गेहूं में पौध संरक्षण केसे करे ?
गेहूं एक प्रमुख धान्य फसल है, अतः देश की आर्थिक एवं खाधान्य उत्पादन में इसका महत्वपूर्ण योगदान है | मध्य प्रदेश में गेहूं का क्षेत्रफल लगभग 45 लाख हेक्टेयर है, इसका उत्पादन 70 मि. टन तथा उत्पादकता १८०० किलो / हेक्टेयर है | प्रदेश का औसत उत्पादन, राष्ट्रीय औसत से कम होने का एक प्रमुख कारण गेहूं के विभिन्न रोगों ओ कीटो का प्रकोप भी है | अतः गेहूं के प्रमुख रोगों व कीटों की जानकारी एवं उनका नियन्त्रण आवश्यक है |
(अ)गेहूं के प्रमुख रोग
1.गेरुआ रोग
गेरुआ पूर्ण रूप से परभक्षी कवच है | इसके अलेंगिक एवं लेंगिक जीवन चक्र होते है | लेंगिक चक्र दारू हल्दी (बारवेरी) नामक पौधे पर पूर्ण होता है, एवं रोग के प्राथमिक संक्रमण में इसका महत्वपूर्ण योगदान है | दक्षिण भारत में नीलगिरी पहाड़ी पर ग्रीष्म कालीन गेहूं में गेरुआ रोग के बीजाणु उपस्थित रहते है जो हवा के द्वारा मैदानी भागो में शीतकालीन गेहूं को प्रभावित करते है | इस प्रकार गेरुआ वर्ष भर विदमान रहता है | गेरुआ तीन प्रकार का होता है |
- कला गेरुआ 2. भूरा गेरुआ 3. पीला गेरुआ | गेरुआ की विभिन्न प्रजातियाँ होती है, जिनकी जिनकी पहचान गेहूं की विभिन्न किस्मो पर की जाती है | गेहूं की किस्मे, भिन्न भिन्न प्रजातियों के लिए निरोधक होती है | गेरुआ की प्रजातियाँ प्रकृति में विकसित होती रहती है तथा गेहूं की नई विकसित होने वाली किस्मो पर भी संक्रमण करती रहती है |
कला गेरुआ का संक्रमण गेहूं की पत्तियों एवं तानों पर तथा भूरा गेरुआ पत्तियों को प्रभावित करता है | कला गेरुआ का प्रकोप 5 – 6 वर्ष में एक बार होता हैं तथा भूरा गेरुआ का प्रकोप प्रतिवर्ष होता हैं व पीला गेरुआ का संक्रमण प्रदेश में नगण्य हैं | इस रोग को प्रदेश के उत्तरी एवं बुंदेलखंड के पहाड़ी क्षेत्र में देखा जा सकता हैं |
नियंत्रण
(क) गेरुआ संक्रमण की प्रारंभिक अवस्था में फफूंदनाशक ओषधियों का उपयोग जैसे :-
- सल्फर डस्ट का भुरकाव 15 दिन के अन्तराल से तीन या चार बार करें |
- डायथेन, जेड – 78 या डायथेन एम – 45 फफूंदनाशक का छिडकाव 15 दिन के अन्तराल में 3 – 4 बार करें | आर्थिक द्रष्टि से लाभप्रद न होने से यह प्रचलित नहीं है |
(ख) गेरुआ निरोधी किस्मो का उपयोग, सबसे सस्ता एवं सरल उपाय है मध्य प्रदेश के लिए गेहूं निरोधक अनुशंसित जातियां निम्नानुसार है |
(अ) असिंचित क्षेत्रो के लिए
- सुजाता 2. एच. डब्लू. 3. जे. डब्लू. एस. – 17
(ब) सिंचित क्षेत्रो के लिए
- एच. आय. – 1007 (मंगला)
- डी. एल. – 803-3 (कंचन) जी. डब्लू- 190 एवं
- राज 9555 (जलालिया)
सिंचित देर से बोनी
- लोक -1 स्वाति, 3. जी डब्लू 173
2.कंडवा
गेहूं का कंडवा रोग, आंतरिक बीज जन्य रोग है | गेहूं में बालियाँ आने पर ही इसका प्रकोप देखा जा सकता है | बालियों में दाने के स्थान पर काला चूर्ण बन जाता है | इसके बीजाणु हवा के द्वारा स्वस्थ पौधो के फूलो पर पहुंच जाते है, एवं दाना पड़ने पर बीज में स्थित रहते है तथा अगले वर्ष संक्रमित बीजो के पौधों की बढ़वार के साथ, ये बीजाणु विकसित होकर गेहूं क्व दानों को काले चूर्ण में बदल देते है | कंडवा रोग के अत्याधिक प्रकोप की अवस्था (3 प्रतिशत प्रकोप) में 4 – 5 करोड़ रुपयों की हानि होती है |
