परिचय
वर्तमान समय में लोंगो में स्वास्थ के प्रति जागरुकता दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैे।हम उत्तम भोजन में फलों का समायोजन किये बिना संतुलित आहार की कल्पना नही कर सकते । उद्यानिकी फसलों की उत्पादकता एवम् आय में आपेक्षित वृ़िद्ध हेतु उपलब्ध संसाधनों का सबसे उपयुक्त उपयोग का निर्धारण ही कृषि वैज्ञानिकों का लक्ष्य है।
फलोत्पादन के क्षेत्र में नींबूवर्गीय फसलों में विश्वपटल पर भारत का छठवाॅ स्थान है इसके उत्पादक प्रमुख देश संयुक्त राज्य अमेरिका, स्पेन, इजराइल, मोरक्को, दक्षिण अफी्रका आदि है। भारत में फल उत्पादन के बढ़ते कदम काफी उत्साहवर्धक है वर्ष 1991-92 में फलों के अंतर्गत 2874 हजार हेक्टेयर का क्षेत्रफल था वह 2013-14 में बढ़कर 7216 हजार हेक्टेयर हो गया वही उत्पादन के दृष्टिकोण से 28632 हजार मैट्रिक टन से बढ़ कर 88977 हजार मैि ट्रक टन हो गया ।
नींबू वर्गीय फलों को देश में उत्पादन के परिपेक्ष्य में तृतीय स्थान प्राप्त है वर्ष 2013-14 में नींबूवर्गीय फलों के अंतर्गत 1078 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल वही उत्पादन 11147 हजार मैट्रिक टन था यदि वृद्धि दर प्रतिशत 2012-13 के वनस्पति 2013-14 को देखे तो क्षेत्रफल में यह वृद्धि 3.3 प्रतिशत थी जबकि उत्पादन में यह वृद्धि 9.5 प्रतिशत रही। राज्यवार स्थिति में महाराष्ट्र 15.8% , आन्ध्रप्रदेश 17.2% वही मध्यप्रदेश की उत्पादन में भागीदारी 11. 1% की वर्ष 2013-14 में रही। नींबूवर्गीय फल क्षुधावर्धक, कृमिनाशक, पित्तनाशक व कफनाशक होता है वही विटामिन “सी” प्रचुर मात्रा पाया जाता है। नींबूवर्गीय फलों का परिरक्षण उद्योग में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है इससे पेय पदार्थ, आचार, साईट्रिक एसिड, साइट्रेट आॅफ लाइम आदि बनाये जातेहै।
भारतवर्ष के 26 प्रदेशों में नींबू वर्गीय फलों की खेती सफलतापूर्वक की जाती है कुछ प्रमुख राज्यों का विवरण अधोलिखित है-
क्र. |
नींबूवर्गीय |
फलकानाम राज्य |
प्रजातिया |
1 | मोसम्बी | पंजाब, राजस्थान, उत्तरप्रदेश | पाइनएपल, जाफा, हिमलिन |
2 | मेन्ड्रिन/संतरा | महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, पंजाब,राजस्थान,उत्तरप्रदेश, केरल | नगपुर, मिन्नो, दारजिलिंग |
3 | नींबू | आंध्रप्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, ,उत्तरप्रदेश, गुजरात, मध्यप्रदेश,महाराष्ट्र | कागजी, स्ट्रौरी, बारामासी |
4 | ग्रेपफ्रूट | आंध्रप्रदेश | पी.के.एम (जयादेवी) |
जलवायु
भारत वर्ष में नींबूवर्गीय फलो का उत्पादन विभिन्न जलवायु क्षेंत्रो में सफलतापूर्वक किया जाता है। नींबूवर्गीय फलों की सफलतापूर्वक खेती 13 से 37 डिग्री सेंटीग्रेड तापक्रम वाले क्षेत्रों में की जा सकती है।लेकिन न्यूनतम तापक्रम-4 डिग्री सेंटीग्रेड नवीन पौधों के लिये घातक होता है। अच्छी वृद्धि, पुष्पन, फलन हेतु 25 डिग्री सेंटीग्रेड का तापमान उपयुक्त माना जाता है। पाला पड़ने वाले क्षेत्रों में पौधों को काफी नुकसान होता है। साथ ही 75 से 250 सेमी. वर्षा वाले क्षेत्र उपयुक्त माने जाते है।
मृदा
नींबूवर्गीय फलों की खेती रेतीली दोमट से चिकनी मृदा तक की जा सकती है लेकिन अच्छी जल निकास वाली हल्की मृदा उपयुक्त मानी जाती है। मृदा का पी.एच. 5.5 से 7.5 उपयुक्त होता है।
