पत्तीदार सब्जियों की वैज्ञानिक खेती

हरी पत्ती वाली सब्जियाँ हमारे स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त ही महत्वपूर्ण हैं। ये खनिज पदार्थों तथा विटामिन ’ए’, विटामिन बी.-2, विटामिन ’के.’ एवं विटामिन सी. की प्रमुख स्रोत हैं। लोहा, कैल्शियम, फास्फोरस व रेशा प्रचुर मात्रा में विद्यमान होने के कारण बच्चे, बूढ़े यहाँ तक कि गर्भवती महिलाओं के लिए पत्तीदार सब्जियाँ अधिक उपयोगी हैं। इसके सेवन से कब्ज, अपच व आंत का कैंसर होने की सम्भावना कम हो जाती है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद् ने प्रत्येक व्यक्ति को 300 ग्राम सब्जियाँ खाने की सलाह दी जाती है जिसमें प्रति दिन 116 ग्राम पत्तीदार सब्जियों का होना आवश्यक है। पालक, मेथी और चैलाई मुख्य हरे पत्ते वाली सब्जियाँ हैं। ये सब्जियाँ स्वास्थ्यवर्धक होने के साथ कम मूल्य में आसानी से सर्वत्र उपलब्ध हो जाती हैं तथा भोजन को सरस, शीघ्र पाचनयुक्त, स्वादिष्ट, संतुलित व पौष्टिक बनाने में मदद करती हैं।

 

1. पालक की खेती

जलवायु

पालक मुख्यतः शीतकालीन फसल है। लेकिन इसे पूरे वर्ष भर उगाया जा सकता है। शरद ऋतु में इसकी वानस्पतिक वृद्धि अच्छी होती है और 5-6 कटाइयाँ एक फसल से प्राप्त हो जाती हैं। गर्मी के मौसम में उगाने पर ऊंचे तापक्रम के कारण एक कटाई ही मिलती है और बाद में बीज के डंठल निकल आते हैं। इसकी अच्छी वृद्धि और उपज के लिये 15 से 200 से. तापक्रम उपयुक्त पाया गया है। भूमि और भूमि की तैयारी पालक की खेती किसी भी मिट्टी में की जा सकती है।

अच्छे जल निकास वाली, बलुई दोमट या दोमट मिट्टी इसकी खेती के लिये बहुत उपयुक्त होती है। इसमें क्षारीय और लवणीय मिट्टी को सहन करने की क्षमता होती है। इसकी खेती 7 से 8.5 पी.एच. मान वाली मिट्टी में सफलतापूर्वक कर सकते हैं। खेती की 3-4 जुताई करके मिट्टी को भुरभुरी बना लेते हैं। बुआई के पूर्व खेत में छोटी क्यारियाँ और सिंचाई की नालियाँ बना लेनी चाहिए।

उन्नत किस्में

1.आलग्रीन

इस किस्म की पत्तियाँ एक समान हरी तथा बुआई के 20-25 दिन बाद कटाई योग्य हो जाती हैं। औसतन कुल 6-7 कटाई की जाती है। इस किस्म की औसत उपज 200 कु./हे. है।

2.पूसा हरित

यह किस्म पहाड़ी क्षेत्रों में पूरे वर्ष भर उगाई जाती है। मैदानी क्षेत्रों में भी इस किस्म की खेती अच्छी प्रकार से की जाने लगी है। पौधे उध्र्व विकास करने वाले, एक समान हरे होते हैं। इस किस्म की खेती क्षारीय मष्दा में भी की जा सकती है। प्रति हेक्टेयर औसत पैदावार 200 कु./हे. से भीअधिक है।

3.पूसा ज्योति

इनकी पत्तियाँ गहरी हरी, रेशा रहित, मुलायम व रसीली होती हैं। पौधे अच्छे व अधिक पत्तियों वाले होते हैं तथा पोटैशियम, कैल्शियम, सोडियम व एस्कार्बिक अम्ल अन्य किस्मों की अपेक्षा अधिक होती है।

4.जोबनेर ग्रीन

एक समान हरी, मोटी व मुलायम पत्तियों वाली इस किस्म की औसत पैदावार 300 कु./हे. है। पत्तियों का स्वाद काफी अच्छा होता है।

5.पन्त कम्पोजिट-1

इस किस्म की पत्तियाँ मुलायम, रसीली व एक समान हरी होती हैं। यह किस्म पत्ती धब्बा बीमारी से अवरोधी है।