नियंत्रण
कंडवा रोग आंतरिक बीज जन्य रोग होने से, केवल बीजोपचार से पूर्ण नियंत्रण संभव नहीं है, अपितु कंडवा संक्रमण रहित क्षेत्र से लिये गये स्वस्थ बीज के उपयोग से नियंत्रण संभव है | नियंत्रण हेतु निम्न सावधानियां लेना आवश्यक है |
- कंडवा ग्रसित गेहूं के पौधों को उखाड़कर नष्ट करना |
- ऐसे क्षेत्र के गेहूं के बीज का उपयोग करे जहाँ विगत वर्षो में कंडवा रोग का प्रकोप नहीं हुआ हो |
- यदि गेहूं का बीज कंडवा ग्रसित क्षेत्र का ही उपलब्ध हो तो, ऐसी स्तिथि में निम्न उपचार करे |
(अ) सौर उर्जा उपचार :- बीज को पानी में 4-5 घंटे डुबाए प्रातः 8 से 12 बजे तक तथा बीज को अच्छी तेज़ धूप में सुखाकर बोनी हेतु उपयोग में लाये |
(ब) गर्म पानी द्वारा बीजोपचार :- बीज को – 5 घंटे में डुबाकर रखें, तथा बाद में केवल दो मिनट के लिए गर्म पानी (20 डिग्री फे) में डुबाये एवं अच्छी तरह सुखाकर बोनी हेतु उपयोग में लाये | इस उपचार द्वारा प्रमुख कवक सक्रीय होकर नष्ट हो जाता है |
- वीटबेक्स या बेनलेट नामक फफून्द नाशक दवा द्वारा 1.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार करने के बाद बोनी करें |
3.जड़ या पदगलन रोग
यह भूमि जनित रोग है | इसमें बीज बोने के बाद अंकुरण नहीं होता, भूमि के अंदर बीज रोग ग्रसित होकर सड जाता है इस रोग में पौधा निकलने के बाद जड़े भूरे या काले रंग की हो जाती है तथा पौधा पीला पड़कर नष्ट हो जाता है | इसे उगरा या उकठा रोग भी कहते है |
नियंत्रण
- ग्रीष्मकाल में गहरी जुताई करें |
- फसल चक्र अपनाये |
- बीजोपचार जिनेब या केंटाप नामक फफूंद नाशक दवा द्वारा 3.0 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीज को उपचारित कर बोनी करें |
- भूमि का तापक्रम 20˚ से. से कम होने पर ही बोनी करें |
4.पत्ती झुलसन
यह रोग भूमि एवं बीज जनित होता है, पत्तियों पर छोटे –छोटे अंडाकार धब्बे अनियमित रूप से बिखरे रहते है | ये धब्बे बादामी या भूरे रंग के होते है एवं पीले घेरे में रहते है, ये धब्बे आपस में मिलकर पूरी पत्ती को ढँक लेते है एवं पत्ती नष्ट हो जाती है |
नियंत्रण
- डायथेन एम-45 फफूंदनाशक औषधि का रोग के प्रारंभिक अवस्था में छिडकाव करें | छिडकाव 20 दिन के अंतर में दोबारा करें |
- रोग ग्रस्त मलवे को इकटठा कर जला दें |
गेहूं के अन्य रोग, जिनका संक्रमण मध्य प्रदेश में नगण्य है, लेकिन अनुकूल परिस्तिथियों में गेहूं की फसल को प्रभावित कर सकते है | इन रोगों का नियंत्रण निम्नानुसार किया जाता है |
5.करनाल बंट
लक्षमण : बीज की दरार में रोगाणुओं से काले रंग का चूर्ण उत्पन्न होता है जिससे दाने व बालियों का केवल थोड़ा सा भाग प्रभावित होता है |
नियंत्रण
- रोग रोधी गेहूं की किस्मों का बोनी हेतु उपयोग करें जैसे – एच. डी. – 2285, डब्लू. एल. -1562 आदि |
