वनज 1.0 से 2.0 कि.ग्रा. होता हैं। पौधों में फल जमीन की सतह से 70 से 80 से.मी. उंचाई से लगना प्रारम्भ कर देते हैं। पौधे लगाने के 260 से 290 दिनों बाद इस किस्म में फल लगना प्रारम्भ हो जाता हैं।
2.पूसा मैजेस्टी
यह एक उत्तम किस्म है। यह भी गाइनोडायोशियस किस्म है जो पेपेन उत्पादन के लिये उपयुक्त है तथा कोयम्बटूर -2 किस्म के समतुल्य हैं। इसके फल मध्यम आकार के गोल एवं अच्छी भण्डारण क्षमता वाले होते हैं।
3.पूसा ड्वार्फ
यह डायोशियस किस्म हैं। इसके पौधे छोटे होते है एवं फल का उत्पादन अधिक होता हैं। फल अण्डाकार 1.0 से 2.0 कि.ग्राम औसत वजन के होते हैं। पौधे मे फल जमीन की सतह से 25-30 से.मी. उपर से लगाना प्रारम्भ हो जाते हैं। सघन बागवानी के लिये यह प्रजाति अतयन्त उपयुक्त हैं।
4.पूसा नन्हा
यह एक अतयन्त बौनी किस्म है जिसमें जमीन की सतह से 15-20 से.मी. उपर फल लगना प्रारम्भ हो जाते हैं। गृह वाटिका व गमलों में छत पर भी यह पौधा लगाया जा सकता हैं। यह डायोशियस प्रकार की किस्म है जो 3 वर्षो तक फल दे सकती हैं। इसमें कुल घुलनशील ठोस पदार्थ 10 से 120 ब्रिक्स होता हैं।
तमिलनाडु कृषि विष्वविद्यालय, कोयम्बटूर द्वारा विकसित किस्में
तमिलनाडु कृषि विष्वविद्यालय, कोयम्बटूर से विकसित किस्में उत्तर भारत में भी सफलतापूर्वक लगायी जा सकती हैं। इनका विवरण निम्न हैं –
1.कोयम्बटूर 3
यह एक संकर किस्म है जो को.2 एवं सनराइज सोलो के संकरण से विकसित की गयी हैं । यह गाइनोडायोशियस किस्म है जो वर्ष 1983 में ताजे़ फल के लिये विकसित की गई थी। इसमें 90 से 120 फल प्रति पौधे तक उत्पादन हो सकता है। इसके फल मध्यम आकार के 500-800 ग्राम औसत वनज वाले होते है। फल लम्बे और गोल होते हैं। फल का गूदा पीले से नारंगी रंग का होता हैं यह फल खाने के लिये सर्वोत्तम हैं।
2.कोयम्बटूर 4
यह कोयम्बटूर 1 एवं वाॅशिगटन के संकरण द्वारा विकसित किस्म हैं। फल का गूदा मोटा एवं पीले रंग का होता हैं। पौधे के सभी भागों में बैंगनी रंग पाया जाता हैं। यह डायोशियस प्रकार की किस्म हैं। फल का औसत वनज 1.0 से 1.5 कि.ग्रा एवं घुलनशील ठोस 120 ब्रिक्स होता है। एक पौधा औसत रूप से 80 से 90 फल 2 वर्ष के फसल चक्र में देता हैं।
3.कोयम्बटूर 5
यह वर्ष1985 में वाशिंगटन किस्म से चयनित प्रजाति है। इसमें पेपेन अधिक मात्रा में पायी जाती है और अधिक प्रोटीन (72 प्रतिशत) होता है। इसमें 14 से 15 ग्राम प्रतिफल सूखा पेपेन पाया जाता है। यह 2 वर्ष के फसल चक्र में 75 से 80 फल देता है। प्रति फल औसत वनज 1.5 कि.ग्रात्र होता हैं एवं इसके गूदे में कुल घुलनशील ठोस 12 से 130 ब्रिक्स होता हैं
4.कोयम्बटूर 6
