गन्ना फसल के कीट रोग एवं नियंत्रण
भारत वर्ष गन्ने की मातृभूमि हैं। वर्तमान में हमारे देश में इसकी पहचान एक औद्योगिक नगद फसल के रूप् में हैं। विश्व के अन्य देशो की तुलना में हमारे देश में इसकी प्रति हेक्टेयर उपज काफी कम हैं। इस कम उपज के अनेक कारणों में, गन्ने को हानि पहँचाने वाले रोग व कीटों का प्रमुख स्थान हैं।
प्रमुख रोग के लक्षण एवं नियंत्रण( Sugarcane disease symptoms and control )
गन्ना हमारे देश के गुड़ और शक्कर उत्पादन का आधार हैं। इस फसल के भरपूर उत्पादन की प्रमुख समस्याओं में इनमें लगने वाले रोग प्रमुख हैं। गन्ने के रोग केवल उपज को कम करते हैं बल्कि गुड़ और शक्कर की मात्रा को भी प्रभावित करते हैं।
गन्ने के रोग फफूंद, विषाणु, मायकोप्लाजमा, परजीवी और पोषक तत्वों की कमीं से होते हैं।
(अ) फफूंद जनित रोग
1. लाल सड़न (रेड राट)
प्रायः यह रोग जुलाई माह में आरंभ होता हैं। पत्तियों की मध्य शिराओ और तने पर रोग के प्रमुख लक्षण दिखाई देते हैं। आरंभ में पौधे के उपर से तीसरी या चैथी पत्ती किनारों से पीली पड़कर सूखने लगती है और अंत में सूखकर गिर जाती है। रोगग्रस्त गूदे का रंग मटमैला हो जाता है और उससे दुर्गंध आती हैं। पत्तियों की मध्य शिराओं पर लाल धब्बे बन जाते हैं और कहीं-कहीं पर काली बिंदिया दिखाई देती हैं।
2. उकटा (बिल्ट)
इस रोग के प्रमुख लक्षण वर्षा ऋतु के अंत में दिखाई देते हैं। पौधे की बाढ़ रूक जाती हैं। पत्तियाँ पीली पड़कर सूखने लगती हैं। इस रोग से प्रभावित गन्ने का गूदा भी लाल हो जाता हैं। लेकिन लाल सड़न के समान इसमें आड़ी सफेद पट्टियाँ नही बनती । गन्ने खोखले हो जाते हैं। इस रोग का प्रकोप लाल सड़न के साथ-साथ अक्सर दिखाई देता हैं।
3. कटुआ (स्मट)
इस रोग का प्रमुख लक्षण यह है कि गन्ने के सिरे से लंबी टेढ़ी (चाबुक के समान) काली डंडी निकलती हैं। पहले यह डंडी एक झिल्ली से ढंकी रहती है जो कि शीघ्र ही फट जाती है और फफूंद के बीजाणु काले पाउडर के रूप में डंडी के उपर दिखाई देते हैं। हवा के द्वारा ये बीजाणु स्वस्थ पौधों पर आसानी से पहुँच जाते हैं। इस रोग के लक्षण वर्ष में दो बार प्रमुख रूप से दिखाई देते हैं। पहला मई-जून और दूसरा अक्टूबर-नवम्बर में। संक्रमित गन्ने पतले, घास की तरह दिखाई देते हैं। ऐसे गन्नों में रस कम बनता हैं।
(ब) विषाणु और मायकोप्लाजमा जनित रोग
1. मोजेक
इस रोग के प्रमुख लक्षण पत्तियों पर गहरे हरे और पीले धब्बों के मिश्रण के रूप में दिखाई देते हैं जिसे मोजेक कहते हैं। रोग के लक्षण बोनी के लगभग 45 दिन बाद दिखाई देते है। यह रोग विषाणु द्वारा फैलता हैं।
2. पेढ़ी का बौनापन (रेटून स्टंटिंग)