- समय पर बोनी तथा बालियाँ निकलते समय सिंचाई न करें |
- थीरम अथवा केंटाप – फफुंद नाशक दवा का 2.0 ग्राम / किलो बीज की दर से दवाई द्वारा बीजोपचार |
6.हिलबंट
- कर्बोक्लीन 2.5 ग्राम / कि. बीज की दर से बीजोपचार करें |
7.गेगला (सेहूँ) रोग
यह रोग एग्विना टीटीसाई नामक सूत्रकृमि द्वारा उत्पन्न होता है विगत चार पांच वर्षो से यह रोग मध्य प्रदेश के उत्तर पूर्व जिलो में तेज़ी से फैल रहा है | रोग के लक्षण पौधो की प्रारंभिक अवस्था में पौधो की वृद्धि एवं शाखाओ की स्वस्थ पौधो की अपेक्षा अधिक होती है तथा दौजिया अधिक निकलती है | पत्तियाँ ऐंठी हुई एवं कुंचित दिखलाई देती है | रोग ग्रस्त बालियाँ छोटी और अधिक चौड़ी हो जाती है | बालियों के कुछ या सभी दाने भूरे कठोर गोलाकार पिटिकाओं में परिवर्तित हो जाते है |
नियंत्रण
- प्रमाणित बीजो का ही उपयोग करें |
- पिटिका मिश्रित बीज को बीनकर या छन्ने से साफ़ करने के बाद फफूंदनाशक दवा से उपचारित कर बोनी करें |
- पिटिका मिश्रित बीजो को 2 प्रतिशत नमक के घोल में डुबाने से पिटिकाये तैरने लगती है, जिन्हें अलग करें एवं स्वस्थ बीजो को साफ़ पानी में धोकर 3 ग्राम / किलो बीज की दर से थाइरम नामक दवा से बीजोपचारित कर बोनी करें |
(ब) गेहूं की प्रमुख कीट पहचान एवं नियंत्रण
(अ) भूमिगत कीट
1.दीमक
इस कीट का प्रकोप विशेषकर असिंचित, अर्द्ध सिंचित तथा हलकी भूमि में गेहूं की फसल पर होता है | दीमक के कार्य विभाजनारूप चार वर्ग होते है, जिनमे से केवल श्रमिक वर्ग, जिनकी संख्या एक दीमक की कालोनी में 80 – 90 प्रतिशत तक रहती है फसल को प्रारंभिक अवस्था में पकने की अवस्था तक हानि पहुँचती है | इसका शरीर मुलायम सफ़ेद दुधिया रंग तथा सिर अंडाकार गोल भूरे रंग का होता है तथा मुखांग मजबूत होते है |
कीट समूह के श्रमिक दीमक फसल की जड़ो को काट कर नुकसान पहुंचाती है | ग्रसित पौधों की बाहरी पत्तियाँ पहले सुख जाती है और धीरे धीरे भीतरी, जिससे पौधे सूख जाते है ऐसे पौधों को खींचने पर आसानी से उखड जाते है | जड़ो के पास भूमि खोदने पर श्रमिक दीमक ऊपर नीचे आते जाते दिखाई देते है |
2.जड़ माहो
मध्य प्रदेश में जड़ माहो असिंचित एवं सिंचित गेहूं को हानि पहुँचता है | यह कीट दिसम्बर से फरवरी तक अधिक सक्रीय रहता है | इसका प्रोढ़ 1.0 से 1.25 मि. मि. लम्बा गहरे लाल – काले रंग के होते है |
इस कीट के शिशु एवं व्यस्क गेहूं के पौधों की जड़ो से रस चूसकर हानि पहुँचाते है, जिससे पौधों की बाढ़ पर विपरीत प्रभाव पड़ता है | ग्रसित पौधे की बाहरी पत्तियाँ पीली पड़कर मुरझाने लगती है | नवम्बर में बोई गई सिंचित गेहूं की अपेक्षा देरी से बोई गई फसल पर इस कीट का प्रकोप अधिक होता है |
3.कटुआ इल्ली
यह गेहूं की असिंचित फसल पर अपेक्षाकृत अधिक क्षति पहुँचाती है | इस कीट की इल्ली काले भूरे मटमैले चमकीले रंग की 40 से 50 मि. मि. लम्बी होती है तथा छूने पर गोल हो जाती है | यह कीट नवम्बर – दिसम्बर माह में अधिक सक्रीय रहता है |
यह कीट रात्रि के समय उगते हुए दानो को या पौध अवस्था की फसल को भूमि की सतह से काटकर गिरा देती है |
