जलवायु परिवर्तन का सब्जी उत्पादन पर प्रभाव

आधुनिक युग में बढ़ते यातायात के साधन एवं औद्योगिकीकरण के फलस्वरूप वातावरण प्रदूषण काफी बढ़ा है। कृषि में अधिक उत्पादन लेने के लिए रासायनिक खादों, कीट एवं रोगनाशकों के प्रयोग से मृदा की उर्वरा शक्ति क्षीण होती जा रही है एवं जल स्रोत व नदियाँ प्रदूषित होती जा रही है| खेती योग्य भूमि की कमी होने से जंगलों की कटाई करने से जलवायु पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा रहा है। विकासशील देश भविष्य से अधिक वर्तमान समय की समस्याओं को सुलझाने पर अधिक ध्यान दे रहे है जिससे पर्यावरण प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। जलवायु परिवर्तन से सब्जी उत्पादन को प्रभावित होने से बचाने के लिए कर्षण क्रियाओं में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है।

सब्जियों का वर्गीकरण तापमान के आधार पर तीन वर्गों में किया जाता है। पहला समूह की ऐसी सब्जियाँ हैं जो कम तापमान (150-250 सेन्टीगड) पर उगायी जाती है। दूसरे वर्ग में ऐसी सब्जियाँ आती है जिनकी खेती के लिए तापमान (300-400 सेन्टीग्रेड) की आवश्यकता होती है। तीसरे इस वर्गीकरण के आधार पर सब्जियों की खेती बरसात, जाड़ा एवं गर्मी में की जाती है। बरसात के मौसम में वर्षा का असमय होना या कम होना, अधिक होना या वर्षा काल में बढ़ जाना आम बात है।

गर्मी के मौसम में तापमान 420 सेन्टीग्रेड से ज्यादा होना एवं जाड़े के मौसम में 50 सेन्टीग्रेड से कम होना सब्जी उत्पादन को प्रभावित करता है। बरसात के मौसम में वर्षा कम होने एवं जल संचय न होने से पृथ्वी के नीचे संचित जल का स्तर घटता जा रहा है जिससे सिंचाई योग्य पानी की कमी से सब्जी उत्पादन प्रभावित हो रहा है।

 

सब्जियों की प्रकृति

सब्जियों के पौधे रसदार, तेज वृद्धि वाले, जल्दी फल एवं बीज देने वाले होते हैं। समय से पानी न मिलने एवं तापमान अधिक या कम होने से सब्जी के पौधे बहुत अधिक प्रभावित होते हैं। गर्मी में होने वाली सब्जियों की पत्ती का क्षेत्रफल अधिक होती है इसलिए उनका उत्स्वेदन दर भी अधिक होती है। असमय वर्षा होने से बरसात के मौसम की सब्जियों का उत्पादन 30-40 प्रतिशत कम हो जाता है। जाड़े के मौसम में तापमान बहुत कम 3-40 सेन्टीग्रेड होने से जाड़े की सब्जियों का उत्पादन 20-30 प्रतिशत कम हो जाता है। गर्मी के मोसम में तापमान 420 सेन्टीग्रेड से अधिक होने पर कद्दूवर्गीय सब्जियों में मादा फूलों की संख्या शून्य हो जाती है जिससे उत्पादन 40-50 प्रतिशत कम हो जाता है।

 

असमय वर्षा का प्रभाव

पिछले कई वर्षों से सब्जी उत्पादन अधिक या कम वर्षा से अधिक प्रभावित हुआ है। सामान्यतः वर्षा के मौसम में सब्जियों की खेती में सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती थी लेकिन विगत चार-पांच वर्षों से बरसात की फसल में सिंचाई करना पड़ रहा है जो कि जलवायु परिवर्तन का परिचयाक है। सब्जियाँ अधिक पानी के प्रति भी संवेदनशील होती हैं अतः एक समय में अधिक वर्षा होने की दशा में पानी 16 घण्टे से अधिक खेत में लगे रहने से पौधे मुरझाने लगते हैं एवं 24 घण्टे से 48 घण्टे तक पानी लगने की दशा में पौधे गल जाते हैं।

जलवायु परिवर्तन होने से बरसात में बुवाई/रोपण की जाने वाली सब्जियों का समय परिवर्तित हो जाता है, जिससे रबी मौसम में उगायी जाने वाली सब्जियों का उत्पादन भी प्रभावित होता है। बरसात में कम वर्षा होने की दशा में रबी के मौसम की सब्जियों का उत्पादन भी घट जाता है। बरसात के मौसममें अच्छी वर्षा होने पर जाड़े में उगायी जाने वाली मटर एक सिंचाई करने से भी अच्छा उत्पादन देती है जबकि कम वर्षा होने पर अच्छे उत्पादन के लिए दो सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है।