इस रोग के कारण पौधों की बाढ़ रूक जाती है जिससे पौधे बौने हो जाते हैं। यह रोग प्रमुख रूप से पेढ़ी की फसल में अधिक होता हैं। संक्रमित गन्नों की गठानों के पास का गूदा हल्का गुलाबी रंग का दिखाई देता हैं। यह रोग भी विषाणु द्वारा होता हैं।
3. घासी प्ररोह (ग्रासी शूट)
इस रोग में अनेक पतली शाखाये एक ही जगह से निकलती दिखाई देती हैं जो कि घास के समान रहती हैं। ऐसी स्थिति में एक भी गन्ना सामान्य रूप से ही बन पाता हैं। यह रोग मायकोप्लाजमा द्वारा होता हैं।
(स) परजीवी अगिया (स्ट्राइगा)
अगिया अर्ध-जड़ परजीवी पौधा है जो कि गन्ने की जड़ों से निकलता दिखाई देता हैं और गन्ने के पोषक तत्वों को खुद के विकास के लिये जड़ो से खींच लेता है जिससे गन्ने बहुत कमजोर पड़ जाते हैं और उनकी बाढ़ रूक जाती हैं। ये परजीवी पौधे गन्ने के आसपास निकलते दिखाई देते हैं जो कि लगभग एक फुट ऊँचे होते हैं। इन परजीवी पौधों में फूल लगते हैं जिन्हे आसानी से पहचाना जा सकता हैं।
(द) पोषक तत्वों की कमीं
भूमि में पोषक तत्वों की कमी से गन्ने के पौधों का विकास आरंभ से ही असामान्य हो जाता हैं। गन्ने में जिन पोषक तत्वों की कमीं विशेष रूप से देखी जाती है वे है – नत्रजन, फास्फोरस, लोहा, बोरान, ताँबा और मेंगजीन। लोहा की कमीं प्रायः हर गन्ने के खेत में नजर आती हैं इस तत्व की कमी होने पर नई पत्तियों की शिराओ के बीच का भाग पीला पड़ जाता हैं जिससे पीली और हरी धारियाँ बन जाती हैं। अंत में संपूर्ण पत्ती पीली पड़ जाती हैं। जिससे उपज कम होती हैं।
नियंत्रण के उपाय
1. स्वस्थ बीज का उपयोग
चूँकि गन्ने के अधिकांश रोग बीज-जनित होते हैं इसलिये स्वस्थ, रोगरहित अर्थात प्रमाणित बीज बोना चाहिये। फफूंद, विषाणु और मायकोप्लाज्मा जनित रोगों के नियंत्रण का यह सर्वोत्तम उपाय हैं।
2. निम्न विधि द्वारा बीजोपचार करके ही फसल की बोनी करें।
(अ) गर्म और नम हवा द्वारा
समस्त बीज जनित रोग जो कि फफूंद, विषाणु और मायकोप्लाजमा द्वारा होते हैं उन्हे गर्म और नम हवा द्वारा पूर्णतः नियंत्रित किया जा सकता हैं। गर्म-नम हवा के टुकड़ों को उपचारित करने के लिये उन्हें गर्म – नम हवा संयंत्र में 45 अंश सेन्टीग्रेट तापक्रम पर 4 घंटे रखा जाता हैं। इसके बाद, उपचारित बीज को सामान्य तापक्रम पर ठंडा किया जाता हैं। गर्म और नम हवा द्वारा उपचारित बीज को बाद में फफूंदनाशक से उपचारित करना आवश्यक रहता हैं। गर्म – नम हवा से उपचारित बीज, गन्ना अनुसंधान केन्द्र, पवारखेड़ा, जावरा और बागवाई से प्राप्त किया जा सकता हैं।
(ब) फफूंद नाशक द्वारा
बोने से पूर्व गन्ने के बीज को फफूंदनाशक जैसे थायरम (5 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से) घोल में 5 मिनिट तक डुबाकर रखें । अन्य फफूंदनाशक जैसे बेविस्टिन, केप्टान या डायथेन एम-45 (3 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से उपयोग में ला सकते हैं)।
(स) रोग निरोधक जातियाँ