4.वायर वर्म (जड़ माहो)
यह प्रदेश के मध्य क्षेत्र के असिंचित गेहूं क्षेत्रो में पाया जाता है | इसके भूरे मटमैले रंग के तार के समान चिकने करीब 10.5 से 2.0 से. मी. लम्बे ग्रब होते है | यह कीट भूमि के अंदर रहकर जड़ो को तथा बीज को ठीक उपर तनो को काटकर नुकसान पहुँचाते है | प्रकोपित पौधे सूख जाते है | ऐसे पौधों की जड़ो में ग्रब को देखा जा सकता है |
नियंत्रण
- खेत की अच्छी तरह जुताई करना चाहिए |
- कच्ची या अधपकी गोबर की खाद का प्रयोग नहीं करना चाहिए, क्यूंकि इसके गोबर से दीमक के प्रकोप की सम्भावना अधिक रहती है |
- खेतो के आस पास के बमीठो को नष्ट करें |
- असिंचित गेहूं में दीमक के नियंत्रण हेतु बीज को क्लोरोपायरीफास 20 ई.सी. 400 मि. ली. को 5 लीटर पानी में घोलकर 100 किलो बीज को उपचारित कर बोये |
- गेहूं को समय पर ही बोये, देरी से बोयें गये ( दिसम्बर – जनवरी ) गेहूं पर जड़ माहो का प्रकोप अधिक होता है |
- खड़ी फसल पर दीमक या जड़ माहो का प्रकोप होने पर क्लोरोपायरीफास 20 ई. सी. 1.25 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से सिंचाई पानी के साथ दें | अर्धसिंचित भूमि में उपरोक्त दवा की मात्रा को 3 लीटर पानी में घोल कर 50 किलो रेत उपचारित कर खेत में फैलाकर पानी लगायें |
(ब) तना छेदक
1.कल्ला छेदक भृंग
यह कीट असिंचित गेहूं फसल पर नवम्बर – दिसम्बर माह में सक्रीय रहता है | इसकी इल्ली (ग्रब) प्रारंभिक अवस्था में सफ़ेद रंग की लगभग 0.5 मि. मी. लम्बी और पूर्ण विकसित इल्ली मटमैले रंग की लगभग 6.5 मि. मी. लम्बी और 1.2 मि. मी. चौड़ी होती है | इसके शरीर पर छोटे छोटे काले धब्बे होते है तथा सिर भूरे रंग का होता है | इसके प्रौढ़ का आकार 2.5 मि. मी. चौड़ा तथा रंग चमकदार गहरा हरा नीला होता है |
इल्ली (ग्रब) कल्लो में छिद्र बनाकर उसे अंदर ही अंदर खाती है जिससे तना सूख जाता है | जिसे डेडहार्ट कहते है | ग्रसित पौधों की वृद्धि रुक जाती है | व्यस्क भृंग पत्तियों के हरे पदार्थ को खुरचकर खाता है | जिससे पत्तियों पर सफ़ेद समान्तर लाइन बन जाती है |
2.तना मक्खी या गेहूं की परोह मक्खी
प्रदेश में गेहूं की फसल का यह महत्वपूर्ण कीटनाशक था इसका प्रकोप अब धीरे धीरे कम होता जा रहा है | प्रौढ़ तना मक्खी घरेलु मक्खी के समान लेकिन आकार में छोटी भूरे रंग की होती है इसकी इल्ली (मैगट) दुधिया पीले रंग की होती है, पूर्ण विकसित इल्ली 3-4 मि. मी. लम्बी होती है जिसका अग्र भाग नुकीला होता है तथा पिछला भाग गोलाई लिए होता है |
फसल की पौध अवस्था में मैगट तनों के भीतर प्रवेश कर बढ़ते हुए भाग को खाकर नष्ट करती है, जिससे मुख भाग सूखकर डेडहार्ट बनता है तथा खींचने पर आसानी से निकल आता है | नाइट्रोजन एवं सिंचाई के अधिक मात्रा में उपयोग से इस कीट के प्रकोप में वृद्धि देखी गयी है | देर से बोई गई फसल पर इसका प्रकोप अधिक होता है |
नियंत्रण
