खेतों की जैविक पद्धति कोई नई पद्धति नहीं है बल्कि यह भारतीय संस्कृति की पारम्परिक पद्धति है जिसे आधुनिक विज्ञान के समन्वय से पुर्नप्रतिपादित किया गया है । वस्तुतः खेती की यह पद्धति फसल चक्र, फसल अवशेष, हरी खाद, कार्बनिक खाद, गोबर की खाद, यांत्रिक खेती, जैविक कीटनाशकों तथा खनिजधारी चट्टानों के प्रयोग पर निर्भर करती है जिससे भूमि की उत्पादकता तथा उर्वरता लम्बे समय तक बनी रहती है । इससे खाद्य पदार्थ भी रासायनिक यौगिकों से रहित रहकर सुपाच्य, स्वादिष्ट तथा गुणकारी होते हैं । जैविक पद्धति के प्रमुख सिद्धान्त हैं-खेती के लिए प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग, भूमि का आवश्यक एवं जीवंत उपयोग, प्राकृतिक समझ-बूझ पर आधारित कृषि क्रियाऐं, जैविक प्रणाली पर आधारित फसल सुरक्षा एवं पोषण, भूमि में टिकाऊ उर्वरता, उचित पोषित खाद्य उत्पादन तथा पर्यावरणीय मित्रवत प्रौद्योगिकियों द्वारा अधिकतम खाद्य उत्पादन करना ह|
पौध सुरक्षा हेतु जैविक विधियाँ
1. जैविक खेती में कीटों/रोगों का शस्य क्रिया द्वारा नियंत्रण:-
- फसल चक्रण ।
- फसल अवशेषों को नष्ट करना ताकि पिछले फसल के कीटों तथा रोगों के कारक नष्ट हो जाएं ।
- गर्मी में गहरी जुताई करके कीटों एवं रोगों के कारक को गर्मी से नष्ट करना ।
- सही प्रजाति एवं स्वस्थ बीजों का चयन करना ।
- सही समय पर निराई-गुड़ाई, रोगग्रस्त पौधों/टहनियों की कटाई-छटाई तथा खेत के आस-पास की सफाई जिससे रोग/कीटों के वैकल्पिक पौधे नष्ट हो जाएं ।
- कीटभक्षी पक्षियों के बैठने के लिए डंडा लगाना ।
- कीटों/रोगों के सर्वाधिक प्रकोप के समय एवं बोआई के समय के बीच ताल मेल बनाना|
उपयुक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए जैविक खेती करने से फसल उत्पादन में आने वाली लागत को कम किया जा सकता है । इसके अलावा निम्नलिखित प्राकृतिक उत्पादों को भी सफलतापूर्वक जैविक खेती में फसल सुरक्षा हेतु उपयोग में लाया जा सकता है ।
2. गौमूत्र
गाय के मूल (गोमूत्र) में 33 प्रकार के तत्व पाए जाते हैं जिनके फलस्वरूप वनस्पति पर आने वाले कीट, फफूंद तथा विषाणु रोगों पर नियंत्रण होता है । गौमूत्र में उपस्थित गंधक कीटनाशक का कार्य करती है जबकि इसमें उपस्थित नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटैशियम, लोहा, चूना, सोडियम आदि तत्व वनस्पति को निरोगी तथा सशक्त बनाते हैं ।
गौमूत्र का प्रयोग
गौमूत्र के 10 लीटर मात्रा को तांबे के बर्तन में 1 किलो नीम के पत्ते के साथ 15 दिन गलाने के पश्चात् उबाल कर आधा मात्रा बना दें । इस उबाल को छान कर इसका 1 भाग पानी की 99 भाग के साथ मिलाकर फसल पर छिड़काव करें । और अधिक प्रभावी बनाने के लिए इसमें 50 ग्राम लहसुन भी उबालने के समय मिलाया जा सकता है । इससे फसल पर आने वाले सुंडियों से सुरक्षा होती है ।
3. नीम का प्रयोग
अनेक प्रकार के नाशी जीव कीटों व सूत्रकृमियों के विरूद्ध नीम उत्पाद या तो प्रतिकर्षी का कार्य करते हैं या उनकी भोजन प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न कर उनका नियंत्रण करने में सहायक हैं । वास्तव में नीम उत्पाद इतने प्रभावी हैं कि इसके नाम मात्र की उपस्थिति से ही अनेक हानिकारक कीट पौधों पर आक्रमण नहीं कर पाते हैं ।
नीम उत्पाद की उपयोग विधियाँ
(अ) नीम की 10-12 कि.ग्रा. पत्तियां 200 लीटर पानी में 4 दिन तक भिगो कर रखें । जब पानी हरा-पीला होने लगे तो इसे निचोड़ कर छान लें । इस तरह तैयार किया गया यह मिश्रण एक एकड़ के क्षेत्र में इल्ली की रोकथाम के लिए पर्याप्त होता है ।