6.एच.एस.-23

हल्की हरी व मध्यम आकार की पत्तियों वाली यह किस्म बीज की बुआई के 3-4 सप्ताह बाद तैयार हो जाती है। पहली कटाई लगभग 30 दिनों के बाद की जाती है तत्पश्चात्15-15 दिन के अन्तराल पर 6-8 कटाई की जाती है।

खाद एवं उर्वरक

बुआई के 3-4 सप्ताह पूर्व 20-25 टन गोबर की सड़ी खाद या कम्पोस्ट प्रति हेक्टेयर की दर से डालकर खेत की मिट्टी में अच्छी तरह मिला देते हैं। इसके अलावा 100 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस और 50 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से शरदकालीन फसल में डालते हैं। फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की एक चैथाई मात्रा आपस में मिलाकर बुआई के पूर्व खेत में डालकर मिट्टी में मिला देते हैं। शेष नाइट्रोजन बराबर मात्रा में बाँटकर प्रत्येक कटाई के बाद देते हैं। औसतन 3-4 बार टाप डेªसिंग शरदकालीन फसल में करते हैं। गर्मी की फसल में उर्वरक की मात्रा आधी हो जाती हैक्योंकि केवल एक ही कटाई मिल जाती है।

बीज की मात्रा और बुआई का समय

एक हेक्टेयर क्षेत्र में बीज बुआई के लिये 25-30 किलोग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है। बुआई का मुख्य समय अक्टूबर-नवम्बर है लेकिन इसकी बुआई लगभग पूरे वर्ष कर सकते हैं। बीज को प्रायः समतल खेत में छिटकवाँ विधि से बोते हैं परन्तु पंक्तियों में बोना अधिक लाभप्रद है। इस विधि से पंक्तियों की दूरी 15-20 सेन्टी मीटर रखते हैं। बीज को 2-3 सेन्टी मीटर गहराई पर बोते हैं। बीज जमने के बाद पौधे से पौधे की दूरी 4-5 सेन्टी मीटर रखते हैं।

सिंचाई

बीज की बुआई के समय पर्याप्त नमी होना आवश्यक है। पहली सिंचाई बीज जमने के बाद करते हैं और बाद की सिंचाईयाँ 10-15 दिन के अन्तराल पर करते रहते हैं।

अंतः सस्य क्रियायें

खरपतवारों के प्रबन्धन के लिए एक या दो निराई की आवश्यकता होती है। निराई खुर्पी की सहायता से करते हैं। दो पंक्तियों के बीच हल्की गुड़ाई भी कर दें जिससे पौधों की जड़ों में वायु संचार पूर्ण रूप से हो सके।

कटाई

पहली कटाई बुवाई के तीन या चार सप्ताह बाद करते हैं। बाद की कटाईयाँ 15-20 दिन के अन्तर पर करते हैं। कटाई सदैव जमीन से 5-6 सेन्टी मीटर ऊपर करनी चाहिए।

उपज

हरी कोमल पत्तियों की औसत उपज 150 कुन्तल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है।

2. मेंथी की खेती

जलवायु

मेंथी की खेती रबी मौसम में की जाती है। इसमें पाला सहन करने की शक्ति होती है।

 

भूमि एवं भूमि की तैयारी तथा सिंचाई

पालक के अन्तर्गत दिए गए विवरण के अनुसार।

 

उन्नत किस्में

१.पूसा अर्ली बचिंग

यह अधिक उपज देने वाली अगेती किस्म है। पत्तियों की कटाई बीज बुआई के लगभग 30-40 दिन बाद की जाती है। इस किस्म में बीज की बुआई के बाद से बीज बनने तक लगभग 4 माह का समय लगता है।

२.को.-1:

यह अधिक उपज देने वाली किस्म है जिसे बीजतथा पत्ती दोनों के उद्देश्य से उगाया जाता है।

३.मेथी से.-47

इसकी उपज अधिक होती है एवं पत्तियों में विटामिन सी की मात्रा अधिक पायी जाती है।

४.कसूरी मेथी

इसकी खेती मुख्य रूप से पत्तियों के लिए की जाती है। बुआई से पुनः बीज बनने तक लगभग 5 महीने का समय लगता है। इसकी 2-3 कटाई ली जा सकती है। इसकी हरी पत्तियों की पैदावार 60-75 कु./हे. है। इसमें विटामिन सी की मात्रा अधिक पायी जाती है।

५.लाम सेलेक्शन-1

इस किस्म के पौधे मध्यम ऊँचाई के झाड़ीदार होते हैं। इसको बीज तथा पत्ती दोनों के लिए उगाया जाता है।

