नसदार तोरई की उन्नत खेती

नसदार तोरई भारतीय मूल का पौधा है इसकी जंगली प्रजातियाँ आज भी उत्तर पश्चिम भारत में बहुतायत से पायी जाती है तथा इसकी खेती देश के लगभग सभी राज्यों में सुगमतापूर्वक की जाती है। इसके अलावा यह मलेशिया, श्रीलंका, जापान व ब्राजील की महत्वपूर्ण फसल है। इसकी खेती अमेरिका एवं यूरोप में भी अधिक मात्रा में की जाती है। पोषक तत्व एवं उपयोग इसके कोमल, मुलायम फल सब्जी के लिए उपयुक्त होते हैं। इसकी कोमल व मुलायम पत्तियों को भी सब्जी के रूप में उपयोग किया जाता है। इसके सूखे फलों के रेशों को बर्तन साफ करने तथा घरेलू उपयोग में फिल्टर के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसके बीज में 18.3-24.3 प्रतिशत तेल व 18-25 प्रतिशत प्रोटीन पायी जाती है।

 

मृदा एवं जलवायु

नसदार तोरई की खेती उचित जल निकास वाली जीवांशयुक्त सभी प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है। अच्छी पैदावार के लिए बलुई दोमट या दोमट भूमि अधिक उपयुक्त होती है। 6-7 पी.एच.मान वाली मृदा इसकी खेती के लिए आदर्श होती है।
नसदार तोरई की खेती के लिए गर्म एवं आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है। इसकी खेती ग्रीष्म (जायद) व वर्षा (खरीफ) दोनों ऋतुओं में सफलतापूर्वक की जाती है। इसकी खेती के लिए 32-38 डिग्री सेन्टीग्रेट तापमान सर्वोतम होता
है।

उन्नतिशील किस्में

१.पूसा नसदार

इस किस्म को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, नई दिल्ली द्वारा विकसित किया गया है। इसमें बुवाई से 60 दिनों में फूल आने शुरू हो जाते हैं। फल हल्का हरा व उस पर नसें उभरी हुई होती है। फल में पूर्ण विकसित गूदा, गुदे का रंग सफेद से हरा और सुगन्धित होता है। फल 12-20 सेमी. लम्बे होते हैं। इसकी उपज क्षमता 150-160 कु. प्रति हेक्टेयर होती है। यह किस्म गर्मी व वर्षा दोनों ऋतुओं केलिए उपयुक्त है।

२.स्वर्ण मंजरी

इस किस्म को उद्यान एवं वानिकी अनुसंधान कार्यक्रम, रांची द्वारा विकसित किया गया है तथा इसे केन्द्रीय प्रजाति अनुमोदन समिति द्वारा सन् 2006 में खेती के लिए अनुमोदित किया गया है। इस किस्म के फल मध्यम आकार के हरे व धारीयुक्त होते हैं। यह किस्म चूर्णिल आसिता रोग के प्रति सहनशील है। फलों की तुड़ाई बुवाई के 65-70 दिनों बाद की जा सकती है। इसकी उत्पादन क्षमता 180-200 कुन्तल प्रति हेक्टेयर है।

३.स्वर्ण उपहार

इस किस्म को भी उद्यान एवं वानिकी अनुसंधान कार्यक्रम, राँची द्वारा विकसित किया गया है तथा केन्द्रीय प्रजाति अनुमोदन समिति द्वारा सन् 2006 में खेती के लिए अनुमोदित किया गया है। फल मध्यम आकार (200 ग्रा.), हरे व धारीयुक्त होते हैं। यह किस्म चूर्णिल आसिता रोग के प्रति सहनशील है तथा बुवाई के 65-70 दिनों बाद फलों की तुड़ाई की जा सकती है। इस किस्म की उत्पादन क्षमता 280-310 कुन्तल प्रति हेक्टेयर है।

४.अर्का सुमित

इस किस्म को आई.आई.एच.आर.-54 तथा आई.आई. एच.आर.-24 के संकरण के उपरान्त चयन द्वारा भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान, बंग्लौर से विकसित किया गया है। इसकी लता की लम्बाई लगभग 4.5 मी. होती है और प्रत्येक लता पर 13-15 फल लगते हैं। पहली तुड़ाई बुवाई के 52 दिन बाद की जा सकती है। फल हल्के हरे बेलनाकार व कम बीज वाले होते हैं तथा प्रत्येक फल का वजन 380 ग्राहोता है।