फफूंद जनित रोगों के नियंत्रण के लिये क्षेत्र विशेष के लिये अनुशंसित निराधक जातियाँ लगायें।
(द) समन्वित उपाय –
फफूंद, विषाणू और मायकोप्लाजमा जनित रोगों के नियंत्रण के लिये कुछ और भी आवश्यक उपाय हैं जिन्हें अपनाना चाहिये जैसे –
- रोगग्रस्त पौधों को निकाल कर जलाकर नष्ट कर दें। यह उपाय कंडवा के लिये अत्यंत आवश्यक हैं।
- तीन-वर्षीय फसल चक्र अपनायें।
- रोगीले खेत का पानी बहकर स्वस्थ खेत में न जाने दें।
- जहाँ तक हो सके पेढ़ी (रेटून) की फसल न लें।
- फसल की कटाई के तुरंत बाद फसल के अवशेशों को जला डालें।
अगिता परजीवी का नियंत्रण
परजीवी पौधों में फूल आने के पहले उन्हे निंदाई कर खेत से निकाल देना चाहिये। अधिक क्षेत्र में परजीवी पौधे हों तो उन्हे खरपतवारनाशक के छिडकाव से समाप्त कर सकते हैं जैसे – 2,4 डी. (400 से 1000 ग्राम प्रति हेक्टेयर के लिये 700-800 लीटर पानी) का घोल पर्याप्त होता हैं।
पोषक तत्वों की कमी का निदान
फसल में पीलापन समाप्त करने केे लिये फसल में 2 प्रतिशत आयरन सल्फेट और 1 प्रतिशत बुझे हुये चूने के मिश्रण का छिड़काव 2-3 बार करें। या आयरन सल्फेट + मेगनीज सल्फेट + जिंक सल्फेट (0.2 प्रतिशत प्रत्येक) $ यूरिया (0.4 प्रतिशत) मिश्रण का छिड़काव रोगग्रस्त पौधों पर 7 दिन के अंतर से तीन बार करें।
गन्ने के प्रमुख कीट ( Insects of Sugarcane )
इस फसल के करीब 68 प्रतिशत पौधे अपने जीवन चक्र में किसी न किसी कीट द्वारा प्रकोपित होते पाये गए हैं। अकेले कीट ब्याधियों से इसकी 18.7 प्रतिशत उपज कम होती पायी गयी हैं। साथ ही हर वर्ष गन्ने से प्राप्त होने वाली शक्कर में लगभग 2.26 प्रतिशत तक की कमीं कीट प्रकोप के कारण होती हैं। गन्ना फसल में होने वाले कीड़ों के नुकसान से देश को प्रति वर्ष करीब 300 करोड़ रूपयों की हानि उठानी पड़ती हैं।
भारत में गन्ने की फसल को 170 विभिन्न प्रकार के कीट नुकसान पहुँचाते पाये गए हैं। जिसमें से करीब 32 कीट आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। हमारे प्रदेश में आर्थिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण कीट दीमक, अग्र तना वेधक, शीर्ष तना वेधक, फुदका, पपड़ी कीट, छोटा गुलाबी मतकुण्ड, चेपा एवं सफेद मक्खी है, उनका जीवन चक्र, हानि पहँचाने की अवस्था व तरीकों का विवरण तथा नियंत्रण के उपाय दिये जा रहे हैं।
1. दीमक
इस कीट का प्रकोप हल्की जमीन एवं जहाँ सिंचाई के पर्याप्त साधन नही हैं वहाँ पर अधिक होता हैं। यह कीट जमीन के अंदर एवं बाहर गन्ने की गठानों, जड़ों, आँखों इत्यादि को खाकर समूचे पौधे को नष्ट कर देता हैं। इसकी पहचान जमीन पर बने इसके घर जो दूर से ही दिखाई देते हैं तथा आक्रमण पर फसल मुरझाई पौधा सूख जाता है जिसे आसानी से उखाड़ा जा सकता हैं।
2. अग्रतना छेदक
