धान में जैव उर्वरक का प्रयोग

विगत कुछ दशकों से धान के उत्पादन में कृषि रसायनों की प्रभावकारी भूमिका होने के कारण इनके प्रयोग में जहाँ एक ओर उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई है, वहीं दूसरी ओर इनके प्रयोग से मृदा-उर्वरता, पर्यावरण एवं परिस्थितिकी से सम्बन्धित कई समस्याएँ भी उभर कर सामने आई हैं। धान के लिए पोषक तत्वों की आपूर्ति एवं भरपूर उपज हेतु सस्ते एवं सुविधाजनक विकल्प के रूप में जैव उर्वरक का प्रयोग लगातार बढ़ रहा है|

जैव-उर्वरक की तुलना में रासायनिक-उर्वरक न केवल मंहगे होते हैं, बल्कि इनसे उपलब्ध पोषक तत्व नश्वर प्रकृति के होते हैं, जिनकी पौधों को उपलब्धता अधिक आसान नहीं होती। वातावरण के नाइट्रोजन के 78 प्रतिशत पाए जाने तथा फास्फोरस के मृदा में पर्याप्त मात्रा में पाए जाने के बावजूद भी ये तत्व फसलों के अधिक काम नहीं आ पाते हैं। धान में मुख्य रूप से तीन जैव उर्वरकों का उपयोग उत्पादन में वृद्धि के लिए किया जाता है। जिन क्षेत्रों में धान के खेत में पानी रहता है वहाँ पर नील हरित शैवाल, एजोलाफर्न नाम जैव उर्वरक नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करने के लिए प्रयोग किया जाता है। साथ ही फाॅस्फोबैक्टर अर्थात पी.एस.बी. नाम जैव उर्वरक फास्फोरस के स्थिरीकरण के लिए प्रयोग किया जाता है।

 

नील हरित शैवाल

नील हरित शैवाल जलीय पौधों का एक ऐसा समूह होता है, जिसे साइनो बैक्टीरिया भी कहा जाता हैं यह एक कोशिकीय जीवाणु है, जो काई के आकार का होता है। इस जीवाणु को धान की फसल के लिए वायुमण्डलीय नाइट्रोजन को भूमि में संस्थापित कराने के उद्देश्य से उपयोग में लाया जाता है। नील हरित शैवाल प्रकाश संश्लेषण से ऊर्जा ग्रहण करके वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का भूमि में स्थिरीकरण करता है। नील हरित शैवाल एक स्वतंत्र रूप से जीवन यापन करने वाला जीवाणु होता है, जिसे दलहनी फसलों की भाँति ऊर्जा के लिए धान के पौधे पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है।

धान के खेत में चूँकि सदैव पानी भरा रहता है, इसलिए नील हरित शैवाल की वृद्धि एवं विकास के लिए अनुकूल स्थिति विद्यमान रहती है। नील हरित शैवाल द्वारा नाइट्रोजन का स्थिरीकरण एक विशिष्ट कोशिका द्वारा किया जाता है। नील हरित शैवाल के उपयोग से लाभ – 20 से 40 कि.ग्रा. नाइट्रोजन का प्रति हेक्टेयर स्थिरीकरण होता है। मृदा में कार्बनिक पदार्थों तथा अन्य पौध – विकासवर्द्धक रसायनों जैसे आक्सीन, जिब्रेलीन, फाइरीडोक्सीन, इण्डोल एसिटिक एसिड इत्यादि की मात्रा में वृद्धि हो जाती है। फसल के उत्पादन में वृद्धि होती है। अम्लीय और क्षारीय-भूमियों का सुधार होता है।

 

एजोला फर्न

एजोला ठण्डे पानी में उगने वाली एक घास है, जो प्रायः तालाबों और पानी भरे स्थानों पर तैरती हुई उगती है। इसकी वृद्धि इतनी तीव्र गति से होती है कि यह 20 ये 30 दिनों के भीतर दुगुनी हो जाती है। इसका धान की फसल में जैव-उर्वरक के रूप में प्रयोग किया जाता है। अपनी तीव्र वृद्धि के कारण यह धान की फसल में नील हरित शैवाल की अपेक्षा अधिक प्रभावकारी सिद्ध हुई है। एजोला की नाइट्रोजन स्थिरीकरण क्षमता अधिक होती है। यह शीघ्र ही कार्बनिक पदार्थों में परिवर्तित हो जाती है तथा मृदा के भौतिक गुणों में सुधार करती है।

 

पी.एस.बी.