५.अर्का सुजात

इस किस्म को भी भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान, बंग्लौर द्वारा आई.आई.एच.आर.-54 व आई.आई.एच.आर18 के संकरण के उपरान्त चयन कर विकसित किया गया है। लता की लम्बाई लगभग 5.5 मी. तथा प्रथम मादा पुष्प 13-15 वी. गाँठ पर आता है। फल हल्के हरे रंग के बेलनाकार होते हैं और प्रत्येक फल का वजन 350 ग्रा. होता है। इस पर मृदुल आसिता रोग का प्रभाव कम होता है।

६.कल्याणपुर धारीदार

इस किस्म को शाक भांजी अनुसंधान केन्द्र, कल्याणपुर, कानपुर से विकसित किया गया है। यह एक अगेती किस्म है। फल हल्के हरे स्पष्ट धारियों वाले गुदेदार होते है। लतायें कम फैलने वाली तथा उन पर मादा फूलों की संख्या अधिक होती है। इस किस्म की औसत उपज 400 कुन्तल प्रति हेक्टेयर होती है।

७.पन्त तोरई-1 (पी.आर.जी.-1)

इस किस्म को गोविन्द बल्लभ पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, पंतनगर द्वारा विकसित किया गया है तथा इसे केन्द्रीय प्रजाति अनुमोदन समिति द्वारा सन् 2001 में खेती के लिए अनुमोदित किया गया है इस किस्म के फल 15-20 सेमी. लम्बे, गुम्बद आकार के होते है। बुवाई के 65 दिनों बाद फल तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं। इस किस्म की उत्पादन क्षमत100-120 कुन्तल प्रति हेक्टेयर है।

८.को.-1

यह किस्म तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय, कोयम्बटूर द्वारा विकसित की गयी है। इसके प्रत्येक लता में 10-12 फल लगते हैं। एक फल का औसतन वजन 300 ग्राम होता है। फल 60-75 सेमी. लम्बे, मोटे, हल्के, हरे व काफी आकर्षक होते हैं। इस किस्म की उत्पादन क्षमता 140-150 कुन्तल प्रति हेक्टेयर है। पहली तुड़ाई बुवाई के 55 दिनों बाद की जा सकती है। फसल अवधि 125 दिनों की होती है।

९.को.-2

यह किस्म भी तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय, कोयम्बटूर से शुद्ध वंशक्रम द्वारा विकसित की गयी है। फल काफी लम्बे और हल्के हरे रंग के होते हैं। फलों पर 11 हल्की नसें या उभरी कतारें पायी जाती है। एक फल का औसतन भार 350-380 ग्राम होता है। फलों में बीज कम बनते है। बुवाई के 70 दिनों बाद फल तुड़ाई योग्य हो जाते हैं। इस किस्म की उत्पादन क्षमता 250-278 कुन्तल प्रति हेक्टेयर है। फसल अवधि 110 दिनों की होती है।

१०. पी.के.एम.-1

इस किस्म को उद्यान अनुसंधान केन्द्र, पेरियाकुलम से उत्परिवर्तन द्वारा विकसित किया गया है। फल गहरे हरे रंग
के होते है और इनका औसतन वनज 300 ग्राम तक होता है। इस किस्म की उपज क्षमता 280-300 कुन्तल प्रति हेक्टेयर है। फसल अवधि 160 दिनों की होती है। पंजाब सदाबहार इस किस्म को पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुघियाना द्वारा विकसित किया गया हैं। फल पतले, लम्बे, धारीदार, मुलायम तथा थोड़े मुड़े हुए होते हैं। इसकी बुवाई मई से जुलाई तक की जा सकती है। इस किस्म की उत्पादन क्षमता 100-120 कुन्तल प्रति हेक्टेयर है।

