परिचय
तीखुर या ईस्ट इण्डियन आरारोट को तिकोरा भी कहा जाता है, इसके राइजोम को औषधीय उपयोग में लाया जाता है । भारतीय वन्य भूमि पर यह प्राकृतिक रूप से पाया जाता है तथा इसकी खेती दक्षिण भारत, बिहार, बंगाल और महाराष्ट्र प्रदेशों में काफी की जा रही है । इसके राईजोम, स्टार्च के प्रमुख स्त्रोत है । मध्यप्रदेश में इसका फैलाव पूर्वी व दक्षिण पूर्वी साल, पर्णपाती एवं मिश्रित वनो में अधिकतक है ।
वानस्पतिक वर्णन
तीखुर को कुरकुमा आगस्टीफोलिया के नाम से वनस्पति जगत में जाना जाता है । यह जिजीविरेसी कुल का प्रमुख सदस्य है । इस कुल में विभिन्न प्रकार की हल्दियां भी आती हैं । इसका पौधा तना रहित शाकीय प्रकृति का होता है । पौधा 30 से 60 से.मी. ऊँचा व चैड़ी भालाकार हरी पत्तियो से युक्त होता है इसके फूल पीले व किनारे पर गुलाबी रंग के सहपत्र बड़े तथा प्रत्येक सहपत्र से 3 – 4 पुष्प एक साथ निकलते हैं इसके फल अंडाकर व बीज छोटे – छोटे होते हैं तथा राइजोम मध्यम आकार के व रेशेनुमा संरचनायें सहित होते हैं जो फिंगर राइजोम कहलाते हैं|
औषधीय महत्व एवं प्रयोग
तीखुर के राइजोम से रेशेनुमा संरचनायें निकलती हैं व सिरों पर अंडाकार कंद पाये जाते हैं जो कि औषधिय महत्व के होते हैं, इनका उपयोग जलन, अपच व अल्सर, दम, पीलिया, रक्ताल्पता व रक्त संबंधी बीमारियों में उपयोग किया जाता है । तीखुर का आटा जो कि स्टार्च युक्त होता है, उपवास की सामग्री बनाने में उपयोग किया जाता है । सौन्दर्य प्रसाधन में भी इसका उपयोग होता है ।
रासायनिक संगठन
राइजोम से प्राप्त होने वाले उड़नशील तेल में अल्फा वीटा पाइनींन, कुरकुमीन, जिन्जीवेराल आदि रासायनिक घटक उपस्थित रहते हैं ।
जलवायु
इसकी अच्छी वृद्धि व उपज के लिए उष्ण जलवायु उपयुक्त है ।
भूमि की तैयारी
तीखुर की कृषि के लिए उत्तम जल निकास वाली बालुई लोम भूमि उपयुक्त पाई गई है । मई माह में गहरी जुताई कर के 20 टन गोबर का सड़ा हुआ खाद प्रति हेक्टेयर अच्छी तरह से मिला दें व भूमि में मेढ़ व नाली बनाये और खेत में जल निकासी का ठीक प्रबंध करें ।
स्रोत-
- जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय जबलपुर, मध्यप्रदेश