यह कीट फसल की छोटी अवस्था में नुकसान अधिक पहँचाता हैं। इल्ली तने में छेदकर ऊपर की ओर सरंग बनाकर खाती है जिससे ऊपर का भाग सूख जाता हैं जिसे हम मृत देह या डेड हार्ट कहते हैं, इस डेड हार्ट को आसानी से खींचा जा सकता हैं।
3. शिरा छेदक
इस छेदक का प्रकोप तो साल भर रहता हैं। इस कीट की 5-6 संततियाँ होती हैं। इल्ली गन्ने की ऊपरी भाग की पोई को लपेट कर अंदर घुस जाती है एवं पहले पत्तों को काटकर उसमें बहुत छेद बनाती हुई तने के उपरी भाग से प्रवेश करती हुई नीचे की ओर सुरंग बनाकर खाती हैं जिससे उपर की पोई सूख जाती है जिसे हार्ट कहते हैं। इसके डेड हार्ट को आसानी से नही खींचा जा सकता हैं। इल्ली जहाँ तक सुुरंग बनाती हैं वहाँ से बहुत से कल्ले निकलते हैं जिसे बन्ची टाप कहते हैं परंतु इन कल्लों से गन्ने नही बन पाते हैं यही इस कीट के प्रकोप की मुख्य पहचान हैं।
4. जड़ छेदक
जड़ छेदक कीट मध्यप्रदेश में मई एवं जून के महीनों से अधिक नुकसान पहुँचाता हैं। पूर्ण विकसित इल्ली पीले-सफेद रंग की एवं सिरा भूरे रंग का होता हैं। पौधों की जड़ो को काट देता हैं जिससे उपर डेड हार्ट बनता है जिसे आसानी से नही खींचा जा सकता। प्रकोप से गन्ने नीचे की ओर गिर जाते हैं जिससे काफी नुकसान होता हैं।
5. गन्ने की फुदका (पायरिल्ला)
इस कीट को इसकी नुकीली चोंच के कारण आसानी से पहचाना जा सकता हैं। इसके अंडे पत्तियों की निचली सतह पर झुंड में सफेद रोमों से ढंके रहते हैं। ग्रसित फसल की पत्तियाँ पीली पड़ने लगती हैं चूँकि इस कीट के शिशु एवं वयस्कों द्वारा इनका रस चूस लिया गया होता है। पीली पत्तियों से कभी कभी कृषको को ऐसा भ्रम हो जाता है कि फसल में किन्हीं पोषक तत्वों की कमीं है परंतु ऐसा नही है वह पायरिल्ला कीट का प्रकोप हैं। रस चूसते समय यह कीट पत्तियों पर एक लसलसा सा पदार्थ छोड़ता है जिससे पत्तियों पर काली फफूंद उगने लगती हैं। समूचे पत्ते काले पड़ने लगते हैं पौधों में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में बाधा पड़ने लगती हैं। पत्तों पर विकसित फफूंद को खाने बहुत सी चिड़ियाँ एवं कौए फसल पर मंडराते हैं इससे भी इस कीट के प्रकोप को दूर से ही पहचाना जा सकता हैं।
6. सफेद मक्खी
यह कीट भी गन्ने की पत्तियों से रस चूसने का कार्य करता है ये पत्तों पर पीले सफेद एवं काले सफेद धब्बों के रूप् में दिखाई देते हैं। रस चूसते समय कीट भी एक चिपचिपा सा मधुस्त्राव छोड़ता है उस पर काली फफूंद का विकास हो जाता है जिससे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में बाधा पड़ती हैं। ग्रसित फसल के पत्ते काले पड़ जाते हैं। इस कीट के प्रकोप से पत्तियाँ कमजोर पड़ जाती हैं। जिन क्षेत्रों में जल निकास की उचित व्यवस्था नही होती वहाँ पर इसका प्रकोप अधिक होता है।
7. पपड़ी कीट
