जावा घास की खेती / सिट्रोनेला

सिट्रोनेला (सिम्बोपोगाॅन विन्टेरियेन्स) जिसे आमतौर पर जावा घास के नाम से जाना जाता है,  एक महत्वपूर्ण  सगन्धीय  बहुवर्षीय घास है । इसकी ऊँचाई लगभग 1.5 से 2 मीटर तक होती हैै। पुष्पन के पूर्व तक इसमें तना नहीं होता है। पत्तियाँ लम्बी, अरोमिल, अंदर की तरफ लाल रंग की 40-80 सेमी. लंबी और 1.5-2.5 सेमी चौड़ी होती है।  इसमें सितम्बर-नवम्बर माह में पुष्पन होता है।  इसकी पत्तियों से जल आसवन द्वारा बहुपयोगी तेल प्राप्त किया जाता है।
सिट्रोनेला एक बहुपयोगी घांससिट्रोनेला घास कटु, उष्ण, स्वदजनन, मूत्रजनन, उत्तेजक, चातनाकारक, ज्वरध्न होती है, साथ ही आमवात, ज्वर, कफ विकारों में उपयोगी होती है। इसकी पत्तियों के आसवन द्वारा तेल निकाला जाता हैै जिसमें सिट्रोनेल, सिट्रोनेलोल, जिरेनियाल सिट्रोनेलाल एसिटेट आदि प्रमुख रासायनिक घटक होता है।

जावा सिट्रोनेला के तेल में 32-45 प्रतिशत सिट्रोनेलाल, 12-18 प्रतिशत जिरेनियाल, 11-15 प्रतिशत सिट्रनिलोल, 3-8 प्रतिशत जिरेनयाल एसीटेट, 2-4 प्रतिशत सिट्रोनेलाइल, 2-5 प्रतिशत लाइमोनीन, 2-5 प्रतिशत एलीमोल तथा अन्य एल्कोहल आदि घटक पाये जाता है। इन्ही रासायनिक घटकों के कारण इसका उपयोग साबुन एवं सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री निर्माण में  सुगन्ध हेतु किया जाता है। इसके तेल से जिरेनियाल तथा हाइड्राक्सी सिट्रोनेलल जैसे सुगंधित रसायनों का भी संश्लेषण होता है। इसका उपयोग आडोमाॅस (मच्छर प्रतिकारी क्रीम), एंटीसेप्टीक क्रीम निर्माण एवं दुर्गन्ध दूर करने में भी होता है।

 

 गर्म जलवायु में बेहतर फसल

उपोष्ण जलवायु वाले 70 – 80 प्रतिशत आर्द्रता वाले क्षेत्रों में इसकी खेती सफलतापूर्वक की जाती है। जावा घास की खेती के लिए गर्म जलवायु (10 – 35 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान), तेज धूप तथा 200 से 250 सेमी. वार्षिक वर्षो वाले क्षेत्र अधिक उपयुक्त होते है। छायादार स्थानों में सिट्रनेला की वृद्धि कम होती है, पत्तियाँ कड़ी हो जाती है जिससे तेल की मात्रा तथा जिरानियाल की मात्रा घट जाती है। अधिक सर्दी और हिमपात का इस फसल पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ की जलवायु इसकी खेती के लिए उपयुक्त है।

 

हर प्रकार की भूमिओं में करे खेती

समुचित जलनिकास  वाली बलुई दोमट तथा दोमट मिट्टी जिसका पी. एच. मान 6 – 7.5 के मध्य हो, उपयुक्त पाई गई है। अम्लीय (पीएच 5.8) एवं क्षारीय भूमि (पीएच 8.5) में भी इसकी खेती की जा सकती है। सिट्रोनेला एक लम्बे अवधि की फसल है जो लगातार 5 वर्ष तक उत्पादन देती है। अतः अच्छी पौध वृद्धि और ज्यादा  उपज के लिए खेत की अच्छी तरह जुताई आवश्यक है। खेत की 2 – 3 बार गहरी जुताई कर पाटा से समतल करके छोटी – छोटी क्यारियों में विभक्त कर लेते है। फसल लगाने के पूर्व 20 – 25 किग्रा. क्लोरपायरीफाॅस प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिला देना चाहिए जिससे दीमक आदि कीटों का प्रकोप रोका जा सकता है।

 