११.सतपुतिया

यह बिहार की स्थानीय किस्म है। इसमें उभयलिंगी पुष्प आते हैं। इस किस्म में फल एकल या गुच्छों में आते हैं।इसका स्वाद काफी अच्छा एवं सुगन्धित होता है। फल का आकार गोल, थोड़ा लम्बा या अण्डाकार होता है। इसकीखेती बिहार के अलावा उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों बस्ती, गोरखपुर व कुशीनगर के तराई क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की mजाती है। सतपुतिया इन क्षेत्रों की एक महत्वपूर्ण सब्जी फसल है। भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान, वाराणसी द्वारा हाल ही में एक नई किस्म काशी खुशी को विकसित गया है।

१२.काशी खुशी

यह सतपुतिया की अधिक उत्पादन देने वाली किस्म है। फल हल्के हरे होते हैं तथा इस पर 10 गहरी हरी लम्बत धारी पायी जाती है। प्रति पौध लगभग 140 फल लगते है जो कि 5-6 के गुच्छों में आते हैं। 5.24-6.77 कि.ग्रा. प्रति पौधउपज होती है जिसे कि 8-10 तुड़ाई में प्राप्त किया जा सकता है।

खाद एवं उर्वरक

अच्छी पैदावार के लिए 20-25 टन सड़ी गोबर की खाद खेत की तैयारी के समय खेत में मिला देते हैं। इसके अलावा 30-35 किग्रा. नत्रजन, 25-30 किग्रा. फास्फोरस तथा 25-30 किग्रा. पोटाश की प्रति हेक्टेयर आवश्यकता होती है। नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय खेत में डालते हैं। नत्रजन की शेष आधी मात्रा बुवाई के 30-40 दिन बाद टाप ड्रेसिंग के रूप में जड़ों के पास देना चाहिए।

बुवाई का समय

ग्रीष्म कालीन फसल की बुवाई फरवरी-मार्च तथावर्षाकालीन फसल की बुवाई जून-जुलाई में करनी चाहिए। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल के लिए 5 किग्रा. बीज की आवश्यकता होती है। बुवाई के लिए नाली एवं थाला विधि (चैनल तथा हिल) विधि सबसे उत्तम है।

बुवाई की विधि

इस विधि में खेत की तैयारी के बाद 2.5-3.0 मी. कीदूरी पर 45 सेमी. चैड़ी तथा 30-40 सेमी. गहरी नालियाँबना लेते हैं। इन नालियों के दोनों किनारों (मेड़ों) पर 50-60सेमी. की दूरी पर बीज की बुवाई करते हैं। एक जगह पर कमसे कम दो बीज लगाना चाहिए तथा बीज जमने के बाद एक पौधा निकाल देते हैं।

सिंचाई

नसदार तोरई की वर्षाकालीन फसल के लिए सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। वर्षा न होने की स्थिति में यदि खेत में नमी की कमी हो तो सिंचाई कर देनी चाहिए। ग्रीष्मकालीन फसल की पैदावार सिंचाई पर ही निर्भर करती है। गर्मियों में 5-6 दिनों के अन्तराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए।

पौधों को सहारा देना

सामान्यतया ग्रीष्मकालीन फसल में पौधों को चढ़ाने की आवश्यकता नहीं होती है लेकिन वर्षा कालीन फसल में पौधों को बढ़ने के साथ ही ट्रेलिस या पण्डाल बनाकर चढ़ा देना चाहिए इससे गुणवŸाायुक्त अधिक उपज प्राप्त होती है। खरपतवार नियंत्रण
खेत को खरपतवार मुक्त रखने के लिए अन्तः सस्य क्रियाएं जैसे निराई, गुड़ाई इत्यादि समय-समय पर करते
रहना चाहिए। पलवार का प्रयोग बुवाई के बाद खेत में मल्च का प्रयोग करना लाभप्रद होता है। इससे मृदा तापमान बढ़ने व नमी संरक्षित होने के कारण बीजों का जमाव अच्छा होता है तथा खेत में खरपतवारनहीं उग पाते जिसके फलस्वरूप पैदावार पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है।

 

कीट एवं रोग प्रबन्धन

१.रेड पम्पकिन बिटिल (कद्दू का लाल कीट)

