निर्यात के लिए अंगूर की खेती

शताब्दियों से अंगूर विश्व में बहुत आकर्षक फल रहा है । भारत से यूरोप तथा खाड़ी के देशों एवं श्रीलंका और बंग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों को अंगूर निर्यात किया जाता है । संगापुर तथा हांगकांग से होकर उत्तर-पूर्वी देशों में अंगूर के निर्यात के लिए नए बाजार विकसित हो रहे है । भारतीय अंगूर उत्पादक, अंगूर की खेती एवं फसल के बाद के प्रबंधन में नई एवं उन्नत प्रौद्योगिकी का प्रयोग करके निर्यातकों की बेहतर गुणवत्ता वाले अंगूरो की मांग को पूरा करने के लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं । राष्ट्रीय अंगूर अनुसंधान केन्द्र, पुणे ने निर्यात के लिए अंगूर की खेती के लिए अपनाई जाने वाली उन्नत पद्धतियां तैयार की हैं ।

 

निर्यात के लिए गुणवत्ता मानक

निर्यात के लिए उन्नत अंगूर का तात्पर्य देखने में आकर्षक एवं सुन्दर अंगूर से है । इसलिए अंगूर का गुच्छा भरा-पूरा होने के साथ-साथ उसके रंग एवं आकार में भी एक रूपता होनी चाहिए । आमतौर पर निर्यात बाजार में बेहतर गुच्छे वाले अंगूर को वरीयता दी जाती है इनमें निम्न गुण शामिल हैं|

  •     400 से 600 ग्राम वजन वाले एक ही रंग, आकार एवं प्रकार के अलग-अलग गुच्छे ।
  •     तजा तनों वाला, हरा, बड़ा तथा बीमारी रहित ।
  •     खरोंच रहित या धूप तथा बीमारी एवं कीटों से क्षतिग्रस्त न हो ।
  •     16 से 18 मि.मी. व्यास वाला तथा छूने में ठोस ।
  •     तजा तथा हरा दानों वाला ।
  •     17-18 ब्रिक्स का कुल घुलनशील ठोस ।
  •     ब्रिक्स तथा अम्ल का अनुपात 25:30 होना चाहिए तथा कीटनाशक अवशेष नहीं होना चाहिए ।

 

खेती की पद्धतियां

  • छंटाई करने के बाद छतरी विकास तथा गुणवत्ता सुधार (अप्रैल)
  • फसल उगाने के बाद अंगूर की बेल को एक माह तक यथास्थिति में रहने देना चाहिए तथा उसके बाद आधार तने को छोड़कर समस्त तनों की छंटाई कर देनी चाहिए ।
  •  छंटाई के तत्काल बाद रोग वाहक के विस्तार को समाप्त करने के लिए 1ः बोर्डेक्स मिश्रण का छिड़काव करना चाहिए । इसलिए तत्काल तथा एक समान कली की दर से कलियों में हाइड्रोजन साइनामाईड छिड़कना पड़ता है ।
  • बेल फैलाव में प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र के लिए 5-6 भली-भांति विकसित शाखाएं रखनी चाहिए । इसके लिए प्रत्येक नोड में केवल एक तना भी रखा जाता है । इसकी जगह, पोषक तत्व और धूप के लिए प्रतिस्पर्धा खत्म हो जाती है, जिससे बचे हुए तने में उचित विकास तथा परिपक्वता सुनिश्चित होती है तथा रोग प्रबंधन भी आसान हो जाता है ।
    फल छंटाई के बाद गुणवत्ता में सुधार (अक्टूबर)|
  • छंटाई के सात दिन पहले सभी पत्तियों को हटा देना चाहिए तथा सहायक शाखाओं को क्रियाशील करने के लिए मोड़ देना जरूरी है ।
  • फलदार कली के ठीक ऊपर बेल की छंटाई की जाती है । आमतौर पर छोटे पोर की लंबाई से फलोत्पादक कली के स्थान का पता चलता है । इसकी माइक्रोस्कोप से कली का परीक्षण करने के बाद पुष्टि की जा सकती है |
  • स्मान फुटाव के लिए, कटाई के बाद ऊपर की 2 से 3 कलियों पर 1ः बोर्डेक्स मिश्रण का छिड़काव किया जाता है तथा हाइड्रोजन साइनामाईड लगाया जाता है ।
  •  यदि तने में तीन पत्ते आने पर अत्यधिक तना वृद्धि देखने में आती है तो 250 से 500 पी.पी.एम. दर तक सी.सी.सी. स्प्रे किया जाता है ।