इस कीट के शिशु गन्ने की पोरियो में काले सफेद आवरण (पपड़ी) के पत्तों से ढंके रहते हैं एवं पोरियों से रस चूसते रहते हैं। इनके अधिक प्रकोप से कभी कभी गन्ने के रस से शक्कर एवं गुड़ नही बनता हैं। पोरियाँ काली सफेद दिखाई देती है एवं फसल पीली पड़ने लगती हैं।
8. चेपा कीट
यह कीट सेकड़ों की संख्या में गन्ने की गठानों से चिपके एवं सफेद रंग की मौमी पदार्थ से ढंके रहते हैं। पत्तियाँ सूखने लगती हैं और गाँठ के पास गड्ढे पड़ जाते हैं। जिन खेतों में इस कीट का प्रकोप होता है उन पौधों पर चीटों की संख्या अधिक दिखाई देती है। ये गन्ने के अंखुओं को सबसे अधिक नुकसान पहुँचाते हैं जिससे गन्ने की अंकुरण क्षमता कम हो जाती हैं।
कृषिगत नियंत्रण
- स्वस्थ फसल से ही बीज का चुनाव करें तथा उसे गर्म हवा संयंत्र से उपचारित करायें।
- गन्ने की बोनी अक्टूबर-नवम्बर में करें।
- कीटों के प्रकोप को सहन करने वाली उन्नत जातियाँ जैसे को सी. 671, 85004 को जवाहर – 86 – 141, सी.ओ.जे. 64 (जल्दी पकने वाली), को.सी. 91061 एवं को 86032, को. 6507, मध्य अवधि वाली जातियाँ लगाना चाहिये।
- दो से तीन आँख वाले टुकड़े ही लगायें।
- कतारो के बीच 90 से. मी. का अंतर आठ से दस कतारों बाद एक मीटर का अंतर छोड़कर खेत को प्लाटों में बाँट लें।
- उर्वरकों का संतुलित मात्रा में उपयोग करें।
- गन्ने में दो बार मिट्टी अवश्य चढावें।
- फसल चक्र अवश्य अपनावें।
- गन्ने की बोनी से पहले जल निकासी का उत्तम प्रब्रध करें।
- गन्ने की कटाई एक तरफ से तथा गहरी करें।
- खेत की गहरी जुताई करें तथा ठूठों को एकत्रित कर आग लगा दें।
- जुलाई माह से निचली वाली सूखी पत्तियाँ निकालकर जला दें।
- कीटों से अधिक ग्रसित फसल की जड़ी नही लेना चाहिये ।
- खेतों के आस-पास की सफाई करें।
- जड़ी प्रबंध अपनावें।
यांत्रिक एवं भौतिक नियंत्रण
- फसल का नियमित निरीक्षण कर बेधकों के डेड हार्ट को निकालकर उपर से तार डालकर इल्लियों को नष्ट कर दें।
- पायरिल्ला कीट के अंडों को खुरचकर, शिशु एवं वयस्क को जाली से पकड़कर नष्ट कर दें तथा सूखे हुये पत्तों को नियमित रूप से निकालते रहे एवं उन्हे जला दें।
- दीमकों के घरों को खोदकर नष्ट कर दें, वैसे यह कार्य खेत खाली हाने पर ही कर लें तो अच्छा रहेगा।
- बेधकों की मौथ को प्रकाष प्रपंच से पकड़कर नष्ट करें। इससे कीट के प्रकोप की संभावना का पता चलता हैं।
रासायनिक नियंत्रण
बुवाई के समय
- लिन्डेन 1.3 चूर्ण 25-30 किलो/हेक्टेयर का भुरकाव या क्लोरोपायरीफास 20 ई.सी. 2 मि.ली./लीटर पानी केे हिसाब से नालियों में झारे से छिड़काव करें।
- एमीसान – 6 के 0.25 घोल में 500 मि.ली. मेलाथियान को मिलाकर गन्ने के टुकड़ों को 10 मिनिट तक डुबोयें एवं कपड़े से पोंछकर बुवाई करें।
बुआई के 30-45 एवं 60 दिन बाद