इस कीट के प्रौढ़ व सुड़ियाँ दोनों ही फसल को नुकसान पहुँचाते हैं। इसके प्रौढ़ कीट (भृंग) छोटे पौधों की मुलायम पत्तियों को खा जाते हैं जिससे पौधे पत्ती रहित हो जाते हैं। इसकी सुड़ियाँ जमीन के नीचे पौधों की जड़ों एवं तनों में छेदकर देते है जिससे पौधे मर जाते है।

नियंत्रण

ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई करें जिससे कि प्यूपा गर्मी की तेज धूप में झूलस कर मर जायें या तो पक्षियों के द्वारा खा लिये जाय। संक्रमण के समय कार्बारिल 80 डब्ल्यूपी. के. 1 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व (कार्बेरिल घुलनशील चूर्ण 2 ग्राम प्रति लीटर पानी) या डाइक्लोरवास 70 ई.सी. की 1- 1.5 मि.ली/ली. पानी के घोल का बीजपत्रीय अवस्था में छिड़काव करें। खेत में सूड़ियों के गम्भीर संक्रमण के समय क्लोरपाइरोफास के 2-3 मि.ली/ली. के घोल से मृदा को अच्छी तरह तर कर दें तथा छिड़काव से पहले खाने योग्य फल की तुड़ाई अवश्य कर लें।

२.पर्ण सुरंगक कीट (लीफ माइनर)

इसके लार्वा पतियों में सुरंग बनाकर पर्ण हरित (क्लोरोफिल) को खाते है जिसकेकारण प्रकाश संश्लेषण प्रभावित होता है।

नियंत्रण

इसकी रोकथाम के लिए 4 प्रतिशत नीम की गिरी के अर्क का छिड़काव प्रभावी होता है।

३.फ्रूट फ्लाई (फल मक्खी)

इस कीट के मेगट नये विकसित फलों को गम्भीर क्षति पहुंचाते हैं। वयस्क मक्खियां मुलायम फलों के छिलके में छेदकर एपिडर्मिस के नीचे अण्डा देती हैं तथा अण्डों से मेगट विकसित होते हैं जो कि फल को अन्दर से खाकर सड़ा देते हैं। ग्रीष्म कालीन वर्षा के समय अधिक आर्द्रता होने पर इनका संक्रमण अधिक होता है।

नियंत्रण

गहरी ग्रीष्मकालीन जुताई कर प्यूपा को नष्ट करें। खेत में 8-10 मीटर की दूरी पर मक्का की फसल फनदा (ट्रैप) फसल के रुप में उगायें। खेत से संक्रमित फलों को जहरीले चारा (10 प्रतिशत गुण या शिरा के साथ मेलाथियान50 ई.सी. 2 मि.ली./ली. या कार्बारिल 50 डब्ल्यू. पी. 2 ग्राम/ली. पानी के मिश्रण) का खेत में 250 स्पाट्स प्रति हेक्टेयर की दर उपयोग करें।

४.मृदुरोमिल आसिता (डाउनी मिल्ड्यू)

यह रोगस्यूडोपेरान्स्पोरा क्यूबेन्सिस फंफूद के कारण होता है। अधिक आर्द्रता वाले क्षेत्रों में इसका प्रकोप अधिक होता है, मुख्यतः लगातार ग्रीष्म कालीन वर्षा के समय इसके द्वारा होने वाला संक्रमण अधिक होता है। इस रोग के लक्षण पत्तियों के उपरी सतह पर कोणीय पीले धब्बों के रुप में परिलक्षित होते है जो आगे चलकर पत्तियों के नीचली सतह पर फैल जाते है तथा पत्तियां सूखकर गिर जाती है।

नियंत्रण

रोग ग्रसित पत्तियों को तोड़कर जला देना चाहिए। रोग के संक्रमण के समय जिनेब 75 डब्ल्यू पी 0.15 प्रतिशत या मैन्कोजेब के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए। अधिक संक्रमण के समय मेटालाक्सिल 8प्रतिशत मैन्कोजेब 64 प्रतिशत के 2.5-3.0 ग्रा./ली. पानी के घोल का छिड़काव साप्ताहिक अन्तराल पर करना चाहिए।