यह किस्म वर्ष 1986 में जायन्ट किस्म से चयनित की गई थी। यह किस्म डायोशियस प्रकार की है जो ताजे खाने योग्य फल एवं पेपेन हेतु उगायी जाती है। इसकी उपज 80 से 90 फल प्रति पौध 2 वर्ष के फसल चक्र में होती है। फल का औसत वनज 1.5 से 2.0 कि.ग्रात्र एवं कुल घुलनशील ठोस 12 से 130 ब्रिक्स होता हैं।
5.कोयम्बटूर 7
यह गाइनोडायोशि;यस किस्म है जो वर्ष 1997 में विकसित की गई हैं यह किस्म 100-110 फल प्रति पौध उपज देती हैं। इसके फल लम्बे तथा अण्डाकार होते हैं एवं गूदा लाल रंग का होता है तथा कुल घुलनशील ठोस 12 से 130 ब्रिक्स होता हैं।
गोविन्द वल्लभ पन्त कृषि एवं प्रौ. वि.वि. पन्तनगर द्वारा चयनित किस्म
1.पन्त पपीता -1
पौधा छोटा होता है तथा जमीन से 45 से.मी. की उंचाई से शुरू होता है, प्रति फल वनज 1-1.5 कि.ग्रा. होता हैं।
2.पन्त पपीता -2
पौधे बड़े एवं प्रथम फलन जमीन से 80 से 100 से.मी. की उंचाई से प्रारम्भ होता हैं, प्रति फल वनज 1.5-2.0 कि.ग्रा. होता है।
3.पन्त पपीता -3
पौधा 115-130 से.मी. की उंचाई के बाद फल देता है। तथा प्रति फल वनज 0.5 से 0.9 कि.ग्रा. होता हैं।
अन्य किस्में
1.सनराइज सोला
सनराइज सोलो किस्म एक उन्नत, अधिक उपज देने वाली चयनित किस्म है जो संकर किस्म लाइन-8 एवं केरिया सोलो (ओहु) से चयनित की गयी हैं। इसके फल का गूदा लाल-नारंगी रंग का होता हैं। फल मध्यम आकार का होता है, जिसका वनज 425 से 620 ग्राम प्रति फल होता हैं।
जलवायु और मिट्टी
पपीता एक उष्ण कटिबन्धीय फसल है, अतः पपीते की सबसे अच्छी फसल उष्ण कटिबंघीय क्षेत्रों में होती हैं, जहाँ यह पूरे वर्ष फूलता -फलता रहता हैं। किन्तु यह उपोषण जलवायु भी फल देने की क्षमता रखता है जहाँ पाला न पड़ता हो और तापमान 400 सें.ग्रे. से अधिक न हो। समुद्र सतह से 2000 मी. की उंचाई तक पपीता सफलतापूर्वक उगाया जा सकता हैं। अधिक गर्मी, शुष्क जलवायु एवं पाला फसल को प्रभावित करता हैं। पपीते की फसल 35 से.मी. तक वर्षा वाले क्षेत्र में की जा सकती हैं परन्तु अधिक नमी फसल व फल की गुणवत्ता को प्रभावित करती है। जल निकास की उचित व्यवस्था अति आवश्यक है अन्यथा पौधे गलन के कारण सड़ जाते हैं। बलुई दोमट भूमि तथा उचित निकास वाली भूमि जिसका पी.एच.मान 6.5 से 7.0 हो इसकी खेती के लिये उपयुक्त है। भूमि में क्षारता, पपीते की विभिन्न अवस्थाओं में विपरीत प्रभाव डालती हैं।
पपीते के लिये जीवान्श युक्त बलुई दोमट मिट्टी सर्वश्रेष्ठ होती है। हल्की मिट्टी वाले खेत में उपयुक्त मात्रा में पोषण देकर भी इसकी खेती की जा सकती है। पपीते का जड़ तंत्र छिछला होता है तथा इसे 45 से.मी. गहरी भूमि में लगाया जा सकता हैं। इसके लिये उच्च उर्वरकता, अच्छे निकास एवं वायु संचरण की भूमि उचित रहती हैं।
पपीते की खेती के लिये समुचित सूर्य का प्रकाश उपयुक्त होता है। इसके पौधे व फल को तेज हवा व पाले से बचाने की आवश्यकता होती हैं। इससे पौधे ही केवल प्रभावित नही होते बल्कि फलों पर भी बुरा प्रभाव पड़ता हैं। तेज़ हवा को रोकने के लिये वायुरोधी वृक्ष लगायें।
