तिल फसल में रोगों से नुकसान होता है फसलों को कीट एवं रोगों से बचाने के लिए कुछ प्रमुख उपाय एवं नियंत्रण दिये जो रहे हैं । आशा है कि किसान भाई इसे पढ़कर लाभान्वित होंगें ।
तिल के कीट एवं उनका नियंत्रण
1. तिल की पत्ती एवं फल्ली छेदक
तिल में पत्ती व फल्ली छेदक का प्रकोप मध्य जुलाई से अक्टूबर तक रहता है, किन्तु सर्वाधिक क्षति अगस्त के अंतिम सप्ताह से लेकर सितंबर में जब फूल आने के समय होती है । इसकी इल्लियाँ पत्तियों को मोड़कर तथा उनके अन्दर रहकर नुकसान पहंुचाती हैं । ये फूल एवं कली को भी नुकसान पहुंचाती हैं । इसकी रोकथाम के लिए क्विनाॅलफाॅस 25 ई.सी. 2 मि.ली./ली. या प्रोफनोफाॅस 50 ई.सी. 2 मि.ली. या स्पाईनोसेड 45 एस.सी. 0.15 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें । पहला छिड़काव फूल आने पर करें तथा दूसरा छिड़काव 15 दिन बाद करें ।
2. तिल गाल मक्खी
इस कीट का प्रकोप फसल में फूल आने के समय वर्षा होने पर अधिक होता है । मेंगट/इल्ली फूल व फल्ली के अन्दर रहकर नुकसान पहुंचाती है । इसकी रोकथाम के लिए डायमेथोयेट 3 मि.ली. या मोनोक्रोटोफाॅस 3 मि.ली. या इमिडाक्लोरप्रिड 3 मि.ली. को प्रति 10 लीटर पानी में घोल कर या नीम का तेल 10 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें ।
3. तिल हाॅक माथ
इस कीट की लट पत्तियों को बड़े पैमाने पर खाकर पौधों को पत्तीरहित करती हैं तथा कलियों, फूलों को भी खाकर नष्ट करती हैं । इस कीट से बचाव हेतु गर्मियों में खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए । नियंत्रण के लिए प्रारम्भिक अवस्था में लटों को एकत्रित करके नष्ट करें। पत्ती व कली छेदक कीट के नियंत्रण हेतु क्वीनाॅलफाॅस 1.5 प्रतिशत 10 कि.ग्रा. प्रति हेक्टर की दर से खड़ी फसल पर भुरकाव करें।
रामतिल की फसल के मुख्य रोग एवं उपचार
1. फाइटोफ्थोरा अंगमारी
रोग की शुरूआत में पत्तियों पर भूरे रंग के शुष्क छोटे धब्बे बनते हैं । जो बाद में बड़े होकर पत्तियों को झुलसा देते हैं । तने पर इसका प्रकोप भूरी धारियों के रूप में दिखाई देता है । अधिक प्रकोप होने पर हानि शत – प्रतिशत हो सकती है । इस रोग को नियंत्रित करने हेतु फसल पर रोग के लक्षण दिखाई देने पर रिडोमिल एम.जेड. 2.0 ग्राम, कवच 2.5 ग्राम या काॅपर आॅक्सीक्लोराइड 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर खड़ी फसल में 15 दिन के अन्तर से तीन छिड़काव करें ।
2.तना एवं जड़ सड़न
इस रोग से रोगग्रस्त पौधों की जड़ें व तना भूरे रंग के हो जाते हैं, तथा रोगी पौधों को ध्यान से देखने पर तना, शाखाओं, पत्तियों एवं फल्लियों पर छोटे – छोटे काले दाने दिखाई देते हैं । रोगी पौधे जल्दी पक जाते हैं तथा दाने अपरिपक्व रह जाते हैं । यह रोग फसल पकने की अवधि तक कभी भी हो सकता है । ऐसे क्षेत्र जहाँ यह रोग ज्यादा आता है, बुवाई के पहले रोग प्रारंभ होने पर थाइरम 0.15 प्रतिशत केप्टान 0.25 प्रतिशत यूरिया 2 प्रतिशत के घोल में रोगी पौधों तथा पास के स्वस्थ पौधों पर 7 दिन के अन्तर से तीन बार छिड़काव करें। ट्राईकोडर्मा 5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टर की दर से 10 क्विंटल गोबर की खाद में मिलाकर बुवाई पूर्व भूमि में देना प्रभावी पाया गया है ।
3.सर्कोस्फोरा पत्ती धब्बा अंगमारी
इस रोग से ग्रसित पौधों की पत्तियों पर आई के समान धब्बे बनते हैं । इस रोग के उपचार के लिए डाइथेन जेड 78, 2.5 ग्राम या टाॅपसिनएम 1 ग्राम दवा को प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव रोग प्रारंभ होने पर 15 दिन के अन्तर से 2 बार अवश्य करें ।
4.अल्टरनेरिया पत्ती धब्बा
रोग की शुरूआत में पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के तारेनुमा धब्बे बनते हैं । रोग की तीव्रता अधिक होने पर पूरे पौधे में गहरे रंग के धब्बे बनते हैं । इसके उपचार के लिए डाइथेन एम.45, 2.5 ग्राम या टिल्थ 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव रोग प्रारंभ होने पर 15 दिन के अन्तर से 2 बार करें ।
5.भभूतिया रोग
यह रोग सितम्बर माह के आरम्भ में पत्तियों की सतह पर सफेद चूर्ण के रूप में जम जाती है । ज्यादा प्रकोप होेने पर पत्तियाँ पीली पड़कर सूखने से झड़ जाती हैं । पौधों की वृद्धि ठीक से नहीं हो पाती है । इस रोग के उपचार हेतु घुलनशील गंधक 3 ग्राम या बाविस्टीन 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव बीमारी शुरू होने पर 7 दिन के अन्तर से 2 – 3 बार करें ।
6.फाइलोडी रोग
यह रोग फाइटोप्लाज्मा द्वारा होता है एवं इसका संचरण ओरोसियस आरिएन्टेलीस नामक रोगवाहक कीट द्वारा फैलता है । रोग ग्रसित पौधों में सकरी छोटी पत्तियों युक्त झाड़ीनुमा संरचना वाले होते हैं इस रोग से ग्रसित पौधों में बीज का निर्माण नहीं होता है । इस रोग के उपचार के लिए बुवाई के 30 – 40 और 60 दिन बाद डाइमेथोऐट या मोनोक्रोटोफास या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. 3 मि.ली. दवा को 10 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें ।
स्रोत-
- जवाहर लाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर