चारागाह स्थापना, विकास व प्रबंधन

चारागाह  की स्थापना व विकास के लिए न केवल वैज्ञानिक पहलू आवश्यक है अपितु इसके लिए शैक्षिक, सामाजिक एवं राजनैतिक पक्ष को भी ध्यान में रखना जरूरी है । चारागाह के लाभों से ग्रामीणों का अवगत होना आवश्यक है । पंचायतों व अन्य स्थानीय संस्थाओं की भी महत्वपूर्ण भागीदारी की आवश्यकता है । इस कार्य से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े सभी लोगों को यह जानना जरूरी है कि विकसित चराई भूमि का संबंध प्रदेश की आर्थिक प्रगति से है ।

चारागाह विकास कार्यक्रम में चारागाह स्थापना एक महत्वपूर्ण क्रिया है । स्थापना के समय खेत में बीजों का अंकुरण कई कारणों से प्रभावित होता है । इनमें मुख्य हैं बीज बुआई की गहराई, मृदा में नमी की कमी, छिड़के हुए या उथली बुआई किए गए बीजों का हवा द्वारा उड़ाना, भूमि में अपर्याप्त हवा, बुआई के तुरंत बाद तेज वर्षा से पपड़ी बनना, चींटियों द्वारा बीजों को नुकसान, आदि ।

घास की बढ़वार लम्बे सूखे, भारी वर्षा के बाद उचित जल निकास की कमी, पौधों का पानी में बहना, खरपतवारों की प्रतिस्पर्धा और पौध को चूहों, कीटों व पक्षियों एवं पशुओं की चराई के नुकसान से प्रभावित होती है । अतः सेवण चारागाह की उचित स्थापना, विकास एवं प्रबंधन के लिए आवश्यक है कि उन्नत तकनीकें अपनाई जाएँ, जो कि निम्न प्रकार हैं –

 

भूमि का चयन

जनसंख्या की लगातार वृद्धि के कारण देश में खाद्यान्नों की माँग दिनों-दिन बढ़ती जा रही है । अतः यह मुश्किल होता जा रहा है कि चारागाह के लिए उपजाऊ भूमि उपलब्ध हो । प्रायः कम उपजाऊ भूमि ही चारागाह की स्थापना के लिए उपलब्ध हो पाती है । इस घास के लिए बलुई मिट्टी वाली भूमि जिसमें पानी का निकास आसानी से हो सके, का चयन करना चाहिए । बहुत भारी व लवणीय भूमि इस घास के लिए उपयुक्त नहीं है ।

 

चारागाह सुरक्षा

पश्चिमी राजस्थान के शुष्क क्षेत्र में वनस्पति की कमी होने के कारण अवांछित चराई व कटाई की संभावना हमेशा बनी रहती है । अतः चारागाह की सुरक्षा की व्यवस्था करना आवश्यक है । यदि धन की उचित व्यवस्था है तो काँटेदार तारों की बाड़ लगाना चाहिए जो कि लम्बे समय तक उपयोगी रहती है । उपयोगिता व रखरखाव के अनुसार तारबंदी सर्वोत्म है परन्तु प्रारंभिक लागत ज्यादा रहती है । अतः काँटे वाले पेड़ों व झाड़ियों की बाड़ भी बनाई जा सकती है । अगर संभव हो तो श्रमदान के आधार पर यह कार्य किया जा सकता है । इसके लिए भूमि के चारों तरह 1.25 मीटर गहरी तथा 1.5 मीटर चैड़ी खाई की खुदाई की जाती है ।

खाई की मिट्टी से अन्दर की तरफ डोली बनाई जाती है । इस डोली पर कुम्मट (अकेसिया सेनेगल ), इजरायली बबूल (अकेसिया टोरटिलिस ), देशी बबूल (अकेसिया निलोटिका किस्म क्यूपरेसीफोरमिस ), बावली ( अकेसिया जेकमोन्साई ), केर ( केपेरिस डेसडुआ ), फोग (केलीगोनम पोलीगोनाॅइड्स ), झरबेरी ( झिझिफस न्यूमलेरिया ) इत्यादि लगा सकते हैं । फलदार वृक्ष जैसे गोंदा ( कोर्डिया मिक्सा ), बेर (झिझिफस रोटन्डीफोलिया ) आदि व झाड़ियाँ जैसे करोन्दा ( केरिसा केरेन्डस ), आदि भी लगाए जा सकते हैं । इस तरह से तैयार बाड़ की समय-समय पर देखभाल जरूरी है । बाड़ के पेड़ों व झाड़ियों से फलों व चारे के साथ-साथ लकड़ी भी प्राप्त होती है ।