फोरेट 10 जी 15-20 किलो/ हेक्टेयर पौधों के पास डालें तथा सिंचाई अवश्य करें या क्विनालफास 25 ई.सी. 1 लीटर/हेक्टेयर का उचित मात्रा से पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
पपड़ी कीट
पपड़ी कीट से अधिक ग्रस्त पौधों को नष्ट कर उचित मात्रा के पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव तनों पर करें|
पायरिल्ला कीट
मिथाईल डेमेटान 25 ई.सी. या ट्राईजोफस 40 ई.सी. या मेलाथियान 50 ई.सी. या एन्डोसल्फान 35 ई.सी. 1250 मि. ली. या डायमेथोएट 30 ई.सी. 700-800 मि.ली. /हेक्टेयर का उचित मात्रा के पानी में घोल बनाकर छिड़काव अच्छी तरह से करें।
छेदकों
फोरेट 10 जी 15-20 कि./हेक्टेयर पौधों के पास डाले एवं पानी अवश्य लगावें।
बुवाई के 120-150 दिन बाद
शीर्ष तना छेदक, तना छेदक, छेदकों के लिये उपर बतलाई गई दानेदार दवा का उपयोग करें। पायरिल्ला, सफेद मक्खी, पपड़ी एवं चेपा कीट अन्य कीटों का नियंत्रण पायरिल्ला कीट के लिये बतलाये गये कीटनाशको में से किसी एक का अदल-बदल कर छिड़काव करें।
नोट
- पानी की मात्रा ज्ञात करने के लिये 5X5 मीटर फसल पर पानी का छिड़काव कर प्रति हेक्टेयर पानी की मात्रा ज्ञात करें।
- वर्षा होने की संभावना पर कीटनाशको के साथ टीपाल या सेन्डोविट (स्टिकर) 200 मि.ली. प्रति हेक्टेयर के हिसाब से मिलावें।
जैविक नियंत्रण
- परजीवी एवं परभक्षियों का संरक्षण करें।
- रासायनिकों का उपयोग कम करें।
- पायरिल्ला कीट के अंडा परजीवी (टेट्रास्टिक्स पायरिल्ली) के अंडो को काट काट कर पूरे खेत में फैलायें।
- जुलाई माह में पायरिल्ला के शिशु एवं वयस्क के परजीवी एपीरीकोनिया मेकेनेल्यूका के 8-10 लाख अंडे या 8-10 हजार संखियाँ (ककून) प्रति हेक्टेयर के हिसाब से प्रकोपित फसल पर छोड़े एवं उनकी नियमित देखभाल रखें तथा रासायनिकों का छिड़काव न करें।
- मेटाराईजियम ऐनीसोपली हरी सफेद फफूंद से ग्रसित 250 पाईरिल्ला वयस्क प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छोड़े या इस फफूंद के 10 विषाणु (स्पोर) प्रति मिली लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। इसी तरह ग्रेन्यूलोसिस विषाणु रोग के परिणाम भी संताषप्रद प्राप्त हुये हैं।
- शीर्षतना छेदक हेतु – ट्राइकोग्रामा चिलोनिस परजीवी के 1-1.5 लाख अंडे/हेक्टेयर के हिसाब से खेतों में छोड़े।
- शिरा छेदकों के प्रकोप वाले क्षेत्रों में आईसोटोपा जैविन्सिस को छोड़े एवं उन्हें संरक्षित रखें।
- पपड़ी कीट की रोकथाम हेतु – काक्सीनोलिड बीटल (लिन्डोरस लोफेन्थी) परभक्षियों के 1500 बीटल प्रति हेक्टेयर के हिसाब से प्रकोपित फसल पर छोड़ना चाहिये।
- कपास के खेतों के पास वाले गन्ने के खेतों में क्राईसोपर्ला परजीवी, कीटों के अंडो को नष्ट करता हैं।
Source-
- Jawaharlal Nehru Krishi VishwaVidhyalaya,Jabalpur (M.P.)