 

निर्यात के लिए गुच्छों में छितरापन होना जरूरी है । इसके लिए गुच्छे के डंठल को लंबा कर सकते हैं तथा गुच्छे में अंगूर के दानों की छंटाई भी की जा सकती है । गुच्छे के डंठल को लंबा करने के लिए पुष्पन से पूर्व जिब्रेलिक अम्ल का छिड़काव करना चाहिए । जब गुच्छे का रंग तोतई हरा हो जाए तो 10 पीपीएम का छिड़काव करें और इसके चार पांच दिन बाद 15 या 29 पी पी एम जिब्रेलिक घोल का छिड़काव करें ।

प्रत्येक छिड़काव के लिए प्रति हैक्टेयर 400 से 600 लीटर घोल का उपयोग करें ।इसके बाद गुच्छों को 40 पी पी एम जिब्रेेलिक अम्ल में डुबोयें । छोटे फलों के विकास को रोकने के लिए ध्यान रखें कि गुच्छों को फूलों की पूरी तरह खिली हुई अवस्था में या खिलने से लेकर 3-4 मिली मीटर तक के फल आने की अवस्था के बीज जिब्रेेलिक अम्ल के घोल में न डुबोयें ।

फल बनने के तुरंत बाद गुच्छों के डंठल की हाथ से छंटाई कर दें । उसके लिए ऊपर की तीन शाखाएं रखें और उसके बाद एक को छोड़कर एक शाखा की छंटाई करें । तनों का आकार बढ़ाने के लिए जैव-नियामकों द्वारा उपचार करना चाहिए । पहला उपचार तक करें जब फलों का आकार लगभग 3-4 मिली मीटर हो और उसके सात दिन बाद दूसरा उपचार करें । हारमोन का उपयोग आमतौर पर प्रत्येक गुच्छे में उपलब्ध पत्तियों के क्षेत्र पर निर्भर करता है ।

लगभग 15 पत्तियों वाले पर्याप्त पत्तियों से भरे क्षेत्र में पहला छिड़काव 2 पी पी एम-एन (2-क्लोरो-4-पाईरीडिल)-एन.फिनाइल-यूरिया (सी.पी.पी.यू.) तथा 40 पी.पी.एम. जिब्रेेलिक अम्ल का करें । दूसरा छिड़काव 1 पी.पी.एम. सी.पी.पी.यू तथा 30 पी.पी.एम. जिब्रेेलिक अम्ल का किया जाता है । एक बेल से अच्छी गुणवत्ता वाले अंगूरों की अत्यधिक पैदावार 15 कि.ग्रा. तक लेनी चाहिए । इसलिए अत्यधिक भार नहीं डालने की सिफारिश की जाती है ।

 

जल प्रबंधन

अधिकांश अंगूर के बाड़े रुट स्टाॅक पर बनाए जा रहे हैं । जिन क्षेत्रों में लवणता की समस्या है तथा पानी की कमी है वहां पर अच्छे मूलवृंत (रुट स्टाॅक) के चुनाव से उनके जीवित रहने का बेहतर विकल्प मिला है तथा दीर्घ काल में अंगूर के बाड़े से बेहतर आर्थिक लाभ होता है । उगने की अवस्था से ही लताओं की जल आवश्यकताओं की पूर्ति पैन-वाष्पीकरण पर आधारित एक समुचित सिंचाई कार्यक्रम के अनुसार देनी चाहिए, जो नीचे दिया गया है|