 

खेत की तैयारी

सेवण के लिए खेत को सामान्य फसलों की तरह तैयार किया जाता है । एक-दो जुताई करके खेत को अच्छी तरह तैयार कर लेते हैं । अंतिम जुताई के समय पाटा चलाना चाहिए । बहुवर्षीय खपतवारों को जमीन से खोदकर निकाल देना चाहिए, अन्यथा बीजों का अंकुरण प्रभावित होगा व पौधों की प्रारंभिक अवस्था में प्रतिस्पर्धा के कारण उनकी बढ़वार पर असर पड़ेगा । कम लाभदायक झाड़ियाँ जैसे मोराली ( लिसियम बारबेरम ), हिंगोटा ( बेलेनाइट्स इजिप्टिका ), रिओन्जा ( अकेसिया ल्यूकोफलाइया ), अलाय ( माइमोसा हमाटा ), बुई ( एरवा टोमेन्टोसा ), आक ( केलोट्रोपिस प्रोसेरा ), आदि को खोदकर जड़ सहित निकाल देना चाहिए ।

ये झाड़ियाँ धीरे-धीरे अपने आकार, प्रकार व संख्या में बढ़कर सेवण की बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं, क्योंकि ये सेवण के साथ नमी, धूप व पोषण के लिए प्रतिस्पर्धा करती हैं एवं चारागाह की स्थापना के बाद अन्तराशस्य क्रियाएँ करने में भी बाधा पहुंचती है । झाड़ियों व पेड़ों की लाभ दायक प्रजातियाँ जैसे झरबेर ( झिझिफस न्यूमलेरिया ), खेजड़ी ( प्रोसेपिस सिनरेरिया ), रोहिड़ा ( टेकोमेला अनडुलेटा ), आदि का घेरा, कुल क्षेत्र के 14 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होना चाहिए । खेत की तैयारी ग्रीष्मकालीन मानसून की वर्षा से पहले अर्थात् जून महीने में पूर्ण कर लेनी चाहिए । खाद का प्रयोग भी जुताई के समय करना उचति रहता है । समतल व तैयार खेत में बुआई करने से बीजों को वांछित गहराई व दूरी पर बोया जाना चाहिए । तैयार खेत में उचित नमी की स्थिति में बुआई करने पर चारागाह की स्थापना अच्छी होती है ।

 

बुआई का समय

बीजों के उचित अंकुरण के लिए जुलाई का महीना बुआई के लिए उत्तम है । बुआई प्रायः ग्रीष्मकालीन मानसून की प्रथम प्रभावी वर्षा के बाद की जाती है । अगर फव्वारा सिंचाई की उचित व्यवस्था हो तो मई-जून में भी बुआई की जा सकती है । बीजों का पर्याप्त अंकुरण, बुआई के बाद होने वाली वर्षा पर निर्भर करता है । वर्षा जितनी जल्दी होती है उतनी ही लाभदायक होती है अर्थात् बुआई या तो मानसून आने के एक-दो दिन पहले की जानी चाहिए या मानसून आने के तुरंत बाद करनी चाहिए जिससे उपयुक्त नमी मिलने पर अधिकतम बीजों का अंकुरण हो जाए ।

बीज महंगा व आसानी से उपलब्ध न होने व बुआई की लागत ज्यादा होने के कारण मानसून से पहले सूखी बुआई लाभदायक नहीं है । सेवण के बीजों का अंकुरण नियंत्रित दशाओं ( प्रयोगशाला ) में एक महीने तक होता रहता है । पच्चास प्रतिशत अंकुरण लगभग 7 दिनों के अंदर हो जाता है । खेत में 72 घंटे में अंकुरण शुरू हो जाता है ।

