प्रकृति पर निर्भरता के कारण खेती सदैव ही एक चुनौतीपूर्ण कार्य रहा है, किन्तु यदि इसी प्रकृति को समझकर खेती की जाये तो इससे बड़ा वरदान मनुष्य को शायद ही ईश्वर ने दिया है । इसके विपरीत यदि प्रकृति पर काबू या भूमि को मशीन समझकर खेती की जाती है तो उसमें समस्याओं का निरंतर बढ़ना और अंत में खेती को दुष्कर या कठिन हो जाने की स्थिति पैदा हो जाती है । वर्तमान में खेती ऐसी ही समस्याओं से चुनौतीपूर्ण होती जा रही है । खेती सबके लिए भोजन का स्त्रोत है ।
अतः इसे उत्तम – खेती, मध्यम व्यापार, अधम चाकरी भीख निखादश् कहकर सर्वोत्तम कहा गया है तथा खेती व कृषक की समाज व सरकार दोनों द्वारा हर संभव सहायता की अपेक्षा की गई थी । वर्तमान मेें सरकार द्वारा खेती में सब्सिडी, सस्ते ऋण और समर्थन मूल्य आदि इसी सहायता का रूप तो हैं, किन्तु यह वास्तविक किसानों को कोई लाभ नहीं हो पा रहा है । खेती में कई प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है । हालांकि इन समस्याओं का समाधान तो सभी को मिलकर ही ढूंढना होगा । चूंकि ज्यादातर समस्याएं संसाधनों के दुरूपयोग से ही पैदा हुई हैं, जिनका कारण सही ज्ञान और अनुभव का अभाव है या यों कहिये कि भ्रमित ज्ञान ( थोडे़ समय में अधिक लाभ ) के अत्यधिक प्रचार से है । अतः एक मात्र आय के रूप में साधनों का उचित प्रयोग व सही ज्ञान को बढ़ावा देने की आवश्यकता है ।
घटती जैव विविधता
पारम्परिक खेती में कई तरह के मोटे अनाज दलहन, तिलहन आदि की खेती के साथ पशुपालन व खेत में वृक्ष आदि होने से जैव विविधता के सारे लाभ खेती में मिलते थे । हरितक्रांति में सिर्फ कुछ फसलें और उनकी भी कुछ चयनित प्रजातियों के ही लगातार प्रयोग से, पशुओं को खेती से अलग कर टेªक्टर के अधिकाधिक उपयोग से, ने केवल जैव विविधता खतरनाक स्तर तक कम हुई है, साथ ही इस कमी के कारण पोषक तत्वों के पुर्नचक्रण में बाधा, रोग-कीटों का बढ़ना, मृदा आदि सभी आदानों के लिए दूसरों पर निर्भर होना, आदि समस्यायें बढ़ रही हैं ।
जैव-विविधता की कमी का सबसे बड़ा प्रभाव आगामी वर्षों में जलवायु परिवर्तन के कारण खेती की जोखिम या उतार – चढ़ाव से उत्पादन में भारी कमी होने से महसूस होगा तथा वर्षा या तापमान के छोटे से उतार – चढ़ाव से उत्पादन भरी कमी होने की संभावना बढ़ेगी । खेती में सभी स्थानीय फसलों को फसल – चक्र में संरक्षित करना होगा । पशुपालन को खेती का अभिन्न अंग बनाना होगा । खेत में फलदार या अन्य उपयोगी वृक्षों की संख्या न्यनतम स्तर पर अवश्य बनाये रखनी होगी । मित्र कीटों व भूमि के लाभदायक सूक्ष्मजीवों एवं पक्षियों
जैसे:- ट्राइकोडर्मा, राइजोबियम, पी.एस.बी. केचुआ आदि का संरक्षण करना होगा ।
बीज शोधन एवं कीट प्रबंधन
फसलों की वृद्धि एवं विकासकाल के दौरान रोग एवं कीटों के प्रभाव में सर्वाधिक क्षति होती है । प्रायः रोग/कीट का प्रकोप समय से प्रारंभिक अवस्था में ज्ञान न होने से अत्यधिक क्षति का सामना करना पड़ता है । जैव बीज शोधक जैसे – ट्राइकोडर्मा, राइजोबियम कल्चर, एजेटोबेक्टर/एजोस्पइरिलम आदि के प्रयोग करने से जमाव में वृद्धि के साथ – साथ रोगों से बचाव होता है एवं फसलों में पोषक तत्वों का प्रबंधन भी होता है ।
स्ंविदा एवं बंटाऊ खेती से भूमि की घटती उत्पादकता
स्ंविदा खेती में किसी कंपनी के साथ अनुबंध के तहत एक या दो फसलों का ही लगातार उत्पादन किया जाता है । बंटाऊ खेती में बड़े, किसान या शहर के धनी लोग जिनकी गांवों में खेती की जमीन है वे भूमिहीन किसानों को उपज के हिस्सेदारी के आधार पर 2 – 5 वर्ष के लिए भूमि खेती के लिए दे देते हैं । कृषक का उस भूमि से कोई लगाव नहीं होता है अतः थोड़े समय में ही अधिकाधिक लाभ प्राप्त करना ही लक्ष्य होता है । इसके लिए उर्वरक, पानी, कीटनाशक का अधिकतम प्रयोग करने से ये भूमि लगभग बंजर हो जाती है । इस प्रकार संविदा खेती या बंटाऊ खेती दोनों में ही भूमि का मशीन की तरह उपयोग करने से कुछ समय तो लाभ ही लाभ मिलता है, किन्तु बाद में बंजर भूमि ही अंतिम उपाय रह जाता है ।
लखपति फसलों की खेती जैसे:- जेट्रोपा, सफेद मूसली, स्टीविया आदि की संविदा खेती भी अधूरे या भ्रमित ज्ञान, के कारण कुछ वर्षों बाद पश्चाताप का कारण बन रही है । इस बाजारवादी युग में भूमि को मशीन न समझा जाये इसके लिए सामाजिक चेतना व कानूनी उपाय तो करने ही होंगे, साथ ही व्यवसाय के लिए भ्रामक प्रचार करने वाली संस्थाओं से बचाने के लिए स्वयंसेवी संस्थाओं को कृषकों से लगातार संवाद रखना होगा ।
स्थायी जल प्रबंधन
एक तरफ संकर बीज व रासायनिक उर्वरकों के अधिक प्रयोग करने से जल की मांग बढ़ी है । दूसरी ओर नदियों, तलाबों व भू – जल स्त्रोतो में उपलब्ध जल में तेजी से कमी होती जा रही है । कई नहरी क्षेत्रोें में चांवल, गन्ना को छोड़ किसानों ने ज्वार, बाजरा आदि फसलें बोना भी शुरू कर दिया है । भूमि व कृषि की उत्पादकता जल से अधिक उपयोग से कम ही हुई है । अतः यही उचित समय है कि फसल – चक्र, जैविक खादों के प्रयोग व सिंचाई के अच्छे तरीके जैसे स्प्रिंकलर या ड्रिप ( बूंद-बूंद/टपक ) सिंचाई विधि से जल की बचत की जाये तथा वर्षाजल संरक्षण के उपाय जैसे एनीकट, कंटूरबंध, नलकूप पुर्रभरण आदि तकनीकों का अधिकाधिक प्रयोग किया जाए ।
समय से बुवाई / जुताई
फसलों की बुवाई या रोपाई समय पर करने से उत्पादकता में वृद्धि होती है । फसलें विलंब से बोये जाने के कारण उत्पादन देने में समर्थ नहीं हो पाती । जैसे धान की रोपाई जुलाई के प्रथम पक्ष में एवं गेहूँ की बुवाई नवम्बर के प्रथम पक्ष में पूर्ण कर ली जाए तो प्रजाति अपनी क्षमता के अनुरूप् उत्पादकता देती है
जोत का छोटा होना व शहरीकरण
बढ़ते परिवार या बढ़ते शहरीकरण के कारण या तो जोत का आकार छोटा हो रहा है या अच्छी कृषि भूमि विकास के नाम पर औद्योगीकरण के लिए अधिग्रहण की जा रही है । दोनों ही कारणों से लाभदायक खेती योग्य भूमि तेजी से कम हो रही है । जनसंख्या नियंत्रण के लिए सामाजिक जागरूकता पैदा करने की आवश्यकता है, साथ ही कानून या जनजाग्रति से यह तय किया जाये कि सिर्फ कृषि अयोग्य भूमि ही शहरीकरण या व्यवसाय के लिए प्रयोग की अनुमति हो ।
जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव
जलवायु परिवर्तन भी हमारे अत्यधिक प्राकृतिक संसाधनों के दोहन व दुरूप्योग से तेजी के कारण बढ़ती एक चुनौती है, जो मानव अस्तित्व को ही खतरे में डाल सकती है । खेती चूंकि खुले आसमान के नीचे होने वाला प्रकृति पर निर्भर व्यवसाय है । अतः जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले तापमान व वर्षा की अनिश्चितता का सबसे परिवर्तन असर खेती पर ही होगा । संकर बीज, उर्वरक का उपयोग इस प्रभाव को और बढ़ा देगा । स्थानीय प्रजातियों, पशुओं का संरक्षण व उनका उपयोग किया जाए ताकि अनिश्चितता का प्रभाव एकल, फसल की अपेक्षा कम हो ।
पोषक तत्व प्रबंधन
पोषक तत्व प्रबंधन मिट्टी की जांचोपरांत करना चाहिए । मिट्टी के कणों के पोषक तत्वों हेतु कार्बनिक, रासायनिक एवं जैविक उर्वरकों का संतुलित प्रयोग करना अति आवश्यक है । इसके अलावा खेत में तैयार कम्पोस्ट खाद फसलों के अवशेष, हरी खाद, हरी पत्तियों से निर्मित खाद, राइजोबियम, एजेटोबेक्टर, नील हरित शैवाल द्वारा पोषक तत्व प्रबंधन करना चाहिए ।
भण्डारण, प्रसंस्करण का अभाव
आज भी विज्ञान के इस चरमोत्कर्ष युग में 25 – 30 ,खाद्यान्न, खेत में निकलने के बाद उपभोक्ता तक पहुँचने से पहले, पुरानी तकनीकी के कारण कीट, रोग, चोट आदि के कारण नष्ट हो जाता है । जब अधिक उत्पादन होता है तो भाव घटने व भण्डारण या प्रसंस्करण की सुविधा न होने से या तो किसान खेत में गन्ना, आलू, टमाटर, प्याज आदि जला देता है या कर्जे से आत्महत्या कर लेता है । हालांकि सरकार ने उद्यानिकी मिशन, भारतीय भण्डारण निगम, नाफेड आदि के सहयोग से भण्डाराण, प्रसंस्करण की कई सुविधाऐं विकसित की हैं किन्तु इन्हें गांव – गांवव तक पहुंचाने की गति बहुत धीमी है, साधनों की कमी है । समाज – सरकार दोनो को प्रयास तेज करने की आवश्यकता है ।
स्रोत-
- जवाहरलाल नेहरू कृषि वि.वि. जबलपुर