 

असमय वर्षा का सब्जी बीज उत्पादन पर प्रभाव

असमय वर्षा से सब्जी की बीज वाली फसल  सबसे अधिक प्रभावित होती है। सब्जियों के बीज वाली फसल की बुवाई के समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि बीज परिपक्वता के समय से वर्षा न हो लेकिन असमय वर्षा से बीज की गुणवत्ता एवं उत्पादन दोनों कम हो जाता है। संस्थान द्वारा विकसित लोबिया की किस्मों में चमड़ी जैसी झिल्ली (पार्चमेण्ट लेयर) नहीं विकसित होती है जिससे बीज परिपक्वता के समय वर्षा होने से पूरा बीज खराब हो जाता है। भिण्डी की फलियों में बीज बनते समय वर्षा न होने की दशा में पूरा बीज अविकसित रह जाता है एवं काला पड़ जाता है। बीज परिपक्वता के समय फलियों का ऊपरी भाग खुल जाता है एवं उस समय वर्षा होने की दशा में बीज की गुणवत्ता खराब हो जाती है।

 

कम तापमान का सब्जी उत्पादन पर प्रभाव

जाड़े के मौसम में उगायी जाने वाली सब्जियों के बीज अंकुरण के लिए औसतन 250 सेन्टीग्रेड तापमान की आवश्यकता होती है लेकिन जलवायु परिवर्तन होने से उस समय भी अधिक तापमान हो जा रहा है जिससे बीज अंकुरण प्रभावित होता है एवं उगे बीजों के मुरझाने की समस्या बढ़ जाती है। ऐसी दशा में बुवाई का समय परिवर्तित करना पड़ता है। मटर की बुवाई का समय 25 अक्टूबर से 15 नवम्बर के मध्य का समय निर्धारित किया गया था लेकिन अब ऐसा नहीं है। कभी-कभी जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान अधिक होने से मटर में फूल जल्दी आ जाते हैं एवं उनकी वृद्धि कम हो जाती एवं प्रति पौधा फलियों की संख्या एवं फलियों में दाने की संख्या कम हो जाती है।

जाड़े के मौसम में वर्षा होने एवं बादल होने की दशा में टमाटर की फसल में पिछेती झुलसा की समस्या बहुत अधिक हो जाती है। यदि समय से इण्डोफिल एम-45 के घोल का छिड़काव नहीं किया गया तो उत्पादन शून्य हो जाता है। जनवरी के महिने में तापमान बहुत कम 3-40 सेन्टीग्रेड तक पहुँच जा रहा है जिससे जाड़े में होने वाली सब्जियों का उत्पादन बहुत प्रभावित हुआ है। कम तापमान के प्रभाव को कम करने के लिए सिंचाई करते हैं या खेत के आस-पास धुँआ करते है एवं फसल पर इण्डोफिल एम-45 का छिड़काव करते हैं।

 

कम तापमान का सब्जी बीज उत्पादन पर प्रभाव

जाड़े के मौसम में सब्जियों की बीज की फसल की बुवाई यदि बदलते जलवायु के हिसाब से न किया जाये तो बीज का उत्पादन बहुत कम हो जाता है। टमाटर की बीज वाली फसल की बुवाई अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में न करने से बीज बनने की क्षमता बहुत कम हो जाती है। मटर में बीज वाली फसल की बुवाई नवम्बर के प्रथम सप्ताह में न करने से उत्पादन कम हो जाता है। मटर की बुवाई पहले करने से उपज एवं बाद में करने से उपज एवं गुणवत्ता दोनों कम हो जाती है।

जलवायु परिवर्तन से कीट एवं बीमारियों का प्रकोप अधिक हो जाता है। बरसात के मौसम में वर्षा कम होने से मृदा में दीमक की संख्या बहुत बढ़ जाती है। अधिक तापमान एवं आर्द्रता की स्थिति में हरा फुदका एवं सफेद मक्खी की संख्या बढ़ जाती है। जाड़े के मौसम में तापमान जल्दी अधिकहोने पर सफेद चूर्णिल आसिता रोग आने से सब्जी मटर का उत्पादन बहुत कम हो जाता है। बरसात के मौसम में वर्षा जल्दी समाप्त होने की दशा में मृदु रोमिल आसिता बीमारी कद्दूवर्गीय सब्जियों में जल्दी आ जाती हैं जिससे कद्दूवर्गीय सब्जियों का उत्पादन घट जाता है।

 