अगर वर्षा कम होती है या एक वर्षा के बाद वर्षा नहीं होती है तो बीज अंकुरित नहीं होेते । कुछ बीज सुषुप्त हो जाते हैं व जब भी भूमि में पर्याप्त नमी उपलब्ध होती है, अंकुरण हो जाता है । शुष्क क्षेत्र की बहुवर्षीय घासों में औसतन लगभग 30 प्रतिशत अंकुरण होता है । देरी से वर्षा होने पर खरपतवार बढ़ जाते हैं व सेवण घास के देरी से उगने वाले बीजों को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं ।

अतः जहां फव्वारा सिंचाई की सुविधा हो, बुवाई के तुरन्त बाद भी सिंचाई की जा सकती है । खारा पानी अंकुरण के लिए लाभदायक नहीं है । बाढ़-सिंचाई व क्यारी सिंचाई विधियाँ भी इसके लिए प्रतिकूल हैं । पौध व जड़ें लगाने के लिए भी जुलाई का महीना ही उचित है । जड़ें लगाने के लिए आवश्यक है कि पुराने पौधों में उचित पुनर्जनन प्रारम्भ हो गया हो और खेतों में पर्याप्त नमी उपलब्ध हो ।

 

बीज दर

सेवण के बीज का पर्याय है कि उसमें, दो प्रजनन योग्य ( बिना डंठल वाली ) स्पाइकलेट्स, एक प्रजनन अयोग्य ( डंठल वाली ) स्पाइकलेट तथा डंठल  सहित अक्ष का भाग हो । यह एक प्रकीर्णन इकाई है, जो बीज की वानस्पतिक परिभाषा से भिन्न है ।

चारागाह की स्थापना हेतु पर्याप्त बीज की आवश्यकता होती है । कम व ज्यादा बीज दोनों स्थितियों में चारागाह की स्थापना पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है । सेवण एक बूजा बनाने वाली घास है, अतः, कभी-कभी कम बीज दर भी अच्छा चारागाहा लगाने में सफल हो जाती है । उचित विधि से बुआई करने पर 6 से 7 किलोग्राम बीज एक हेक्टेयर के लिए पर्याप्त रहता है ।

सेवण के 1000 बीजों का बजन लगभग 7 से 8 ग्राम होता है । अतः पौधे से पौधे की दूरी 75 से.मी. व पंक्ति से पंक्ति की दूरी 75-100 से.मी. रखने पर एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए कम बीज की आवश्यकता होती है । परन्तु शुष्क क्षेत्र की रेतीली भूमि, वर्षा की कम मात्रा व असमान वितरण, वायु की तेज गति, भूमि का अधिक तापमान, खरपतवारों की तेज बढ़वार, चींटियों का प्रकोप, बुआई की गहराई, आदि के कारण खेत में बोए गए बीजों से 30 प्रतिशत पौधे भी नहीं मिलते, इसलिए बीज दर 6 से 7 किलोग्राम अनुशंसित की गई है । पौधशाला में तैयार पौध लगाकर बीज दर को 2-2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक किया जा सकता है ।

 

बुआई की विधि

बीज की बुआई की गहराई दानों के आकार पर निर्भर करती है । सेवण के दाने छोटे आकार के होते हैं एवं 1000 दानों का वनज 2 ग्राम से भी कम होता है । अतः बीजों की उथली बुआई अनुसंशित की जाती है । बीजों पर कम मिट्टी आना, उनके अंकुरण के लिए अच्छा रहता है । सेवण के पौधों का फैलाव, अंजन घास व मोडा धामण घास से ज्यादा होता है एवं उम्र बढ़ने के साथ उचित प्रबंधन की स्थिति में यह फैलाव बढ़ता जाता है । अतः पौधे से पौधे की दूरी 75 से.मी. व पंक्ति से पंक्ति की दूरी 75 से 100 से.मी. रखनी चाहिए ।  बीज, श्रम व बुआई के काम आने वाले अन्य संसाधनों की उपलब्धता के अनुसार बुआई विधि का चुनाव निम्नलिखित विधियों में से कर सकते हैं