६.यू.एम.-112

यह किस्म भी बीज व हरी पत्तियों के लिए उगाई जाती है। इसमें डायोस्जीनिन की मात्रा अधिक पायी जाती है जिसका प्रयोग विभिन्न प्रकार की दवायें बनाने के लिए किया जाता है।

बीज की मात्रा

सामान्य मेथी की एक हेक्टेयर खेत की बुआई के लिए 25 से 30 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है, जबकि कसूरी मेथी में बीज का आकार अत्यन्त छोटा होने के कारण 8-10 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है।

बुआई

उत्तर भारत में हरी पत्तियों के लिए मेथी की बुआई का उचित समय अक्टूबर से मध्य नवम्बर है। अगेती फसल के लिए 15 सितम्बर के लगभग बीज की बुआई कर सकते हैं। बीज की बुआई 15-20 सेन्टी मीटर की दूरी पर कतार बनाकर 1.5 से 2.0 सेन्टी मीटर गहराई पर करते हैं।

खाद एवं उर्वरक

खेत को तैयार करते समय 20-25 टन सड़ी गोबर की खाद या कम्पोस्ट अच्छी तरह से मिट्टी में मिला देते हैं। बुवाई के पहले 20 किलोग्राम नत्रजन एवं 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से अन्तिम जुताई के समय पूरे खेत में समान रूप से बिखेर कर मिट्टी में मिला देना चाहिये। प्रत्येक कटाई के बाद 10 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टेयर की दर से टाप डेªसिंग के रूप में देना चाहिये।

अंतः सस्य क्रियायें

प्रारम्भिक अवस्था में मेथी की वृद्धि धीमी गति से होती है। अतः केवल एक निकाई की आवश्यकता होती है। बुवाई के 4 से 5 सप्ताह बाद पौधों में इतनी अधिक वृद्धि हो जाती है कि खरपतवार नुकसान नहीं पहुँचा पाते हैं। जहाँ तक हो सके समय-समय पर खरपतवार निकालते रहना चाहिए।

कटाई

पालक के अन्तर्गत दिए गए विवरण के अनुसार।

उपज

सामान्यतः मेथी की हरी पत्ती की उपज 70-80 कुन्तल तथा कसूरी मेथी की 90-100 कु./हे. होती है। बीज की पैदावार सामान्य मेथी में 12-15 कु./हे. तथा कसूरी मेंथी में 6.0-7.0 कु./हे. होती है।

3. चैलाई की खेती

उन्नत किस्में

१.छोटी चैलाई (एमरेन्थस ब्लीटम)

इसके पौधे छोटे तथा पत्तियाँ छोटी और हरी होती हैं एवं तना पतला होता है। यह किस्म ग्रीष्म ऋतु के लिए अधिक उपयुक्त है।

२.पूसा कीर्ति

इस किस्म के पौधे 6-8 सेन्टी मीटर लम्बे, 4-5 सेन्टी मीटर चैड़े व 3-4 सेन्टी मीटर लंबे मूल वृंत वाले होते हैं। इसके मुलायम तनों पर 1.3-1.5 सेन्टीमीटर की दूरी पर पत्तियाँ लगती हैं। पत्ती व डण्ठल का अनुपात 3-4:1 होता है। पहली कटाई 30-35 दिनों बाद करते हैं व 70-80 दिनों तक 3-4 कटाई की जाती है। इसकी हरी पत्तियों की पैदावार 300 कु./हे. है|

३.पूसा किरण

इसमें पत्तियाँ अत्यधिक मुलायम, चैड़ी, हरी पत्तियों से लगा डंठल 5-6.5 सेन्टी मीटर लम्बा तथा डंठल व पत्तियों का औसत अनुपात 1ः4-6 होता है। पहली बुआई के 21-25 दिन बाद की जाती है जो 70-75 दिन तक चलती रहती है।

४.पूसा लाल चैलाई

इस किस्म की पत्तियों व तने का रंग लाल होता है। पत्तियों की लंबाई 5-8 सेन्टी मीटर व चैड़ाई 6.5 सेन्टी मीटर तक होती है।पौधे की ऊँचाई लगभग 42 सेन्टी मीटर होती है। डंठल और पत्ती का अनुपात 1ः5 तक पाया जाता है। पहली कटाई बीज बुआई के 22-24 दिन पौधों की बढ़वार नहीं होती।

5.को.-5

यह टेट्राप्लायड (चतुर्गुणित) किस्म है जिसकी बढ़वार और उपज अधिक होती है।

६.अरूण

चैलाई की यह प्रजाति केरल कष्षि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित की गयी है इसके पत्ते तथा तना लाल रंग के होते हैं।