(ब) नीम की खली एक आदर्श दीमक नियंत्रक का कार्य करती है । बुआई से पूर्व अंतिम बखरनी करते समय खेत में 2 से 3 क्विंटल पिसी हुई नीम की खली मिलाई जाना लाभकारी रहता है । नीम की खली मिलाने से दीमक एवं अन्य कीटों की रोकथाम के अलावा इसमें मौजूद नत्रजन, फास्फोरस, पोटाश के अलावा अन्य सूक्ष्म पोषक तत्व पौधों के लिए काफी लाभदायक होता है ।
(स) दो कि.ग्रा. नीम की निबोली को 10 लीटर पानी में डालकर 4-6 दिन तक रखें । इसे छानकर इसमें 200 लीटर पानी मिलाकर फसलों पर छिड़कने से विभिन्न कीटों तथा इल्लियों पर नियंत्रण किया जा सकता है ।
4. विभिन्न ट्रैप फसलों का उपयोग
विभिन्न फसलों की कीटों एवं सूंड़ियों से सुरक्षा हेतु कई प्रकार की टैªप क्राप्स का उपयोग भी किया जा सकता है ।
- कपास की फसल की सूंड़ियों से सुरक्षा हेतु टैªप फसल के रूप में मेस्ता अथवा अम्बाड़ी (हिबस्कस सब्दारिफा) का उपयोग ।
- भूमिजनित रोगों (नीमाटोड्स) के नियंत्रण हेतु खेतों के किनारों पर गेंदा के फूल भी लगाए जा सकते हैं ।
- सोयाबीन फसल में गर्डिल वीटिल से बचाव के लिए सोयाबीन फसल के चारों तरफ ढैंचा लगाकर गर्डिल वीटिल के प्रकोप से बचाया जा सकता है ।
5.लाईट टैप का उपयोग
कीट पतंगों तथा इल्लियों से सुरक्षा हेतु लाईट टैªप का उपयोग भी लाभकारी रहता है । प्रकाश कीट पतंगों के व्यस्क को आकर्षित करता है जो इल्लियों के जन्मदाता हैं । प्रकाश स्त्रोत के नीचे बर्तन में पानी रखना चाहिए जिससे आकर्षित कीड़े पानी में गिर कर मर जाऐं ।
टैप को खाली स्थान पर ही लगाऐं तथा प्रातः टैप के आसपास जो भी जीवित पतंगे दिखें उन्हें नष्ट कर दें । इसके अतिरिक्त आस-पास के किसानों को भी इस प्रकार के टैªप लगाने हेतु प्रोत्साहित करें ताकि सूंड़ियों पर सटीक नियंत्रण प्राप्त किया जा सके । अमावस्या के आस-पास इस प्रकार का टैªप अनिवार्यतः लगायें । यदि बिजली न हो तो मोमबत्ती अथवा चिमनी का उपयोग भी किया जा सकता है ।
6.फैरोमीन टैप
फैरोमीन टैªप प्लास्टिक से बना हुआ एक सस्ता यंत्र होता है जिसमें मादा की कृत्रिम गंध वाला एक द्रव्य (जो कैप्सूल के रूप में होता है तथा विभिन्न प्रजातियों के कीटों के लिए अलग-अलग होता है) लगाया जाता है । इस द्रव्य (ल्यूर) की गंध से नर कीट इसकी ओर आकर्षित होकर इस टैªप में फस कर मर जाते हैं तथा कीट पतंगों की आने वाली पीढ़ी बाधित हो जाती है । यह बाजार में ल्यूर के नाम से मिलता है । इसके प्रयोग से फेरोमोन ल्यूर का पदार्थ धीरे-धीरे वातावरण में फैल जाता है, जिसकी गंध से नर कीट उत्तेजित होकर टैªप के पास जाता है और उसमें बंद हो जाता है ।
सावधानियाँ
1. फेरोमेन टैªप 10-15 दिनों में एक बार अवश्य बदल दें क्योंकि 10-15 दिनों बाद ल्यूर का प्रभाव समाप्त हो जाता है । परिणाम स्वरूप नर कीट फेरोमोन टैप में आकर्षित नहीं होते हैं ।
2. यह ध्यान दें कि कीट एकत्र करने की थैली का मुंह बराबर खुला रहे और खाली स्थान बना रहे, जिससे कीटों के प्रवेश/फंसने का स्थान बना रहे ।
3. ल्यूर पैकेट में मिलता है, जिसे ठण्डे स्थान या फ्रिज में रखना चाहिए ।
विभिन्न प्रकार के अंकों का उपयोग निम्नलिखित कीटों पर प्रभावी पाया गया है:
1.नीमपत्ती, निंबोली एवं नीम खली का अर्क सभी प्रकार की इल्लियों, सफेद मक्खी, हरा मच्छर तथा माहू को नियंत्रित करता है ।
2. अकाव तथा धतूरे के पत्तों का अर्क यह सभी प्रकार की इल्लियों के भक्षण को नियंत्रित करता है ।
