गन्ने के रोग इस प्रकार है:-
१.लाल सड़न
लक्षण
1. गन्ना लाल सड़न रोग कोलेटोट्रायकम फाल्केटम नामक फफूंद द्वारा होता है ।
2.प्रभावित पौधों की तीसरी और चैथी पत्तियाँ पीली पड़कर सूखने लगती हैं । गन्नों की गांठों तथा छिलके पर फफूंदी के बीजाणु विकसित हो जाते हैं ।
3. लाल सड़न से ग्रसित गन्नों को फाड़ने पर इसके आन्तरिक उत्तकों पर लाल रंग के बीच में सफेद रंग के धब्बे प्रतीत होते हैं गन्नों का पूरा गूद्दा लाल भूरे फफूंद के धागों से भर जाता है । सूंघने पर अल्कोहल जैसी गन्ध आती है ।
प्रबंधन
लाल सड़न रोग जिसे गन्ने का कैंसर भी कहा जाता है, इसके नियंत्रण की कोई प्रभावषाली विधि उपलब्ध नहीं है । लाल सड़न रो का नियंत्रण समेकित रोग प्रबंधन विधियों द्वारा किया जा सकता है जो निम्नलिखित हैं:
1. लाल सड़न रोग से गन्ने की अवरोधी किस्मों जैसे को0 89003, को098014, को0 0118, को0 0238, को0
0239 एवं को0 0124 आदि की खेती करें ।
2. इस बीमारी का प्रसार ग्रस्त बीजों के माध्यम से होता है, इसलिए बीमारी मुक्त खेत से बीज का चयन करें । यदि किसी बीज टुकड़े की आँखों तथा दोनों शिराओं में लाली हो तो ऐसे बीज की बिजाई ना करें ।
3.बीज के लिए उपयुक्त गन्ने को नम गर्म शोधन मशीन से 54 डिग्री से0 पर 1 घण्टा तक उपचारित करें ।
4. बीज गन्ना को कार्बेन्ड़ाजिम 1 ग्राम प्रति ली0 के घोल में बीज शोधन कर फिर बिजाई करें ।
5. रोग ग्रस्त फसल की पेड़ी ना रखें ।
6. गन्ना के बाद धान तथा हरी खाद का फसल चक्र अपनाएं ।
7. वर्षा के मौसम में बीमारी का प्रसार तेजी से होता है इसलिए रोग ग्रस्त फसल के खेतों की मेड़ बन्दी करें ।
8. रोग ग्रस्त गन्ने के झूडों को खेत से निकालकर 0.1ः कार्बेन्ड़ाजिम का घोल डालें ।
२.गन्ने का उकठा रोग
लक्ष्ण
1. उकठा रोग फफूंदी द्वारा विकसित होता है ।
2. इस रोग के बीजाणु गन्ने में होने वाले किसी प्रकार की क्षति जैसे जड़ छिद्रक, दीमक, सूत्रकृमि आदि जैविक तथा अजैविक कारणों जैसे सूखे की स्थिति, जल भराव आदि माध्यमों से इस रोग का संक्रमण बढ़ता है ।
3. इस रोग के लक्षण मानसून तथा मानसून के बाद परिलक्षित होते हैं ।
4. ग्रस्त गन्नों के आंतरिक उत्तकों में लालिमायुक्त भूरे स्थान बन जाते हैं ।
5. पौधे के गोब की पत्तियाँ पीली पड़कर ढीली हो जाती हैं और सूख जाती हैं ।
6. रोग ग्रस्त गन्नों की बढ़वार रूक जाती है तथा गन्नों की पोरियां सिकुड़ जाती हैं ।
7. गन्ने हल्के हो जाते हैं तथा फाड़कर निरीक्षण करने पर आन्तरिक भाग खोखले हो जाते हैं जो नोकाकार प्रतीत होते हैं ।
8. ग्रस्त गन्नों में अंकुरण की क्षमता समाप्त हो जाती है, उपज तथा चीनी के परते में काफी कमी आ जाती है ।
प्रबंधन
1. रोग ग्रस्त गन्नों का बीज रूप् में प्रयोग न करें ।
2. बीज गन्ने का शोधन कार्बेन्डाजिम (0.2ः) बोरिक एसिड (0.2ः) या बोरिक एसिड (0.2ः) ट्रायकोग्रामा विरिडी के घोल में 10 मिनट तक करके बिजाई करने से इस बीमारी की रोकथाम की जाती है ।
3. गन्ने की बिजाई के समय खूड़ों में बिछाए गये बीज टुकड़ों पर क्लोरपायरीफाॅस 20 ई0सी0 की 2 ली0 या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 प्रतिशत कीटनाशी की 500 मि0ली0 मात्रा प्रति एकड़ का 350-400 ली0 पानी में घोल बनाकर हजारे की सहायता से गिराकर मिट्टी से ढक दें ।
4. जून माह के आखिरी सप्ताह में फ्यूराडाॅन 3 प्रतिशत दानेदार कीटनाशी की 13 कि0ग्रा0 मात्रा/एकड़ की दर से और नीम केक 1.5-2.0 कु0 प्रति एकड़ की दर से डालकर मिट्टी चढ़ा देने से इस रोग का प्रकोप कम होता है ।