चरण प्रारम्भिक छंटाई प्रति मि.मी. वाष्पीकरण हेतू जल की मात्रा (ली./है.)
1. अंकुर फूटना (1-40 दिन) 4200
2. पूर्व विकसित फल का विभिन्न स्तर पर विकास (41 से 60 दिन) 1400
3. अंकुर की परिपक्वता (61-120 दिन) 1400
4. फल विकास (छंटाई से 121 दिन) 1400
बाद की छंटाई
5. अंकुर फूटना (1-40 दिन) 4200
6. विकसित होने से अलग-अलग होने तक (41 – 55 दिन) 1400
7. अंगूर के दानों का विकास (56-105 दिन) 4200
8. पकना (फसल उगाने से 106 दिन) 4200
9. शेष अवधि (फसल उगाने से कटाई के बाद तक)

 

 

पोषण तत्व प्रबंधन

प्रति हैक्टेयर 660 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 880 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 660 कि.ग्रा. पोटेशियम प्रति वर्ष देनी चाहिए । तथापि, उर्वरकीय सिंचाई देकर पोषक तत्वों की आवश्यकता को कम किया जा सकता है । विकास चरण तथा उर्वरकीय सिंचाई कार्य सूची अनुसरण के लिए निम्नलिखित है:

 

विकास चरण नाइट्रोजन (कि.ग्रा./है.) फास्फोरस (कि.ग्रा./है.) पोटाश (कि.ग्रा./है.)
अप्रैल की छंटाई (पिछली छंटाई)
कली-पूर्व विभिन्नता (1-30 दिन) 80
कली भिन्नता (31-60 दिन) 213
कली के बाद अंतर (61-120 दिन) 80
अक्टूबर की छंटाई (बाद की छंटाई)
पुष्पन से पूर्व (1-40 दिन) 80
पुष्पन अवस्था (41-70 दिन)
पकने तक फली (विकास से 71-105 दिन) 107
खेती के पकने तक (फसल उगाने से 106 दिन) 80 80
फसल के बाद (लगभग 20 दिन की शेष अवधि) 80
27 35 27
कुल 267 355 267

 

अंगूर के रोग एवं प्रबंधन

अंगूर की फसल पर तीन रोगों अर्थात डाउनी मिल्ड्यू, पाॅउडरी मिल्ड्यू और एनथ्राक्नोस का प्रकोप प्रमुख तौर पर होता है । वर्षा और अत्यधिक नमी की अवस्था में डाॅउनी मिल्ड्यू बीमारी तीसरी पत्ती निकलने की अवस्था से फल बनने तक बड़ी भयानक सिद्ध हो सकती है । डाउनी मिल्ड्यू को नियंत्रित करने के लिए निम्न उपाय करने चाहिए:

  • शाखा विकास के 3 से 5 और 7 पत्तियों के आने की अवस्था तक व्यवस्थित ढंग से फफूंद रोधी रसायन स्प्रे करना चाहिए ।
  • पूर्ण विकास फल के अंकुरण से उसके विकास तक लगभग 13 मिली मीटर के व्यास में 5 से 7 दिन के अंतराल में फफूंद रोधी रसायन प्रोफाइलेक्टिक स्प्रे करना चाहिए ।
  • छंटाई के 75 दिनों बाद मैनकोजेब तथा जिरम जैसे डिथियोकार्बेमेट फफूंदनाशक का स्प्रे नहीं किया जाता है क्योंकि इससे इथाइल थिओरिया का अंश है । यह फल में विद्यमान कारसीनोजेनिक पदार्थ होता है ।पाउडरी मिल्ड्यू पत्ती तथा शाखाओं में होता है । निर्यात की आने वाली फसलों के लिए रोग नियंत्रण के लिए उचित उपाय किए जाने चाहिए क्योंकि पूर्व विकसित फल की सतह में आने से उसकी बाजार कीमत कम हो जाती है ।