(अ)    छिड़कवाँ विधि

(ब)    बीजों की पंक्तियों में बुआई

(स)    पौध द्वारा

(द)    जड़ों द्वारा

 

(अ)    छिड़कवाँ विधि

बीज को 1:5 ( आयतन से ) खेत की नम मिट्टी ( रेत ) में मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण को तैयार कर लेते हैं । इस मिश्रण को तैयार खेत में अनुसंशित बीज दर के अनुसार छिड़क देते हैं । मिश्रण को खेत में ज्यादा ऊँचाई से नहीं छिड़कना चाहिए । मिश्रण के छिड़काव के बाद खेत में बिल्कुल कम गहराई का ट्रैक्टर चालित हेरो चला देते हैं । अगर इसके तुरंत बाद वर्षा को जाए तब बीजों का अंकुरण अच्छा होता है । प्रतिकूल दशा होने पर इस विधि से आशातीत परिणाम नहीं मिलते हैं । वर्षा यदि देर से होती है तो रेतीली भूमि में बीज हवा द्वारा उड़ा कर ले जाने का डर बना रहता है, क्योंकि शुष्क क्षेत्र में वर्षा ऋतु में वायु गति कभी-कभी 28 किलोमीटर प्रति घंटा से भी ज्यादा होती है ।

वर्षा की अधिकता से भी कभी-कभी बीज यथोचित स्थान पर नहीं रहते, क्योंकि अधिक वर्षा की स्थिति में रेतीली भूमि में भूक्षरण ज्यादा होता है । इस विधि से चारागाह में की जाने वाली कृषि क्रियाएं जैसे खरपतवार निकालना, अंतराशस्य, आदि करने में कठिनाई आती है । बीज पंक्तियों में नहीं उगते, अतः पौधों की प्रारम्भिक अवस्था में ग्रेमीनी परिवार के खरपतवारों व सेवण के पौधों में अंतर करना मुश्किल होता है । शुरू में खरपतवारों की बढ़वार सेवण घास से ज्यादा होती है व पहचान मुश्किल होने के कारण खरपतवारों को निकाला नहीं जा सकता, अतः सेवण के पौधों को बहुत नुकसान पहुंचता है व चारागाह स्थापना प्रभावित होती है। इस विधि में केवल श्रम की बचत होती है व बुआई की लागत तुलनात्मक रूप से कम आती है । इस विधि से स्थापित चारागाह की उत्पादक उम्र भी कम होती है ।

 

(ब) बीजों की पंक्तियों में बुआई

तैयार खेत में ट्रैक्टर चालित कल्टीवेटर से उचित दूरी पर लगभग 5-7 से.मी. गहरे कंूड बना लिए जाते हैं । यह कार्य मानसून के आने पर किया जाता है । बीज को 1:5 ( आयतन से ) खेत की गीली मिट्टी (रेत) मिला कर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार किया जाता है । तैयार मिश्रण को कल्टीवेटर से बनाए गए उमरों में बो देते हैं । यहाँ ध्यान रहे कि मिश्रण कूंड के बीच गिरे ।

मिश्रण की मिट्टी, बीज को ढकने के लिए पर्याप्त रहती है । रेत की मात्रा आवश्यकता हो तो थोड़ी बढ़ा भी सकते हैं । यह एक प्रकार की सूखी बुआई है व यदि बुआई के बाद हल्की वर्षा होती है तो अंकुरण अच्छा होता है । यदि भूक्षरण न हो तो भारी वर्षा भी कोई नुकसान नहीं पहुंचाती । वर्षा में कुछ दिनों की देरी होने पर भी बुआई सफल हो जाती है । जहाँ फव्वारा सिंचाई की सुविधा हो वहाँ तुरंत सिंचाई की जा सकती है । इस विधि में चारागाह की उम्र ज्यादा होती है, अंतराशस्य क्रियाएं करने में आसानी होती है व खरपतवार भी आसानी से निकाले जा सकते हैं तथा बीज की मात्रा छिड़काव विधि से कम लगती है ।
 