5. अगस्त माह के पहले सप्ताह में क्विनलफाॅस 25 ई0सी0 की 2 ली0 प्रति एकड़ के घोल का पौधों की जड़ के पास हजारे की सहायता से छिड़काव करें । जड़ छिद्रक कीट की रोकथाम कर बीमारी के प्रसार को कम किया जा सकता है ।
6. सूखे की दशा में जड़ छिद्रक का प्रकोप बढ़ जाता है अतः, मई-जून के महीनें में लगातार सिंचाई करनी चाहिए ।
7. गन्ना के साथ प्याज, लहसुन तथा धनिया की अन्तः फसल लेने से इस रोग का प्रकोप कम होता है ।
8. धान-गन्ना का फसल चक्र भी इस रोग के बीजाणु को पनपने नहीं देता है ।
३.कंडुवा
1. उत्तरी भारत में कंडुवा गन्ने की पेड़ी फसल का एक गौण रोग है ।
2. इस रोग से ग्रस्त पौधों की गोब से चाबुक समान संरचना निकलती है जिसमें काले रंग के बीजाणु चाँदी रंग की झिल्ली में भरे होते हैं ।
3. ग्रसित पौधों से कल्लों का फुटाव हो जाता है जो बौने रह जाते हैं ।
प्रबंधन
1. इस रोग से अवरोधी गन्ना किस्मों की खेती करें तथा रोगग्रस्त फसल से बीज नहीं लें ।
2. गन्नों में बने चाबुक को दिखाई देते ही काटकर नष्ट कर दें अन्यथा इसमें उपस्थित बीजाणु उड़कर अन्य पौधों को भी सवंमित कर देने में सफल हो जाएंगे ।
3.बीज गन्ना को 50 डिग्री से0 नम गर्म शोधन मशीन में 1 घण्टे तक रखने के उपरान्त बेलेटाॅन 0.1ः से बीज शोधन कर बिजाई करें ।
४.पोक्हा बोईंग
1. यह गन्ने की एक गौण बीमारी है जो वायुजनित फफूंद से प्रसारित होती है ।
2. इस रोग का लक्षण जून-जुलाई माह में होता है । रोग ग्रस्त पौधों के गोब की ऊपरी पत्तीयाँ आपस में उलझी हुई होती हैं, जो बाद की अवस्था में किनारे से कटती जाती हैं और गन्ने की गोब पतली लम्बी हो जाती है तथा छोटी-2 एक या दो पत्तीयाँ ही लगी होती हैं ।
3. अन्त में गन्ने की गोब की बढ़वार वाला अग्र भाग मर जाता है और सड़ने जैसे गंध आती है ।
4. अग्रभाग के सड़ जाने के उपरान्त अगल-बगल की आँख में फुटाव हो जाता है ।
प्रबंधन
1. पोक्हा बोईंग से रोकथाम उससे असरोधी किस्मों की खेती द्वारा किया जा सकता है ।
2. इस बीमारी के लक्षण परिलक्षित होने पर कार्बेन्ड़ाजिम (1 ग्राम/ली0 पानी) या काॅपर आॅक्सीक्लोराइड (2 ग्राम/ली0 पानी) या मैंकोंजेब (3 ग्राम/ली0 पानी) के साथ फसल पर छिड़काव कर इस बीमारी के विस्तार को कम किया जा सकता है ।
विषाणु और फायटोप्लाजमा जनित रोग
1.गन्ना मोजैक
1. यह बीमारी मिषाणु और फायटोप्लाजमा के द्वारा होती है तथा सवंमित बीजों द्वारा इसका प्रसार होता है ।
2. इस रोग से ग्रस्त पौधों की पत्तियों पर हल्के रंग के चकते प्रतीत होते हैं ।
2.घसैला रोग
1. गन्ने का घसैला रोग घसैला रोग फायटोप्लाजमा जनित है तथा सवंमित बीज से फैलता है ।
2. इस रोग से ग्रसित पौधों में कल्लों का फुटाव बड़ा ही घना सफेद कागजी पत्तियों के साथ होता है ।
3. इससे ग्रस्त गन्ने की पोरियाँ छोटी रह जाती हैं । जिनसे मिल योग्य गन्नों का निर्माण नहीं होता है ।
3.गन्ने का पीत पत्र रोग
1. यह बीमारी विषाणु जनित है तथा सवंमित बीजों तथा माॅहू द्वारा फैलती है ।
2. इस रोग से ग्रस्त पौधों की मध्य नाड़ी पीली रंगहीन प्रतीत होती है तथा पत्तियाँ अग्रभाग से मध्यनाड़ी के सामानन्तर सूखती चली जाती है ।
प्रबंधन
उपेक्षित फसल तथा तीन-टायर बीज नर्सरी (प्राथमिक बीज नर्सरी, दूसरे क्रम की बीज नर्सरी एवं व्यवसायिक बीज नर्सरी) कार्यक्रम को ना अपनाने पर इसका प्रकोप होता है । इसको नियंत्रित करने के लिए कोई रोगनाशी रसायन उपलब्ध नहीं है, फिर भी इसके प्रसार को निम्न विधियों द्वारा रोका जा सकता है ।
1. खेत में पाये जाने वाले ग्रसित पौधों को नष्ट कर दें ।
2. रोग ग्रस्त फसल से पेड़ी ना लें ।
3. तीन-टायर बीज नर्सरी कार्यक्रम अपनायें ।
4. खेत में पाये जाने वाले ग्रसित पौधों को नष्ट कर दें ।
Source-
- गन्ना प्रजनन संस्थान