मदा की तैयारी
नींबूवर्गीय पौधों की बाग स्थापना हेतु स्थान का चयन करनें के उपरान्त जुताई कर समतल बना लेना चाहिए पहाडी़ क्षेत्रों में ढलान के विपरीत पौध रोपण करना चाहिए। नींबूवर्गीय पौधोंमंे जल जमाव की स्थिति से व्यापक क्षति होती है अतः वर्षाकालमें जल निकासी की लेना चाहिए।
लगाने की दूरी
(1) संतरा 6*6 मी. प्रति हे. पौधा संख्या 277।
(2) मोसम्बी सामान्य दूरी 5*5 मी. प्रति हे पौधा संख्या 400।
(3) नींबू सामान्य दूरी 6*6 मी. प्रति हे. पौधा संख्या 277।
रोपण
रोपण हेतु सबसे अच्छा समय जून-अगस्त माह का होता है इस कार्य हेतु 60 * 60 * 60 सेमी. आकार का गड्ढ़ा मई माह में खेाद देना चाहिए इन गड्ढों में 10 किग्रा. अच्छी सड़ी गोबर की खाद प्रति गड्ढ़ा साथ ही 500 ग्रा. सुपर फास्फेट का प्रयोग रोपण के पूर्व करना चाहिए।
रोपण पूर्व उपचार एवम् सावधानियां
पौधों की जड़ो को मेटालेक्जील एम जेड 72.2, 2.75 ग्राम के साथ कार्बेंडाजिम 1 ग्राम प्रति ली. पानी की दर से लगाने के पूर्व 10-15 मिनट तक डुबाना चाहिए। रोपण करते समय यह ध्याान रखना चाहिए कली जोड़ जमीन की सतह से 25 सेमी. उपर रहे। जमीन से 2.5-3 फीट की उचाईं तक आने वाली शाखओं को समय-समय पर काटते रहना चाहिए।
उर्वरक
नींबू वर्गीय फसलों में नाइट्रोजनयुक्त उर्वरक की बराबर मात्रा जनवरी,जुलाई,नवम्बर माह में देनी चाहिए जबकि फाॅस्फोरस युक्त उर्वरक वर्ष में दो बराबर भागों में जनवरी व जुलाई माह में साथ ही पोटाशयुक्त उर्वरक वर्ष में एक बार जनवरी माह में देना उपयुक्त होता है।
उर्वरकों की मात्रा( ग्राम/पेड़/वर्ष)
उर्वरक |
प्रथम वर्ष |
द्वितीय वर्ष |
तृतीय वर्ष |
चतुर्थ वर्ष या अधिक |
नाइट्रोजन | 150 ग्रा. | 300 ग्रा | 450 ग्रा | 600 ग्रा |
फास्फोरस | 50 ग्रा | 100 ग्रा | 150 ग्रा | 200 ग्रा |
पोटास | 25 ग्रा | 50 ग्रा | 75 ग्रा | 100 ग्रा |
पोषक तत्वों की कमी के लक्षण एवम् उपचार
पोषक तत्वों |
कमी के लक्षण |
उपचार |
नाइट्रोजन | पूरे पौधे की हरी पत्तियों व शिराओं पर हल्का पीलापन दिखाई देना। | 1-2 प्रतिशत यूरिया का छिड़काव या 600-1200 ग्राम यूरिया प्रति पौधा भूमि में डालें |
फास्फोरस | पत्तियां छोटी सिकुड़कर लम्बी एवम् भूरे आकार की हो जाती है| | सिगल सुपर फास्फेट 500-2000 ग्राम समान्य मृदा में डाले गम्लीय मृदा में सम फसस्फेट 500-1000 ग्राम प्रति पौधा / वर्ष डालें |
पोटास | फल छोटे होकर छिल्का मोटा हो फल गोलाई की अपेक्षा लम्बे हो जाते है। | पोटेशियम नाइट्रेट (1-3 प्रतिशत) का छिड़काव या म्यूरेट आफ पोटाश 180-500 प्रति पौधा /वर्ष भूमि में उपयोग करें। |
मैग्नीशियम | पत्तियों की शिराओं के बीच में क्लोरेटिक हरे धब्बे दिखाई देते है। | डोलोमाईट 1-1.5 किग्रा / पौधा प्रति वर्ष अम्लीय मृदा में आवश्यक रुप से करें। |
आयरन | पत्तियां कागज की भाति प्रतीत होती है शिराओं का बीच का क्षेत्र पीला पड़ जाता है एवम् पत्तियां सूख कर नीचे गिर जाती है। | फेरस सल्फेट (05 प्रतिशत) का छिड़काव करें या फेरस सल्फेट 200-250 ग्राम/पौधा /वर्ष भूमि में प्रयोग करें। |
मैगनीज | पत्तियों का शिरा जाल पत्तियों के रंग से अधिक गहरा हरा एवम्पी लापन लिए होता है। | मैगनीज सल्फेट 0.25 प्रतिशत का छिड़काव या 200-300 ग्राम/पौधा/वर्ष मैगनीज सल्फेट का प्रयोग मृदा में करें। |