7.अर्का सुगुना

इसकी पत्तियाँ आकर्षक, चैड़ी एवं हरी होती है। यह प्रजाति कई बार कटाई हेतु उपयुक्त है। इसमें पहली कटाई बुवाई के 25 दिन बाद की जाती है। इसकी कटाई 90 दिनों तक 10-12 दिन के अंतराल पर की जा सकती है। इसकी औसत उपज 270 कुन्तल प्रति हेक्टेयर है।

८.अर्का अरूणिमा

इस किस्म के पौधों की पत्तियाँ बैंगनी रंग की होती है। इसकी औसत उपज 275 टन प्रति कु. है। यह किस्म सफेद रतुआ के प्रति अवरोधी है। जलवायु चैलाई गर्म जलवायु की फसल है। मैदानी क्षेत्रों में इसकी खेती ग्रीष्म एवं वर्षा ऋतु में करते हैं। शरद ऋतु में पोधो की बढ़वार नही होती है|

 

भूमि और भूमि की तैयारी

पालक के अन्तर्गत दिए गए विवरण के अनुसार।

खाद एवं उर्वरक

बुआई के लगभग 3-4 सप्ताह पहले 20-25 टन सड़ी हुई गोबर की खाद, मिट्टी में मिला देना चाहिए। तत्व के रूप में प्रति हेक्टेयर 100 किलोग्राम नत्रजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस एवं 30 किलोग्राम पोटाश की आवश्यकता पड़ती है। फास्फोरस
व पोटाश की पूरी मात्रा व नत्रजन की आधी मात्रा बुआई से पूर्व मिट्टी में अच्छी तरह मिला देते हैं तथा शेष नत्रजन बराबर भागों में बाँटकर प्रत्येक कटाई के बाद छिटक कर डालते हैं।

बुआई का समय

साधारणतया ग्रीष्म कालीन फसल की पैदावार अधिक व गुणवत्तायुक्त होती है, जबकि वर्षा ऋतु में पत्तियाँ कीड़ों से प्रभावित हो जाती हैं। ग्रीष्म ऋतु की फसल की बुआई फरवरी-मार्च एवं वर्षा ऋतु की फसल की बुआई जून-जुलाई में करते हैं।

बीज की मात्रा

एक हेक्टेयर की बुआई के लिए 1.5-2.0 किलोग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है।

बीज की बुआई

चैलाई के बीज बहुत छोटे होते हैं इसलिए इसकी बुवाई रेत मिलाकर करते हैं, ताकि बीज सर्वत्र एक समान पड़े। बीज क्यारियों में छिटकर बोते हैं या 20 से 25 सेन्टी मीटर की दूरी पर कतारों में बुआई करते हैं। यदि पौध घनी उग जाएं तो उनको उखाड़कर प्रति क्यारी पौध सीमित कर लेते है। जहाँ खाली स्थान छूट गया हो वहाँ घने स्थान से पौधों को निकालकर रोपण भी किया जा सकता है। जहाँ तक हो सके बीज की बुआई पर्याप्त नमी की अवस्था में करनी चाहिए, ताकि जमाव अच्छी तरह हो सके।

सिंचाई

गर्मी के दिनों में तापक्रम के अनुसार सिंचाई 6-10 या 4-5 दिन के अन्तर पर करते हैं। वर्षा ऋतु में सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है और यदि वर्षा न हो रही हो तोबाद होती है। औसत पैदावार प्रति हेक्टेयर 300 कु./हे. है। आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए।

अतः सस्य क्रियायें

चैलाई की क्यारियों से खरपतवार बराबर निकाल कर क्यारी साफ-सुथरी रखनी चाहिए, ताकि चैलाई के पौधों को बढ़ने में कोई असुविधा न हो। सामान्यतया चैलाई में दो निकाई की आवश्यकता पड़ती है जिसे आवश्यकता के अनुसार करते हैं। निकाई के साथ-साथ हल्की गुड़ाई भी करते रहना चाहिए।

कटाई

पालक के अन्तर्गत दिए गए विवरण के अनुसार।

उपज

पत्तियों की पैदावार, किस्म, बोने के समय , मिट्टी की भौतिक दशा तथा उसमें उपलब्ध तत्वों के ऊपर निर्भर करती है। उचित खाद एवं उर्वरकों के प्रयोग व देख-रेख से हरी पत्तियों की औसत उपज 150-200 कुन्तल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है।