नर्सरी एवं प्रवर्धन
पपीते में नर्सरी तैयार करने हेतु स्वस्थ प्रमाणित बीज, 3 मीटर लम्बी, 1 मीटर चैड़ी और 10-15 से.मी. उँची क्यारी, गमले या पाॅलिथिन बैग मे उगाये । बीज के अच्छे जमाव के लिये नर्सरी बैड को फाॅर्मलीन से अथवा पाॅलिथिन ढक कर उष्मा उपचार करें। चार से पाँच दिनों बाद सीड बेड से पाॅलिथिन हटा दें या क्यारी को खुला छोड़ दें जिससे अतिरिक्त फाॅर्मलीन उड़ जाये। बीज को 1 से.मी. गहरे तथा एक दूसरे से 10 से.मी. की दूरी पर बोयें और उन्हे अच्छी कम्पोस्ट या पत्तियों या पाॅलिथिन से ढक दें। नर्सरी में पानी का हल्का छिड़काव हजारे द्वारा सुबह के समय करें। खराब मौसम से बचाने के लिये पुआल या पाॅलिथिन से ढकें।
कीटो से नर्सरी को बचाने के लिये 0.2 प्रतिशत कीटनाशक का भूरकाव करें। नर्सरी में गलका रोग से बचाने के लिये बीज का उपचार थीरम फफूंदनाशक दवा का प्रयोग 0.1 प्रतिशत की दर से करें। बीज का जमाव बोने के 15-20 दिनों बाद हो जाता हैं। यदि बीज को 1.5 मिली मोल सान्ध्रता वाली जिब्रैलिक एसिड घोल से उपचारित करें तो जमाव अच्छा होता है। पैतीस से.ग्रे. तापमान पर बीज का जमाव सबसे अच्छा होता हैं। एक हेक्टेयर भूमि में पौधे लगाने के लिये 500 गोम बीज की आवश्यकता होती हैं।
सामान्यतयः बीज को फल से निकालने के 3-4 माह बाद अंकुरण क्षमता कम होने लगती है, किन्तु इस बीज को बंद डिब्बे, जिसमें हवा न जाय एवं ठंडे स्थान पर रखें तो अंकुरण क्षमता 8-10 माह तक बनी रहती हैं। पपीते के इन नये पौधों को डैम्पिंग आॅफ बीमारी से बचाने के लिये 2 ग्राम (काॅपर आॅक्सीक्लोराईड) 1 लीटर पानी में घोल बनाकर 25 मि.ली. प्रति बैग प्रयोग करें।
क्यारी में उगे हुए पौधों मे जब 2-3 पत्तियाँ आ जाये तो क्यारी से पाॅलिथिन बैग में स्थानान्तरण करें। यदि एक से अधिक पौधे पाॅलिथिन बैग में है तो उन्हे अलग बैग में स्थानान्तरित कर दें। साधारणतयः पौधे 30-45 दिन बाद 15-30 से.मी. उँचाई के हो जाते हैं, तब खेत में पौधे लगाये। पौध रोपण सदैव सायंकाल में करें।
पपीते की नर्सरी से अधिकतम मादा व उभयलिंगी पौधे प्राप्त करने के लिये पौधे में नियंत्रित परागण कराने की आवश्यकता होती हैं। नर मादा व उभयलिंगी फूल का जब हम नियंत्रित परागण करेंगे तो निम्नलिखित प्रकार के पौधे प्राप्त होंगे।
पीढी वितरण
सामान्यतः पपीते में मादा या उभयलिंगी फूल का परागण उभयलिंगी फूल से कराने पर नर पौधे नही होते हैं। परागण की प्रक्रिया फूल खिलने से ठीक पहले करें। इसमें मादा या उभयलिंगी फूल को कागज के लिफाफे से तब तक ढकें जब तक कि फूल न खिल जाय। फूल खिलने के बाद उभयलिंगी या नर फूल के परागण द्वारा परागण करवायें और पुनः लिफाफे से कुछ समय के लिये ढक देें। जब फल बन जाये तब लिफाफा हटा दें। फल परिपक्व होने के बाद बीज निकालें।