५.चूर्णिल आसिता (पाउडरी मिल्ड्यू)

इस रोग का कारक स्फेरोथिका फुलजीनिया एवं एरीसाइफी साइकोरेसीरम फफूंद है। इस फफूंद का संक्रमण सफेद से गंदा ग्रे पाउडर के रुप में पौधों के सभी भागों पर होता है। गम्भीर रुप से संक्रमित पत्तियां भूरे रंग की होकर सिकुड़ जाती है। परिपक्वता से पहले ही पत्तियां झड़ जाती है तथा लताएं मर जाती है।

नियंत्रण

पौधों के संक्रमित भाग को जलाकर समाप्त कर देना चाहिए। बुवाई से पहले थीरम/कैप्टान/कारबेन्डाजिम की 2.5-3.0 ग्रा. प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित कर बुवाई करना चाहिए। संक्रमण के समय डेनोकैप 48 ई.सी. के 0.03 प्रतिशत या सल्फर के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए।

६.कालर राट

इस रोग का कारक राइजोक्टोनिया सोलेनाई नामक फफूंद है इसके कारण नवांकुरित पौधे मर जाते हैं। नये पौधों की अपेक्षा पुराने पौधे कम प्रभावित होते हैं।

नियंत्रण

फसल चक्र को अपनाना चाहिए तथा बुवाई के समय बीज को कैप्टान की 3 ग्राम/किग्रा बीज की दर से उपचारित करना चाहिए।

७.पीला मोजैक

यह तोरई की खेती के लिए एक गम्भीर समस्या है। यह एक विषाणुजनित रोग है। इसके कारण कभी-कभी फसल में 100 प्रतिशत तक नुकसान हो जाता है। इस रोग का लक्षण पौधों की नई पत्तियों पर पीले धब्बे के रुप में दिखाई देता है। गम्भीर संक्रमण के समय पौधों की पत्तियां छोटी चित्तीदार व aविकृत हो जाती है तथा फल अनियमित आकार के हो जाते हैं। इस रोग का विषाणु सफेद मक्खी के द्वारा फैलता है। इस कीट के निम्फ (परी) व वयस्क दोनों पौधों का रस चूसते है तथा पत्तियों पर इनके द्वारा विसर्जित मल द्वारा काले कज्जली मोल्ड्स विकसित हो जाते हैं जिससे पौधों में प्रकाश संश्लेषण बाधित होता है।

नियंत्रण

बीज को इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यू. पी. या थाईमेथोक्साम 70 डब्ल्यू. एस. की 3 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की
दर से शोधित कर बुवाई करें। टमाटर, मिर्च व तम्बाकू की पुरानी फसल के बाद तोरई फसल की बुवाई न करें तथा बैगन, जंगली कद्दू वर्गीय व कपास की फसल के पास तोरई की फसल न उगायें। फसल की बुवाई से लगभग 20 दिन पूर्व खेत के चारों ओर दो पंक्ति बाजरा की फसल को बार्डर फसल के रुप में उगायें। संक्रमण के समय इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस. एल. 0.3 मि.ली./ली. या थाईमेथोक्साम 0.4 ग्रा. /ली. पानी के घोल का 15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करें। संक्रमण के पूर्व रोग रोधन के तहत नीम तेल की 2-3 मि.ली./ली. पानी के साथ 0.5 मि.ली. स्टिकर मिलाकर छिड़काव करें।

तुड़ाई एवं भण्डारण

फलों की तुड़ाई हमेशा मुलायम अवस्था में करनी चाहिए देर से तुड़ाई करने पर उसमें सख्त/कड़े रेशे बन जाते हैं। फलों की तुड़ाई 6-7 दिनों के अन्तराल पर करनी चाहिए। पूरे फसल अवधि में लगभग 8 तुड़ाईयाँ की जा सकती है। स फलों को तुड़ाई उपरान्त ताजा रखने के लिए ठण्डे छायादार स्थानों पर रखना चाहिए। फलों को ताजा बनाये रखने के लिए बीच-बीच में उन पर पानी का छिड़काव कर सकते हैं।

 

Source-

  • भारतीय सब्जी अनुसंधान संसथान
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