पाउडरी मिल्ड्यू के लक्षणों की जानकारी मिलते ही साथ ही विकास की प्रक्रिया के दौरान कवकनाशी का व्यवस्थित स्प्रे करना चाहिए । पूर्ण विकसित फल के गुच्छे तैयार होने के बाद तनों का जब विकास बन्द हो जाता है तो उस स्थिति में कवकनाशी को यदा-कदा स्प्रे को वरीयता देनी चाहिए । किसी भी प्रकार की समस्या से बचने के लिए प्रत्येक मौसम में व्यवस्थित कवकनाशी के 2 अथवा 3 से अधिक स्प्रे नहीं करना चाहिए ।

एंथ्राक्नोज बीमारी नए अंकुर, नई पत्तियों तथा फूलों एवं नए पूर्व विकसित फलों में होती है । यदि सक्रिय विकास अवस्था में शुष्क दशाएं होती हैं तो व्यवस्थित फफूंद रोधी द्वारा नए अंकुरों की रक्षा करनी चाहिए । उसके बाद काॅपर फफूंद रोधी का स्प्रे करना चाहिए । फफुंद रोधी स्प्रे करने से पूर्व सवंमित तनों की छंटाई करनी चाहिए । काॅपर फफूंद रोधी के स्प्रे को वरीयता देनी चाहिए क्योंकि इससे शुष्क मौसम में होने वाले डाउनी मिल्ड्यू, एन्थ्राक्नोज तथा बैक्टीरियल केन्कर को नियंत्रित करने में सहायता मिलती है ।

 

नाशीकीट प्रबंधन

निर्यात किए जाने वाले अंगूरों में ’मिलीबग’ एक गंभीर समस्या है क्योंकि यह कीड़े पके हुए अंगूरों में हमला कर उन्हें निर्यात के लिए अनुपयुक्त बना देते हैं । इसलिए मिलीबग का एकीकृत प्रबन्धन आवश्यक है । इसमें नियंत्रण के लिए निम्न उपाय किए जाते हैं:

  •  सितम्बर में सूखी छाल को हाथ से निकालना तथा तने एवं छल्लों में चिपकने वाले पदार्थ का लेप लगाना ।
  •  गुच्छे के सक्रिय विकास के दौरान कीटनाशी का छिड़काव, फसल के पकने से पूर्व क्रिप्टोलाइमस बीटल्स द्वारा जैव-नियंत्रण तथा फफूंदनाशी माइक्रोपैरासाईट वर्टीसिलियम लेकानी का छिड़काव करना चाहिए ।
  • फलों की निराई के चैथे दिन फ्ली बीटल के नियंत्रण के लिए 0.15ः की दर से कार्बेरिल का स्प्रे करना चाहिए ।
  • 50 प्रतिशत पुष्पन अवस्था में जैसिड और टिड्डे पर नियंत्रण करने के लिए व्यवस्थित कीटनाशी का छिड़काव करना चाहिए ।

 

तुड़ाई उपरांत प्रबंधन

भण्डारण के दौरान अंगूर को सड़ने से बचाने के लिए इनको सल्फर डाई-आॅक्साइड जनरेटरों, जिन्हें आमतौर पर अंगूर रक्षक के रूप में जाना जाता है, और जिनमें सोडियम मेटाबायसल्फेट लगे क्राफ्ट पेपर/पोलीथीन शीट होती है, पैक किया जाता है । ट्राइकोडर्मा हार्जिनम फसल पूर्व जैव-नियंत्रण छिड़काव को फसल कटाई के 20 और 5 दिन पूर्व या फसल पकने से पूर्व वर्षा के तत्काल बाद छिड़काव करना चाहिए । इससे कटाई के बाद फसल को सड़ने से काफी हद तक बचाया जा सकता है तथा अंगूर की भण्डारण अवधि में वृद्धि होती है ।

अंगूर के निर्यात के लिए अपेक्षित फायटो-सेनिटरी प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए कीटनाशी विश्लेषण रिपोर्ट प्राप्त करना अनिवार्य है । कीटनाशी के अवशेषों को कम करने के लिए अपनाए जाने वाली कार्य नीतियों में निम्नलिखित शामिल हैं:

  • केवल अनुमोदित कीटनाशी का उपयोग करना ।
  • प्रतिबंधित तथा गैर-संस्तुति वाले रसायनों का छिड़काव न किया जाए ।
  • अनुप्रयोग के लिए सिफारिश के अनुसार रसायनों का छिड़काव ।
  • पूर्व-निर्णित छिड़काव कार्यक्रम के अनुसार बगैर-सोचे समझे कीटनाशी का छिड़काव न करें । मौसम की स्थिति एवं लताओं की अवस्था के अनुसार छिड़काव करने का निर्णय लेना चाहिए ।
  • संस्तुत फसल-पूर्व अंतराल तथा सुरक्षित प्रतीक्षा अवधि का पूर्णतया पालन किया जाए ।
  • तुड़ाई से तीस दिन पूर्व जैव नियंत्रण उपाय अपनाए जाना चाहिए ।

 

फसल तुड़ाई

अंगूर को बबल शीट लगी स्वच्छ प्लास्टिक के क्रेट, या अन्य मुलायम सामग्री लगी क्रेटों में तोड़कर एकत्र करना चाहिए । तोड़ने के दौरान अंगूर के गुच्छे को डंठल के साथ ही तोड़ना चाहिए और उन्हें गुच्छे के ठीक ऊपर वाले तने सहित काटना चाहिए । इससे अंगूर अधिक समय तक सुरक्षित किया जा सकता है । फसल तुड़ाई कार्य 200 सें. से ऊपर तापमान पहुंचने से पूर्व रोक दिया जाता है ।

 

गुणवत्ता नियंत्रण एवं पैकेजिंग

अंगूरों को पैक हाउस में वाहन से उतारा जाता है तथा उसकी गुणवत्ता की जांच की जाती है । पैक-हाउस में अत्यधिक सफाई रखी जाती है । पहले गुच्छों को उनके आकार के अनुसार श्रेणी बद्ध किया जाता है । उसके बाद छोटे तथा क्षतिग्रस्त अंगूरों को निकाल दिया जाता है । इस प्रकार पूर्ण गुच्छों को ढीला पैक किया जाता है और और अच्छे अंगूर के पूर्व विकसित फल का चयन करने के बाद गुच्छा आकर्षक दिखने लगता है । पूर्णविकसित फल के व्यास तथा गुच्छे के रंग की एक रूपता जैसे मापदण्डों के आधार पर गुच्छों को श्रेणी बद्ध किया जाता है । इस प्रकार के चयनित गुच्छे साढ़े चार तथा पांच और 9 किलोग्राम के डिब्बों में निर्यात एवं घरेलू बाजार की मांग के अनुसार पैक किये जाते है ।

4 से 5 प्लाई कार्ड बोर्ड के बक्से का पैकिंग में उपयोग किया जाता है । जिसमें इन्टरलाॅक की सुविधा होनी चाहिए । अंगूरों की सफाई, ग्रेडिंग, पैकिंग तथा उन्हें भेजने का कार्य अंगूर तोड़ने के 6 घन्टों के भीतर कर लिया जाता है । पैकिंग के बाद बक्सों पर लेबल लगाए जाते हैं तथा उन्हें 40 सेंटीग्रेड में 6 से 8 घन्टे तक शीतलन पूर्व अवस्था में रखा जाता है । उसके बाद 95ः सापेक्ष आर्द्रता के साथ $ 0.50 सें. में शीत भण्डारण किया जाता है । लोड करने से पूर्व बक्सों को 850 कि.ग्रा. अंगूर ले जाने की क्षमता वाले चैरस डिब्बों में रखा जाता है और उसे सील कर दिया जाता है । इस प्रकार के डिब्बों को जहाज में रखने के लिए बन्दरगाह के समीप लाया जाता है और यहां से इन्हें संबंधित देशों (गन्तव्य) को भेज दिया जाता है ।

 

स्रोत-

  • राष्ट्रीय अंगूर अनुसंधान केन्द्र ,पुणे-412 307

 

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