धान के रोग इस प्रकार है:-
१.झुलसा रोग (ब्लास्ट)
लक्षण
इसके लक्षण पत्तियों, बाली की गर्दन एवंत ने की निचली गठानों पर प्रमुख रूप से दिखाई देते हैं । पत्तियों पर इस रोग के प्रारम्भिक धब्बे बुवाई के 15 दिन बाद से धान के पकते समय तक देखे जा सकते हैं । रोग की प्रारम्भिक अवस्था में निचली पत्तियों पर हल्के बैंगनी रंग के छोटे-छोटे धब्बे बनते हैं, जो धीरे-धीरे बढ़कर आँख के समान बीच में चैड़े व किनारों पर सकरे हो जाते हैं । इन धब्बों के बीच का भाग हल्के भूरे रंग का होता है । तने की गठानों पर भी इस रोग का आक्रमण होता है, जिससे वे काली हो जाती हैं तथा पौधे इन ग्रसित गठानों से टूट जाते हैं । रोग के प्रकोप से धान बाली की ग्रीवा पर सड़न पैदा हो जाती है जिससे बाली टूट कर गिर जाती है, तथा उपज प्रभावित होती है ।
प्रबंधन
1. रोग प्रबंधन का सर्वाधिक प्रभावी उपाय प्रतिरोधी या सहनशील किस्मों को उगाना है । धान की रोग प्रतिरोधी या सहनशील किस्में दन्तेश्वरी, इंदिरा सोना, कर्मा मासुरी, सम्लेश्वरी, जलदूबी, इंदिरा राजेश्वरी, चन्द्रहासिनी व आई.आर.-64 को उगाएँ ।
2.बीज का चयन रोग मुक्त फसल से करें अथवा किसी विश्वसनीय संस्था से प्र्राप्त प्रमाणित बीज होना चाहिए ।
3.रोगी फसल अवशेषों को एकत्र कर जला दें ।
4.नत्रजन की संतुलित मात्रा को कई बार में देना चाहिए ।
5. धान बीज को ट्राइसाइक्लाजोल नामक फफूंदनाशी द्वारा 1 ग्राम फफूंदनाशी प्रति किलो बीज के दर से उपचारित कर बुवाई करना चाहिए ।
6 .सर्वांगी फफूंदनाशी जैसे ट्राइसाइक्लाजोल (बीम या बान) -6 ग्राम फफूंदनाशी 10 ली. पानी, आइसोप्रोथियोलेन (फ्यूजीवन-1 मिली/ली. पानी) या टेबुकोनाजोल (फालीक्यूर-1.5 मिली/ली. पानी) का छिड़काव करना चाहिए । रोग की तीव्रता के अनुसार 12-15 दिन बाद छिड़काव दुबारा करना चाहिए ।
२.जीवाणु जनित झुलसा रोग (बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट)
लक्षण
इस रोग प्रारम्भिक लक्षण पत्तियों पर रोपाई या बुआई के 20 से 25 दिन बाद दिखाई देते हैं । सबसे पहले पत्ती का किनारे वाला ऊपरी भाग हल्का पनीला सा हो जाता है । तथा फिर मटमैला हरापन लिए हुए पीला सा होने लगता है । इसका प्रसार पत्ती की मुख्य नस की की ओर तथा निचले हिस्से की ओर तेजी से होने लगता है व पूरी पत्ती मटमैले पीले रंग की हो जाती है तथा पत्रक (शीथ) तक सूख जाती है । रोग ग्रसित पौधे कमजोर हो जाते हैं और उनमें कंसे कम निकलते हैं । दाने पूरी तरह नहीं भरते व पैदावार कम हो जाती है । पत्तियों को काटकर यदि पानी में रखा जाये तो रातभर में पानी दुधिया हो जाता है, ऐसा बैक्टीरिया द्वारा छोड़े गये पदार्थों से होता है । इस रोग के लक्षण बड़ी तीव्र गति से पौधों में फैलते हैं ।
प्रबंधन
1.रोग रोधी अथवा रोग सहनशील किस्में जैसे – उन्नत सांआ व बम्लेश्वरी का चयन करना चाहिए ।
2. रोग ग्रस्त फसल से बीज का चयन न करें तथा प्रमाणित बीज किसी विश्वसनीय स्त्रोत से प्राप्त कर बोने के उपयोग मे लाना चाहिए ।
3. संतुलित उर्वरक का उपयोग करें, साथ ही नत्रजन युक्त खादों का उपयोग अधिक मात्रा में नहीं करना चाहिए । पोटाश का सही मात्रा में उपयोग रोग रोधिता प्रदान करता है ।