जिंक | पत्तियां छोटी नुकीली, गुच्छेनुमा शिराओं का पीलापन परिपक्व अवस्था में पत्तियों का गिरना पत्तियों की उपरी सतह पर सफेद धारी बनना | जिंक सल्फेट (0.5 प्रतिशत) का छिड़काव करें या जिंक सल्फेट 200-300 ग्राम/पौधा /वर्ष भूमि में प्रयोग करें। |
बोरान | नई पत्तियों पर जल शेाषित धब्बों का बनना साथ ही पीरपक्व पत्तियों पर अर्ध पारदर्शी धब्बों के साथ मध्य एवम् अन्य शिराओ का टूटता हुआ दिखाई देना| | सोडियम बोरेट 0.5-0.2 प्रतिशत का छिड़काव या बोरेक्स 25-50 ग्राम/पौधा /वर्ष भूमि में प्रयोग करें। |
कॉपर | फलों पर भूरापन लिये दाग दिखना फल हरा होकर कड़ा हो जाता है साथ ही शाखाए सूखने लगती है। | कापर सल्फेट 2.5 प्रतिशत का छिड़काव करें या जिंक सल्फेट 100-250 ग्राम/पौधा /वर्ष भूमि में प्रयोग करें। |
नींबूवर्गीय फलों की व्यवसायिक प्रजातियां
1.नींबू
प्रजाति का नाम |
विशेषता |
संस्तुत क्षेत्र |
कागजी नींबू | फल वजन 40 ग्राम फल दो मौसम मई-जून व नवम्बर- दिसम्बर में आते है | संपूर्ण भारत |
विक्रम | 5-10 के गुच्छे में लगते है | आन्ध्रा प्रदेश, महाराष्ट्र ,म.प्र., |
जय देवी | फल वर्ष भर लगते है फल बड़े आकार के गोल आकर्षक पीले रस की मा़त्रा 52.3 प्रतिशत होती है | आन्ध्रा प्रदेश, महाराष्ट्र ,गुजरात, कर्नाटक, उत्तरप्रदेश |
साईं शरवती | फल बड़े आकर | आन्ध्रा प्रदेश, महाराष्ट्र ,गुजरात, कर्नाटक, उत्तरप्रदेश |
फुले शरवती | साई शरवती के मुकाबले उन्नत प्रजाति उत्पादन 11.28 प्रतिशत ज्यादा | आन्ध्रा प्रदेश, महाराष्ट्र , गुजरात, कर्नाटक, उत्तरप्रदेश |
रसराज | यह कागजी नींबू और नेपाली राउन्ड लेमन के संकरण से उत्पन्न प्रजाति है यह सिट्रस कैंसर रोग के प्रतिरोधक क्षमता रखती है | आन्ध्रा प्रदेश, महाराष्ट्र , गुजरात, कर्नाटक, उत्तरप्रदेश,झारखंड |
सीडलेस लाइम | यह प्रजाति चयन के माध्यम से किसित की गयी है, उत्पादन क्षमता अधिक होती है। |
2. संतराः
प्रजाति का नाम |
विशेषता |
संस्तुत क्षेत्र |
फूर्ग मैंडरिन | दक्षिण भारत की सबसे महत्वपूर्ण व व्यवसायिक प्रजाति, अधिक रस, 14-30 बीज , फरवरी-मार्च माह में परिपक्व हो जाते है
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कर्नाटक, तमिलनाडू
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खासी मैंडरिन | पूर्वी राज्य हेतु प्रमुख व्यवसायिक प्रजाति फल चिपटे गोल से अण्डाकार, रसयुकत 9-25 बीज
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असम, मंघालय, मणिपुर, अरुणाचलप्रदेश, सिक्किम, मिजोरम, त्रिपुरा
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नागपुर मैंडरिन | सबसे उपयुक्त प्रजाति, फल हल्के गोलाकार रस से भरपूर 6-7 बीज , जनवरी से फरवरी माह में परिपक्व होते है
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महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, पंजाब, राजस्थान, उड़ीसा,हिमाचलप्रदेश, उत्तर प्रदेश,
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किन्नोव | यह किंग एवम् विलोव लीफ के संकरण से उत्पन्न प्रजाति है। फल मध्यम से बड़े आकार, पतले, हल्के बहुत रसीले, 12-24 बीज जनवरी मध्य में परिपक्व हो जाते हे।