पौध रोपण एवं दूरी
पपीते में अच्छी बाढ एवं उपज के लिये पौधे लगाने के समय का अत्यन्त महत्व हैं। अन्य मौसम की तुलना में पपीते के पौधों को वर्षो के मौसम में लगाने से पौधों की वृद्धि अधिक होती है और फल अधिक उँचाई पर लगते हैं। इससे फल की उपज कम होती हैं तथा फल तोड़ने में भी कठिनाई होती हैं। विषाणु रोग का प्रकोप भी अधिक होता है। चूँकि विषाणु रोग का कोई नियंत्रण नही हैं अतः इस बीमारी से बचने के लिये वृद्धिकाल में कीड़ो को नियंत्रित करें। जुलाई-अगस्त में लगाये पौधों में विषाणु रोग का प्रकोप अधिक होता हैं।
अतः सितम्बर एवं अक्टूबर माह में पपीते के पौधे रोपित कर अधिक उपज तथा अच्छी गुणवत्ता वाले फल प्राप्त करें। पपीता लगाने के पहले भली भाँति खेत तैयार करें। पौध रोपण के करीब 2 माह पहले खेत में 60 घन से.मी. के गड्ढे निर्धारित दूरी पर खोदें और 10-20 कि.ग्रा. गोबर की खाद या कम्पोस्ट एवं 1 कि.ग्रा. नीम की खली डाल कर गड्ढे को बन्द कर दें। अब इन गड्ढों के मध्य में पौधा लगायें।
पौधे से पौधे की दूरी एवं कतार से कतार की दूरी किस्म विशेष के अनुसार करें। पूसा डेलिशियस किस्म को पौध से पौध 1.8 मीटर एवं कतार से कतार 2.0 मीटर की दूरी पर लगाने से प्रति इकाई क्षेत्र में अधिक उपज प्राप्त होगी। इसी प्रकार पूसा ड्वार्फ को 1.5 ग 1.5 मी. दूरी पर लगाने से अच्छी गुणवत्तायुक्त उपज प्राप्त होगी। पपीता रोपण किस्म के अनुसार करें। यदि डायोशियस किस्म है तो दो विधि से पौधे लगायें-एक गड्ढे में त्रिकोण विधि में 3 पौधे लगायें या पौधों को नजदीक अर्थात 1 मी. की दूरी पर लगायें और जब फूल आये तो नर पौधों को निकाल दें एवं पौधों के बीच उचित दूरी बनाये रखे। यदि शुद्ध रूप से गाईनोडायोशियस किस्म लगाये तो एक गड्ढे में एक ही पौधा लगायें। पौधा लगाने के बाद पानी ही हल्की मात्रा डालें तथा शाम के समय ही पौधा लगायें।
खाद एवं उर्वरक
पपीते के पौधे खाद व उर्वरक के प्रभाव से तेजी से बढते हैं। पपीते में पौधों की वृद्धि, फूल एवं फल के साथ-साथ होती हैं। इसलिए पर्याप्त मात्रा में एवं थोड़े-थोड़े अन्तराल पर खाद व उर्वरक डालें। नत्रजन, फाॅस्फोरस एवं पोटाश तीनों तत्व अच्छी उपज देने हेतु आवश्यक हैं। पौधा लगाने से पहले डाली गयी गोबर की खाद के अतिरिक्त 200 ग्राम नत्रजन 200 ग्राम फाॅस्फोरस और 400 ग्राम पोटाश प्रति पौधा डालने से अच्छी उपज प्राप्त होगी। इस उर्वरक की मात्रा 50 से 60 दिनों के अन्तराल पर पाँच भागों में विभाजित कर के डाले क्योंकि उत्तर भारत में इस समय तापमान कम होता हैं और जाडे़ में पौधों की वृद्धि रूक जाती हैं। पपीता लगाने के 4 माह बाद से उर्वरक का उपयोग प्रारंभ करें।
सिंचाई
पपीते के पौधे पानी के जमाव के प्रति संवेदनशील होते हैं तथा ऐसी स्थिति में पौधा गल सकता है। गलन से बचाने के लिये पौधे क जड़ आस-पास 15-20 से.मी. उँची मिट्टी चढायें। पपीते के पौधों को ऐसी भूमि में लगायें। जहाँ पानी के निकास का उत्तम प्रबंध हो। खासतौर पर जहाँ अधिक वर्षा होती है तथा भारी मिट्टी हो। पपीते के पौधे में समय-समय पर सिंचाई करें। जलवायु के अनुसार नये पौधों में 2-3 दिनों के अन्तराल पर सिंचाई करें जब कि एक साल पुराने पौधों में गर्मी में 6-7 दिनों के अन्तराल पर एवं जाडे़ में 10-15 दिनों के अन्तराल पर सिंचाई करें विशेषकर जब वर्षा न हो पपीते की वृद्धि के लिये 60-80 प्रतिशत तक नमी उपयुक्त पायी गयी हैं। यदि लम्बे समय तक पपीते के पौधे को पानी न मिले तो पौधे की वृद्धि एवं विकास रूक जाता है।
पानी की कमी होने पर नर फूल अधिक निकलते हैं। जब फालन के समय पानी की कमी हो तो फूल एवं फल गिरने लगते हैं यदि खेत में लम्बे समय तक अधिक नमी बनी हुई है तो फल विकृत आकार के हो जाते हैं। पपीते के खेत में खुला पानी छोड़कर सिंचाई न करें बल्कि नाली द्वारा नियंत्रित सिंचाई करें जिससे न केवल पानी की बचत होगी बल्कि गुणवत्तायुक्त फल का उत्पादन भी होगा।सिंचाई हेतु टपक विधि (ड्रिप डरीटोशन विधि) का उपयोग भी किया जा सकता हैं। सिंचाई की टपक विधि से 50-60 प्रतिशत तक पानी बचाता है। पानी की उपयोग क्षमता भी टपक विधि द्वारा बढ जाती है।
पाले से पौधे की रक्षा
जाड़े में छोटे पौधों की पाले से रक्षा करना आवश्यक होता है। इसके लिए छोटे पौधों को नवम्बर में तीन तरफ से फूस या सरपत से अच्छी प्रकार से ढक दें। पूर्व-दक्षिण दिशा में पौधा खुला छोड़ दें जिससे सुर्य का प्रकाश पौधों को मिलें। फरवरी के अन्त में जब पाले का डर नही रहता, इसे हटा दें।
निराई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण
पपीते का बाग साफ सुथरा रखें। इसमें किसी भी प्रकार का खरपतवार नही होना चाहिये। प्रत्येक सिंचाई के बाद पौधे के चारो तरफ हल्की गुड़ाई अवष्य करें। पौधे के आस पास गहरी गुड़ाई या जुताई नही करें। गहरी गुड़ाई करने से जड़े कट सकती हैं। पौधे पोषक तत्व की आपर्ति कर सकते हैं। पपीते के पौधे से 3-4 फुट तक के क्षेत्र में खरपतवार नियंत्रण आवश्यक होता है। जैविक पलवार के प्रयोग से खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है ऐसी परिस्थिति में मिट्टी में नमी भी अधिक समय तक सुरक्षित रखी जा सकती हैं। खरपतवार नियंत्रण द्वारा कीटों से भी रक्षा होती हैं एवं विषाणु रोग से भी बचाव होता हैं।
उपज पपीते के पौधों से रोपण के 8-10 महीने उपरांत फल प्राप्त होने लगते हैं। औसतन एक पेड़ से 25-100 फल मिलते हैं। अच्छी किस्म और उन्नत तरीके अपनाने से प्रति वर्ष 270 क्विं से 350 क्विं प्रति हेक्टेयर तक उपज मिलती हैं।