उन्नत किस्में ही लगाएं

सिट्रोनेला की दो प्रजातियाँ होती है। (1) जावा सिट्रोनेला (सिवोपोगाॅन विंटेरिएनस जेविट: इसका तेल सगन्ध तेलों में श्रेष्ठ माना गया है और सुगंधित रसायनों का एक प्रमुख स्त्रोत है।
(2) सीलोन किस्म (सिम्बोपोगाॅन नार्डस रैंडल): इसके तेल में जिरेनियाल की मात्रा अपेक्षाकृत कम होती है।
जावा सिट्रोनेला की प्रमुख किस्मो में मंजूशा, मंदाकिनी, बायो -13 तथा जल-पल्लवी किस्मों को केन्द्रीय औषधिय एवं सगंध पौधा संस्थान, लखनऊ द्वारा विकसित की गई है। इनमें से बायो – 13 ऊतक संवर्धन तकनीक से विकसित की गई है।

 

प्रवर्धन एवं बुआई

सिट्रोनेला घास का प्रवर्धन सिल्प्स (कल्लों) द्वारा किया जाता है। दो  वर्ष  पुरानी फसल के जुड्डे (क्लम्प) उखाड़कर उनसे एक-एक स्वस्थ सिल्प को अलग कर लिया जाता है। इसके बाद स्लिप के नीचे सूखी पत्तियां एवं लगभग 4-5 सेमी.  लम्बी जड़ छोड़कर शेष जड़ काट दें। अब  ऊपर से लगभग 15 सेमी. पत्तियां काट देने के बाद स्लिप तैयार हो जाती है। एक वर्ष के स्वस्थ्य पौध से लगभग 60 से 80 स्लिप्स या कल्ले बनते है। सिट्रोनेला की रोपाई बरसात के आरम्भ में अर्थात जुलाई-अगस्त में की जाती है। सिंचाई के पर्याप्त साधन उपलब्ध होने पर  फरवरी-मार्च  अक्टूबर-नवम्बर में भी इसे  रोपा जा सकता है।

जुलाई के प्रारंभ में 60 x  30 सेमी. के अंतर से कल्ले  (स्लिप) 15 – 20 सेमी. की गहराई पर कतार में लगाई जाती है। कम उपजाऊ मृदा  में 60 x  45 सेमी. की दूरी पर लगाना चाहिए। यदि वर्षा न हो तब लगाने के बाद सिंचाई करेें। एक हेक्टेयर में रोपाई  के लिए लगभग 50,000 स्लिप्स (कल्ले) पर्याप्त होती है। रोपाई करते समय सिल्प (कल्म) पूरी तरह से जमींन के अंदर दबाना चाहिए अर्थात कल्म की कोई भी इंटरनोड (गांठे) भूमि के ऊपर नहीं रहना चाहिए क्योंकि नई जड़ो का विकास इन गांठों से ही होता है।

रोपाई के बाद लगभग 30 दिन तक भूमि में नमीं  कमीं नहीं होना चाहिए। उपयुक्त परिस्थितियों में रोपाई से लगभग 2 सप्ताह में सिल्प्स से पत्तियाँ निकलनी प्रारंभ हो जाती है। मुख्य रोपाई  के समय कुछ स्लिप नर्सरी में अलग से रोपना चाहिए। इनका इस्तेमाल बाद में खाली स्थान भरने के लिए किया जाना चाहिए।

 

इसे भी दें खाद एवं उर्वरक

सिट्रोनेला घास में पानी  अलावा पोषक तत्वों की समुचित उपलब्धता भी अहम् भूमिका निभाती है।  खाद एवं उर्वरक की मात्रा मृदा उर्वरता पर निर्भर करती है। खेत में पर्याप्त मात्रा में जीवांश पदार्थ होना चाहिए। मृदा में जीवांश पदार्थ की कमी होने पर रोपाई के 15-20 दिन पहले  खेत में गोबर की खाद या कम्पोस्ट मिलाना चाहिए। इसके अलावा   सिट्रोनेला की  अच्छी उपज के लिए 80 किग्रा. नत्रजन, 40 तथा 30 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष देना चाहिए। सम्पूर्ण फाॅस्फोरस व पोटाश को रापाई के समय आधारभूत खुराक के रूप में  दिया जाना चाहिए।

नत्रजन को 4 बराबर मात्रा में बाँटकर रोपाई के 1 महीने बाद तथा प्रत्येक कटाई के बाद देना चाहिए। सिट्रोनेला की पत्तियों पर यूरिया का छिड़काव लाभप्रद रहता है। कम उपजाऊ मृदा में उर्वरकों की अधिक मात्रा देना चाहिए। मृदा परीक्षण करने के बाद आवश्यकता पड़ने पर सूक्ष्म तत्व जैसे लोहा एवं जिंक की संतुलित मात्रा का प्रयोग करना चाहिए।