(स)  पौध द्वारा

नर्सरी में पौध तैयार करके भी सेवण का चारागाह लगाया जा सकता है । पौधशाला में बीजों की बुआई मई महीने के शुरू में की जाती है । पौधशाला में बीजों की बुआई करते समय यह ध्यान रहे कि बीजों पर रेत कम डाली जाए अन्यथा अंकुरण प्रभावित होगा । बीजों को नमी युक्त क्यारियों में बोएं व बुआई के बाद हाथ झारे से पानी दें तथा पपड़ी को न बनने दें । इसके लिए पौधशाला में दो दिन तक पानी अवश्य दें । बीजों के अंकुरण के लिए व पौध की अच्छी बढ़वार हेतु पानी दें । शुरू में हाथ झारे से ही सिंचाई करनी चाहिए ।

अच्छी बढ़वार के लिए एक महीने की पौध में 2 प्रतिशत यूरिया के घोल का प्रयोग किया जा सकता है । इस तरह से 45 से 60 दिन बाद जब राइजोम्स का पर्याप्त विकास हो जाए, तब पौध रोपाई के लिए तैयार हो जाती है । रोपाई के लिए पौधशाला में पानी देकर पौधों को जड़ों सहित उखाड़ लेते हैं । पौधों का ऊपरी भाग काट देते हैं व तैयार खेत में उचित दूरी पर लगा देते हैं । एक जगह दो से तीन पौधे लगाने चाहिए ।

पौध लगाने के बाद उनके चारों तरफ मिट्टी को अच्छी तरह से दबा दें । वर्षा के समय बूंदा-बांदी होने पर पौध लगाने से अच्छी सफलता मिलती है । वर्षा न हो तो कम से कम तीन दिन तक हाथ झारे या फव्वारे से सिंचाई अवश्य करें । इस विधि की सफलता पानी की उपलब्धता पर निर्भत करती है । यद्यपि पौध लगाने का खर्चा बीजो को पंक्तियों में बोने की विधि से ज्यादा आता है परन्तु सफलता आशातीत मिलती है । चारागाह का विकास जल्दी होता है व चारागाह प्रतिकूल परिस्थितियों को सहन कर सकता है ।

इस विधि में अंतराशस्य करने में व खरपतवार निकालने में आसानी रहती है । चींटियों, हवा व पानी से भी बीज का नुकसान नहीं होता । बीज दर में कमी होती है जो कि 2-2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक की जा सकती है । यह विधि महंगी होने के बावजूद चारागाह लगाने की सफलता का आश्वासन देती है, चारागाह सुनियोजित तरीके से लगता है तथा उचित रख-रखाव की स्थिति में चारागाह की उम्र दशकों तक बनी रहती है ।

 

(द) जड़ों  द्वारा

यह विधि उपरोक्त विधि के समान ही है । इस विधि में पौध के स्थान पर पुराने पौधों की जड़ें जिसमें राइजोम्स होते हैं का प्रयोग किया जाता है । एक हेक्टेयर के लिए 13000 से 18000 जड़ें पर्याप्त रहती हैं । इस विधि में पौधों के तनों का 10-15 से.मी. का हिस्सा छोड़कर ऊपर का भाग काट देते हैं । ध्यान रहे कि जड़ों में पर्याप्त गाँठें ( 2-3 ) अवश्य हों । पौधों की जड़ों को जैसे ही बरसात हो और मिट्टी नमी युक्त हो, उचित दूरी अर्थात् पौधे से पौधे की दूरी 75 से.मी. एवं पंक्ति से पंक्ति की दूरी 75 से 100 से.मी. पर लगाना चाहिए । जड़ों को लगाने के बाद चारों तरफ मिट्टी से अच्छी तरह से दबा देना चाहिए, जिससे जड़ें मिट्टी में पकड़ बना सकें ।

 