4 .रोग प्रकोप होते ही खेत में पानी का बदलाव करें । खेत का पानी निकालकर 25 किलो पोटाश/है. की दर से छिड़काव करना चाहिए तथा 3-4 दिनों तक खेत में पानी नहीं भरना चाहिए ।
३.शीथ ब्लाईट
लक्षण
इसके लक्षण प्रारम्भिक रूप से गोल या अंडाकार हरे भूरे पनीले धब्बे के रूप में पौधे के पानी की सतह स्थान पर दिखते हैं । अनुकूल परिस्थिति मिलने पर ये धब्बे आपस में मिलकर अनियमित गहरे भूरे किनारे वाले तथा केन्द्र पर घूसर स्लेटी सफेद रंग के बड़े धब्बे बन जाते हैं, जो प्रायः पूरी पत्ती को सुखा देते हैं ।
प्रबंधन
1 .रोगी फसल अवशेषों को जलाकर नष्ट कर देना चाहिए । पौधों की रोपाई निश्चित दूरी 10 x 15 से.मी. (शीघ्र पकने वाली किस्म ) या 20 ग 15 से.मी. (मध्यम से देरी से पकने वाली किस्म ) पर करें ।
2. रोगग्रस्त क्षेत्र में रोग सहनशील किस्म पंकज को लगाना चाहिए ।
3. खड़ी फसल में रोग प्रकोप की प्रारम्भिक अवस्था में हेक्साकोनाजोल (कोन्टाफ-1.0 मिली/ली.पानी) या प्रोपीकोनाजोल (टिल्ट – 1 मिली/ली. पानी) का छिड़काव 10-12 दिन के अन्तर से दो बार अवश्य करना चाहिए ।
४.पर्णच्छद विगलन रोग (शीथ राॅट)
लक्षण
इस रोग के लक्षण धान की पोटरी वाली अवस्था में दिखाई देते हैं । पोटरी के निचले हिस्से पर हल्क भूरे रंग के धब्बे बनते हैं, जिनका कोई विशेष आकार नहीं होता । ये धब्बे एक भूरे रंग की परिधि से घिरे रहते हैं । इस रोग की वजह से बाली पोटरी के बाहर नहीं आ पाती है । बाली का कुछ भाग ही बाहर आ पाता है, उसमें दाने नहीं भरते और उत्पादन बहुत कम हो जाता है ।
प्रबंधन
1.धान बीज को बुवाई से पूर्व नमक के घोल में डुबाने से हल्के से हल्के तथा खराब बीज (बदरा) ऊपर आ जाते हैं एवं स्वस्थ पुष्ट बीज नीचे बैठ जाते हैं । स्वस्थ बीज का चयन कर बुबाई के लिए उपयोग करना चाहिए ।
2.चयनित बीज का फफूंदनाशी से बीजोपचार करने पर इस रोग का प्रसार कम करने में मदद मिलती है । रोग रोधी किस्मों जैसे रामातुलसी, साकेत-4 का चयन करना चाहिए ।
3 .पोटरी अवस्था के समय एडफिनफास व हेक्साकोनाजोल (0.1%) अथवा मैन्कोजेब (0.3%) का छिड़काव करना लाभकारी है ।
4.प्रयोगों से यह पाया गया है कि दैनिक कीटनाशी एवं फफूंदनाशी का मिश्रण भी इस रोग के नियंत्रण में प्रभावकारी होता है ।
५.कूट कलिका रोग (फाल्स स्मट)
लक्षण
धान का यह रोग फफूंद से होता है । इस क्षेत्र में रोग को लाई फूटना कहते हैं । जिन जातियों में इस रोग का प्रकोप ज्यादा होता है, उनमें धान का उत्पादन कम हो जाता है । इस रोग के लक्षण बाल निकलने वाले के बाद दानों पर दिखाई देते हैं, जिससे उन दानों का आकार काफी बड़ा हो जाता है । ग्रसित दानो का रंग पहले मटमैला हरा फिर नारंगी व धान पकने के समय काला हो जाता है । इस प्रकोप की वजह से दाने बाॅल (गेंद) में बदल जाते हैं ।
प्रबंधन
1. संतुलित उर्वरक का उपयोग करें ।
2 .जिन किस्मों में इस रोग का प्रकोप अधिक होता है, उन्हें नहीं उगाना चाहिए ।
3. बाली निकलने की प्रारंभिक अवस्था में तथा 50 प्रतिशत पुष्पीकरण होने पर मेंकोजेब (डायथेन एम-45) का 2.0 ग्राम/ली. पानी या प्रोपीकोनाजोल (टिल्ट 1 एम.एल./ली.पानी) की दर से 15 दिवस के अन्तराल में दो बार छिड़काव करना चाहिए ।
स्रोत-
- उप संचालक कृषि, कृषि विभाग-बलोदा बाज़ार( छ.ग.)