- असिंचित फसल में नवम्बर – दिसम्बर माह में कल्ला छेदक भृंग के नियंत्रण के लिए इन्डोसल्फान 35 ई. सी. 1000 मि. ली. दवा का 500 ली. पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर छिडकाव करें | इससे तना मक्खी एवं प्ररोह मक्खी के नियंत्रण हेतु डाइमीथोएट 30 ई. सी. की 750 मि. ली. / हेक्टेयर के मान से छिडकाव करें |
- सिंचिंत गेहूं की बोनी समय पर करें | देरी से बोई (दिसम्बर) फसल पर तना मक्खी का प्रकोप अधिक होता है |
(स) पर्ण भक्षक एवं रस चूसक
1.फौजी कीट
इस कीट की इल्ली भूरे रंग की तथा सफ़ेद भूरे काले रंग की धारियाँ वाली होती है | पौध अवस्था से दाने भरने की अवस्था तक इसका प्रकोप देखा गया है |
इसकी सूंडिया पौधों के कल्लो तथा जड़ो के पास दिन के समय छिपी रहती है | तथा रात्रि के समय सक्रीय रहकर हानि करती है | सूंडी पौधों की पत्तियाँ खाती है तथा उसमे केवल मोटी शिराये ही बचती है |बाली निकलने की अवस्था में यह बाली के सूकर(आन्स)को काटकर खाती है |
2.भूरी मकड़ी
भूरी मकड़ी असिंचित गेहूं पर दिसम्बर से फरवरी माह तक सक्रीय रहती है | इसका व्यस्क भूरे रंग का चमकदार तथा चार जोड़ी पैरो वाला होता है | इसकी लम्बाई 0.5 मि. मी. एवं चौड़ाई 0.4 मि. मी. होती है | शिशु व्यस्क के समान नहीं दिखाई देते परन्तु आकार में छोटे होते है |
इसके शिशु एवं व्यस्क दोनों ही पत्त्तियों से रस चूसकर हानि पहुँचाते है | ग्रसित पौधों की पत्तियाँ अग्र भाग से सूखना प्रारंभ करती है | यह पौधे की निचली पत्तियों को अपेक्षाकृत अधिक हानि पहुँचाती है | अधिक प्रकोप होने पर पौधे पीले पड़कर सूखने लगते है | जैसा की पानी की कमी होने पर दिखाई पड़ते है |
3.फुदका
व्यस्क फुदका 2 मि. मी. लम्बा नीले हरे रंग का होता है तथा शिशु हरे रंग का पंखहीन होता है |
इसके शिशु एवं व्यस्क दोनों ही पत्तियों का रस चूसकर हानि पहुँचाते है | इससे सर्वाधिक हानि असिंचिंत फसल की प्रारंभिक अवस्था में प्रकोप आने पर होती है | प्रकोप की अधिकता में पत्तियाँ पीली पड़कर सूखने लगती है |
नियंत्रण
- फौजी कीट के लिए घास के छोटे छोटे ढेरो को खेत में जगह जगह रख कर इल्लियों को एकत्र कर नष्ट करें | प्रकोप की अधिकता में कवीनालफास 25 ई. सी. 750 मि. ली. / हेक्टेयर के हिसाब से छिडकाव या कवीनालफास 1.5 प्रतिशत चूर्ण 25 किलो / हेक्टेयर की दर से भुरकाव शाम के समय करें |
- भूरी मकड़ी के नियंत्रण के लिए फारमोथियान 25 ई. सी. का ६५० मि. ली. प्रति हेक्टेयर या मिथाइल डेमेटान 25 ई. सी. 650 मि. ली. / हेक्टेयर की दर से छिडकाव करें |
(द) अन्य पीड़क
1.चूहा
इसकी चार प्रजातियाँ नुकसान पहुँचाती है | इनका प्रयोग जनवरी से मार्च – अप्रेल तक अधिक रहता है | फसल के पकने पर ये बालियों को काट कर अपनर बिलों में संग्रहित कर लेते है, जिससे नुकसान कई गुना बढ़ जाता है |
नियंत्रण
खेत में चूहों के जीवित बिलों में जिंक फास्फाइड (2:97:9 दवा, आटा, तेल) की चुग्गा डाले या उपचारित लाई या धानी खेत में बिलों के पास डालें | इसके पूर्व अनुपचारित लाई डालकर चूहों को लपकाने से प्रभावी नियंत्रण होता है |
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