अधिक तापमान का सब्जी उत्पादन पर प्रभाव

गर्मी के मौसम में उगायी जाने वाली सब्जियों में सबसे बड़ा समूह कद्दूवर्गीय सब्जियों का है। इस समूह की सब्जियों में बहुत अधिक तापमान (42 डिग्री सेन्टीग्रेड) होने पर केवल नर फूल खिलते हैं जिससे फल उत्पादन कम प्राप्त होता है। खीरा में अधिक तापमान पर बीज का विकास कम हो जाता है। गर्मी के मौसम में अधिक आर्द्रता एवं तापमान होने पर सफेद मक्खी की संख्या बहुत बढ़ जाती है जिससे कद्दूवर्गीय सब्जियों में मुख्य रूप से खीरा एवं तोरी का उत्पादन बहुत कम हो जाता है।

 

अधिक तापमान का सब्जी बीज उत्पादन पर प्रभाव

बदलते जलवायु में गर्मी के मौसम में भिण्डी की बुवाई मार्च के प्रथम सप्ताह में खीरा, करेला, चिकनी तोरई, लौकी, खरबूजा, तरबूज एवं लोबिया 20-25 फरवरी के मध्य करने से अधिक फल एवं बीज उत्पादन प्राप्त होता है। तापमान 400 सेन्टीग्रेड से अधिक होने पर बीज का विकास रूक जाता है जिससे बीज का परीक्षण भार एवं अंकुरण कम हो जाताहै। इसलिए बीज वाली फसल की बुवाई ऐसे समय करें जिससे बीज विकास के समय तापमान 400 सेन्टीग्रेड से अधिक न हो।

सब्जियों की संरक्षित खेती बदलते जलवायु में (प्राटेक्टेड कल्टीवेशन) का प्रचलन बढ़ रहा हैं। संरक्षित खेती में अधिक तापमान, कम तापमान, असमय वर्षा, कीट एवं बीमारी से होने वाले नुकसान को सीमित किया जा सकता है। संरक्षित खेती के लिए ग्लास हाऊस, पाली हाऊस, नेट हाऊस, ग्रीन हाऊस, पाली टनेल आदि का प्रयोग किया जाता है। ग्लास हाऊस एवं पाली हाऊस में तापमान को नियंत्रित करने के लिए पैड फैन एवं स्प्रिंकलर लगे रहते हैं, जिसमें गर्मी में अधिक तापमान 420 सेन्टीग्रेड से भी अधिक होने पर भी सब्जियों का उत्पादन तापमान बिना किसी ऊर्जा के उपयोग के 20-250 सेन्टीग्रेड बना रहता है, जिससे जाड़े में तापमान बहुत कम 2-40 सेन्टीग्रेड होने पर भी सब्जियों का उत्पादन प्रभावित नहीं होता है।

नेट हाऊस का प्रयोग करने से कीट एवं बीमारियां कम लगती हंै एवं तेज धूप से भी बचाव होता है। नेट का प्रयोग टनेल के रूप में भी किया जा सकता है। ग्रीन हाऊस में लता को चढ़ाकर ऊपर से छाया की जाती है जिससे अधिक धूप एवं तापमान पर सब्जियों का उत्पादन प्रभावित नहीं होता है। एग्रोनेट का प्रयोग धूप की सघनता को कम करने के लिए किया जाता है। एग्रोनेट लगाने से 25-40 प्रतिशत तक सघनता कम हो जाती है। जिससे अधिक तापमान होने पर भी सब्जी उत्पादन प्रभावित नहीं हो पाता है। बरसात के मौसम में पौधशाला में पौधों को तेज वर्षा से एवं जाड़े में कम तापमान से बचाने के लिए पाली टनेल का प्रयोग किया जाता है।

 

बदलते जलवायु के लिए संस्थान द्वारा विकसित किस्में

सब्जी मटर में काशी नन्दिनी किस्म का उत्पादन तापमान अधिक होने पर भी कम नहीं होता है। इसलिए अगेती खेतीके लिए बहुत उपयुक्त किस्म है। सब्जी मटर की काशी समरथ किस्म चूर्णिल आसिता की प्रतिरोधी किस्म है इसलिए फरवरी में तापमान अधिक होने पर भी चूर्णिल आसिता नहीं आता है जिससे इसका उत्पादन प्रभावित नहीं होता है। लोबिया की उन्नतशील किस्में जैसे काशी श्यामल, काशी गौरी, काशी कंचन एवं काशी उन्नति की खेती वर्ष में कभी भी की जा सकती है। ये सभी किस्में मोजैक की प्रतिरोधी है। संस्थान द्वारा विकसित कुम्हड़ा की किस्म काशी हरित, बरसात एवं गर्मी दोनों मौसम अच्छी फलत देती है। अनियमित तापमान से इसके उत्पादन पर बहुत कम प्रभाव पड़ता है। मिर्च की काशी अनमोल किस्म फलने में बहुत कम समय लेती है एवं पत्ती मरोड़ के प्रति सहनशील है। इस किस्म का उत्पादन अनियमित वर्षा एवं तापमान से कम प्रभावित होता है।