फास्फोरस, नाइट्रोजन के अलावा पौधों की वृद्धि एवम् विकास के लिए आवश्यक दूसरा प्रमुख तत्व है। मृदा में होने वाली विभिन्न भू-रासायनिक प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप फास्फोरस के अघुलनशील रूप में रहने के कारण पौधों में प्रायः इस तत्व की कमी पाई जाती है। फास्फोरस की मृदा में विद्यमान अनुपलब्ध मात्रा कुछ जीवाणुओं द्वारा कार्बनिक अम्लों का निर्माण करके घुलनशील बनाई जाती है। जिससे फसलों के लिए फास्फोरस की उपलब्धता में वृद्धि हो जाती है। मृदा में विद्यमान अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील बनाने के लिए स्यूडोमोनास स्ट्रेटा जीवाणु उपयोग में लाया जाता है। इसके अतिरिक्त माइकोराइजा नामक जीवाणु का भी अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील बनाने के लिए जैव उर्वरक के रूप में उपयोग किया जाता है। जैव उर्वरकों का उपयोग मृदा उपचार, बीज उपचार, जड़ उपचार में किया जाता है|

 

जैव उर्वरक उपयोग में सावधानियाँ

  • गुड़ या चीनी का प्रयोग घोल में चिपचिपाहट पैदा करने के लिए किया जाता है। अच्छा हो यदि इस घोल में 2 ग्राम गोंद भी मिला दिया जाय। इसके उपरान्त घोल को निर्जीवीकृत करने के लिए 15 मिनट तक उबाल कर ठण्डा कर लिया जाता है। घोल के ठण्डा हो जाने के उपरान्त इसमें एक पैकेट लगभग 200 ग्राम जीवांणु कल्चर डालकर अच्छी प्रकार मिलाकर घोल बना लेना चाहिए।
  • इसके उपरान्त किसी निश्चित क्षेत्र के लिए आवश्यक बीज की मात्रा लेकर उसे पक्के फर्श, तिरपाल या प्लास्टिक की चादर पर फैलाकर उसके ऊपर ढेर बना लेना चाहिए या फिर बनाए गये गुड़ के घोल एवं जीवांणु कल्चर के मिश्रण को बीजों के ऊपर उड़ेल कर उसे इस प्रकार उलटते-पलटते रहना चाहिए कि घोल की एक परत बीजों पर समान रूप से चढ़ जाए|
  •  तत्पश्चात् उपचारित बीजों को छाया में सुखाकर, जब बीज आपस में न चिपकें, उनकी यथाशीघ्र बुआई कर देनी चाहिये। जैव उर्वरकों से पौध उपचार के लिए मुख्य रूप से एजोटोबैक्टर एवं फाॅस्फोवैक्टर नामक जैव उर्वरक का प्रयोग किया जाता है। धान या सब्जियों की वे फसलें, जिनके पौधे की रोपाई की जाती है, उन्हें रोपाई के पूर्व इनके घोल से उपचारित किया जाता है। घोल बनाने के पूर्व पानी का निर्जीवीकरण करना लाभदायक होता है।
  • किसी भी स्थिति में अन्तिम समय सीमा के बाद कल्चर का उपयोग न किया जाय। जैव उर्वरकों को शीत एवं ताप से बचाकर रखना चाहिए। इनका भण्डारण ठण्डे एवं हवादार स्थान पर करना चाहिए। कल्चर का उपयोग बुआई के तुरन्त पहले किया जाना चाहिए, क्योंकि बीज पर जीवांणु शीघ्र मर जाया करते हैं। उपचारित बीजों की बुआई यथा संभवः प्रातः अथवा संध्या के समय अथवा उस स्थिति में करना चाहिए जब तीव्र धूप न हो।
  •  यदि बीज जिसे जैव-उर्वरक के जीवाणुओं से निषेचित किया जा रहा हो, उसे यदि कवकनाशी रसायनों से भी उपचारित करना आवश्यक हो तो कवकनाशी का उपचार पहले किया जाना चाहिये। पारायुक्त कवकनाशी से बीजोपचार करने पर जैव-उर्वरक को दोगुनी मात्रा का उपयोग किया जाना चाहिए। खेत में उपयोग करने के बाद चाहे बीजोपचार किया गया हो अथवा मृदा उपचार यथाशीघ्र कल्चर मिश्रित पदार्थ को खेत में मिला देना चाहिए।

 

Source-

  • Krishi Vibhag ,Uttar Pradesh
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