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महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, पंजाब, राजस्थान, उड़ीसा, हिमाचलप्रदेश, उत्तर प्रदेश,हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली
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3.मौसम्बीः
प्रजाति का नाम |
विशेषता |
संस्तुत क्षेत्र |
मौसम्बी | उपयुक्त प्रजाति, रसयुक्त होती है, चीनी की मात्रा कम होती है
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महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, पंजाब,मध्यप्रदेश आदि
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सतगुड़ी | यह मौसम्बी की महत्वपूर्ण प्रजाति है | आन्ध्रा, उड़ीसा, तामिलनाडू,राजस्थान, पश्चिम बंगाल
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ब्लड रेड | माल्टा इसका फल गहरे लाल गूदे वाले छिलका चमकीला लाल फल का स्वाद अधिक मीठा होता है
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उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, पंजाब,मध्यप्रदेश ,महाराष्ट्र, तामिलनाडू
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वैलनरसिया | फल ज्यादा रसीले, कम बीज, पतले छिलके होते है
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आन्ध्रा, उड़ीसा, तामिलनाडू, राजस्थान, पश्चिम बंगाल
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अन्तःकर्षण क्रियायें
जुताई, खरपतवार नियंत्रण इसके प्रमुख अवयव है। जिससे मृदा स्वास्थ ठीक रहता है। खरपतवार नियंत्रण हेतु खरपतवारनाशी रसायनों जैसे ड्यूरान (3 मि./हे.), ग्लाइफोसेट (4 ली./हे.) का प्रयोग कर खरपतवार नियंत्रण कर सकते है। जब पौधे छोटे हो तो अन्र्तवर्ती फसल के रुप में दाल वाली फसले जैसे सोयाबीन, चना, मूँगफली, मटर आदि का सफलतापूर्वक उत्पादन कर अतिरिक्त आय प्राप्त कर सकते है।
छत्र प्रबन्धन
नींबूवर्गीय फलों में अधिक उत्पादन हेतु छत्र प्रबन्धन आवश्यक रुप से अपनाना चाहिये। नींबू में पौधेां को माडीफाइड सेन्ट्रल लीडर सिस्टम के अनुसार मुख्य तने पर 75-100 से.मी. तक समस्त शाखायें (मुख्य तने को छोड़ कर) हटा देनी चाहिये। भारी कर्षण के विपरीत हल्के कर्षण से प्रकन्द व प्ररोह ज्यादा विकसित होते है इसकी छटाई में मुखय रुप से सूखी, रोगग्रस्त, टूटी, टेड़ी-मेढ़ी
शाखाआं को निकाल देना चाहिए। फल की तुड़ाई के बाद तुरंत छटाई करनी चाहिए व कटे हुए भाग पर वोरडेक्स लेप या ग्लाइटाक्स लगाना चाहिए। प्रत्येक छटाई के उपरान्त बाविस्टिन (1 ग्राम/ली.) का छिड़काव आवश्यक रुप से संक्रमण बचाव हेतु करना लाभकारी होता है।
जल प्रबंधन
अधिक सिंचाई से अधिक उत्पादन की धारणा सही नहीं है बगीचों में फलड इरीगेशन से नुकसान होता है। गर्मी के मौसम में 4-7 दिनों के अंतराल तथा ठंड के मौसम में सिंचाई करना लाभप्रद होता है। सिंचाई हेतु टपक पद्धति का प्रयोग उत्तम है जिससे 40-50 प्रतिशत पानी बचत होती है साथ खरपतवार की समस्या में 40-65 प्रतिशत तक की कमी आाती है।
बहार उपचार