 

उन्नत सस्य तकनीकें

अनियमित वर्षा एवं तापमान से फसलों की सुरक्षा के लिए कार्बनिक खेती बहुत उपयोगी है। फसलों में वर्मी कम्पोस्ट 5 टन या मुर्गी की वीट की खाद 7.5 टन या सड़ी गोबर की खाद 25 टन प्रति हे. डालने से रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग कम करना पड़ता है जिससे पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है। सब्जियों की खेती में पलवार का प्रयोग करने से पानी की बचत होती है, खरपतवार कम उगते है एवं फसल में तुड़ाई की संख्या एवं उत्पादन बढ़ जाता है। उपयुक्त खरपतवारनाशी जैसे पेन्डिमेथेलीन का प्रयोग बुवाई के 24-72 घण्टे के अन्दर करने से खरपतवार  नहीं आते है जिससे फसलों को पानी पोषण एवं प्रकाश अधिक प्राप्त होता है, जो उपज बढ़ाने में सहायक होता है। सब्जियों में अन्र्तवर्ती फसलें लगाकर या एग्रोनेट लगाकर अर्ध छाया प्रदान करने से फसलें अधिक एवं कम तापमान के प्रभाव से बच जाती है एवं उनका उत्पादन भी अधिक प्राप्त होता है।

 

पादप संरक्षण

अधिक तापमान पर सब्जी मटर, लोबिया एवं फराशबीन में मुरझाने से बचाने के लिए 5 किग्रा. ट्राइकोडर्मा को 10 कुन्तल सड़ी खाद में मिलाकर अन्तिम जुताई के पहले खेत में छिड़क देते है। बीज को 5 ग्राम/किग्रा. ट्राइकाडर्मा से उपचारित करके लगाने से मुरझाने की समस्या कम हो जाती है। ढ़ैची की फसल का प्रयोग हरी खाद के रूप में करने से पी.एच. मान कम हो जाता है, एवं मुरझाने की समस्या कम पैदा हो जाती है। कीट नियंत्रण के लिए नीम गिरी का सत् 4 मिली./लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करने से कीट का आक्रमण कम हो जाता है। कीट नियंत्रण के लिए अन्र्तवर्ती फसलों का प्रयोग करने से कीट का प्रकोप कम हो जाता है।

टमाटर की फसल में फल छेदक को नियंत्रित करने के लिए गेंदा लगाना, सफेद मक्खी को कम करने के लिए ज्वार, बाजरा की फसल लगाना, माहूँ को कम करने के लिए सरसों को अन्र्तवर्ती फसल के रूप में लगाना एवं दवा का छिड़काव अन्र्तवर्ती फसल पर ही करना, दवा के प्रयोग कम कर देता है जिससे पर्यावरण प्रदूषण में कमी आती है। जैविक कीटनाशी जैसे ट्राइकोग्रामा एवं एन.पी.वी. का प्रयोग करके रासायनिक कीटनाशियों के छिड़काव को कम किया जा सकता है। एन.पी.वी. का छिड़काव टमाटर में फल छेदक को नियंत्रित करने के लिए किया जाता है। ट्राइकोग्रामा का प्रयोग बैंगन में तना एवं फल छेदक को नियंत्रित करने के लिए किया जाता हैं।

कीट एवं बीमारी को नियंत्रित करने एवं पर्यावरण प्रदूषण को कम करने के लिए बीज उपचार एवं जड़ों का उपचार किया जाता है। बीज उपचार के लिए कवकनाशी कार्बेन्डाजिम, कैप्टान, ट्राइकोडर्मा एवं कीटनाशी इमिडाक्लोप्रिड का प्रयोग करते हैं। गर्मी के दिनों में गहरी जुताई करके खेत खुला छोड़ देने से मृदा में पाये जाने हानिकारक कीट के अण्डे, प्यूपा, लार्वा एवं बीमारी के बीजाणु तेज धूप से नष्ट हो जाते है। पौधशाला को सफेद पालीथीन से ढककर सिंचाई करके सौर्यीकरण करने से कीट एवं बीमारी के रोगजनक समाप्त हो जाते हैं।

 

 

Source-

  • भारतीय सब्जी अनुसधान संसथान

 

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