3. सीताफल तथा अरन्डी के पत्तों का अर्क यह हरा मच्छर तथा माहू, सफेद मक्खी एवं इल्लियों को नियंत्रित करता है ।
4. बेशरम तथा तम्बाकू की पत्ती का अर्क सफेद मक्खी, हरा मच्छर एवं इल्लियों को नियंत्रित करता है ।
5. हरी मिर्च, लहसुन तथा प्याज का अर्क सफेद मक्खी, हरा मच्छर, माहू तथा इल्लियों को नियंत्रित करता है ।
उपरोक्तानुसार देखा जा सकता है कि ऐसे कई आसान तथा सस्ते उपाय हैं जिन्हें अपनाकर कीटों तथा रोगों पर नियंत्रण पाया जा सकता है । तथा खर्चा भी बचता है । परन्तु इस सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि इन पद्धतियों एवं विधाओं का आधार पूर्णतया जैविक होने के कारण मानव स्वास्थ्य पर कोई भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता ।
6. जैविक एवं वानस्पतिक कीटनाशक आई.पी.एम. के अंतर्गत सूक्ष्मजीवों जैसे जीवाणु (बैक्टीरिया), वायरस (विषाणु), प्रोटोजोआ, फफूंदी, रिकेट्स और सूत्रकृमिक का प्रयोग जैविक कीटनाशकों के रूप में किया जाता है । औद्योगिक फसलों में कीट नियंत्रण हेतु जीवाणुओं (बैसीलस थूरिनजिएन्सिस) पर आधारित जैविक कीटनाशकों का प्रयोग सफल सिद्ध हो रहा है । यह जीवाणु (बैक्टीरिया) व्यापारिक रूप से बायोलेप, डाइपेल, हाल्ट, डेल्फिन, बायोबिट एवं बायोएस्प इत्यादि नामों से उपलब्ध है । इसकी दो कि.ग्रा. मात्रा एक हैक्टेयर में प्रयोग की जाती है ।
वायरस में मुख्य रूप से एन.पी.वी. (न्यूक्लियर पोलीहैड्रोसिस वायरस) का प्रयोग टमाटर की फसल में फल बेधक कीट तथा सब्जियों में स्पोडोप्टेरा कीट के नियंत्रण हेतु किया जाता है । इसके प्रयोग से ग्रसित सूंड़ियों का रंग पीला व बाद में हल्का गुलाबी तथा सूंड़ियां सुस्त और निष्क्रिय हो जाती है । मरी हुुई सूड़ियां पौधों की टहनियों या पत्तियों से लटकी मिलती है । इस वायरस को 250 सूंड़ियों के बराबर वायरस तत्व के घोल को प्रति हैक्टेयर में प्रयोग किया जाता है । एन.पी.वी. का छिड़काव सूर्यास्त के समय करना चाहिए । जिससे सूर्य की रोशनी की पराबैंगनी किरणों के दुष्प्रभाव से एन.पी.वी. को बचाया जा सके ।
जैविक फफूंदीनाशक के अंतर्गत मुख्य रूप से ट्राइकोडर्मा विरिडी तथा ट्राइकोडर्मा हार्जियानम का प्रयोग फलों एवं सब्जियों के जड़/कालर सड़न, उकठा, आर्द्र गलन तथा मृदा व बीज से फैलने वाली बीमारियों के नियंत्रण हेतु किया जाता है । बीज उपचार हेतु 4-5 ग्राम ट्राइकोडर्मा प्रति कि.ग्रा. बीज के लिए प्रयोग किया जाता है । खड़ी फसल में 3-4 ग्राम ट्राइकोडर्मा के प्रयोग से पहले या बाद में कोई रासायनिक फफूंदीनाशक का प्रयोग न करें । पौध एवं कटिंग उपचार हेतु 250 ग्राम ट्राइकोडर्मा 10-12 लीटर पानी में घोल बनाकर पौध की जड़ों या कटिंग को इस घोल में 30 मिनट तक डुबोकर रोपाई करनी चाहिए ।
जैविक किसानों द्वारा कीड़ें व बीमारियों के रोकथाम के उपाय का आंकड़ा
विधि | किसान (प्रतिशत) |
नीम तेल का छिड़काव | 32.6 |
गाय का मूत्र | 18.4 |
सड़ा हुआ मट्ठा | 16.3 |
ट्राइकोडरमा | 12.2 |
आइपोमिया रस | 8.2 |
धतूरा रस | 6.1 |
गाय के गोबर की राख | 4.1 |
इरीक्शन ऑफ़ वर्ड पेग | 4.1 |
ट्रैप क्राप्स का प्रयोग | 4.0 |
फिरोमोन का ट्रैप का प्रयोग | 4.1 |
ऐसे किसान जो कोई भी जैविक विधि कीटों के रोकथाम में नहीं लगाते | 44.8 |
स्रोत-
- निदेशक भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान (आई.सी.ए.आर.) नबीबाग, बैरसिया रोड, भोपाल