पत्तेदार सब्जियों की फसल सुरक्षा

प्रमुख रोग एवं नियंत्रण

१.पर्णदाग

यह रोग सभी पत्तेदार सब्जियों (पालक, चैलाई) की एक प्रमुख समस्या है। हल्के, भूरे गोल धब्बे जिसके किनारे लाल होते हैं पालक को छोड़कर अन्य पत्तीदार सब्जियों में बहुत स्पष्ट नहीं दिखाई देते हैं। यह रोग सामान्यतया सरकोस्पोरा प्रभेद के कवकों द्वारा होता है। यह रोग सलाद, सेलरी एवं चाइनीज पत्तागोभी में अल्टरनेरिया प्रभेद के कवकों द्वारा होता है। अल्टरनेरिया के धब्बे भूरे गोल और पत्ती की पूरी सतह पर फैले होते हैं। चैलाई में सफेद रस्ट नामक बीमारी तेजी से फैल रही हे जिसमें पत्तियों पर सफेद एवं बहुत छोटा धब्बा बनता है। इसका संक्रमण दक्षिण भारत में सबसे ज्यादा होता है।

नियंत्रण:

घनी बुआई न करें। पौधों की निचली पत्तियों को तोड़कर जला देना चाहिए। बहुत अत्यधिक संक्रमण की अवस्था में क्लोरोथैलोनिल या मैंकोजेब या जीनेब की 2 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी की दर से घोलकर 2-3 छिड़काव करें। खेत में संतुलित उर्वरक तथा कम्पोस्ट का प्रयोग करें।

२.सफेद गलन

यह रोग सर्वत्र विद्यमान कवक स्कलेरोटीनिया स्कलेरोसियोरम द्वारा उत्पन्न होता है। यह रोग सामान्यतयाठण्डे एवं नम मौसम में अधिक आता है। रोग के लक्षण जलीय मृदुगलन के रूप में पर्ण वृन्त, पुष्प वृन्त एवं तने पर शुरू होता है और पत्ती के कुछ भाग तक फैल जाता है। संक्रमण के बाद कवक जाल घनी हो जाती है एवं कवक तन्तुओं पर जल बिन्दु दिखने लगते हैं। बाद में संक्रमित भागों के ऊपर कवक जाल बहुत घनी हो जाती है और काले रंग की कवक संरचना (स्कलेरोसिया) से ढँक जाता है।

नियंत्रण:

संक्रमित फूलों, पत्तियों इत्यादि को कुछ स्वस्थ भाग के सहित सुबह के समय काटकर सावधानीपूर्वक इकट्ठा करना चाहिए जिससे स्कलेरोसिया जमीन पर न गिर सकें और फिर खेत के बाहर ले जाकर जला देना चाहिए। कार्बेन्डाजिम कवकनाशी की 1 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी की दर से घोलकर पर्णीय छिड़काव करें और इसके 6-10 दिन बाद मैंकोजेब 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें। छिड़काव निचली पत्तियों एवं तने तक अवश्य पहुँचना चाहिए। वैलिडामाईसीन (2मी.ली./ली.) या ब्टेलुकोनाजोला, 1.5 मी.ली./ली. पानी के साथ मिलाकर मश्दा सिंचन करें।

३.चूर्णिल आसिता

संक्रमण की प्रारंभिक अवस्था में पत्तियों पर सफेद पाउडर दिखाई देता है जो संक्रमण बढ़ जाने पर पूरे पौधे पर सफेद चूर्णिल आवरण बना देता है। यह बीमारी मेंथी की फसल को अधिक प्रभावित करती है।

नियंत्रण:

घुलनशील गंधक 20-25 ग्राम/10 लीटर पानी के घोल का छिड़काव करें।

प्रमुख कीट एवं नियंत्रण

पत्तेदार सब्जियों में मुख्यतः कत्र्तन कीट (पत्ती काटने वाले कीट) एवं चैंपा (एफिड) नुकसान पहुँचाते हैं। कत्र्तन कीट पत्तियों को काटकर नुकसान पहुँचाता है जबकि चैंपा पत्तियों एवं पौधों के कोमल भाग से रस चूसता है तथा उसकी वृद्धि को प्रभावित करता है। इसके नियंत्रण के लिए मालाथियान 0.05 प्रतिशत का छिड़काव 15 दिन के अन्तराल पर कर सकते है। जहाँ तक हो सके जैविक कीटनाशकों का प्रयोग करें। नीम तेल (4 प्रतिशत) का छिड़काव 10 दिन के अन्तराल पर 4 बार करने से कीटों से सुरक्षा मिलती है। पत्तियों की कटाई कीटनाशकों के प्रयोग से कम से कम 10 दिन बाद करनी चाहिए।

 

Source-

  • भारतीय सब्जी अनुसंधान संसथान
Show Buttons
Hide Buttons