पेड़ों में अधिक फूल प्राप्त करने के लिये मृदा प्रकार के अनुसार 1 से 2 माह बाग में सिंचाई बन्द कर देते है जिससे कार्बनः नत्रजन अनुपात में सुधार होता है (जिससे नत्रजन कम हो जाता है एवं कार्बन की मात्रा बढ़ जाती है) जिससे अधिक संख्या में फूल आते है। कभी- कभी सिंचाई बंद करने के बाद भी पेड़ों में पुष्प की अवस्था नहीं आाती है वहां सी.सी.सी. 1500 से 2000 पी.पी..एमका छिड़काव करने से अधिक मात्रा में पुष्प प्राप्त होते है।
फलों का गिरना
नींबू वर्गीय फलों में यह प्रक्रिया 2 या 3 बार होती ही है प्रथम फल गोली के आकार से थोड़ा बड़ा होने पर दूसरा फल पूर्ण विकसित होने या फल रंग परिवर्तन के समय। फल तुड़ाई के कुछ दिन पहले फलों का गिरना अम्बिया बहार की काफी बहार की समस्या गंभीर है। फलो को गिरने की रोकथम हेतु फूल आने के समय मिप्रेलिक अम्ल 10 पी.पी.एम. यूरिया 1 प्रतिशत का घेल लाभप्रद होता है। सितम्बर माह में 15 पी.पी.एम.बिनामिल या कार्बेन्डाजिम 1000 पानी का छिड़काव फलों को गिरने से रोकता है।
कीट प्रबंधन
1. सायला कीट- समूह में रहते हुए मुलायम पत्तियों तथा फूलों से रस शोषण करते है परिणामतः नर्म पत्तियां व फूल सूख कर गिर जाते है। नियंत्रण हेतु जनवरी-फरवरी, जून-जुलाई तथा अक्टूबर-नवम्बर माह में नीम तेल 3-5 मि.ली/ली. या इमिडाक्लोरोपिड का छिड़काव करें।
2. पर्ण सुरंगक कीट- नर्सरी तथा छोटे पौधों पर अधिक प्रकोप होता है जिससे वृद्धि रुक जाती है। यह कीट कैंसर रोग का संवाहक है नियंत्रण हेतु प्रभावित पत्तियों को नष्ट कर देते है साथ ही क्विनालफाॅस 2र्5 इ. सी. 2.0 मिली./ लीटर पानी का छिडकाव प्रभावशाली होता है|
3. नींबू की तितली- इसकी इल्लियां पत्तियो को खाती है कीट का प्रकोप जुलाई- अगस्त माह में सर्वाधिक होता है। इसके नियंत्रण हेतु डायपेल (बी.टी.) 0.05 प्रतिशत या सायपर मेथ्रिन 1 मिली./ ली. पानी में मिला कर छिड़काव किया जाता है|
4. छाल खाने वाली इल्ली- यह इल्लियां रात्रिचर होती है जो रात्रि में पेड़ो की छाल को खाती है नियंत्रण हेतु ग्रसित भाग से जाले हटा कर डायक्लोरोफाॅस 1 प्रतिशत घोल छिद्र में डाल करछेद को रुई से बन्द कर देते है।
रोग प्रबंधन
1. नींबू का कैंसर रोग- रोगग्रस्त भाग को काटकर नष्ट कर देते है इसके उपरांत 5:5:50 का बोडोमिक्चर छिड़काव वर्षा के पहले करें। नींबू पर 500-1000 पी.पी.एम. स्ट्रेटरीमाइसीन सल्फेट या 2000 पी.पी.एम. फाइटोमाइसीन का ग्लिसरीन के साथ छिड़काव करना लाभप्रद होता है। बाग में जल निकास का उत्तम प्रबंधन करें क्योंकि यह रोग नमी में ज्याादा होता है।
2. गमोसिस- जब सिंचाई का जल अथवा वर्षा का पानी बगीचे में पौधों के लगातार सम्पर्क में रहता है तो पौधो की तने की छाल फटजाती है जिससे गोद जैसा पदार्थ निकलने लगता है ही छाल नष्ट हो जाती है पौधे कमजोर होने लगते है और नष्ट हो जाते है। नियंत्रण हेतु
टपक सिंचाई का प्रयोग उचित होता है थालों की सिंचाई विधी अपनानी चाहिए। पा।धे लगाते समय गड्ढ़े में जिक सल्फेट + काॅपर सल्फेट + चूना (5: 1:4) का मिश्राण प्रयोग करना चाहिए। तने पर बोर्डो मिक्चर का प्रयोग करना चाहिए।
बोर्डो मिक्चर बनाने की विधी
1 किलो नीला थोथा को 5 ली. पानी में घोल लें इसके बाद 1 किलो बिना बुझा चूना अलग बर्तन में 1 लीपानी में घुलने को रखते है इसके उपरान्त तीसरे बर्तन में दोनो घेालों को साथ-साथ मिलाते है बोर्डो मिश्रण उपयोग हेतु तैयार है इस घोल को तैयार करते समय बर्तन मिट्टी या प्लास्टिक का होना चाहिये।
स्रोत-
- कृषि विभाग, उत्तर प्रदेश