 

खरपतवार नियंत्रण

वर्षा ऋतु में खरपतवारों का प्रकोप अधिक होता हे। इनके नियंत्रण के लिए फसल रोपने के 20-25 दिन बाद पहली निंदाई-गुड़ाई  तथा दूसरी निंदाई रोपाई के  60 – 65  दिन बाद करना चाहिए। प्रत्येक निदाई और कटाई के बाद पौधों पर  हल्की मिट्टी चढ़ाना चाहिए। बलुई दोमट मिट्टी में नींदानाशक दवा डाइयूरान को 1 किग्रा. 500 – 600 लीटर पानी में घोलकर रोपाई के समय  छिड़काव करने से काफी हद तक खरपतवार नियंत्रण रहते है।

 

सिंचाई एवं जल निकास दोनों  आवश्यक

जावा घास की फसल के लिए सिचाई और जल निकास की उचित व्यवस्था करना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि यह फसल पानी की अधिकता या कमीं दोनों से ही प्रभावित होती है। अच्छी बढ़त एवं पत्तियो की अधिक पैदावार के लिए खेत में पर्याप्त नमी की आवश्यकता होती है। अतः  नये कल्ले रोपण से लेकर 100-120  दिन तक नमीं की कमी नहीं होना चाहिए।  जहाँ पर वर्षा कम होती है वहाँ 4 से 8 बार सिंचाई की आवश्यकता होती है। शुष्क ऋतु में प्रत्येक कटाई के बाद 15 से 20 दिन के अंतर से सिंचाई करना आवश्यक होता है। रोपाई के समय वर्षा न होने पर सिंचाई अवश्य करें। ध्यान रखें सिंचाई हल्की करें तथा  जल निकास का समुचित प्रबंध रखना आवश्यक है।

 

फसल की कटाई

जावा घास की  कटाई से पूर्व खेत से खरपतवार निकालना आवश्यक है। बुआई के लगभग 120 दिन उपरान्त यह फसल प्रथम कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसके बाद 75 से 90 दिन के अंतर से आगामी कटाइयाँ ली जाती है। फसल की कटाई, भूमि की सतह से 20-40  से.मी. ऊपर (तने के वृद्धि बिन्दु के ठीक ऊपर) से प्रातः काल के समय करना चाहिए। व्यापारिक दृष्टि से इस फसल से 3 से 4 वर्ष  तक अच्छी पैदावार ली जा सकती है। वर्षा ऋतु में फसल की कटाई नहीं करना चाहिए। इस फसल से 3 – 4 कटाइयाँ प्रतिवर्ष ली जा सकती है।

 

प्रसंस्करण

फसल कटाई के पश्चात् पत्तियों के अतिरिक्त जल को समाप्त करन के लिए उन्हे छाया में थोड़ा (एक दिन) सुखा लिया जाता है। नम मौसम में पत्तियों को रैक पर सुखाया जाना चाहिए जिससे उनमें फफूँदी न लग सक। सुखाने से आसवन कम समय में हो जाता है। सिट्रोनेला की पत्तियों से तेल वाष्प आसवन या जल आसवन विधि द्वारा निकाला जाता है। सूखी पत्तियों को चुनकर अलग कर  देने के पश्चात् शेष घास को छोटे – छोटे टुकड़ों में काटकर आसवन करने से अधिक तेल मिलता है। आसवन कक्ष में वाष्प 40 से 100 पाउण्ड/इंच के दबाव पर छिद्रित कुंडलियों के द्वारा प्रेषित की जाती है।

 

हरी घांस और तेल की उपज

सिट्रोनेला की पत्तियों में सूखे भार का 1 प्रतिशत तेल पाया जाता है। उपयुक्त जलवायु और उचित शस्य प्रबंधन से  प्रथम वर्ष में 5 से 6  टन हरी घास जिससे  100 कि.ग्रा. तेल/हे. एवं बाद के वर्षों में 200-300 कि.ग्रा. तेल / हे. प्राप्त होता है।  सामान्यतौर पर 4-5 वर्ष तक इसकी खेती करना आर्थिक दृष्टि से लाभदायक होता है।

 

Source-

  • कृषि विमर्ष

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