पपेन तैयार करने की विधि
पपेन हरे कच्चे फलों के दूध से तैयार किया जाता है। इसको तैयार करने के लिये स्टेनलैस स्टील के चाकू या ब्लेड की सहायता से 3 महीने पुराने फलों को 25 से.मी. की दूरी पर 3 मि.मी. गहरा काटें। फलों को लंबाई में काटें। प्रति दिन चार से पाँच फलो को इस प्रकार काटे। दूध को प्रातः काल निकाल कर काँच अथवा चीनी मिट्टी के बर्तन अथवा मिट्टी के बर्तन में इकट्ठा करें तथा इसको 38 डिग्री से. से नीचे के तापक्रम पर सुखाये। यही सूखा हुआ पदार्थ पेपेन होता है, पपेन का आर्थिक उपयोग खाद्य पदार्थो, माँस को गलाने, स्नोक्रीम, दंतमंजन, सौंदर्य प्रसाधनों को बनाने, अल्कोहल तैयार करने, पाचन संबंधी रोगों में गोल कृमि संक्रमण एवं गुर्दे की बीमारियों के उपचार में प्रयुक्त किया जाता हैं।
औद्योगिक वस्तुओं के उत्पादन जैसे चबाने वाली गोंद बनाने, उनी कपड़ो के उद्योग मे उन को मुलायम करने के लिये टैनिंग तथा सिल्क के लसीलापन हटाने में भी उपयोग किया जाता हैं।
पपीते के रोग एवं कीट
1.जड़ और तना सड़न
इसके आक्रमण से पौधे की जड़ और तनों का सडना शुरू हो जाता है और अंततः पूरा पौधा सड़ कर गिर जाता है। जहाँ पौधे में जड़ सड़न की बीमारी अधिक लगती है वहाँ 1 कि.ग्रा. चूना और 100 ग्राम काॅपर सल्फेट को कम्पोस्ट के साथ मिला कर दें ऐसा करने से इस बीमारी की कुछ हद तक रोकथाम की जा सकती हैं।
2.ऐन्थ्रेक्नोज (कालव्रण)
इस रोग के प्रभाव से प्रभावित फल पर पीले रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। जो धीरे-धीरे मुलायम होते जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिये डायथेन एम -45 या डायथेन जेड-78 पानी में 0.25 प्रतिशत घोल बनाकर पौधों पर छिड़काव करें।
3.कली और पुष्पवृन्त का सड़ना
पौधों में यह बीमारी लगने से फूल और फल गिरने लगते हैं । बोर्डेक्स मिश्रण (5ः5ः50) का छिड़काव करें एवं इस बीमारी की रोकथाम करें। इसके अलावा 2 से 2.5 प्रतिशत डाईथेत एम-45 और डायथेन जेड-78 का भी छिड़काव शुरू में करने से इस बीमारी को रोकने में सहायता मिलती हैं।
4.रेड स्पाईडर (लाल मकड़ी)
इसके कारण नई पत्तियों छितरी हुई नजर आती है। इसे सल्फर डस्ट या 0.1 प्रतिशत या कैराथेन के छिड़काव से रोका जा सकता हैं।
5.नीमाटोड
रेनीफाॅर्म नीमाटोड (रैटीलेचुलस-नेनीफार्मिस) पपीते को यह बहुत अधिक हानि पहुँचाता है, जिसके कारण पौधा छोटा रह जाता है। इथिलिन डाईब्रोमाईड 3 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर देने से इस बीमारी की रोकथाम की जा सकती है एवं अंतरशस्य गेंदा उगाने पर इसकी वृद्धि की रोकथाम की जा सकती है।
Source-
- Jawaharlal Nehru Krishi VishwaVidyalaya,Madhya Pradesh