बीज अंकुरण

सामान्यतया इकट्ठे किए हुए बीजों का अंकुरण 30 प्रतिशत से कम होता है, परन्तु उचित तरीके से पैदा किए गए बीजों में यह 72 प्रतिशत तक पाया गया है । सेवण के बीज के आवरण में अंकुरण बाधक तत्व पाए जाते हैं । अतः बीजों को 3 घंटे पानी में भिगोने के बाद 15 मिनट चलते हुए पानी से धोने से अंकुरण बाधक तत्व बाहर निकल जाते हैं । इससे अंकुरण पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है । भीगे हुए बीजों को छायादार स्थान पर फैला कर सुखा लेना चाहिए । सूखने के बाद 0.2 प्रतिशम थीरम या बेवीस्टीन मिला देना चाहिए । इसके बाद जल्दी ही बीजों की बुआई कर लेनी चाहिए । इस तरह से बीजों का अंकुरण अच्छा होता है ।

 

खरपतवार निकालना व अंतराशस्य क्रियाएँ

अच्छे चारागाह की स्थापना के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि खेत खरपतवार मुक्त हो । बुआई से पूर्व तथा बाद में खरपतवार निकालने से चारागाह की स्थापना अच्छी होती है तथा चारा उत्पादन बढ़ता है । बुआई के 3-4 सप्ताह बाद तथा पुनर्जनन के 15 दिन बाद प्रथम निराई-गुड़ाई करके खेत को खरपतवार मुक्त करना जरूरी है । दूसरी निराई-गुड़ाई यदि वर्षा हो तो प्रथम निराई-गुड़ाई के 3-4 सप्ताह बाद अवश्य पूर्ण कर लेनी चाहिए । सेवण में जड़ों के उचित विकास हेतु जमीन का खुलासा जरूरी है । अतः पहले से स्थापित चारागाह में प्रभावी पुनर्जजन के बाद ट्रेक्टर चालित कल्टीवेटर से गुड़ाई करना चाहिए ।

बुआई के वर्ष पौधों की ऊँचाई लगभग 20 से.मी. होने पर यह क्रिया करें । यह ध्यान रहे कि इस क्रिया के समय जमीन की ऊपरी परत मेें कुछ नमी अवश्य हो । खरपतवार निकालने व अंतराशस्य क्रियाओं से जमीन से जल का वाष्पीकरण रुकता है, भूमि में वायु संचार बढ़ता है तथा भूमि की जलधारण क्षमता बढ़ती है, फलस्वरूप पौधों को पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ती है व सेवण की बढ़वार अच्छी होती है । खरपतवार नहीं निकालने से कम पाचक व वार्षिक खरपतवार बढ़ते रहते हैं । वैसे सेवण के स्थापित चारागाह में बहुत से खरपतवार स्वतः ही कम हो जाते हैं, परन्तु सेवण उन्हें बिल्कुल नष्ट नहीं कर सकता ।

सेवण घास का चारागाह एक बार स्थापित करने से कम से कम 8-10 वर्षों तक अच्छी पैदावार दे सकता है, अतः इसे टिकाऊ बनाये रखने हेतुु प्रत्येक वर्ष, वर्षा होने के दूसरे-तीसरे सप्ताह कस्सी या कल्टीवेटर द्वारा गुड़ाई करनी चाहिए । ऐसा करने से पौधे की जड़ों को पर्याप्त हवा मिलती है तथा पुरानी, सूखी एवं सड़ी जड़ें तथा पौधे मिट्टी में मिल जाते हैं, जिससे चारागाह का उपजाऊपन बना रहता है ।

 

उर्वरक व खाद का प्रयोग

गुणवत्ता व अधिक चारा उत्पादन के लिए 40 किलोग्राम नत्रजन व 20 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर देना चाहिए । फास्फोरस की पूर्ण मात्रा तथा नत्रजन की आधाी मात्रा बुआई के समय जमीन में प्रयोग करें । नत्रजन की शेष मात्रा कल्ले बनते समय प्रयोग करें । चारागाह लगाने के 1 से 1.5 महीने पहले अच्छी सड़ी हुई 5 टन गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर के अनुसार प्रयोग कर सकते हैं । जब सेवण की अन्तराशस्य दलहनों जैसे मोठ, ग्वार, चवला, आदि के साथ की जाती है, तब दलहनों हेतु 20 किलोग्राम नत्रजन व 40 किलोग्राम फास्फोरस एक हेक्टेयर के लिए प्रयोग करें ।

 

स्रोत-

  • केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, जोधपुर- 342 003, राजस्थान

 

 

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